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०१ सीता का स्वयंवर

January 11, 2018BooksHarsh Jain

सीता का स्वयंवर


कुछ क्षण विश्रांति करके राजा जनक निःशंक हो गोपुर में प्रवेश करते हैं। वहाँ जाकर देखते हैं कि चारों तरफ जहाँ-तहाँ पैâले हुए और पूâले हुए रंग-बिरंगे पुष्प अपनी मधुर सुगंधि से मन को आकृष्ट कर रहे हैं। सुन्दर-सुन्दर बावड़ियों मेें स्वच्छ शीतल जल लहरा रहा है और उसमें उतरने की सीढ़ियाँ मणि एवं स्वर्ण से निर्मित हैं। उद्यान मेंअशोक, आम्र, जामुन आदि के वृक्ष अपने पल्लवों को हिला-हिलाकर और पक्षियों के कलरव शब्दों से मानों उन्हें बुला ही रहे हैं। कुछ आगे और बढ़कर जनक महाराज देखते हैं तो उन्हें एक बहुत ही सुन्दर जिनमंदिर दिखाई देता है। वह मंदिर स्वर्ण के हजारों बड़े-बड़े खम्भों को धारण किये हुए है, मेरु के शिखर के समान जिसकी प्रभा है, जिसकी भूमि हीरे से निर्मित है और जिसमें मोतियों की जाली से सुशोभित रत्नमयी झरोखे बने हुए हैं। इस अदृष्टपूर्व मंदिर को देखकर राजा जनक मन में सोचने लगते हैं – अहो! इस मायामयी घो़ डे ने तो मेरा बहु त ही बड़ा उपकार ि कया है जो कि मु झे हरण करवे â यहाँ ऐ से पवित्र स्थान में छोड गया है। भला, वह घोड़ा कौन था? कोई मेरा पूर्व जन्म का मित्र तो नहीं था कि जिसने मुझे ऐसे अनु पम स्थान का दर्शन कराने का उपक्रम रचा हो? जो भी हो, यह तो मे रा परम सौभाग्य है कि जिससे मुझे इस जिनमंदिर का दर्श न हुआ है। ऐसा सो चते-सोचते महाराजा जनक अन्दर प्रवेश करके विधिवत् तीन प्रदक्षिणा दे कर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को पंचांग नमस्कार करते हैं। पुनः अने क संस्वृ âत स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति करके निःशंक हो वहीं पर बैठ जाते हैं। उधर चपलवेग विद्याधर मायामयी घोड़े के रूप को छोड़कर अपने भृत्य के रूप में आकर रथनूपुर के राजा चन्द्रगति को समाचार देता है कि राजन् ! आपकी आज्ञा के अनुसार मिथिलापुर के राजा जनक मेरे द्वारा लाये जाकर उद्यान के जिनमंदिर में बैठे हुए हैं। राजा चन्द्रगति अपने बहुत से सामन्त आदि को साथ में लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं। पहले श्री जिनेंद्रदेव की वन्दना करके पुनः राजा जनक से कुशल-क्षेम पूछकर परस्पर में एक दूसरे का परिचय पूछते हैं। अनन्तर परस्पर में विश्वास को प्राप्त होते हुए मधुर वार्तालाप शुरू कर देते हैं। सबसे प्रथम विद्याधरों के राजा चन्द्रगति बोलते हैं – ‘‘अहो! मैं आज बहुत ही पुण्यशाली हूँ जो कि आपका दर्शन हुआ है। हे राजन् ! मैंने बहुत से लोगों के मुख से सुना है कि आपके शुभ लक्षणों वाली सीता नाम की एक सुन्दर कन्या है, सो वह कन्या आप मेरे पुत्र भामंडल के लिए दे दीजिए। आपके साथ संबंध स्थापित कर मैं अपने आपको परम भाग्यशाली समझूँगा।’’ इसके उत्तर में राजा जनक कहते हैं – ‘‘हे विद्याधर राज! यह सब हो सकता था परन्तु मैंने तो वह कन्या राजा दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र के लिए देनी निश्चित कर ली है अतः अब तो मैं विवश…….।’’‘‘ओह!…….आपने रामचन्द्र को देने का निर्णय क्यों लिया है? उसमें ऐसी क्या विशेषता है?’’‘‘मित्र! अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी मिथिला नगरी मेंअर्धबर्बर देश के म्लेच्छों ने धावा बोल दिया था, वे धूर्त लोग टिड्डी दल के समान हमारे देश को नष्ट भ्रष्ट करने में लग गये थे। उस समय पूर्व की मित्रता के नाते मैंने अयोध्या के अधिपति श्री दशरथ महाराज के पास सहायता के लिए खबर भेजी थी। वहाँ से उसी क्षण उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण अपनी बहुत सी सेना लेकर मिथिला नगरी आये थेऔर अपने विशेष पौरुष के बल से उन म्लेच्छों को जीतकर हमें निरापद किया था। उसी उपकार के बदले में मैंने श्रीराम को अपनी पुत्री सीता देना निश्चित कर लिया है।’’ चन्द्रगति विद्याधर नरेश और उनके सामन्त अट्टहासपूर्वक हँसते हुए कहते हैं – ‘‘अहो! म्लेच्छों को जीतने मात्र से ही तुमने उन भूमिगोचरी राजपुत्रों का क्या पराक्रम देखा है? ये भूमिगोचरी लोग विद्या के माहात्म्य से रहित होते हैं अतः निरन्तर हीन- दी न दिखते हैं। इनकी शूरवीरता और सम्पत्ति का क्या माहात्म्य है? अरे जनक! बताओ तो सही, भला तुमने उनमें और पशुओं में क्या अन्तर देखा है?’’ इत्यादि प्रकार से भूमिगोचरियों की निन्दा सुनकर राजा जनक अपने दोनों कानों को हाथोें से ढक लेते हैं और बोलने लगते हैं – ‘‘हाय, हाय! बड़े कष्ट की बात है कि मैं भूमिगोचरी राजाओं की निंदा कैसे सुन रहा हूँ। क्या त्रिजगत् में प्रसिद्ध लोक को पवित्र करने वाला ऐसा श्री आदिनाथ भगवान् का वंश आप लोगों के कर्णगोचर नहीं हुआ है? हे विद्याधरों! बताओ तो सही, क्या पंचकल्याणक के स्वामी तीर्थंकर भगवान् आप विद्याधरों की भूमि में जन्म ले सकते हैं? क्या चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महापुरुष तुम्हारे वंश में जन्म लेते हैं? अहो! जिस अयोध्या आदि पवित्र भूमि में, जिन इक्ष्वाकु आदि वंशों में तीर्थंकरों का जन्म हुआ है तुम लोग उस भूमि की और उनके वंशजों की कैसे निन्दा कर रहे हो? इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य की सुमंगला महारानी की कुक्षि से दशरथ का जन्म हुआ है। इस दशरथ महाराजा के चार महादेवियाँ हैं। अपराजिता महादेवी ने ‘पद्मनाभ’ नाम के श्रीराम को जन्म दिया है, सुमित्रा से ‘लक्ष्मण’ नाम के प्रतापशाली पुत्र का जन्म हुआ हैै, वैâकेयी ने‘भरत’ पुत्र को उत्पन्न किया है और सुप्रभा देवी ने ‘शत्रुघ्न’ नाम के पुत्र को जन्म दिया है। ये चारों ही पुत्र महान् कांतिमान हैं, उस रघुकुल के तिलक हैं। मैं इन महापुरुषों की निन्दा नहीं सुन सकूंगा।’’ इस प्रकार से वार्तालाप के मध्य कुछ समस्या हल न होते देखकर राजा चन्द्रगति धीरे से उठ गये और अनेक विश्वस्त विद्याधरों से विचार-विमर्श करके वापस आकर बैठ गये। पुनः राजा चन्द्रगति बोले – ‘‘राजन् ! अधिक कहने से क्या? हमारी एक शर्त सु नो। हमारे यहाँ आयुधगृह में देवों के द्वारा सुरक्षित ऐसे दो धनुष रखे हुए हैं। एक का नाम है वङ्काावर्त और दूसरे का सागरावर्त। यदि राम और लक्ष्मण इन धनुषों को डोरी सहित करने में समर्थ हों तब तो मैं उन्हें अधिक श ि क्तशाली समझूंगा और वह आपकी सीता को प्राप्त कर सकेगा अन्यथा हम लोग जबरदस्ती आपकी कन्या का अपहरण करके यहाँ ले आयें गे।’’‘‘ठीक, ठीक! आपकी शर्त हमें मंजूर है।’’ इतना सुनते ही बहुत से सामन्त और विद्याधर उन दोनों धनुषों को साथ लेकर बहुत से विद्याधरों को साथ लेकर राजा जनक को विमान में बिठाकर मिथिलानगरी मेंआ गये। शहर के बाहर उनको ठहराकर उनके आतिथ्य सत्कार की व्यवस्था करके राजा जनक महल में पहुँचे। राजमहल में ‘राजा को मायामयी घोड़ा उड़ाकर पता नहीं कहाँ ले गया है?’ इस कारण से अशांत वातावरण बना हुआ था। महाराजा को देखते ही सबके जी में जी आया। साधारण कुशल समाचार के बाद राजा ने थोड़ा सा भोजन किया और विश्रामकक्ष में चले गये। राजा को चिन्ता निमग्न देख रानी विदेहा ने आन्तरिक स्थिति जाननी चाही तब राजा ने ज्यों की त्यों सारा वृत्तान्त सुना दिया। रानी विदेहा जोर- जोर से रुदन करने लगी और कहने लगी – ‘‘हाय-हाय! मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया था कि जो मेरे पुत्र को जन्म होते ही कोई दुष्ट बैरी हर ले गया। तब से इस सीता को देख-देखकर ही हम लोग उस बालक के दुःख को भूले हुए थे कि हाय! अब विधाता को वह भी सहन नहीं हो रहा है जब मेरी कन्या को ये विद्याधर लोग हर ले जायेंगे तब मैं वैâसे जीवित रहूँगी?…..’’ इसी बीच राजा जनक अपनी भार्या को सांत्वना देकर उठते हैं और मंत्रियों से सलाह कर स्वयंवर मण्डप बनवाकर स्वयंवर की घोषणा करा देते हैं। राजा दशरथ के पास अपना खास व्यक्ति भेजकर सपरिवार उन्हें बुला लेते हैं चूँकि विद्याधरों के द्वारा इन्हें इस कार्य के लिए मात्र बीस दिन ही दिये गये थे।
 
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