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०३. कुन्दकुन्द आदि आचार्य!

July 9, 2017जैनधर्मaadesh

३. कुन्दकुन्द आदि आचार्य


भगवान कुन्दकुन्दाचार्य

मंगलं भगावन् वीरो मंगलं गौतमो गणी।
मंगलं कुन्दकुन्दार्यों जैनधर्मोऽस्तु मंगलम्।।
श्री कुन्दकुन्द स्वामी मूलसंघ के अग्रणी आचार्य हैं, यही कारण है कि वर्तमान में मंगलहेतु वुंâदवुंâद का नाम गौतमस्वामी के अनंतर लिया जाता है। विद्वानों के निर्णयानुसार इनका जन्म दक्षिण भारत में माना गया है। ‘कोण्डकुन्दपुर’ नामक ग्राम में कर्मण्डु की पत्नी श्रीमती के गर्भ से इनका जन्म हुआ है। इनके समय के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है। ‘‘नंदीसंघ की पट्टावली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि. सं. ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक उस पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी आयु ९५ वर्ष १० महीने १५ दिन की थी।’’ ‘‘कुन्दकुन्द स्वामी की परम्परा वाले मूलसंघ को अर्हद्बलि आचार्य ने चार संघ में विभक्त किया है, ऐसा भी एक शिलालेख में कथन है।’’ तथा कुन्दकुन्द स्वामी ने अपने बोधपाहुड़ में स्वयं को भद्रबाहु का शिष्य कहकर उनका जयघोष किया है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये भद्रबाहु श्रुतकेवली के अनन्तर ही हुए हैं। यथा- ‘‘जिनेन्द्रदेव-भगवान महावीर ने अर्थरूप से जो कथन किया है, वह भाषा सूत्रों में शब्द विकार को प्राप्त हुआ-शब्दों में ग्रथित हुआ। भद्रबाहु के मुझ शिष्य ने उन भाषा सूत्रों को उसी रूप से जाना है और उसी रूप से कहा है जो द्वादश अंग के ज्ञानी हैं, चौदह पूर्वों का विपुल विस्तार करने वाले हैं। ऐसे श्रुतकेवली भद्रबाहु गमकगुरु भगवान जयवंत होवें।२’’ ‘‘नंदीसंघ की पट्टावली में भी-१. भद्रबाहु द्वितीय (४), २. गुप्तिगुप्त (२६), ३. माघनंदी (३६), ४. जिनचंद्र (४०), ५. कुन्दकुन्दाचार्य (४९), ६. उमास्वामी (१०१), इत्यादि। इसमें भी भद्रबाहु का परम्परा शिष्य कुन्दकुन्द को कहा है।१’’ ‘‘इनकी परम्परा व समय के विषय में विशेष जिज्ञासु विद्वानों की कृतियों का अवलोकन करें।२’’ इसके विषय में विदेह क्षेत्र में गमन, चारण ऋद्धि प्राप्ति, पाषाण की देवी को बुलवाना आदि कई बातें प्रसिद्ध हैं और पट्टावली में इनके पाँच नाम माने हैं, उनका भी कई जगह समर्थन है। पाँच नाम-
आचार्य: कुन्दकुन्ददाख्यो वक्रग्रीवो महामति:।
एलाचार्यों गृध्रहपिच्छ: पद्मनंदीति तन्नुति:।।
कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य, गृध्रपिच्छ और पद्मनंदि ये पाँच नाम हैं। वि. सं. ९९० में विद्यमान देवसेन आचार्य ने दर्शनसार में इनके विदेहगमन की बात कही है। यथा- ‘‘यदि पद्मनंदि स्वामी सीमंधर स्वामी के दिव्यज्ञान से सम्बोधन न प्राप्त करते तो श्रमण सुमार्ग को कैसे जानते?’’ श्री जयसेनाचार्य ने पंचास्तिकाय प्राभृत के प्रारंभ में कहा है- ‘‘जो श्री कुमारनंदि सैद्धांतिक देव के शिष्य हैं, प्रसिद्ध कथा के न्याय से पूर्वविदेह में जाकर, वीतराग, सर्वज्ञ, सीमंधरस्वामी तीर्थंकर परमदेव का दर्शन करके और उनके मुख कमल से विनिर्गत दिव्यध्वनि के श्रवण से अवधारित पदार्थ समूहों से ज्ञान को प्राप्त कर आत्मतत्त्व आदि सारभूत अर्थ को ग्रहण करके पुन: यहाँ आये हुए श्रीमान् कुन्दकुन्दाचार्य देव, जिनका अपरनाम पद्मनंदी है………..।’’ यहाँ इनके गुरु का नाम कुमारनंदी दिया है। नंदिसंघ की पट्टावली में इनके गुरु का नाम ‘जिनचन्द्र’ कहा है। यथा-‘‘मूलसंघ में नंदिसंघ हुआ, उसमें बलात्कारगण है। उसमें पूर्वपदों के अंश के ज्ञाता माघनंदी आचार्य के पट्ट पर जिनचन्द्र हुए, पुन: उनके पद पर पाँच नाम को धारण करने वाले पद्मनंदी मुनि हुए।’’ श्री श्रुतसागर सूरि ने भी षट्प्राभृत की टीका में प्रत्येक प्राभृत की समाप्ति में विदेहगमन की बात कही है। यथा-‘‘श्री पद्मनंदी कुन्दकुन्दाचार्य, वक्रीग्रीवाचार्य, ऐलाचार्य, गृद्धपिच्छाचार्य इन पाँच नामों से विराजित चतुरंगुल आकाशगामी ऋद्धिधारी, पूर्वविदेह की पुंडरीकिणी नगरी में सीमंधर स्वामी अपरनाम स्वयंप्रभजिनदेव की वंदना करने वाले, उनके द्वारा श्रुतज्ञान से भारतवर्ष के भव्यजनो को सम्बोधित करने वाले श्री जिनचन्द्र सूरि भट्टारक के पट्ट के आभरण स्वरूप और कलिकाल सर्वज्ञ’’………इत्यादि। इस प्रकार देवसेनाचार्य, जयसेनाचार्य और श्रुतसागरसूरि इन तीन आचार्यों ने श्री कुन्दकुन्ददेव के विदेहगमन की बात कही है। चारणऋद्धि के विषय में देखिए-
तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनंदी प्रथमाभिधान:।
श्री कुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्य: सत्संयमादुद्गतचारणऋद्धि:।।५।।
श्री श्रुतसागर सूरि ने षट्प्राभृत ग्रंथ के प्रत्येक पाहुड़ की टीका की समाप्ति में कहा ही है- ऐसा प्रसिद्ध है कि ‘‘श्री कुन्दकुन्दस्वामी संघ सहित यात्रा हेतु गिरनार पहुँचे। वहाँ पर श्वेताम्बर साधुओं का भी संघ पहुँचा। पहले वंदना कौन करे इस पर विवाद होने पर कुन्दकुन्ददेव ने वहाँ पर स्थित सरस्वतीदेवी की मूर्ति को मंत्र के बल पर बुलवा दिया।’’ यथा-‘‘बलात्कारगण के अग्रणी श्री पद्मनंदिगुरु हुए हैं, जिन्होंने पाषाण से निर्मित श्री सरस्वती को बुलवा दिया।’’ ‘‘जिन्होंने इस कलिकाल में ऊर्जयंत गिरि के ऊपर पाषाण से घटित ब्राह्मी देवी को बुलवा दिया। वे कुन्दकुन्दगणी हमारी रक्षा करें।’’ बहुत से प्रशस्तियों में भी श्री कुन्दकुन्द देव की ऋद्धि आदि का वर्णन आता है। यथा-
‘‘श्रीपद्मनंदीत्यनवद्यानामा ह्याचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्द:।
द्वितीयमासीदभिधानमुद्यच्चारित्रसंजातसुचारणद्र्धि:४।।४।।’’
‘‘वंद्यो विभुर्भुवि न वैरिह कौण्डकुन्द: कुन्दप्रभाप्रणयिकीर्तिविभूषिताश:।।
यश्चारुचारणकराम्बुजचंचरीकश्चव्रे श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम्५।।५।।’’
‘‘श्री कोण्डकुंदादिमुनीश्वराख्यस्संयमादुद्गतचाणद्र्धि:६।।४।।’’
‘‘तद्वंशाकाशदिनमणिसीमंधरवचनामृत- संतुष्टचित्तश्रीकुन्दकुन्दाचार्याणाम्७।।५।।’’
‘‘तत्पट्टोदयाद्रिदिवाकरश्रीएलाचार्यगृघ्रपिच्छ- वक्रग्रीवपद्मनंदिकुन्दकुन्दाचार्यवर्याणाम्८।।२।।
इस सब प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि कुन्दकुन्द स्वामी महान् तपस्वी, गणनायक और मंत्रों के विशेष ज्ञाता थे तथा विदेहक्षेत्र में जाकर सीमंधर भगवान का साक्षात् दर्शन करके आये थे।
शंका – चन्द्रगुप्त के स्वप्न के फल में पंचम काल में ऋद्धिधारी के आने का निषेध है-यथा- ‘‘देवताओं के विमान को वापस जाता हुआ देखने से पंचमकाल में देवता विद्याधर तथा चारणमुनि नहीं आवेंगे।’’
समाधान – इस कथन से ऋद्धि होने का सर्वथा निषेध नहीं है। अत: पंचमकाल के प्रारंभ में श्री कुन्दकुन्ददेव को चारण ऋद्धि मानना बाधित नहीं है। इन महिमाशाली आचार्य की अनेकों रचनाएँ आज हमें सर्वज्ञ भगवान के वचनों का अमृतपान करा रही हैं। चूँकि वीरसेन विद्यानंद आदि आचार्यों ने सूत्रकारों को सर्वज्ञवचन तुल्य प्रमाणीक कहा है। श्री कुन्दकुन्द की रचनाएँ-चौरासी पाहुड़२, षट्खण्डागम टीका, दशभक्ति , अष्टपाहुड़, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, रयणसार, बारसअणुपेक्खा, समयसार, मूलाचार और कुरलकाव्य। मूलाचार को कुछ विद्वान् कुन्दकुन्द की कृति नहीं मानते हैं। किन्तु कुछ विद्वानों ने इसके बारे में प्रमाण प्रस्तुत किये हैं- ‘‘मूलाचार की एक टीका श्री मेघचन्द्राचार्य कृत ‘‘मुनिजनचिन्तामणि’’ नाम की है जो कि कर्नाटक भाषा में है। जिसमें प्रत्येक अध्याय की समाप्ति में इसे ‘‘श्री कुन्दकुन्दचार्य कृत’ लिखा है तथा कर्नाटकटीका के प्रारंभ में भी श्लोक के अनन्तर गद्य में ‘‘कोण्डकुन्दाचार्य’ नाम दिया है।’’ ‘‘दूसरी टीका संस्कृत में है जो कि सिद्धान्तचक्रवर्ती श्री वसुनन्दि आचार्य द्वारा बनाई हुई है।’’ इसके प्रारंभ में टीकाकार ने ‘श्रीवट्टकेराचार्य:’ ऐसा कहा है और टीका के अंत में ‘‘इति मूलाचारविवृतौ द्वादशोऽध्याय:। कुन्दकुन्दचार्यप्रणीत-मूलाचाराख्यविवृत्ति:। कृतिरियं वसुनन्दिन: श्रीश्रमणस्य।’’ ऐसा उल्लेख है अत: इन्हीं कुन्दकुन्दचार्य को ही ‘वट्टकेराचार्य’ नाम से वसुनन्दि आचार्य ने कहा है ऐसा स्पष्ट है। चूँकि इन्होंने षट्खण्डागम के तीन खण्डों पर ‘परिकर्म’ नाम कीक वृत्ति लिखी है। मालूम होता है कि इसी हेतु से इनका ‘वृत्तिकार’-वट्टकेर नाम प्रसिद्ध हो गया है। कुछ भी हो यह मूलाचार कृति श्रीकुन्दकुन्दाचार्य कृत ही है। वर्तमान युग में इन आचार्यों के ये ग्रंथ ही हम लोगों के लिए मोक्षमार्ग प्रदर्शक हैं। कहा भी है- इस कलिकाल में भरत क्षेत्र में सर्वज्ञ देव नहीं है किन्तु उनकी वाणी मौजूद है और उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाले सच्चे दिगम्बर साधु भी मौजूद हैं जो कि मोक्षमार्ग को प्रशस्त किये हुए हैं१’’

यतिवृषभाचार्य

‘‘यतिवृषभ कषायपाहुड़ की चूर्णिसूत्रों के कर्ता हैं और तिलोयपण्णत्ति के भी कर्ता हैं। अतएव इनका समय वि.सं. ५२६ से पूर्व होना सुनिश्चित है। ये आर्यमंक्षु और नागहस्ति के अन्तेवासी कहे हैं।’’ उसमें आर्यमुंक्षक का समय ई. सन् प्रथम शताब्दी और नागहस्ति का समय ई. सन् १००-१५० तक माना गया है। यही इनका समय निश्चित होता है। कुन्दकुन्द का समय विक्रम की तीसरी शताब्दी मानने वालों ने यतिवृषभ को कुन्दकुन्द से पूर्व का माना है।’’

शिवकोटि आचार्य

शिवार्य (शिवकोटि आचार्य) भगवती आराधना के कर्ता हैं। इनका समय कुछ विद्वान् उमास्वामी के पूर्व का निर्णय करते हैं।

उमास्वामी आचार्य

इन्होंने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की है। मूलसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्दाचार्य के बाद उमास्वामी ४० वर्ष ८ दिन तक नन्दिसंघ के पट्ट पर रहे हैं। श्रवणबेलगोला के ६५वें शिलालेख में इन्हें कुन्दकुन्द के पट्ट पर माना है।
तस्यान्वये भूविदिते बभूव य: पद्मनन्दिप्रथमाभिधान:।
श्रीकुन्दकुन्दादिमुनीश्वराख्य: सत्संयमादुद्गतचारणद्र्धि:।।५।।
अभूदुमास्वातिमुनीश्वरोऽसावाचार्यशब्दोत्तरगृद्धपिच्छ:।
तदन्वये तत्सदृशोऽस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी।।६।।
इन्हीं का अपरनाम गृघ्रपिच्छाचार्य भी हैं। अन्यत्र पट्टावाली में भी कहा है-‘‘श्री कुन्दकुन्द के पवित्र आम्नाय में उमास्वाति आचार्य हुए। प्राणी रक्षा में तत्पर इन्होंने गृघ्र के पंखों को धारण किया तभी से ये गृघ्रपिच्छाचार्य कहलाये हैं। इनकी परम्परा में (पट्ट पर) महद्र्धिशाली तपस्वी बलाकपिच्छ हुए हैं। इनके शरीर के संसर्ग से विषमयी हवा भी उस समय अमृत (निर्विष) हो जाती थी।’’ श्री समन्तभद्र स्वामी को श्रुतमुनि की पट्टावली में उमास्वामी के शिष्य के पट्ट पर माना है। इसके बाद श्री समंतभद्र स्वामी हुए हैं। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों से भी ज्ञात होता है कि-‘‘भद्रबाहु श्रुतकेवली के शिष्य चन्द्रगुप्त, इनके वंशज पद्मनंदि अपरनाम कुन्दकुन्द मुनिराज, इनके वंशज गृद्धपिच्छाचार्य, इनके शिष्य बलाकपिच्छाचार्य और उनके समन्तभद्र हुए।’’ ‘‘बहुत कुछ विद्वानों ने ऊहापोह करके ईसवी सन की प्रथम या द्वितीय शताब्दी में इनके होने का अनुमान किया है।’’ दक्षिण भारत के उरगपुर (उरैपुर) में चोल राजवंश के राजा के ये पुत्र थे, ऐसा एक आप्तमीमांसा प्रति के अन्न में लिखा हुआ है-‘‘इति फणिमंडलाजलंकार-स्योरगपुराधिपसूनो: श्रीस्वामिसमंतभद्रमुने: कृतौ आप्तमीमांसायाम्’’ इससे स्पष्ट है कि ये क्षत्रियवंशी थे। मुनिदीक्षा के पश्चात् इन्हें भस्मक व्याधि हो जाने से गुरु से समाधिमरण की आज्ञा माँगी किन्तु गुरु ने इन्हें भविष्णु जानकर आदेश देते हुए कहा कि ‘आपसे धर्म और साहित्य को बड़ी-बड़ी आशाएँ हैं अत: आप दीक्षा छोड़कर रोग शमन का उपाय करें। रोग दूर होने पर पुन: दीक्षा लेना। गुरु के आदेशानुसार समन्तभद्र ने नाग्न्यपद छोड़कर संन्यासी वन गये। इधर-उधर विचरण करते हुए वाराणसी में शिवकोटि राजा के भीमलिंग नामक शिवालय में जाकर शिवजी को खिलाने की बात कहते हुए कुछ दिन नैवेद्य स्वयं खाने लगे। भेद खुल जाने से राजा ने निमित्त उपसर्ग समझकर चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति प्रारंभ की, जब ये चन्द्रप्रभ स्वामी की स्तुति कर रहे थे कि भीमलिंग शिव की प्रतिमा विदीर्ण हो गई और उनमें से चन्द्रप्रभ स्वामी की मनोज्ञ स्वर्णप्रतिमा प्रगट हो गई। समन्तभद्र स्वामी के इस माहात्म्य से बहुत ही धर्म की प्रभावना हुई। श्रवणबेलगोला के एक अभिलेख में लिखा है-
‘‘वंद्यो भस्मकभस्मसात्कृतिपटु: पद्मावती देवता-
दत्तोदात्तपदस्वमंत्रवचनव्याहूतचंद्रप्रभ:।।
आचार्यस्स समन्तभद्रगणभृद्येनेह काले कलौ।
जैनं वत्र्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्तान्मुहु:२।।
जो अपने भस्मक व्याधि को दूर करने में चतुर हैं, पद्मावती नामक देवी की दिव्यशक्ति के द्वारा जिन्हें उदात्त पद की प्राप्ति हुई, जिन्होंने अपने मंत्र वचनों से चन्द्रप्रभ को प्रगट किया और जिनके द्वारा यह कल्याणकारी जैनमार्ग इस कलिकाल में भद्ररूप हुआ, वे गणनायक आचार्य समन्तभद्र बार-बार वन्दना किये जाने योग्य हैं। यह लेख शक संवत् १०२२ का है। कवि वृन्दावन भी कहते हैं-
स्वामी समंतभद्रमुनिवर सों शिवकोटी हठ कियो अपार।
वंदन करो शंभुपिंडी को तब गुरु रच्यो स्वयंभू भार।।
वंदन करत पिंडिका फाटी१ प्रगट भये जिनचंद्र उदार।
सो गुरुदेव बसो उर मेरे बिघन हरण मंगल करतार।।२।।
समंतभद्र स्वामी की रचनाएँ-बृहत्स्वयंभूस्तोत्र, स्तुतिविद्या, देवागमस्तोत्र-आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, रत्नकरंडश्रावकाचार, जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृतव्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृत टीका और गंधहस्तिमहाभाष्य। इनमें बृहत्स्वयंभू स्तोत्र का चमत्कार तो प्रसिद्ध ही है। स्तुतिविद्या, चित्रालंकार रूप है और देवागम तो अपने आप में एक विशेष ही महत्त्वपूर्ण कृति है। उमास्वामी आचार्य के तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण-
‘मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्। ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वंदे ततद्गुणलब्ध्ये।।’
इस श्लोक के ऊपर ११४ कारिकाओं में आप्त की मीमांसा-समीक्षा करते हुए सच्चे आप्त का निर्णय किया है। इसी आप्तमीमांसा के ऊपर श्री अकलंकदेव ने ‘अष्टशती’ नाम का भाष्य बनाया है और उस भाष्य को वेष्टित करके श्री विद्यानंद आचार्य ने ‘‘अष्टसहस्री’’ नाम की टीका की है, जो कि जैनदर्शन में सर्वोपरि ग्रंथ माना जाता है। इसका हिन्दी भाषा में अनुवाद करते हुए मैंने यह अनुभव किया है कि स्याद्वादमय सप्त भंगों का जितना विस्तृत और सुन्दर विवेचन है उतना विस्तृत विवेचन वर्तमान के उपलब्ध अन्य ग्रंथों में नहीं पाया जाता है। इस प्रकार इन आचार्यों ने अपने युग में अतीव महान् कार्य करके वर्तमान के युग को एक विशेष देन दी है।

सिद्धसेनाचार्य

कवि और दार्शनिक के रूप में सिद्धसेन प्रसिद्ध हैं। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराएं इन्हें अपना-अपना आचार्य मानती हैं। आचार्य जिनसेन ने अपने आदिपुराण में इन्हें कैसा आदर दिया है। देखिए-
‘‘कवय: सिद्धसेनाद्या वयं च कवयो मता:।
मणय: पद्मरागाद्या ननु काचोऽपि मेचक:।।३९।।
प्रवादिकरियूथानां केसरी नयकेसर:।
सिद्धसेनकविर्जीयात् विकल्पनखरांकुर:।।४२।।
पूर्व में सिद्धसेन आदि अनेक कवि हो गये हैं और मैं भी कवि हूँ। पर दोनों में इतना ही अन्तर है, जितना कि पद्मणि और कांच में होता है। जो प्रवादी रूपी हाथियों के समूह के लिए सिंह के समान हैं। नैगम आदि नय ही जिनके केसर-अयाल तथा अस्ति-नास्ति आदि विकलप ही जिनके तीक्ष्ण नाखून थे, ऐसे वे सिद्धसेन कवि जयवन्त होवें। ‘‘इनका समय कुछ विद्वानों ने विक्रम सं. ६२५ के लगभग माना है।’’ ‘‘सन्मति टीका के प्रारंभ में अभयदेवसूरि (१२वीं शती ई.) ने भी इन्हें’’ दिवाकर कहा है। इनकी दो रचनाएँ प्रसिद्ध हैं-सन्मतिसूत्र और कल्याणमंदिरस्तोत्र। सन्मतिसूत्र की गाथाएँ तो धवला, जयधवला टीका में भी पाई जाती हैं और कल्याणमंदिर स्तोत्र भी भक्तामर स्तोत्र जैसा प्रभावशाली चमत्कारिक है। बल्कि यह भक्तामर से पूर्व की रचना है। इन आचार्य के विषय में भी ऐसा एक अतिशय प्रसिद्ध है-सेनगण की पट्टावली में निम्न वाक्य कहा है- ‘‘(स्वस्ति)
श्रीमदुज्जयिनीमहाकालसंस्थापनमहाकाललिंगमहीधरवाग्वङ्का-
दण्डविष्ट्याविष्कृत श्री पार्श्वतीर्थेश्वर प्रतिद्वंद्व श्रीसिद्धसेनभट्टारकाणाम्।।१४।।’’
उज्जयिनी नगरी में महाकाल मंदिर में संस्थापित महाकाल (रुद्र) के लिंगरूपी पर्वत को अपने वचनरूपी वङ्कादण्ड के द्वारा स्फोटित करके पाश्र्वनाथ तीर्थंकर के बिम्ब को प्रगट करने वाले श्री सिद्धसेन भट्टारक की जय होवे। ऐसा ही लेख श्वेताम्बरों के यहाँ कई स्थल पर है-पट्टावली सारोद्वार में-‘‘तथा सिद्धसेनदिवाकरोऽपि जातो येनोज्जयिन्यां महाकालप्रासादे रुद्रलिंगस्फोटनं कृत्वा कल्याणमंदिरस्तवनेन श्री पाश्र्वनाथबिम्बं प्रकटीकृत्य श्रीविक्रमादित्यराजापि प्रतिबोधित: श्रीवीरनिर्वाणात् सप्ततिवर्षाधिकशतचतुष्ट्ये ४७० विक्रमे श्रीविक्रमादित्यराज्यं संजातं।’’ कवि वृन्दावन इस विषय में सभा में वाद-विवाद के प्रसङ्ग में श्री पाश्र्वनाथ की प्रतिमा प्रगट हुई कहते हैं-
‘‘श्रीमत कुमुदचन्द्र मुनिवर सों, वाद परयो जहँ सभा मंझार।
तबहीं श्री कल्याणधामथुति, श्रीगुरु रचना रची अपार।।
तब प्रतिमा श्रीपाश्र्वनाथ की, प्रगट भई त्रिभुवन जयकार।
सो गुरुदेव बसी उर मेरे, विघन हरण मंगल करतार।।७।।’’

पूज्यपादाचार्य

कवि, वैयाकरण और दार्शनिक इन तीनों व्यक्तियों का एकत्र समवाय देवनन्दि पूज्यपाद में पाया जाता है। श्रवणबेलगोला के शिलालेखों में इनके नामों के संबंध में उल्लेख मिलते हैं। यथा-
यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या च जिनेन्द्रबुद्धि:।
श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यंत्पूजितं पादयुगं यदीयं।।८।।
जैनेन्द्रे निजशब्दभोगमतुलं सर्वार्थसिद्धि: परा।
सिद्धांते निपुणत्वमुद्धकवितां जैनाभिषेक: स्वक:।।
छंदस्सूक्ष्मधियं समाधिशतकस्वास्थ्यं यदीयं विदा-
माख्यातीह स पूज्यपादमुनिप: पूज्यो मुनीनां गणै:।।९।।
अर्थात् जिनका देवनंदी यह प्रथम नाम था, किन्तु बुद्धि की महत्ता के कारण जिनेन्द्रबुद्धि कहलाये और देवताओं के द्वारा इनके पादयुगल पूजित होने से पूज्यपाद इस सार्थक नाम को प्राप्त हुए हैं। इन्होंने जैनेन्द्रव्याकरण, सर्वार्थसिद्धि, जैनाभिषेक, छन्दग्रंथ समाधिशतक आदि ग्रंथों की रचना की है। देवकीर्तिपट्टावली में इस श्लोकों के पूर्व ७वें श्लोक में समंतभद्र का नाम है। समंतभद्र के पट्ट पर देवनंदी को माना है। अर्थात् इस पट्टावली में भद्रबाहु श्रुतकेवली, चंद्रगुप्त, कोंडुकंद, गृद्धपिच्छाचार्य, बलाकपिच्छ, समंतभद्र, पूज्यपाद-देवनंदि, अकलंक इत्यादि क्रम दिया गया है। श्रुतमुनि की पट्टावली में भी समंतभद्र के बाद पूज्यपाद पुन: अकलंक देव ऐसा क्रम है।’’ नंदिसंघ की पट्टावली में कुन्दकुन्द, उमास्वामी, लोहाचार्य, यश:कीर्ति, यशोनन्दी इनके बाद ‘देवनंदि’ को लियाा है एवं विक्रम सं. २५८ से ३०८ तक। इन्हें आचार्य पट्ट पर माना है। श्रुतमुनि की पट्टावली में इनके बारे में कहा है कि-
‘‘श्री पूज्यपादमुनिरप्रतिमौषधद्र्धि:- जीयाद्विदेहजिनदर्शनपूतगात्र:।
यतपादधौतजलसंस्पर्शप्रभावा- त्कालायसं किल तदा कनकीचकार।।१८७।।
अर्थात् अप्रतिम औषधि ऋद्धि के धारी श्री पूजयपाद मुनि जयशील होवें, विदेह क्षेत्र के जिनेन्द्र-सीमंधर भगवान के दर्शन से जिनका गात्र पवित्र हो चुका है और जिनके पाद प्रक्षालित जल के स्पर्श के प्रभाव से उस समय लोहा सोना हो गया था। इनके बारे में बहुत अनुश्रुतियाँ हैं। जैसे-‘‘पूज्यपाद स्वामी अपने पैरों में गगनगामी लेप लगाकर विदेह क्षेत्र जाया करते थे, उस समय उनके शिष्य वङ्कानंदि ने अपने साथियों के साथ झगड़ा करके द्रविड़ संघ की स्थापना की।’’ पूज्यपाद स्वामी बहुत दिनों तक योगाभ्यास करते रहे। फिर एक देवविमान में बैठकर उन्होंने अनेक तीर्थों की यात्रा की। मार्ग में एक जगह उनकी दृष्टि नष्ट हो गई थी अतएव उन्होंने ‘शांत्यष्टक’ रचकर ज्यों की त्यों दृष्टि प्राप्त कर ली, यथा- ‘‘श्रीप्रभाचन्द्राचार्य भी शांत्यष्टक की टीका के प्रारंभ में कहते हैं- श्रीपूज्यपादस्वामी संजातचक्षुस्तिमिरादिव्याधिस्तद्विनाशार्थ श्रीशांतिनाथस्य न स्नेहादित्यादिस्तुतिमाह’’-जिनके नेत्रों में तिमिर आदि व्याधि उत्पन्न हो गई है ऐसे श्री पूज्यपादस्वामी उसको दूर करने के लिए श्री शांतिनाथ की ‘न स्नेहात्’ इत्यादि स्तुति करते हैं। इस शांत्यष्टक के आठवें श्लोक में भी श्लेष अर्थ यही झलकता है।
‘‘शांति शांतिजिनेन्द्र! शांतमनसस्त्वत्पादपद्माश्रयात्,
संप्राप्ता: पृथिवीतलेषु बहव: शांत्यर्थिन: प्राणिन:।
कारुण्यान्मम भाक्तिकस्य च विभो दृष्टिं प्रसन्नां कुरु,
त्वत्पादद्वयदैवतस्य गतद: शान्त्यष्टकं भक्तित:।।८।।
अर्थात् हे शांतिजिनेन्द्र! बहुत से शांत्यर्थी प्राणी शांतचित्त से आपके चरण कमलों का आश्रय लेकर इस पृथ्वी तल पर शांति को प्राप्त हो चुके हैं। हे प्रभो! आपके पाद युगलरूपी देवता के भक्तिपूर्वक शान्त्यष्टक को पढ़ते हुए मुझ भाक्तिक पर आप करुणा करके दृष्टि को प्रसन्न कीजिए अथवा मुझ भाक्तिक की दृष्टि को प्रसन्न-तिमिर१ आदि दोषों से रहित निर्मल कीजिए। अनुश्रुति ऐसी भी प्रचलित है कि एक बार ऋद्धि के बल से आकाश मार्ग से आ रहे थे। मार्ग में सूर्य की तीक्ष्ण किरणों से अकस्मात् नेत्र ज्योति चली गई। आप नीचे उतरकर शांतिनाथ के चैत्यालय में बैठकर शांतिनाथ की स्तुति करने लगे, आठवें श्लोक को बोलते ही आपकी नेत्र ज्योति ज्यों की त्यों वापस आ गई। पुन: आपने साक्षात् नेत्रों से शांतिनाथ का दर्शन करके गद्गद होकर ‘‘शांतिजिनं शशिनिर्मलवक्त्रं’’ इत्यादिरूप से स्तुति की जो कि आज शांत्यष्टक के साथ सम्मिलित है। कुछ भी हो यह तो निश्चित ही है कि इनके नेत्र का तिमिर आदि रोग इस शांति भक्ति को करने में निमित्त अवश्य था। इनकी रचनाएं जो कि वर्तमान में उपलब्ध हैं- दशभक्ति, जन्माभिषेक, सर्वार्थसिद्धि, समाधितंत्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र व्याकरण और सिद्धिप्रियस्तोत्र। इनमें से- दशभक्ति का पाठ तो साधुओं की नित्य नैमित्तिक क्रियाओं में आता ही है। उनमें से जो प्राकृत दश भक्तियाँ हैं वे कुन्दकुन्दाचार्य की बनाई हुई हैं और संस्कृत दश भक्तियाँ पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित हैं। अन्य विद्वान् भी कहते हैं- ‘‘आपके जीवन की अनेक घटनाएं हैं-
(१) विदेहगमन
(२) घोरतपश्चरणादि के कारण नेत्र ज्योति का नष्ट हो जाना तथा शांत्यष्टक के निर्माण से पुन: उसकी संप्राप्ति
(३) देवताओं द्वारा चरणों का पूजा जाना
(४) औषधि ऋद्धि की उपलब्धि
(५) पादस्पृष्ट जल से लोहे का सुवर्ण होना। आपकी रचनाओं में वैद्यक शास्त्र और सारसंग्रह भी हैं। ‘सारसंग्रह के विषय में धवलाटीका में श्री वीरसेन स्वामी ने कहा है कि-‘‘सारसंग्रहेऽप्युत्तंâ पूज्यपादै……।२’’ पूज्यपादस्वामी का समय वि.सं. की पाँचवीं शताब्दी है। क्योंकि आपके शिष्य वङ्कानंदी ने वि.सं. ५२६ में (४६९ ईसवी) द्रविड संघ की स्थापना की ऐसा दर्शनसार में कहा है। अत: सभी विद्वान् इन्हें छठी शताब्दी का ही मानते हैं।

अकलंकदेव

मान्यखेट नगर के राजा शुभतुङ्ग के पुरुषोत्तम मंत्री के दो पुत्र थे-अकलंक और निष्कलंक। एक बार आष्टान्हिक पर्व में माता-पिता के साथ मुनि के पास ब्रह्मचर्य व्रत लिया। यौवनावस्था में पिता के आग्रह से भी विवाह न कर आजन्म बाल ब्रह्मचारी रहे। अकलंक एकपाठी और निष्कलंक दो पाठी थे। बौद्धों के धर्मद्वेष से निष्कलंक ने अपना बलिदान कर दिया। आप कलिंग देश के रत्नसंचयपुर में पहुँचे। वहाँ के राजा हिमशीतल की रानी मदनसुन्दरी ने आष्टान्हिकपर्व में अपना जैन रथ निकलवाने का निर्णय किया। शर्त यह हुई कि यदि कोई जैनगुरु शास्त्रार्थ में बौद्धगुरु को पराजित कर दे, तब जैनरथ निकल सकता है।’’ रानी संकट के समय चतुराहार त्यागकर मंदिर में निश्चल बैठ गई। ध्यान के प्रभाव से अद्र्धरात्रि में पद्मावती देवी ने आकर बताया कि प्रात: ही यहाँ अकलंक देव आयेंगे और वे ही संघश्री बौद्धगुरु का दर्प चूर्ण करेंगे। रानी ने प्रसन्न होकर भगवान की स्तुति की और प्रात: होते ही महाभिषेक पूजन किया। प्रात: एक उद्यान में उनके दर्शन करके निवेदन किया। अकलंकदेव ने शास्त्रार्थ प्रारंभ किया। बौद्धगुरु ने अपने वश का न समझकर अपनी इष्ट तारावती को घ्ज्ञट में स्थापित कर दिया और पर्दा डाल दियचा। अकलंकदेव तारादेवी को समझकर छह महीने तक शास्त्रार्थ करते रहे। अन्त में चव्रेश्वरी देवी के कहे अनुसार तारादेवी को पराजित करके जैनधर्म की अपूर्व प्रभावना की। इनकी रचनाएँ-स्वोपज्ञविवृति सहित लघीयस्त्रय, न्यायविनिनिश्चय सविवृति, सिद्धिविनिश्चयसविवृति, प्रमाणसंग्रहसविवृति तता टीका ग्रंथ तत्त्वार्थवार्तिकसभाष्य और अष्टशती हैं। इसका बनाया हुआ एक स्तोत्र भी अकलंक स्तोत्र नाम से प्रसिद्ध है। इनके समय के बारे में भी विद्वान् एकमत नहीं है। जैनधर्म३ के प्राचीन इतिहास में परमानन्द शास्त्री ने इनका समय ईसवी सं. ७२० से ७८० सिद्ध किया है। कई एक पट्टावलियों में अकलंक देव को पूज्यपाद का उत्तराधिकारी सिद्ध किया है। श्रुतमुनि की पट्टावली में ‘‘श्रीपूज्यपादमुनिरप्रतिमोषधद्र्धि:’’ इत्यादि १७वें श्लोक के बाद-
‘‘तत: परं शास्त्रविदां मुनीनामग्रेसरोऽभूदकलंकसूरि:।
मिथ्यांधकारस्थगिताखिलार्था: प्रकाशिता यस्य वचोमयूखे:।।१७।।
अर्थात् पूज्यपाद स्वामी के बाद (उनके पट्ट पर) शास्त्रों के वेत्ता मुनियों में अग्रसर अकलंकदेव हुए हैं।’’ देवकीर्ति पट्टावली में भी पूज्यपाद के अनंतर-‘ततश्च’ कहकर
अजनिष्टाकलंकं यज्जिनशासनमादित:।
अकलंकं बभौ येन सोऽकलंको महामति:।।१०।।
पूज्यपाद की छठी शताब्दी निर्णीत हो जाने से इनकी भी छठी या सातवीं शताब्दी मानना ही उपयुक्त प्रतीत होता है।

मानतुंगाचार्य

‘‘भट्टारक सकलचंद्र के शिष्य ब्रह्मचारी ‘पायमल्ल’ कृत भक्तामरवृत्ति में जो कि वि.सं. १६६७ में समाप्त हुई है लिखा है कि धाराधीश भोज की राजसभा में कालिदास, भारवि, माघ आदि कवि रहते थे। मानतुंग ने ४८ सांकलो को तोड़कर जैनधर्म की प्रभावना की तािा राजा भोज को जैनधर्म का उपासक बनाया। दूसरी कथा भट्टारक विश्वभूषणकृत भक्तामर चरित में भी इसी प्रकार बताई है कि ‘आचार्य मानतुंग’ ने भक्तामर स्तोत्र के प्रभाव से अड़तालीस कोठरियों के ताले तोड़कर अपना प्रभाव दिखलाया।’’ इनके समय के बारे में भी विद्वानों की अनेक विचारधाराएं हैं। एक विद्वान् इन्हें ईसवीं सन् ७वीं शताब्दी का कहते हैं तो एक विद्वान् इन्हें ११वीं शताब्दी का कहते हैं। परमानन्द शास्त्री ने अपने जैनधर्म के प्राचीन इतिहास२ में इन्हें ११वीं शताब्दी का ही निश्चित किया है। भक्तामर स्तोत्र और भयहर स्तोत्र ये दो रचनाएँ इनकी मानी गई है। भक्तामर स्तोत्र तो इतना प्रसिद्ध और अतिशयपूर्ण है कि शायद ही कोई ऐसा दिगम्बर या श्वेताम्बर जैन होगा जो कि इसे न जानता हो। जयधवला टीका को पूर्ण करने का श्रेय आचार्य जिनसेन को रहा है। जियसेन ने जयधवला टीका को शकसंवत् ४५९ की फाल्गुन शुक्ला दशमी को पूर्ण किया है। इससे वीरसेन का समय ई. सन् की नवमीं शताब्दी ही है।’’

जिनसेनाचार्य

जिनसेन स्वामी अविद्धकर्ण (कर्ण संस्कार के पूर्व) ही जैनेश्वरी दीक्षा ले ली थी, ऐसा जयधवला टीका के अंत में दी गई दो पद्म रचनाओं से स्पष्ट होता है। इनकी बनाई हुई तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-पाश्र्वाभ्युदय, आदिपुराण और जयधवला टीका।

गुणभद्राचार्य

जिनसेन स्वामी महापुराण के ४२ पर्व तक लिखते हैं। अनंतर उनके पश्चात् उनके इस पुराण को श्री गुणभद्रसूरि पूर्ण करते हुए उत्तरपुराण की रचना करते हैं। अर्थात् महापुराण में ५ पर्व की और रचना करके अनन्तर उत्तरपुराण की रचना की है। अत: गुणभद्र सूरि का समय भी ईसवी सन् की दशवीं शताब्दी है। इनकी रचनाएं महापुराण का शेष और उतरपुराण, आत्मानुशासन और जिनदत्त चरित काव्य ये तीन हैं।’’ एक पंचामृताभिषेक पाठ भी इनका बनाया हुआ मुद्रित हो चुका है। पं. पन्नालाल जी सोनी ने अनेकों प्रमाणों से स्पष्ट कर दिया है कि ये पंचामृत अभिषेक के कर्ता ‘गुणभद्रभदंत’ ये ही हैं, भिन्न नहीं है। चूँकि जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय में एक श्लोक है-
‘‘वीराचार्यसुपूज्यपाद जिनसेनाचार्यसंभाषितो।
य: पूर्वं गुणभद्रसूरि वसुनन्दीन्द्रादिनंद्यूर्जित:।।
यश्चाशाधरहस्तिमल्लकथितो यश्चैकसंधीरित:।
तेभ्य: स्वाहृतसारमार्यरचित: स्याज्जैनपूजाक्रम:।।१९।।
’’पूजासार में भी कहते हैं-
‘‘वीरसेन जिनसेनसूरिणा पूज्यपादगुणभद्रसूरिणा।
इंद्रनंदिगुरुणैकसंधिना जैनपूजनविधि: प्रभाषित:।।
जिनसंहिता में एक संधि लिखते हैं-
‘‘पूज्यपादगुणभद्रसूरिभिर्वङ्कापाणिभिरपि प्रपूजितै:।
मंत्रबद्धनमप्युदारितं शस्यतेऽत्र सकलेऽपि कर्मणि।।’’
इन सभी श्लोकों में स्पष्ट हो जाता है कि जिनसेन के शिष्य गुणभद्रसूरि ने यह अभिषेक पाठ बनाया है।

आचार्य विद्यानंद

आचार्य विद्यानंद भी एक महान तार्विक विद्वान् हो चुके हैं। विद्वानों ने इनका समय ईसवी सन् ७७५ से ८४० तक प्रमाणित किया है अत: ये ई. सं. नवमशती के आचार्य हैं। इनकी रचनाएँ-आप्तपरीक्षा स्वोपज्ञविवृतिसहित, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, श्रीपुरपाश्र्वनाथस्तोत्र, विद्यानन्द महोदय ये स्वतंत्र कृतियाँ हैं और अष्टसहस्री, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, युक्त्यनुशासन ये टीका ग्रंथ हैं।

देवसेनाचार्य

ये आचार्य वित्र सं. ९९० में हुए हैं। दर्शनसार, भावसंग्रह, आलापपद्धति, लघुनयचक्र, आराधनासार और तत्त्वसार ये इनकी रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। दर्शनसार में जैनधर्म में अनेकों मत-मतान्तर कब और कैसे उत्पन्न हुए-इस पर प्रकाश डाला है। भावसंग्रह में भावों के माध्यम से गुणस्थानों का वर्णन करते हुए पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावकों की क्रियाओं का पर्याप्त वर्णन किया है। आलपपद्धति और नयचक्र में नयों का वर्णन है। आराधनासार में चार आराधनाओं का तथा तत्त्वसार में स्वतत्त्व और परतत्त्व का विवेचन है।

अमृतचन्द्रसूरि

श्री अमृतचन्द्रसूरि ने पुरुषार्थसिद्ध्युपाय और तत्त्वार्थसर, समयसार कलश ग्रंथ लिखे हैं तथा समयसार टीका, प्रवचनसार टीका और पंचास्तिकाय की टीका लिखी है। इनका समय १पट्टावली के अनुसार विक्रम सं. ९६२ हैं।

आचार्य श्री नेमिचन्द्र

ये आचार्य षट्खण्डागम के ज्ञाता होने से ‘सिद्धान्त चक्रवर्ती’ कहे जाते हैं। इनके रचित ग्रंथ-गोम्मटसार जीवकांड, गोम्मटसार कर्मकांड, त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणसार प्रसिद्ध हैं। इनका समय वि.सं. की ११वीं शती का पूर्वार्ध माना जाता है। इसी प्रकार से और भी अगणित आचार्य हुए हैं, जिन्होंने स्वहित साधना करते हुए परहित हेतु अनेकों ग्रंथ रचे हैं। जो कि आज हमें उपलब्ध होकर जिनवाणीरूपी अमृत का पान करा रहे हैं। बहुत से ऐसे भी आचार्य और दिगम्बर मुनि हुए हैं, जिन्होंने ग्रंथ रचना नहीं की है किन्तु संघ संचालन में ही निरत रहे हैं तथा कोेई-कोई मात्र स्वहित में ही तत्पर रहे हैं।
 
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