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०४ वाराणसी तीर्थ!

July 17, 2017जैन तीर्थjambudweep

वाराणसी तीर्थ का परिचय

४ तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ एवं पार्श्वनाथ जन्मभूमि

काशी और वाराणसी नाम से प्रख्यात बनारस नगरी कर्मभूमि के प्रारंभ में ही इन्द्र के द्वारा बसाई गई थी। यहाँ सातवें तीर्थंकर भगवान सुपाश्र्वनाथ तथा तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ के (जन्म तथा उन दोनों के क्रमशः) चार एवं तीन कल्याणक हुए हैं। जब वहाँ के महाराजा सुप्रतिष्ठ अपनी ‘पृथ्वीषेणा’ नामक महारानी के साथ राज्य कर रहे थे तब सुपाश्र्वनाथ के गर्भ में आने के छह माह पूर्व से लेकर जन्म होने तक कुबेर ने लगातार पन्द्रह माह तक रानी ‘‘पृथ्वीषेणा’’ के महल में रत्नों की वर्षा की थी। वे भादों सुदी षष्ठी तिथि को माता के गर्भ में आए तथा ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी के दिन विशाखा नक्षत्र में उनका जन्म हुआ। पुनः जन्मतिथि में उन्होंने दीक्षा धारण की एवं फाल्गुन कृ. षष्ठी में उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। सम्मेदशिखर पर्वत से भगवान सुपाश्र्वनाथ ने फाल्गुन कृ. सप्तमी को निर्वाण प्राप्त किया था। इनके शरीर की ऊँचाई ८०० हाथ थी, वर्ण हरा था।
इसके पश्चात् भगवान पार्श्वनाथ के संबंध में वर्णन है कि- भगवान पार्श्वनाथ वाराणसी नगरी में पिता अश्वसेन और माता वम्मिला (वामा) से पौष कृष्णा एकादशी के दिन उत्पन्न हुए। उत्तरपुराण में इनकी माता का नाम ब्राह्मी भी आया है। तीर्थंकर पार्श्वाकुमार ने विवाह नहीं किया था, तीस वर्ष की अवस्था में एक दिन राजसभा में अयोध्यानरेश जयसेन के दूत द्वारा भगवान ऋषभदेव का चरित्र सुनते-सुनते उन्हें वैराग्य हो गया था, तब उन्होंने अश्ववन में जाकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उन्होंने पौष कृ. ११ तिथि को दीक्षा ली एवं शंबर नामक ज्योतिषी देव (कमठ नामक पूर्व भव का वैरी) के दारुण उपसर्गों को सहनकर चैत्र कृ. चतुर्थी१ तिथि को अहिच्छत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया तथा श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन सम्मेदशिखर पर्वत से मोक्षधाम को पधारे हैं। उनके बाद सम्मेदशिखर पर्वत से किसी भी तीर्थंकर ने मोक्ष की प्राप्ति नहीं की है अत: वह पर्वत वर्तमान में ‘‘पारसनाथ हिल’’ के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में बनारस नगरी हिन्दुओं के तीर्थधाम से अधिक प्रसिद्धि को प्राप्त है किन्तु प्राचीन इतिहास देखने पर ज्ञात होता है कि जिनधर्म की प्रभावना के अनेक कथानक यहाँ से जुड़े हुए हैं। सर्वप्रथम काशीनरेश अकम्पन ने अपनी पुत्री ‘‘सुलोचना’’ का स्वयंवर रचकर इस धरती पर स्वयंवर प्रथा प्रारंभ की थी। हस्तिनापुर के राजकुमार तथा सम्राट् भरत के प्रमुख सेनापति जयकुमार के गले में वरमाला डालकर सुलोचना ने कन्याओं को कुल परंपरा का ध्यान रखते हुए स्वाधीनतापूर्वक अपना पति चुनने का इतिहास बनाकर कन्याओं की महत्ता प्रदर्शित की थी। एक अन्य पौराणिक उल्लेख के अनुसार भगवान मल्लिनाथ के तीर्थ में नौंवे चक्रवर्ती ‘‘पद्म’’ का जन्म बनारस में हुआ था। तब उन्होंने चक्ररत्न के द्वारा छह खंड को जीतकर बनारस को ही अपनी राजधानी बनाया था। इसके पश्चात् यहाँ इतिहास की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना घटी थी, वह थी समंतभद्र की। कथानक आता है कि समंतभद्र जी को मुनि अवस्था में भस्मक व्याधि हो गई थी जिसकी उपशांति के लिए उन्होंने गुरु आज्ञा से मुनिवेष का परित्याग कर दक्षिण भारत से उत्तर की बनारस नगरी में आकर एक शिवमंदिर में शिवजी की प्रतिमा को साक्षात् नैवेद्य खिलाने की बात कही थी। उस समय वाराणसी के राजा शिवकोटि थे। उन्हें एक बार मंदिर के पुजारियों से ज्ञात हुआ कि समंतभद्र महादेव जी के भोग का सारा नैवेद्य स्वयं खाते हैं। तब राजा को बड़ा क्रोध आया और उन्होंने समन्तभद्र से शिवपिण्डी के समक्ष गलती स्वीकार करके नमस्कार करने को कहा। समन्तभद्र की भस्मक व्याधि तब तक शान्त हो चुकी थी, उन्होंने भावपूर्वक चौबीसों तीर्थंकर की स्तुति रचना करके उसे पढ़ना शुरू कर दिया। जब वे भगवान चन्द्रप्रभु की स्तुति पढ़ रहे थे तभी शिवपिण्डी फट गई और चन्द्रप्रभ की प्रतिमा उसमें से प्रगट हो गई। यह चमत्कार देखकर राजा शिवकोटि भी उनके अनुयायी बन गए। समन्तभद्र ने पुनः मुनिदीक्षा लेकर स्व-पर कल्याण किया। हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बनारसीदास भी यात्रा के निमित्त काशी में आए थे। उनके लिखे हुए अद्र्धकथानक नामक आत्मचरित ग्रंथ से पता चलता है कि वे व्यापार आदि के सिलसिले में वाराणसी कई बार आते थे। बनारस के स्थानीय भारत-कला भवन में पुरातत्त्वसंबंधी बहुमूल्य सामग्री संग्रहीत है। यहाँ राजघाट तथा अन्य स्थानों पर खुदाई में जो पुरातत्त्व सामग्री उपलब्ध हुई थी, वह इस कला भवन में सुरक्षित है। यह सामग्री विभिन्न युगों से संबंधित है। इसमें पाषाण और धातु की अनेक जैन प्रतिमाएँ भी हैं ये कुषाण काल से लेकर मध्यकाल तक की हैं। बनारस में ‘भदैनी जैन घाट’ नाम से एक स्थान है जो भगवान सुपाश्र्वनाथ का जन्मस्थान माना जाता है। यहाँ आजकल स्याद्वाद महाविद्यालय नामक प्रसिद्ध शिक्षण संस्था है। इस भवन के ऊपर भगवान सुपाश्र्वनाथ का मंदिर है। यह गंगा तट पर अवस्थित है, दृश्य अत्यंत सुन्दर है। मंदिर छोटा ही है किन्तु शिखरबद्ध है। भगवान पाश्र्वनाथ का जन्मस्थल वर्तमान के भेलूपुर मोहल्ले को माना जाता है। उनके जन्मस्थान पर बहुत विशाल सुन्दर मंदिर बना हुआ है। उसी कम्पाउन्ड के भीतर धर्मशाला भी बनी हुई है। जिसमें सभी दिगम्बर जैन बंधुओं के ठहरने की समुचित व्यवस्था है। भेलूपुर में एक और दिगम्बर जैन मंदिर भी है उसमें मूलनायक पाश्र्वनाथ भगवान की प्रतिमा है। हिन्दुओं की मान्यतानुसार अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, अवन्ति, उज्जयिनी और द्वारका ये सात महापुरियाँ हैं इनमें काशी मुख्य मानी गई है। ‘‘काश्यां हि मरणान्मुक्तिः’’ यह हिन्दू शास्त्रों का वाक्य है। बनारस सहस्रों वर्षों से विद्या का केन्द्र रहा है। यहाँ भारतीय वाङ्मय-दर्शन और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की प्राचीन परम्परा आज तक सुरक्षित है। दल्ली से कुण्डलपुर (नालंदा) की ओर संघ के मंगल विहार के मध्य पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का १९ नवंबर २००२ को बनारस में पदार्पण हुआ। वहाँ लगभग १ सप्ताह प्रवास के मध्य ‘‘बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय’’ में प्रथम बार जैन साधुओं के मंगल प्रवचन का कार्यक्रम भी हुआ। जिसमें बी.एच.यू. तथा डा. सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपतियों सहित अनेक वरिष्ठ प्रवक्ताओं ने पूज्य माताजी की संस्कृत भाषाजनित प्रतिभाशक्ति का कोटिशः अभिनंदन किया तथा अपने विश्वविद्यालयों में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान-जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर द्वारा प्रदत्त साहित्य को ससम्मान विराजमान किया। तीर्थंकरद्वय की उस पावन जन्मभूमि वाराणसी तीर्थ को शत-शत नमन।
 
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