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युक्ताहार विहार

July 22, 2017विशेष आलेखaadesh

७. युक्ताहार विहार


प्रश्न-आज कल के साधु युक्ताहार विहारी हैं या नहीं ?
उत्तर – अवश्य हैं। जो आगम के अनुकूल आहार विहार करते हैं, वे युक्ताहारी-विहारी ही हैं। देखिए- युक्ताहार-छ्यालीस दोषों से रहित, कारणयुक्त, नवकोटि से विशुद्ध, शीत-उष्ण, सरस, नीरस आदि में सम भाव सहित जो आहार ग्रहण करता है, उसे एषणासमिति कहते हैं। इसके साथ स्थितिभोजन और एकभक्त ये भी मूलगुण हैं। अर्थात् पूर्व में कथित दोषों से रहित और मन, वचन, काय तथा कृत, कारित और अनुमोदना इनको गुणित करने से ३²३·९ ये नवकोटि मानी गई हैं। इनसे रहित आहार ही एक जगह स्थित होकर और दिन में एक बार ग्रहण किया जाता है। छ्यालीस दोषों के अन्तर्गत १६ उद्गम दोष माने गये हैं, जो कि श्रावकों के आश्रित होते हैं और मालूम होने पर मुनि उस आहार को ग्रहण नहीं करते हैं। उनमें सबसे प्रथम एक औद्देशिक दोष है, जिसका अर्थ-‘‘अध:कर्म के पश्चात् औद्देशिक सूक्ष्मदोष को भी परिहार करने की इच्छा से आचार्य कहते हैं१। नाग यक्षादि देवता के लिए, जैन दर्शन से बाह्य लिंगी-पाखंडी जनों के लिए और कृपणों-दीनजनों का उद्देश्य करके जो भोजन बना हुआ है, वह औद्देशिक है। अथवा जो कोई भी आयेगा, हम उन सभी को देंगे, ऐसा उद्देश्य करके बनाया गया अन्न ‘यावानुद्देश’ है। जो कोई पाखंडी आयेंगे, उनको मैं देऊँगा, ऐसे उद्देश्य से निर्मित अन्न ‘समुद्देश’ है। जो कोई श्रवण-आजीवक, रक्तपटी, तापसी, परिव्राजक अथव छात्रादि कोई भी आयेंगे, उनको मैं दूँगा, ऐसा उद्देश करके बनाया गया अन्न आदेश’ है। जो कोई निर्ग्रन्थ साधु आयेंगे, मैं उन्हें आहार दूँगा, ऐसा सोचकर किया हुआ ‘समुद्देश’ है।’’ ‘जो खास करके अपने लिए बनाया हुआ भोजन है उसको उद्दिष्ट कहते हैं। अथवा समस्त यमी, पाखंडी और दुर्बलों के लिए बनाये गये भोजन को भी उद्दिष्ट कहते हैं।’’ निष्कर्ष यह निकलता है कि श्रावक भोजन बनाते समय अतिथि-संविभाग का भाव रखकर बनाता है। किन्तु साधु स्वयं मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से जिसमें भाग नहीं लेते हैं, वही आहार निर्दोष है। चूँकि यह दोष श्रावक के आश्रित होता है। श्री अमृतचन्द्रसूरि अतिथिसंविभाग व्रत का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं-‘‘दाता के सात गुणों से सहित गृहस्थ को स्व और पर के अनुग्रह हेतु जातरूपधारी अतिथि के लिए द्रव्य विशेष का विधिवत् अवश्य भाग करना चाहिए। इसी का नाम तो अतिथिसंविभागव्रत है।’’ चतुर्थ काल में भी सभी श्रावक गर्मजल नहीं पीते थे तथा रोगी साधु के अनुरूप ही पथ्य एवं औषधि को बनाकर देते थे। इसके अनेकों उदाहरण हैं। यथा-पूर्वविदेह के वत्सकावती देश की प्रभाकरी नगरी के राजा प्रीतिवर्धन अपने प्रतिकूल भाई को जीतकर वापस आकर नगरी के बाहर पर्वत पर ठहरे थे। पुरोहित ने आकर कहा-राजन्! आपको आज मुनिदान के निमित्त बहुत लाभ होने वाला है। इसका उपाय यह है कि हम२ लोग नगर में घोषणा कराये देते हैं कि आज राजा के महान् उत्सव का दिन होने से सब लोग घर के आँगन को, नगर की गलियों को सुगंधित जल सींचकर इस प्रकार फूल बिखेर दो कि बीच में कहीं कोई रंध्र खाली न रहे। ऐसा करने से मुनिराज अप्रासुकमार्ग से गाँव में न जाकर घूमकर वापस करके यहीं आ जावेंगे। राजा ने भी वैसा ही किया। उस समय मासोपवासी पिहितास्रव मुनिराज के आहार से वहाँ पंचाश्चर्य की वर्षा हुई।’’ अब सोचने की बात यह है कि राजा ने तो मुनि का निमित्त करके ही मार्ग अप्रासुक कराया और आहार दिया किन्तु मुनि को मालूम न होने से उन्हें औद्देशिक नाम का उद्गम दोष नहीं लगा।’’ ‘‘नन्दिषेण मुनिराज ग्यारह अंङ्ग के धारी और अनेक ऋद्धियों के स्वामी थे। वे वैयावृत्ति के लिए किसी भी औषधि आदि का विचार करते थे, तो ऋद्धि के बल से उनके हाथ में वह चीज शीघ्र ही आ जाती थी। एक दिन इन्द्र ने अपनी सभा में उनकी प्रशंसा की। परीक्षार्थ एक देव आकर मुनि का रूप रखकर नन्दिषेण से बोला-मुनिवर! मेरा शरीर व्याधि से पीड़ित है, तुम मुझे औषधि दो। मुनि ने पूछा, बताओ तुम्हारी किस भोज में रुचि है ? मुनिरूपधारी देव ने कहा कि पूर्वदेश के धान का भात, पांचाल के मूँग की दाल, पश्चिम देश की गायों का घी, कलिंग देश की गाय का दूध और नाना प्रकार के व्यंजन यदि मिल जायें, तो अच्छा हो। नन्दिषेण मुनिराज बड़ी श्रद्धा से उक्त आहार को लाने के लिए चल दिये। गोचरी बेला में जाकर उक्त सब आहार लाकर उन्हें करा दिया।’’ रात्रि में उस कृत्रिम मुनि ने मल विसर्जन कर सारा शरीर मलिन कर लिया। तब नन्दिषेण मुनि उसके शरीर को प्रासुक जल से धोकर उसकी वैयावृत्ति में बराबर संलग्न रहे। तब दे ने अपने रूप को प्रगट कर उनकी स्तुति करके स्वर्ग की चर्चा बताई।’’ इससे भी यह स्पष्ट होता है कि साधु के लिए पथ्य आदि वस्तुएँ साधु श्रावक द्वारा करा सकते हैं। जो कि अस्वस्थ साधु के निमित्त ही बनती हैं। ‘‘श्री कृष्ण ने मुनिराज से पूछा-भगवन्! आपके इस रोग में कौन सी औषधि हितकर होगी। मुनिराज ने कहा-यदि ‘कापिष्ठ चूर्ण’ का प्रयोग किया जाये तो यह रोग शांत हो सकता है अन्यथा नहीं। मुनिराज के मुख से औषधि का नाम सुन राजा श्रीकृष्ण को परम संतोष हुआ। उन्हें नमस्कार कर वे वापस नगरी में आ गये और मुनिराज के रोग दूर करने के लिए उन्होंने सर्वत्र आहार की मनाही कर दी। दूसरे दिन वे ज्ञानसागर मुनि आहारार्थ नगर में आये, विधि के अनुसार वे इधर-उधर घूमकर अंत में राजमंदिर की तरफ गये। रानी रुक्मिणी ने विधिवत् उनका पड़गाहन कर आहार कराते समय रत्नकापिष्ठ चूर्ण भी दिया। कुछ दिन बाद औषधि के प्रयोग से मुनिराज का रोग सर्वथा नष्ट हो गया।’’ दूसरी बात यह है कि साधु शुद्ध, पवित्र, प्रासुक आहार ही लेते हैं। श्रावक यदि असंयत हैं तो अप्रासुक भी भक्षण करते हैं। पुन: विवेक के साथ प्रासुक वस्तु तैयार करेंगे ही। और जब मुनियों का अस्तित्व पंचम कला के अंत तक है, ऐसा आचार्य स्पष्ट कहते हैं पुन: आज के युग में वैâसी भिक्षा होनी चाहिए कि जिससे उद्दिष्ट दोष न लगता हो। बहुत कुछ सोच-विचार के बाद यही हल निकलता है कि साधु स्वयं नवकोटि से भोजन न बनवावें और शुद्ध की खोज करते हुए शुद्ध आहार ग्रहण करें। युक्त विहार-भगवती आराधना में अनियत विहार का बहुत ही महत्व बताया है। ‘‘यत्र-तत्र विचरण करने वाले साधु के अनियत विहार में पाँच गुण होते हैं।’’ दर्शनविशुद्धि, स्थितिकरण, भावना, अतिशयरूप कुशलता और क्षेत्र का अन्वेषण ये पाँच गुण होते हैं। जन्मकल्याणक आदि तीर्थों की वंदना करने से दर्शन की विशुद्धि होती है। साधु अन्य लोगों को पाप से भीरु बनाकर अथवा अन्य साधुओं के चारित्र विशेष को देखकर स्वयं चारित्र वृद्धिंगत करते हुए पर का और अपना स्थितिकरण करते हैं। अनेक देशों में विहार करने से क्षुधा तृषा आदि के निमित्त से होने वाले दुख भावित करने से भावना नाम का तीसरा गुण होता है। यत्रतत्र देश में विचरण करने से अनेक देशों की भाषाओं का ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे वे अनेक शास्त्रों के अर्थ को समझ लेते हैं और उन-उन भाषाओं में जनता को समझा देते हैं। यह अतिशयप कुशलता गुण होता है। जिस क्षेत्र में संयम के अनुकूल विहार होता है और सुलभता से आहार मिलता है उस क्षेत्र को सल्लेखना के अनुकूल समझ लेते हैं इसलिए अनियत विहार से क्षेत्र का अन्वेषण होता है। विहार करते समय साधु प्रात:कालीन क्रियाओं को करके संघ के साथ अपनी शक्ति के अनुरूप चलते हैं। हरियाली, काई, कीचड़, कुहरा, बर्फ आदि से रहित प्रासुक मार्ग में चलते हैं। जिस मार्ग से मनुष्य, गाय, भैंस आदि चल रहे हैं। आज के गाड़ी, मोटर आदि वाहन चल रहे हैं। वह मार्ग प्रासुक हो जाता है। मार्ग में चलते हुए हँसी विनोद या वार्तालाप नहीं करते हैं। आतप-धूप से छाया में जाते समय और छाया से धूप में जाते समय पिच्छिका से अपना शरीर मार्जन करके पैरों की धूली भी झाड़ देते हैं। कदाचित् मार्ग में जल भरी नदियाँ आ जावें तो द्रोणी से भी पार कर सकते हैं। सो ही कहा है- ‘‘जल में प्रवेश करते हुए पैरों में लगी हुई सचित्त-अचित्त धूलि को पिच्छिका से परिमार्जित करके जल में प्रवेश करते हुए पुन: बाहर निकलकर जब तक पैर सूख न जायें तब तक जल के किनारे ही खड़े रहते हैं। कदाचित् बड़ी नदियों को पार करने में पहले नदी के इसी तरफ सिद्ध वंदना करके ‘‘जब तक मैं उस पार न पहुँच जाऊ तब तक मुझे सर्व शरीर, आहार और उपकरण का त्याग है।’’ ऐसा प्रत्याख्यान ग्रहण करके समाहित चित्त होते हुए द्रोणी-नौका आदि पर चढ़ते हैं और अगले तट पर पहुँचकर उसकी शुद्धि के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। बड़े जंगलों में प्रवेश करने-निकलने के समय भी इसी प्रकार से चतुराहार आदि त्यागरूप पूर्वोक्त सभी विधि की जाती है।’’ अन्यत्र भी कहा है-‘‘घुटने पर्यन्त पानी में होकर जावे, तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। घुटने से चार अंगुल ऊपर पानी में होकर जाने का एक उपवास प्रायश्चित्त है। इसके चार-चार अंगुल ऊपर पानी में होकर जाने का दूने-दूने उपवास प्रायश्चित्त है। ये जो कायोत्सर्ग और उपवास कहे गये हैं वे सोलह धनुष (चौंसठ हाथ) पर्यंत लम्बे फैले हुए जल जंतुओं से रहित जल में होकर जाने के हैं तथा जल जंतु से भरे हुए जल में होकर जाने का प्रायश्चित्त पहले विधि से अधिक है जो कि गुरु से ही ग्रहण किया जाता है। उपर्युक्त प्रायश्चित्त भी गुरु से ही लिया जाता है स्वत: प्रायश्चित्त कर लेने से दोषों की शुद्धि नहीं होती है। अपने निमित्त या पर के निमित्त प्रयुक्त नाव आदि के द्वारा नदी आदि पार करने पर काल आदि जानने वाला आचार्य यथोचित प्रायश्चित्त देते हैं।’’ यदि कदाचित् कोई साधु असमर्थ, वृद्ध या अस्वस्थ हैं, पैदल चलने की शक्ति नहीं है और संघ के साथ में विहार करना आवश्यक है तो उन्हें डोली में बिठाकर विहार कराते हैं। यथा-‘‘डोली आदि में बैठकर गमन करने पर आचार्य उस मंद, रोगी आदि साधु को जानकर उसके दोष को दूर करने वाली मार्ग-शुद्धि से दूनी शुद्धि देते हैं। अर्थात् मार्ग गमन के शोधन में जो शुद्धि नहीं है उससे दूनी शुद्धि देते हैं।’’ इस प्रकार विहार करता हुआ साधुओं का विशाल संघ अथवा कतिपय साधु जहाँ पहुँचते हैं, श्रावक भक्ति विभोर होकर यथोचित वसतिका दान आदि दकर उनकी भक्ति, सेवा, आराधना, पूजा आदि करते हैं।
प्रश्न-साधुगण तो वन में कंदरा आदि में ही रहते हैं पुन: वसतिका में कैसे रहेंगे ?
उत्तर – ऐसा एकांत नहीं है, अन्यथा वसतिका दान ही नहीं बन सकेगा। देखिए-बुद्धिमान गणधरदेव आदि ने आहार, औषधि, उपकरण, आवास इनके दान से चार प्रकार का वैयावृत्य कहा है२। अर्थात् चार शिक्षाव्रत में अंतिम भेद का ‘वैयावृत्य’ नाम दिया है और उस वैयावृत्य के चार भेद में चौथा आवासदान अर्थात् वसतिका दान बताया है और स्वयं उन्होंने पहले १११वें श्लोक में तपोधन, ११२वें में संयमी, ११३वें में आरंभादि रहित आर्य शब्द कहा है और ११३वें गृहविमुक्त अतिथि शब्द और ११५वें में तपोनिधि शब्दों में दिगम्बर मुनियों के विषय में ही इन दोनों का उल्लेख किया है। आगे चारों दानों के दृष्टांत में ‘‘सूकरश्च दृष्टांता:’’ शब्द से अंतिम आवासदान में सूकर का दृष्टांत दिया है। जिसकी कथा इस प्रकार है- ‘‘मालवदेश के घटग्राम में देविल कुंभार और धमिल्ल नाई रहते थे। इन्होंने मिलकर पथिकजनों के वसतिका निमित्त एक देवकुल-धर्मशाला बनवाई। एक समय देविल ने पहले यह वसति दिगम्बर मुनि को दे दी और पश्चात् धमिल्ल नाई ने एक परिव्राजक को लाकर ठहरा दिया। पुन: उस धमिल्ल और परिव्राजक ने मुनि को बाहर निकाल दिया। वृक्ष के नीचे रात्रि भर मुनि ने दंशमसक शीतादि परीषहों को सहन किया। प्रात:काल इस बात का कुंभार और नाई में झगड़ा हो गया, दोनों परस्पर युद्ध करके मरकर विंध्यगिरि पर क्रम से सूकर और व्याघ्र हो गये। एक बार एक गुफा में समाधिगुप्त और त्रिगुप्त नामक दो मुनि आकर ठहरे। वहीं पर मुनि को देखकर सूकर को जातिस्मरण हो गया, उसने मुनि से धर्मोपदेश सुनकर व्रत ले लिया। इसी प्रसंग में वह व्याघ्र मुनि के भक्षणार्थ वहाँ आया। सूकर मुनियों के रक्षणार्थ गुफा के दरवाजे पर बैठ गया। वहाँ पर भी दोनों लड़कर मर गये। सूकर मुनिरक्षण के अभिप्राय से मरकर सौधर्म स्वर्ग में महान् ऋद्धिधारी देव हो गया और व्याघ्र मुनिभक्षण के अभिप्राय रूप रौद्रध्यान से मरकर नरक चला गया।’’ श्री पूज्यपाद स्वामी भी कहते हैं कि- ‘‘संयम का विनाश न करते हुए जो ‘अतति’ आते हैं वे अतिथि हैं। अतिथि के लिए जो संविभाग है, वह अतिथिसंविभाग व्रत है। उसके चार भेद हैं-आहार, औषधि, उपकरण और प्रतिश्रय। यहाँ प्रतिश्रयदान का अर्थ भी रहने का स्थान-वसतिका ही है।’’ श्री भट्टाकलंक देव ने भी ये ही चार भेद माने हैं। मूलाचार में भी श्री कुन्दकुन्द ने कायिक विनय के प्रकरण ‘अवकाश दान’ देने को कहा है। यथा-साधु, साधु के लिए अवकाश का अर्थात् वसतिका, गिरि की गुफा आदि जो प्रासुक हों उनका अन्वेषण करके निवेदन करना-ठहरना।’’ श्री कुन्दकुन्द देव स्थितिकल्प के दश भेदों में भी शय्याग्रह-पिंडत्याग नामक तीसरा स्थितिकल्प कहा है। जिसका अर्थ यह है कि- ‘‘जो मेरी वसतिका में रहेंगे मैं उन्हीं मुनि को आहार दूँगा अन्य को नहीं’’ ऐसा जिसने संकल्प किया है उसकी वसतिका में ठहर कर उसके यहाँ आहार नहीं लेना चाहिए। इसका कारण यही है कि यदि कोई गरीब है तो वह यही सोचेगा मैं मुनि को वसतिक दान केसे देऊँ। मैं आहार नहीं दे सकूगा तो लोग क्या कहेंगे कि इसने अपनी वसतिका में तो साधुओेंं को ठहरा लिया है और आहार नहीं देता है। अथवा जो वसतिका देकर आहार भी देता रहेगा। बहुत उपकार करने वाला होने से साधु को उस पर स्नेह हो जायेगा इत्यादि कारणों से जहाँ जिसकी वसतिका में ठहरे उसके यहाँ आहार न लेवे।’’ यही बात अनगारधर्मामृत में भी कही गई है। किन्तु वहाँ ‘‘शय्यागृह’’ पद की जगह ‘शय्याधर’ शब्द टीका में उसके तीन अर्थ खेले हैं- ‘‘वसतिका को बतलाने वाला, वसति का संस्कार करने वाला और ‘इस वसति में आप ठहरिये’ ऐसा कहकर ठहराने वाला ये तीनों ही शय्याधर कहलाते हैं। उपर्युक्त कारणों से इनके यहाँ आहार नहीं लेना शय्याधर-पिंडत्याग स्थितिकल्प है।’’ अब यह देखिए कि अगर साधु श्रावक द्वारा दी गई वसतिका में नहीं रहते हैं, तो यह ‘स्थितिकल्प’ कैसे हो सकता है। ‘‘जिसकी दीवालें मजबूत हैं, जिसमें किवाड़ हैं, ऐसी वसतिकाएं गाँव के बाहर होनी चाहिए। जहाँ बाल वृद्ध आदि साधु आ जा सवें, अर्थात् दो तीन वसतिकाएं हों, तो ऐसी पास-पास में हों। उद्यानगृह, गुफा और शून्यगृह ये भी वसतिका के योग्य माने गये हैं।’’ ‘‘यदि वसतिका में किवाड़ नहीं होंगे-द्वार खुला होगा, तो ठंडी हवा आदि के निमित्त से शरीर में दु:सह दु:ख होगा। अत: वसतिका में किवाड़ भी होना चाहिए और उजेला भी होना चाहिए-अंधकार नहीं रहना चाहिए। यदि वसतिका में किवाड़ आदि नहीं होंगे, तो खुले स्थान में शरीरमलत्याग भी कैसे किया जा सकेगा।३’’ तथा मुनियों के रहने की वसतिका गंधर्वशाला, नाट्यशाला, गजशाला इत्यादि के निकट नहीं होनी चाहिए चूँकि ध्यान अध्ययन में बाधा होगी। यद्यपि यह प्रकरण एक साधु की समाधि के समय जब चालीस साधु एकत्रित होकर क्षपक सल्लेखना कराते हैं, उस समय का है फिर भी अन्यत्र समय में भी ऐसी ही वसतिकाओं में साधु संघ ठहराये जाते हैं। समाधि के अतिरिक्त समय में भी साधु किवाड़ सहित वसतिकाओं में ठहरते हैं। जैसा कि- ‘‘जो साधु असावधानी-प्रमाद से निवास स्थान का दरवाजा खुला डालकर चला जाये और उसे आचार्य पुरुमंडल प्रायश्चित्त देवें और यदि उसमें बिल्ली, नेवला, साँप आदि घुस जाये, तो उपवास प्रायश्चित्त तथा चोर घुस जायें अथवा चूहों का मरण हो जावे, तो लघुमास प्रायश्चित्त देवें’’ इस दण्ड से भी स्पष्ट हो जाता है कि साधु वसतिका में रह सकते हैं और निकलते समय पिच्छिका से परिमार्जित करके किवाड़ ढँक कर जाते हैं। साधु मंदिर या वसतिका में या गुफाओं में ठहरते हैं, तो वहाँ प्रवेश करते समय ‘निसही’ शब्द का प्रयोग करते हैं और निकलते समय ‘असही’ शब्द का प्रयोग करते हैं। ‘‘वसति जिनमंदिर आदि में प्रवेश करते समय वहाँ रहने वाले भूत, यक्ष, नागादिकों को पूछकर ‘निसही’ शब्द बोलकर प्रवेश करना चाहिए तथा वसतिका आदि से बाहर निकलते समय ‘असही’ शब्द बोलना चाहिए।’’ ‘‘हम यहाँ इतने दिन तक रहे, अब जाते हैं तुम लोगों का कल्याण हो’’ इस प्रकार व्यंतरादि देवों को इष्ट आशीर्वाद देना आशीर्वचन है। ‘‘तुम्हारी कृपा से हम यहाँ ठहरते हैं, तुम किसी प्रकार का उपद्रव नहीं करना’’ इस प्रकार जीवों को तथा व्यंतरादि देवों को उपद्रव आदि का निषेध करना निषिद्धिका नाम की समाचार नीति है। मुनियों को गुफा, वसतिका अथवा किसी स्थान पर ठहरते समय निषिद्धिका (निसही) करनी चाहिए और वहाँ से जाते समय वैर विरोध दूर करने वाले आशीर्वाद वचन (असही) करने चाहिए।’’ ‘‘साधु यदि प्रमाद से उपर्युक्त प्रसंग में ‘असही’ ‘निसही’ नहीं करता है तो प्रायश्चित्त का भागी होता है।१’’ ‘‘पाँच परमेष्ठी का नमस्कार, छह आवश्यक क्रियाएँ और असही, निसही ये तेरह क्रियाएँ ‘तेरह करण’ नाम से कही जाती हैं। जो कि साधुओं के द्वारा अहर्निश की जाती हैं।’’

संस्तर

साधु जिस वसतिका में ठहरते हैं, वहाँ पर रात्रि में शयन के लिए जो आसन होता है, उसे संस्तर कहते हैं। संस्तर के बारे में श्री कुन्दकुन्ददेव कहते हैं- ‘‘सायंकाल और प्रात:काल के समय जब कि हाथ की रेखाएँ दिख रही हों, ऐसे प्रकाश में संस्तर और आवास का प्रतिलेखन किया जाता है। टीकाकार कहते हैं कि संस्तर के चार भेद हैं-भूमिसंस्तर, शिलासंस्तर, फलक संस्तर और तृणसंस्तर।’’ शुद्धभूमि भूमिसंस्तर है। पत्थर की चट्टान शिलासंस्तर है, काष्ठ का पाटा फलकसंस्तर है और निर्जंतुक तृणसमूह तृणसंस्तर है। ‘‘सायंकाल प्रतिक्रमण करके प्रकाश में ही अपने संस्तर को देखशोधकर यथोचित स्थान पर लगा लेना चाहिए फिर रात्रि में उसे चलाना, हटाना या हिलाना नहीं चाहिए और न हिलते, डुलते हुए संस्तर पर बैठना या सोना चाहिए।’
प्रश्न-यदि पाटा और तृण-घास साधु बिछायेंगे तो क्षितिशयन नाम का मूलगुण कहाँ रहेगा ?
उत्तर – क्षितिशयन मूलगुण के लक्षण में भी टीकाकार सिद्धांत चक्रवर्ती श्री वसुनंदि आचार्य ने ऐसा कहा है कि ‘‘अप्पमसंथारिदम्हि’’ के दो अर्थ हैं। एक तो अल्प भी असंस्तरित हो, कुछ भी न बिछाया हो अथवा अल्परूप संस्तर हो जिससे बहुत संयम का विघात न हो, उस तृणमय, काष्ठमय, शिलामय और भूमिमय संस्तर पर अर्थात् गृहस्थ के योग्य प्रच्छादन (बिस्तर आदि) से रहित पर शयन करते हैं। आचार्यश्री ने स्वयं आगे औपचारिक विनय में ‘‘संथरकरणं’’ पद दिया है, जिसका श्री वसुनंदि आचार्य ने ‘‘संस्तरकरणं-चट्टिकादिप्रस्तरणं’’ चटाई आदि बिछाना ऐसा अर्थ किया है।’’ भगवती आराधना में कहते हैं- ‘पृथ्वीमय, शिलामय, फलकमय या तृणमय ऐसे चार प्रकार के संस्तर होते हैं। काष्ठमय संस्तर कैसा हो ? ‘‘चारों तरफ से भूमि से संलग्न हो, विस्तृत हो, हल्का हो-जिसको उठाने और धरने में श्रम नहीं हो अचल हो-हिलता-झुलता न हो, एक शरीर हो-एक काठ का हो, अपने शरीर प्रमाण हो, छिद्र रहित हो, टूटा-फुटा न हो और चिकना हो, ऐसा पाटा काष्ठमय संस्तर कहलाता है। तृणमय संस्तर कैसा हो ? तृण संस्तर ग्रन्थि-गाँठ रहित तृण से बना हुआ, छिद्ररहित, टूट हुए तृणों से नहीं रचा गया, मृदुस्पर्श वाला और निर्जंतुक-खटमल आदि जंतु से रहित हो जिसका कि सुख से शोधन किया जा सके तथा जिस पर सोने या बैठने में शरीर में खुजली न हो, तृणमय संस्तर होता है। इन लक्षणों से तृण घास और घास की बनी हुई चटाई भी आ जाती है।३’’ अन्यत्र भी चटाई का विधान आया है। यथा-‘‘श्रमणगण इन्द्र राजा आदि के द्वारा विधिवत् दिये गये श्रमण के योग्य वसति, भस्म आदि, पिच्छिका, चटाई, पुस्तक, कमण्डलु आदि वस्तुएँ ग्रहण कर सकते हैं।’’ वन्दना प्रतिवंदना ‘‘प्रात:कालीन देववंदना के अनंतर सभी साधु विधिवत् कृतिकर्म आचार्य की वंदना करते हैं तब आचार्य भी अपनी पिच्छिका उठाकर उन साधुओं को प्रति नमोस्तु करते हुए प्रतिवंदना करते हैं।’’ ‘‘आर्यिकाएँ आकर वंदना करती हैं, तो वे पाँच हाथ की दूसरी से आचार्य की, छह हाथ की दूरी से उपाध्याय की और सात हाथ की दूरी से साधु की वंदना करती हैं। वे गवासन से बैठकर विधिवत् सिद्ध, आचार्य आदि भक्ति पढ़कर ‘नमोऽस्तु’ शब्द के द्वारा नमस्कार करती है।३’’ तब आचार्य आदि मुनि उन्हें ‘समाधिरस्तु’ आशीर्वाद देते हैं। आर्यिकाएँ आपसे-पहले बड़ी को पूर्ववत् विधिपूर्वक गवासन से बैठकर ‘वंदामि’ कहकर नमस्कार करती हैं और बड़ी आर्यिकाएँ अपने से छोटी आर्यिकाओं को पिच्छिका सहित वापस ‘वंदामि’ कहकर प्रतिवंदना करती हैं।’ ऐलक-क्षुल्लक आपस में ‘इच्छामि’ करते हैं और मुनियों को नमोऽस्तु तथा आर्यिकाओं को वंदामि करते हैं। ब्रह्मचारीगण या श्रावक भी मुनियों को नमोऽस्तु, आर्यिकाओं को वंदामि करते हैं। ‘‘ये मुनि-आर्यिका भी व्रतिकों को ‘समाधिरस्तु’ अथवा ‘कर्मक्षयोऽस्तु’ ऐसा आशीर्वाद देते हैं। अव्रती श्रावक-श्राविकाओं को ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’ शुभमस्तु या ‘शांतिरस्तु’ ऐसा आशीर्वाद देते हैं। अन्य धर्मावलंबियों के द्वारा वंदित होने पर उन्हें ‘धर्मलाभोऽस्तु’ आशीर्वाद देते हैं। आर्यिकाएँ और ऐलक, क्षुल्लक भी इसी तरह क्रम से आशीर्वाद देते हैं।४’’ ‘‘शिष्य साधु कभी भी गुरुओं के सामने नहीं बैठते हैं बल्कि आजू-बाजू से बैठते हैं। कुछ पूछना हुआ तो शांति से पूछते हैं और उनकी आज्ञानुसार प्रवृत्ति करते हैं। यदि कोई शिष्य अपने गुरुओं को शास्त्र या कोई वस्तु देते हैं तो उन्हें हाथों से विनयपूर्वक देते हैं। अथवा यदि गुरु से शास्त्रादि या कोई वस्तु ग्रहण करते हैं, तो दोनों हाथों से विनयपूर्वक ग्रहण करते हैं।’’ ‘‘कदाचित् विहार आदि प्रसंग में या चलते समय यदि निंद्य वस्तु, चांडालादि जन, रजस्वला स्त्री आदि का स्पर्श हो जाये, तो साधु दंड स्नान करके पुन: मंत्र को जपकर उस दिन उपवास करते हैं। अथवा दंडस्नान के बाद मंत्र जपकर गुरु से प्रायश्चित्त लेते हैं।’’ ‘मुनि अपनी वसतिका में यदि अकेले हों, तो किसी अकेली आर्यिका या श्राविका से वार्तालाप नहीं करते हैं, चूँकि लोकापवाद का भय रहता है।४’’ साधु अपने स्वाध्याय को पूर्ण करके अपनी योग्यता और क्षयोपशम के अनुसार गुरुओं के पास अध्ययन करके उन ग्रंथों का मनन करते हैं। उन्हें वंâठाग्र करके गुरु को सुनाते हैं। शास्त्रों में कहा है कि कंठगत प्राण होने तक भी ज्ञानार्जन का पुरुषार्थ नहीं छोड़ना चाहिए। ‘‘संघ के नायक आचार्य जहाँ ठहरे हैं। रात्रि में संघस्थ रोगी अस्वस्थ आदि साधुओं के मल विसर्जनादि (दीर्घशंकादि) के लिए स्वयं सायंकाल में वसतिका के निकट स्थान में जगह देखकर निश्चित कर लेते हैं। रात्रि में कोई साधु यदि शौचादि को जाते हैं, तो गुरु द्वारा निर्दिष्ट स्थान में अपने उल्टे हाथ से स्पर्श कर कि कोई जीवजंतु तो नहीं पुन: मलादि विसर्जन करते हैं।’’ यदि धर्मशाला आदि बड़ा स्थान है, तो श्रावक अंदर ही मर्यादित एकांत स्थान में बालू, रेत आदि डालकर व्यवस्था बना लेते हैं, जहाँ पर साधु दीर्घशंका आदि के लिए जा सकते हैं। चूँकि रात्रि में साधु दूर तक गमन नहीं करते हैं।
प्रश्न-रात्रि में साधु बोलते हैं या नहीं ?
उत्तर – क्वचित् कदाचित बोलने के उदाहरण तो मिल जाते हैं किन्तु मूलाचार आदि ग्रंथों में मुनियों के मूलगुणो में रात्रि में मौन का विधान देखने में नहीं आया है। हाँ यदि साधु प्रतिमायोग आदि धारण करते हैं, तो स्वत: ही मौन हो जाता है। उदाहरण देखिए-‘‘किसी समय अत्यन्त दु:खी धनदत्त सूर्यास्त के बाद मुनियों के आश्रम में पहुँच कर पानी मांगा। वहाँ पर एक मुनि ने उसे सान्त्वना देकर धर्मोपदेश दिया और रात्रि के भोजन पानादि का त्याग करा दिया। ये ही धनदत्त आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम रामचंद्र हुआ है।’’ दूसरा उदाहरण-एक समय सुकुमाल के मामा जो कि दिगम्बर मुनि, गुणधर आचार्य थे। वे सुकुमाल की आयु बहुत थोड़ी जानकर उसके महल के पीछे बगीचे में ठहरे, वहीं वर्षायोग धारण कर लिया। ‘‘वर्षायोग समाप्त करके वे रात्रि में ही त्रिलोकप्रज्ञप्ति का पाठ उच्च स्वर से करने लगे। उसको सुनकर जातिस्मरण हो जाने से सुकुमाल ने आकर उपदेश सुनकर और अपनी तीन दिन की आयु जानकर विरक्त हो गया, पुन: उसने दीक्षा ले ली।’’ ऐसे अनेकों उदाहरण पाये जाते हैं। धर्मोपदेश साधु पौर्वाह्लिक स्वाध्याय के अनंतर श्रावकों की प्रार्थना से उन्हें धर्मोपदेश भी देते हैं। अर्थात् प्रात:काल में श्रावक देवपूजा करके आकर गुरु की वंदना, पूजा करते हैं। पुन: हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि भगवन्! हमें आत्मसुख की सिद्धि के लिए धर्मामृत का पान कराइये। तब शास्त्रों के पारंगत, चारों अनुयोगों में कुशल साधु श्रावकों के लिए धर्म का उपदेश देते हैं। ‘साधु के उपदेश के लिए सभामंडप आदि भी बनाये जाते हैं।
प्रश्न-तत्त्वों का ही उपदेश देते हैं या क्रियाकांड का भी ?
उत्तर – चारों अनुयोगों का ही उपदेश देते हैं चूँकि सभी अनुयोगों में रत्नत्रय का कथन है और वह रत्नत्रय ही आत्मा की सिद्धि का साधन है और क्रियाकांड भी भेद चारित्र के अन्तर्गत है। श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने भी प्रवचनसार में कहा है- ‘‘दर्शन ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का ग्रहण और उनका पोषण तथा जिनेन्द्र देव की पूजा का उपदेश ये सब सरागी साधुओं की चर्या है।’’ इसमें जिनेन्द्र पूजा का उपदेश तथा शिष्यों का पोषण आदि करना क्रिया कांड ही तो है। तथा अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि- ‘‘सबसे प्रथम किसी भी भव्य जीवों को मुनि धर्म का उपदेश देना चाहिए अन्यथा वह शिष्य थोड़े में संतुष्ट होकर उत्तम रत्नत्रय से वंचित हो जाता है और तब साधु भी प्रायश्चित्त का भागी होता है।’’ कहने का मतलब यही है कि शिष्यों की योग्यता को देखकर उनके समझने में आने लायक और जितना वह ग्रहण कर सवें, उसी प्रकार से उपदेश देना चाहिए। इसके अतिरिक्त सागरसेन मुनिराज को पुरुरवा भील ने नमस्कार किया, तब मुनि ने उसे आशीर्वाद देकर मद्य मांस मधु के त्याग का उपदेश दिया। अन्यत्र भी खदिर भिल्ल को कोवे का मांस छुड़ाया, मृगसेन धीवर को पहली मछली जो जाल में फसे उसे छोड़ देना, ऐसा उपदेश दिया। पात्र की योग्यता के अनुसार ही उपदेश होता है। चूँकि आशीर्वाद देने में भी तो भेदभाव देखा जाता है पुन: उपदेश में ऐसा होना तो स्वाभाविक ही है। उपदेश के अनन्तर कोई जिज्ञासु गुरु से कुछ विशेष जानने के लिए धर्म संबंधी प्रश्न भी करते हैं अथवा विद्वान् श्रावक बैठकर तत्त्वचर्चा भी करते हैं। श्रावकों के साथ व्यर्थ की चर्चा, लौकिक कथा, गृहस्थी संबंधी, व्यापार-संबंधी चर्चा आदि नहीं करते हैं। स्त्री कथा, भोजनकथा, राष्ट्र कथा और राजाओं की कथाओं से भी दूर रहते हैं चूँकि ये विकथाएँ हैं। यदि कदाचित् कोई श्रावक कुछ अपना दु:ख दर्द कहते हैं, तो मुनिराज उसे सुनकर उसको शांति का उपाय भी बतलाते हैं।
शंका – क्या बतलाते हैं ?
समाधान – विधान, अनुष्ठान, जाप्य, व्रतादि को देकर उसे सुख शांति का उपाय बताते हैं। जैसे मुनिराज ने मैनासुन्दरी को पति के कुष्ठ रोग निवारण हेतु सिद्धचक्र विधान का उपदेश दिया। चारण ऋद्धिधारी मुनिराज ने अत्यर्थ दरिद्री वत्सराज सेठ को मेघमाला व्रत करने को कहा, जिससे वह धनधान्य से सम्पन्न होकर सुखी हुआ और धर्म में तत्पर हो गया। महामंत्र का जाप्य, सिद्धचक्र मंत्र, शांति मंत्र आदि का जाप्य जपने को बताते हैं। रोहिणीव्रत, जिनगुणसंपत्ति व्रत आदि व्रतों को बताकर उसे क्रम से भवसमुद्र से पार करने वाले हो जाते हैं।
शंका – सांसारिक सुख, संपत्ति, नीरोगता आदि के लिए यह सब मंत्र, व्रत आदि बतलाना साधु पद के विरुद्ध नहीं है क्या ?
समाधान – नहीं देखिए, महान् ग्रंथ मूलाचार में लिखा हुआ है- ‘‘जिसके द्वारा मार्ग को प्रभावशील किया जाता है, वह प्रभावना है। वाद-शास्त्रार्थ, पूजा-सिद्धचक्र विधान महोत्सव आदि, दान-आहार, औषधि, अभय और शास्त्र का दान, व्याख्यान, मंत्र-तंत्रादि से और इनके समीचीन उपदेशों से मिथ्यादृष्टि के प्रभाव को रोक करके अर्हंत भगवान कथित जैनशासन का उद्योत करना प्रभावना है।’’ इसी ग्रंथ में और भी कहा है- ‘‘परवादियों से शास्त्रार्थ करके विजय प्राप्त करके, अष्टांग निमित्तों से, दान, पूजा आदि उत्तम कार्यों से धर्म की प्रभावना करते हैं।’’ मूलाराधना में बताया है कि ‘‘जो साधु द्रव्यलाभ हेतु, मिष्ट आहार हेतु अथवा सुख हेतु मंत्रादि कार्यों का प्रयोग करता है वह आभियोग भावना को करता है। किन्तु जो अपने अथवा पर के आयु आदि ज्ञान करने के लिए मंत्रादि का प्रयोग करता है, धर्मप्रभावना के लिए कौतुक को दिखलाता है, अथवा मैं वैयावृत्ति में प्रवृत्ति करूँगा, इस अभिप्राय से इनका प्रयोग करता है तथा दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप परिणामों में आदरपूर्वक प्रवृत्ति करता रहता है, तो वह दूषित नहीं है।’’ अर्थात् मूलाराधना में कंदर्प आदि पाँच भावनाओं को साधु के लिए छोड़ने योग्य बताते हुए आभियोग्य भावना में मंत्रादि प्रयोगों का भी निषेध किया है। किन्तु टीकाकार ने यह स्पष्ट किया है कि यदि वह धर्मप्रभावना आदि के उद्देश्य से ऐसा करता है, तो दूषण नहीं है। यदि वह अपनी आजीविका स्वरूप उसमें ही लग जाता है। अपनी आवश्यक क्रियाओं से उदासीन हो जाता है, तब तो निषिद्ध ही है। षट्खण्डागम के विषय के ज्ञाता धरसेनाचार्य सोरठ देश के गिरि नगर की चंद्रगुफा में ध्यान करते रहते थे। एक बार उन्हें चिंता हुई कि मेरे पश्चात् मुझमें विद्यमान श्रुतज्ञान का लोप हो जायेगा। तब उन्होंने महिमानगरी के मुनिसम्मेलन को पत्र लिखकर एक ब्रह्मचारी को भेजा और वहाँ से योग्य दो शिष्य बुलाये। गुरु ने उनकी बुद्धि की परीक्षा हेतु एक को अधिकाक्षर और एक को हीनाक्षर मंत्र देकर उन्हें षष्ठोपवास से सिद्ध करने को कहा। आज्ञानुसार उन्होंने कुछ ऊहापोह के बिना ही मंत्र सिद्ध कर लिया। तो एक के सामने बड़े-बड़े दांत वाली और एक के सामने कानी देवी के रूप में दो देवतााएँ प्रकट हुर्इं। इन्हें देखकर उन साधुओं ने समझ लिया कि मंत्र में कुछ त्रुटि है। अनंतर मंत्र व्याकरण से मंत्रों को शुद्ध करके दोनों ने पुन: सिद्धि की तब देवियाँ अपने स्वाभाविक रूप में प्रगट हुईं।’’ इस उदाहरण से स्पष्ट है कि इतने महान् आचार्य भी मंत्र का प्रयोग करते-कराते थे। हाँ, इतना अवश्य है कि उपर्युक्त मिष्ट आहार आदि के हेतु इनका प्रयोग नहीं करते हैं और न ऐसे श्रावकों को ही मंत्रादि देते हैं कि जो अश्रद्धालु हैं या मंत्रों से दुष्प्रवृत्ति करके उनका दुरुपयोग कर सकते हैं। इसीलिए मंत्रादि देने वाले आचार्य या मुनि बहुत ही कुशल, दीर्घ द्रष्टा होते हैं और यदि अल्पज्ञ या अदूरदर्शी साधु ऐसा कार्य करते हैं, तो वे धर्म की अप्रभावना और अपनी और पर की हानि भी कर सकते हैं। दूसरी बात यह भी है कि कोई भी मंत्र या व्रत बिना गुरु के ग्रहण नहीं करना चाहिए। आगम की ऐसी ही आज्ञा है। मंत्र भी गुरु के द्वारा दिये गये उनके आशीर्वाद से करने पर ही सुख शांति को देने वाले होते हैं। ऐसे ही व्रतों के बारे में भी स्पष्ट आदेश है। ‘गुरु के सामने ही व्रतों का ग्रहण और व्रतों का त्याग करना चाहिए। गुरु की साक्षी के बिना ग्रहण किये और त्यागे व्रत निष्फल होते हैं अत: उन व्रतों से धन-धान्य, शिक्षा आदि फलों की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जो स्वयं व्रतों को ग्रहण करता है और स्वयं ही व्रतों को छोड़ देता-पूर्ण कर देता है उसके व्रत निष्फल हो जाते हैं, क्योंकि गुरु की साक्षी न होने से व्रतों का क्या फल होगा? अर्थात् कुछ भी नहीं।’
प्रश्न-आभियोग्य आदि भावनाएँ क्या हैं ?
उत्तर – कंदर्पी, किल्पिषिक, आभियोग्य, आसुरी और संमोही ये पाँच भावनाएँ निंद्य हैं। कंदर्प भावना-राग के उद्रेक से अशिष्ट वचनों का प्रयोग करना कंदर्प है, अशिष्ट कायचेष्टा कौत्कुच्य है। इनका बार-बार करना, इन्द्रजाल आदि कौतुक दिखाकर लोगों में आश्चर्य उत्पन्न करना, हमेशा हास्य कथाओं में लगे रहना। किल्विषक भावना-मायाचार सहित होकर, ज्ञान का, केवली का, धर्म का, आचार्य और साधुओं का अवर्ण करना। अर्थात् इनके असद् भूत दोषोद्भावित करना। आभियोग्य भावना-‘‘ऋद्धि, रस और साता हेतु-ऋद्धि सुख मिष्टाहार आदि के लिए मंत्रों का प्रयोग-कुमारी कन्या आदि में मंत्र प्रयोग में भूत का आवेश उत्पन्न करना, कौतुककार्य-असमय में जल वर्षा आदि दिखाना, भूति कर्म-बालकों की रक्षा हेतु भूतिकर्म मंत्र का प्रयोग करना। ये कार्य मिष्टाहार आदि हेतु यदि किये जायँ तो दोषरूप हैं। किन्तु यदि आयु आदि का ज्ञान, धर्मप्रभावना वैयावृत्ति आदि के लिए मंत्रादि प्रयोग किये जाते हैं। जैसा कि पहले उद्धरण देकर बताया जा चुका है।२’’ आसुरी भावना-बहुत काल तक रहने वाले क्रोध से युक्त और कलह से युक्त तपश्चरण करना, ज्योतिषी आदि की आजीविका करना, क्रूर परिणामी होना तथा दोष करके भी पश्चात्ताप नहीं करना। सम्मोही भावना-मिथ्यामार्ग का उपदेश देना, मुक्ति मार्ग में दूषण लगाना, रत्नत्रयरूप सच्चे मार्ग से विपरीत आचरण करना, इस प्रकार मोह से लोक को मोहित करना। ‘‘ये पाँचों भावनाएँ रत्नत्रय की विराधना करने वाली हैं। यदि साधु इन भावनाओं को करते हैं, तो मरण कर देवदुर्गति में चले जाते हैं३। अर्थात् देवों में आभियोग्य जाति के देव होकर इन्द्रादिकों के वाहन बनने का कार्य करते हैं, किल्विषक जाति में पैदा होकर इन्द्र की सभा से बहिर्भूत रहते हैं और असुर जाति के देवों में पैदा होकर कदाचित् नरकों में नारकियों को लड़ाकर पापसंचय करते रहते हैं। इत्यादि पुन: मिथ्यात्व के निमित्त से अनंत संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। ये साधु तपोभावना, ज्ञानभावना, अभीरुत्व भावना, एकत्व भावना और धृतिबल भावना, संक्लेश रहित इन पाँच भावनाओं का आश्रय लेते हैं। इसी प्रकार साधु स्त्री कथा, भोजनकथा आदि विकथाओं में भी अपना अमूल्य समय नष्ट नहीं करते हैं। ‘‘प्रत्युत वे आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगिनी और निर्वेदिनी इन कथाओं को करते हैं।’’ ‘तत्त्वों का निरूपण करने वाली आक्षेपणी कथा है। परमत की एकांतदृष्टियों का शोधन-खंडन करके स्वसमय की स्थापना करने वाली विक्षेपणी कथा है। विस्तार से धर्म के फल का वर्णन करने वाली संवेगिनी कथा है, अथवा पुण्य के फल को कहने वाली संवेदिनी कथा है।
शंका – पुण्य के फल क्या हैं ?
समाधान – तीर्थंकर, गणधर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, देव और विद्याधरो की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं।’’ वैराग्य को उत्पन्न करने वाली निर्वेदिनी कथा है अथवा पाप के फलों को कहने वाली निर्वेदिनी कथा है। पाप के फल क्या हैं ? नरक, तिर्यंच और कुमानुष की योनियों में जन्म, जरा, मरण, व्याधि, वेदना और दारिद्र्य आदि की प्राप्ति पाप के फल हैं।
 
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