Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

देवपूजा विधि व सामायिक

June 2, 2022विशेष आलेखShreya Jain

१०. देव पूजा विधि व सामायिक


(श्री पूज्यपाद स्वामी कृत पंचामृत अभिषेक के आधार से)

नित्यपूजा की विधि आगम के आधार से-‘‘पंचामृत अभिषेक पाठ संग्रह’’ पुस्तक में प्रकाशित श्री पूज्यपाद स्वामी द्वारा रचित ‘‘पंचामृत अभिषेक’ और उसमें क्षेत्रपाल, दिक्पाल का आह्वानन देखकर मुझे आचार्यश्री शांतिसागर जी की परम्परा में प्रचलित वर्तमान में प्रसिद्ध-बीसपंथ आम्नाय पर बहुत ही श्रद्धा बढ़ गई। इसमें पंद्रह अभिषेक पाठ संगृहीत हैं प्राय: सभी आचार्यों द्वारा लिखित होने से प्रामाणिक हैं। मात्र पंडितप्रवर आशाधर जी द्वारा रचित अभिषेक पाठ ही श्रावक द्वारा रचित है। फिर भी ये आशाधर जी भी बहुत ही प्रामाणिक महापुरुष माने गये हैं, इनके द्वारा बनाये गये ‘अनगारधर्मामृत’ आदि ग्रंथ मुनियों को भी मान्य हैं।

इन सभी में सर्वप्रथम लिया गया श्री पूज्यपादस्वामी का अभिषेक पाठ मुझे बहुत अच्छा लगा और आबाल-गोपाल तक प्रसिद्ध करने की इच्छा रही। मैंने सन् १९७६ में इंद्रध्वज विधान को छपाते समय उसमें यह अभिषेक पाठ ज्यों का त्यों संस्कृत का ही दे दिया था।

मेरे मन में कई वर्षों से यह इच्छा थी कि मैं इसका पद्यानुवाद कर दूं तो सबके लिये सरल हो जाय। सन् १९८७ में मैंने इसका पद्यानुवाद किया। इसमें श्लोकों का भावानुवाद है और मंत्र ज्यों के त्यों दिये गये हैं।

वर्तमान समय की विघ्न बाधाओं को दृष्टि में रखकर उनको दूर करने हेतु मैंने एक ‘‘शांतिधारा’’ बनायी थी वह भी जम्बूद्वीप पूंजाजलि में दे दी है।

पूजामुखविधि व अन्त्यविधि का विधान-श्री पूज्यपादस्वामी ने अभिषेक पाठ में प्रारंभ में दो श्लोक दिये हैं जिनमें नित्यपूजा के प्रारंभ में करने योग्य विधि का संकेत दिया है पुन: अंत में पैंतीस से चालीस श्लोकों में से अंत में चार श्लोकों में अभिषेक के बाद में करने योग्य पूजा, मंत्र-जाप, यक्ष-यक्षी आदि के अर्घ को करने का आदेश दिया है।
इस प्रकार श्री पूज्यपादस्वामी के कहे अनुसार सर्वविधि मुझे ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ नाम के ग्रंथ में देखने को मिली।

इस ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ में ‘‘नित्यमह१’’ नाम से जो विषय है उसमें सर्वप्रथम मंत्रस्नान विधि दी गई है। इसे ही अन्यत्र ‘‘संध्यावंदनविधि२’’ कहते हैं।

श्रावकों को नित्य ही ‘‘जलस्नान’’ के बाद शुद्ध वस्त्र पहनकर एक कटोरी में जल लेकर यह ‘‘मंत्रस्नान’’ विधिवत् करना चाहिए। इस ‘‘संध्यावंदन’’ को पं. लालाराम जी शास्त्री ने भी छपाया था और ‘‘पुरंदर विधान’’ में ब्र. सूरजमल जी ने भी छपाया है। श्रावकों के लिए शास्त्र में तीन स्नान माने हैं। जलस्नान, मंत्रस्नान और व्रतस्नान। ‘‘अभिषेक-पाठ संग्रह’’ ग्रंथ में भूमिका में पूजाविधि में तीनों स्नान के मंत्र अलग-अलग दिये हैं। उसमें व्रतस्नान का मंत्र निम्न प्रकार है-

‘‘ॐ ह्रीं र्हं श्रीं नम: अणुव्रतपंचकं गुणव्रतत्रयं शिक्षाव्रतचतुष्टयं अर्हतसिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधून् साक्षीकृत्य सम्यक्त्वपूर्वकं सुव्रतं दृढव्रतं समारूढं भवतु मह्यं स्वाहा।’’

इस प्रकार तीनों स्नान से शुद्ध होकर जिनमंदिर में पहुँचकर अभिषेक-पूजा करने के लिये पूजामुखविधि करे। इसी ग्रंथ के आधार से पूजामुखविधि मैंने संक्षेप में दी है।

इसमें सकलीकरण भी शामिल है उसे यहाँ विस्तार के भय से नहीं दिया है।

यहाँ ‘‘पंचामृत अभिषेक पाठ’’ श्री पूज्यपादस्वामी का दिया है। इसके बाद नवदेवता पूजन देकर ‘‘पूजाअन्त्यविधि’’ दी है। यह भी ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ के आधार से संक्षिप्त करके दी है।

पूजामुखविधि और पूजा अन्त्य विधि को संस्कृत में देकर पुन: इन दोनों का पद्यानुवाद भी दे दिया है जिससे हिन्दी में विधि करने वालों को भी सुविधा मिलेगी।

पूजामुखविधि में जो क्रिया है वह सब श्री पूज्यपादस्वामी के अभिषेक पाठ के प्रारंभिक श्लोकों के अनुसार ही है सो देखिये-

आनम्यार्हंतमादावहमपि विहितस्नानशुद्धि: पवित्रै:।
तोयै: सन्मंत्रयंत्रैर्जिनपतिसवणाम्भोभिरण्यात्तशुद्धि:।।
आचम्याघ्र्यं च कृत्वा शुचिधवलदुकूलान्तरीयोत्तरीय:।
श्रीचैत्यावासमानौम्यवनतिविधिना त्रि:परीत्य क्रमेण।।१।।
द्वारं चोद्घाट्य वक्त्राम्बरमपि विधिनेर्यापथाख्यां च शुद्धिं।
कृत्वाहं सिद्धभकंति बुधनुतसकलीसत्क्रियां चादरेण।।
श्री जैनेन्द्रार्चनार्थं क्षितिमपि यजनद्रव्यपात्रात्मशुद्धिं।
कृत्वा भक्त्या त्रिशुद्ध्या महमहमधुना प्रारभेयं जिनस्य।।२।।

‘‘पूजा अभिषेक के प्रारंभ में स्नान करके शुद्ध हुआ मैं अर्हंत देव को नमस्कार करके पवित्र जलस्नान से, मंत्रस्नान से और व्रतस्नान से शुद्ध होकर आचमन कर, अघ्र्य देकर, धुले हुए सपेâद धोती और दुपट्टे को धारण कर, वंदना विधि के अनुसार तीन प्रदक्षिणा देकर जिनालय को नमस्कार करता हूँ। तथा द्वारोद्घाटन कर और मुख वस्त्र हटाकर विधिपूर्वक ईर्यापथ शुद्धि करके, सिद्धभक्ति करके, सकलीकरण करके, जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए भूमिशुद्धि, पूजा द्रव्य की शुद्धि, पूजा पात्रों की शुद्धि और आत्मशुद्धि करके भक्तिपूर्वक मन, वचन, काय की शुद्धि से अब जिनेन्द्रदेव का महामह अर्थात् अभिषेक पूजा प्रारंभ करता हूूँ।

इस कथित विधि के अनुसार आचार्य श्री नेमिचंद्र कृत प्रतिष्ठातिलक में क्रम से सर्वविधि का वर्णन है। प्रारंभ में जलस्नान के अनंतर ‘‘मंत्रस्नान’’ विधि का वर्णन है। अनंतर ‘‘पूजामुखविधि’’ शीर्षक में मंदिर में प्रवेश करने से लेकर सिद्धभक्ति तक का वर्णन है अर्थात् मंदिर में प्रवेश करना, प्रदक्षिणा देना, जिनालय की तथा जिनेन्द्रदेव की स्तुति करना, ईर्यापथ शुद्धि करके सकलीकरण करना, द्वारोद्घाटन, मुखवस्त्र उत्सारण (वेदी के सामने का वस्त्र हटाना) पुन: सामायिक विधि स्वीकार कर विधिवत् कृत्य विज्ञापना करके सामायिक दंडक, कायोत्सर्ग और थोस्सामि करके लघु सिद्धभक्ति करना यहाँ तक पूजामुखविधि होती है। पुन: विधिवत् अभिषेक करने का विधान है। अनंतर नित्य पूजा के बाद अंत में जो विधि करनी चाहिये उसके लिये ‘‘अभिषेक पाठ’’ में ही अंत में चार श्लोक दिये गये हैं उन्हें देखिये-

निष्ठाप्यैवं जिनानां सवनविधिरपि प्राच्र्यभूभागमन्यंं।
पूर्वोत्तैकर्मंत्रयंत्रैरिव भुवि विधिनाराधनापीठयंत्रम्।।
कृत्वा सच्चंदनाद्यैर्वसुदलकमलं कर्णिकायां जिनेन्द्रान्।
प्राच्यां संस्थाप्य सिद्धानितरदिशि गुरून् मंत्ररूपान् निधाय।।३७।।

जैनं धर्मागमार्चानिलयमपि विदिक्पत्रमध्ये लिखित्वा।
बाह्यो कृत्वाथ चूर्णै: प्रविशदसदवैâ: पंचकं मंडलानाम्।।
तत्र स्थाप्यास्तिथीशा ग्रहसुरपतयो यक्षयक्ष्य: क्रमेण।
द्वारेशा लोकपाला विधिवदिह मया मंत्रतो व्याह्नियन्ते।।३८।।

एवं पंचोपचारैरिह जिनयजनं पूर्ववन्मूलमंत्रे-
णापाद्यानेकपुष्पैरमलमणिगणैरंगुलीभि: समंत्रै:।।
आराध्यार्हंतमष्टोत्तरशतममलं चैत्यभक्त्यादिभिश्च।

स्तुत्वा श्रीशांतिमंत्रं गणधरवलयं पंचकृत्व: पठित्वा।।३९।।

पुण्याहं घोषयित्वा तदनु जिनपते: पादपद्मार्चितां श्री-
शेषां संधार्य मूघ्र्ना जिनपतिनिलयं त्रि:परीत्य त्रिशुद्ध्या।।
आनम्येशं विसृज्यामरगणमपि य: पूजयेत् पूज्यपादं।
प्राप्नोत्येवाशु सौख्यं भुवि दिवि विबुधो देवनंदीडितश्री:।।४०।।

अर्थ-इस प्रकार जिनेन्द्रदेव की पूजा विधि को पूर्ण करके पूर्वाेक्त मंत्र-यंत्रों से विधिपूर्वक आराधनापीठ यंत्र की पूजा करे पुन: चंदन आदि के द्वारा आठ दल का कमल बनाकर कर्णिका में श्रीजिनेन्द्रदेव को स्थापित कर पूर्वदिशा में सिद्धों को, शेष तीन दिशा में आचार्य, उपाध्याय और साधु को विराजमान करके पुन: विदिशा के दलों में क्रम से जिनधर्म, जिनागम, जिनप्रतिमा और जिनमंदिर को लिखकर बाहर में चूर्ण से और धुले हुये उज्ज्वल चावल आदि से पंचवर्णी मंडल बना लेवे। इस कमल के बाहर पंचदश तिथिदेवता को, नवग्रहों को, बत्तीस इंद्रों को, चौबीस यक्षों को, चौबीस यक्षिणी को तथा द्वारपालों को और लोकपालों को विधिवत् मंत्रपूर्वक मैं आह्वानन विधि से बुलाता हूँ।

इस तरह पंचोपचारों से मंत्रपूर्वक जिन भगवान का पूजन कर पूर्ववत् मूल मंत्रों द्वारा अनेक प्रकार के पुष्पों से, निर्मल मणियों की माला से या अंगुली से एक सौ आठ जाप्य करके अरहंतदेव की आराधना करे। पुन: चैत्यभक्ति आदि शब्द से पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा स्तवन करके शांतिमंत्र और गणधरवलय मंत्रों को पाँच बार पढ़कर पुण्याहवाचन की घोषणा करना, इसके बाद जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों से पूजित श्रीशेषा/आसिका को मस्तक पर चढ़ाकर जिनमंदिर की तीन प्रदक्षिणा देकर, मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके और अमरगण अर्थात् पूजा के लिये बुलाए गए देवों का विसर्जन करके जो व्यक्ति ‘‘पूज्यपाद’’ जिनेन्द्र भगवान की पूजा करता है वह ‘‘देवनन्दी’’ से पूजित श्री विद्वान् मत्र्यलोक ओर देवलोक में शीघ्र ही सुख को प्राप्त करता है। (३७ से ४०)

पूजामुखविधि-पूजाअन्त्यविधि-जम्बूद्वीप पूजांजलि में पूजामुखविधि व पूजाअन्त्यविधि जो दी गई है वह ‘‘प्रतिष्ठातिलक’’ ग्रंथ के आधार से संक्षिप्त में दी गई है। जैसा कि यहाँ श्री पूज्यपादस्वामी ने कहा है अत: यह पूजामुखविधि करके विधिवत् पंचामृत अभिषेक करे, अनंतर पूजन करके पूजा अन्त्यविधि करके पूजन पूर्ण करे तभी आगमोक्त विधि से पूजा होगी।

देवपूजा सहित सामायिक-पूजामुख विधि करके विधिवत् पंचामृत अभिषेक करे, अनंतर नवदेवता पूजा आदि पूजाएँ करके पूजा अन्त्य विधि करे। यही श्रावक-श्राविकाओं की प्रात:कालीन सामायिक है। भावसंग्रह (संस्कृत) ग्रंथ में यही विधि बतलाई है वह श्रावकों के सामायिक के प्रकरण में ली गई है और वहाँ एक पंक्ति आई है कि- ‘‘देवपूजां बिना सर्वा दूरा सामायिकी क्रिया।’’

देवपूजा के बिना श्रावकों की सामायिक क्रिया दूर ही है/पूर्ण नहीं होती है अत: इस विधि के अनुसार पूजा करके सामायिक कर सकते हैं।

जम्बूद्वीप पूजांजलि पुस्तक के द्वितीय खंड में पूज्यपाद स्वामी द्वारा विरचित पंचामृत अभिषेक संस्कृत के हिन्दी पद्यानुवाद के बाद जो शांतिधारा है उसे मैंने वर्तमान के हवाई जहाज, रेल, मोटर आदि के एक्सीडेंट, गैस आदि के विस्फोट इत्यादि उपद्रवों को दूर करने की भावना से बनाया है अत: प्रत्येक श्रावक-श्राविकायें प्रतिदिन उस शांतिधारा को करके अनेक प्रकार के उपद्रवों से अपनी रक्षा करें यही मेरी मंगल कामना है।गृहस्थ धर्म भी मुक्ति का कारण है

दाणु ण दिण्णउ मुणिवरहँ ण वि पुज्जिउ जिण-णाहु।
पंच ण वंदिय परम-गुरु किमु होसइ सिव-लाहु।।१६८।।

(परमात्मप्रकाश)

आहार, औषध, शास्त्र और अभयदान ये चार प्रकार के दान भक्तिपूर्वक पात्रों को नहीं दिये अर्थात् निश्चय-व्यवहार रत्नत्रय के आराधक जो यति आदिक चार प्रकार का संघ उनको चार प्रकार का दान भक्ति कर नहीं दिया और भूखे जीवों को करुणाभाव से दान नहीं दिया। इन्द्र, नागेन्द्र, नरेन्द्र आदिकर पूज्य केवलज्ञानादि अनन्तगुणों कर पूर्ण जिननाथ की पूजा नहीं की। जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल से पूजा नहीं की और तीन लोक कर वंदन योग्य ऐसे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु इन पाँच परमेष्ठियों की आराधना नहीं की। सो हे जीव! इन कार्यों के बिना तुझे मुक्ति का लाभ वैâसे होगा? क्योंकि मोक्ष की प्राप्ति के ये ही उपाय हैं। जिनपूजा, पंचपरमेष्ठी की वंदना और चार संघ को चार प्रकार दान इन बिना मुक्ति नहीं हो सकती। ऐसा व्याख्यान जानकर सातवें उपासकाध्ययन अंग में कही गई जो दान-पूजा वंदनादिक की विधि वही करने योग्य है। शुभ विधि से न्यायकर उपार्जन किया अच्छा द्रव्य वह दातार के अच्छे गुणों को धारण कर विधि से पात्र को देना, जिनराज की पूजा करना और पंचपरमेष्ठी की वंदना करना ये ही व्यवहारनय कर कल्याण के उपाय हैं।

 

Previous post श्रावक धर्म Next post सामायिक व्रत का लक्षण
Privacy Policy