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सामायिक व्रत का लक्षण

June 2, 2022विशेष आलेखShreya Jain

चार शिक्षाव्रत के अन्तर्गत


११. सामायिक व्रत का लक्षण
(देवपूजा एवं सामायिक की विधि)

(श्री वामदेव विरचित भावसंग्रह ग्रंथ के आधार से)

सामायिकं प्रकुर्वीत कालत्रये दिनं प्रति।
श्रावको हि जिनेन्द्रस्य जिनपूजापुर:सरम्।।१।।

जिनपूजा प्रकर्तव्या पूजाशास्त्रोदितक्रमात्।
यया संप्राप्यते भव्यैर्मोक्षसौख्यं निरन्तरम्।।२।।

तावत्प्रात: समुत्थाय जिनं स्मृत्वा विधीयताम्।
प्राभातिको विधि: सर्व: शौचाचमनपूर्वकम्।।३।।

तत: पौर्वाण्हिकीं सन्ध्याक्रियां समाचरेत्सुधी:।
शुद्धक्षेत्रं समाश्रित्य मंत्रवच्छुद्धवारिणा।।४।।

पश्चात् स्नानविधिं कृत्वा धौतवस्त्रपरिग्रह:।
मंत्रस्नानं व्रतस्नानं कर्तव्यं मंत्रवत्तत:१।।५।।

एवं स्नानत्रयं कृत्वा शुद्धित्रयसमन्वित:।
जिनावासं विशेन्मंत्री समुच्चार्य निषेधिकाम्।।६।।

कृत्वेर्यापथसंशुद्धिं जिनं स्तुत्वातिभक्तित:।
उपविश्य जिनस्याग्रे कुर्याद्विधिमिमां पुरा।।७।।

तत्रादौ शोषणं स्वांगे दहनं प्लावनं तत:।
इत्येवं मंत्रविन्मंत्री स्वकीयाङ्गं पवित्रयेत्।।८।।

हस्तशुद्धिं विधायाय प्रकुर्याच्छकलीक्रियाम्।
वूâटबीजाक्षरैर्मंत्रैदशंदिग्बंधनं तत: ।।९।।

पूजापात्राणि सर्वाणि समीपीकृत्य सादरम्।
भूमिशुद्धिं विधायोच्चैर्दर्भाग्निज्वलनादिभि:।।१०।।

भूमिपूजां च निर्वृत्य ततस्तु नागतर्पणम्।
आग्नेयदिशि संस्थाप्य क्षेत्रपालं प्रतृप्य च।।११।।

स्नानपीठं दृढं स्थाप्य प्रक्षाल्य शुद्धवारिणा।
श्रीबीजं च विलिख्यात्र गन्धाद्यैस्तत्प्रपूजयेत्।।१२।।

परित: स्नानपीठस्य मुखार्पितसपल्ल्वान्।
पूरितांस्तीर्थसत्तोयै: कलशांश्चतुरो न्यसेत्।।१३।।

जिनेश्वरं समभ्यच्र्य मूलपीठोपरिस्थितम्।
कृत्वाह्वानविधिं सम्यक् प्रापयेत्स्नानपीठिकाम्१।।१४।।

कुर्यात्संस्थापनं तत्र सन्निधानविधानकम्।
नीराजनैश्च निर्वृत्य जलगंधादिभिर्यजेत्।।१५।।

इन्द्राद्यष्टदिशापालान् दिशाष्टसु: निशापतिम्।
रक्षोवरुणयोर्मध्ये शेषमीशानशक्रयो:।।१६।।

न्यस्याव्हानादिवंâ कृत्वा क्रमेणैतान् मुदं नयेत्।
बलिप्रदानत: सर्वान् स्वस्वमंत्रैर्यथादिशम्।।१७।।

तत: कुम्भं समुद्धार्य तोयचोचेक्षुसद्रसै:।
सद्घृतैश्च ततो दुग्धैर्दधिभि: स्नापयेज्जिनम्।१८।।

तोयै: प्रक्षाल्य सच्चूर्णै: कुर्यादुद्वत्र्तनक्रियाम्।
पुनर्नीराजनं कृत्वा स्नानं कषायवारिभि:।।१९।।

चतुष्कोणस्थितै: कुम्भैस्ततो गन्धाम्बुपूरितै:।
अभिषेवंâ प्रकुर्वीरन् जिनेशस्य सुखार्थिन:।।२०।।

स्वोत्तमाङ्गं प्रसिंच्याथ जिनाभिषेकवारिणा।
जलगन्धादिभि: पश्चादर्चयेद्बिंबमर्हत:।।२१।।

स्तुत्वा जिनं विसज्र्यापि दिगीशादिमरुद्गणान्।
अर्चिते मूलपीठेऽथ स्थापयेज्जिननायकम्। ।२२।।

तोयै: कर्मरज: शान्त्यै गन्धै: सौगन्धसिद्धये।
अक्षतैरक्षयावाप्त्यै पुष्पै: पुष्पशरच्छिदे।।२३।।

चरुभि: सुखसंवृद्ध्यै देहदीप्त्यै प्रदीपकै:।
सौभाग्यावाप्तये धूपै: फलैर्मोक्षफलप्राप्तये।।२४।।

घण्टाद्यैर्मंगलद्रव्यैर्मंगलावाप्तिहेतवे ।
पुष्पाञ्जलिप्रदानेन पुष्पदन्ताभिदीप्तये।।२५।।

तिसृभि: शान्तिधाराभि: शान्तये सर्वकर्मणाम्।
आराधयेज्जिनाधीशं मुक्तिश्रीवनितापतिम्।।२६।।

इत्येकादशधा पूजां ये कुर्वन्ति जिनेशिनाम्।
अष्टौ कर्माणि सन्दह्य प्रयान्ति परमं पदम्।।२७।।

अष्टोत्तरशतै: पुष्पै: जापं कुर्याज्जिनाग्रत:।
पूज्यै: पंचनमस्कारैर्यथावकाशमज्जसा।।२८।।

अथवा सिद्धचक्राख्यं यंत्रमुद्धार्य तत्त्वत:।
सत्पंचपरमेष्ठ्याख्यं गणभृद्बलयक्रमम्।।२९।।

यंत्रं चिन्तामणिर्नाम सम्यग्शास्त्रोपदेशत:।
संपूज्यात्र जपं कुर्यात् तत्तन्मंत्रैर्यथाक्रमम्।।३०।।

तद्यंत्रगन्धतो भाले विरचय्य विशेषकम्।
सिद्धशेषां प्रसंगृह्य न्यसेन्मूधरनि समाहित:।।३१।।

चैत्यभक्त्यादिभि: स्तूयाज्जिनेन्द्रं भक्तिनिर्भर:।
कृत्कृत्यं स्वमात्मानं मन्यमानोऽद्य जन्मनि।।३२।।

संक्षेपस्नानशास्त्रोक्तविधिना १चाभिषिंच्य २तम्।
कुर्यादष्टविधां पूजां तोयगन्धाक्षतादिभि:३।।३३।।

अन्तर्मुहूर्तमात्रं तु ध्यायेत् स्वस्थेन चेतसा।
स्वदेहस्थं निजात्मानं चिदानन्दैकलक्षणम्४।।३४।।

विधायैवं जिनेशस्य यथावकाशतोऽर्चनम्।
समुत्थाय पुन: स्तुत्वा जिनचैत्यालयं व्रजेत्।।३५।।

कृत्वा पूजां नमस्कृत्य देवदेवं जिनेश्वरम्।
श्रुतं संपूज्य सद्भक्त्या५ तोयगन्धाक्षतादिभि:।।३६।।

संपूज्य६ चरणौ साधोर्नमस्कृत्य यथाविधिम्।
आर्याणामार्यिकाणां च कृत्वा विनयमंजसा।।३७।।

इच्छाकारवच: कृत्वा मिथ: साधर्मिवैâ: समम्।
उपविश्य गुरोरन्ते सद्धर्मं शृणुयाद्बुध:।।३८।।

देयं दानं यथाशक्त्या जैनदर्शनवर्तिनाम्।
कृपादानं च कत्र्तव्यं दयागुणविवृद्धये।।३९।।

एवं सामायिक सम्यग्य: करोति गृहाश्रमी।
दिनै: कतिपयैरेव स स्यान्मुक्तिश्रिय: पति:।।४०।।

मासं प्रति चतु:ष्वेव पर्वस्वाहारवर्जनम्।
सकृद्भोजनसेवा वा कांजिकाहारसेवनम्।।४१।।

एवं शक्त्यनुसारेण क्रियते समभावत:।
स प्रोषधो विधि: प्रोक्तो मुनिभिर्धर्मवत्सलै:।।४२।।

भुक्त्वा संत्यज्यते वस्तु स भोग: परिकीत्र्यते।
उपभोगोऽसकृद्वारं भुज्यते च तयोर्मिति:१।।४३।।

संविभागोऽतिथीनां य: विंâचिद्विशिष्यते हि स:।
न विद्यते तिथिर्यस्य सोऽतिथि: पात्रतां गत:।।४४।।

सामायिक व्रत का लक्षण

प्रतिदिन तीनों संध्या कालों में श्रावक जिनेन्द्र भगवान की पूजापूर्वक सामायिक करे।।१।।

भावार्थ-अन्यत्र भी श्रावकों को सामायिक में जिनेन्द्र भगवान की पूजा का विधान आता है। प्रतिष्ठा शास्त्रों में भी यही विधि है कि विधिवत् सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शांतिभक्तिपूर्वक अभिषेक, पूजन करते हुए सामायिक विधि पूर्ण करे, इसी विधि का इसमें बड़ा ही सुंदर स्पष्टीकरण है। श्रावकों की सामायिक देवपूजापूर्वक ही होती है। कहा भी है-‘‘देवपूजां बिना सर्वा दूरा सामयिकी क्रिया।’’

पूजा शास्त्र में कहे गये क्रम से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करना चाहिए। उस विधिवत् पूजा से भव्य जीवों को निरंतर-नित्यस्वरूप मोक्षसुख प्राप्त हो जाता है।।२।। सबसे पहले प्रात:काल में उठकर जिनेन्द्र भगवान का स्मरण करके शौच-स्नान, आचमन-दंतधावनपूर्वक संपूर्ण प्राभातिक विधि-क्रिया करनी चाहिए।।३।। इसके बाद विद्वान् श्रावक शुद्धस्थान का आश्रय लेकर मंत्र वाले शुद्ध जल से पौर्वाह्विक-संध्या क्रिया को करे अर्थात् स्नान करने के बाद शुद्ध जल से ‘संध्यावंदन’ मंत्रों के द्वारा संध्या वंदन विधि करे, इसे मंत्र स्नान कहते हैं।।४।। इस प्रकार से स्नान विधि को करके धुले हुए वस्त्रों को ग्रहण करे। मंत्रों को जानने वाला श्रावक मंत्रस्नान और व्रतस्नान करे।।५।। इस प्रकार से जलस्नान, मंत्रस्नान और व्रतस्नानरूप तीन स्नान को करके तीन शुद्धि से समन्वित होकर मंत्रवित् श्रावक नि:सहि नि:सहि का उच्चारण करके घर में स्थित जिनमंदिर में प्रवेश करे।।६।। वहाँ मंदिर में पहुँचकर ईर्यापथ शुद्धि करके अतिभक्तिपूर्वक जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करके जिनेन्द्र भगवान के सामने बैठकर पहले निम्नलिखित विधि को करे।।७।। पूजक को सबसे पहले सकलीकरण विधि करना चाहिए। यहाँ उसी की विधि बताते हैं। इसमें सबसे पहले शोषण, अपने अंग में दहन और प्लावन विधि करे, इस प्रकार से मंत्रवित् श्रावक अपने शरीर को पवित्र करे। इसके बाद हस्तशुद्धि करके सकलीकरण विधि पूर्ण करे और वूâट बीजाक्षर मंत्रों से दश दिशाओं का बंधन करे।।८-९।।

सभी पूजा-पात्रों को सादर पास में रखकर दर्भाग्नि के प्रज्वलन द्वारा भूमि शुद्धि करे।।१०।। भूमि पूजा को करके बाद में नाग संतर्पण विधि करे और आग्नेय दिशा में क्षेत्रपाल की स्थापना करके उसको अर्घ्य आदि से तृप्त करे।।११।। पुन: भगवान के अभिषेक करने की स्नानपीठ-अभिषेकपात्र को दृढ़ स्थापित करके शुद्ध जल से प्रक्षालित करके उसमें ‘श्री:’ बीज को लिखकर गंध, अक्षत आदि से उसकी पूजा करे।।१२।। स्नानपीठ के चारों तरफ चार कलशों का स्थापन करे, जिनकलशों के मुख पर आम्रपल्लव आदि रखे हों और तीर्थ के पवित्र जल से पूर्ण भरे हुए हों।।१३।। मूलवेदी में विराजमान जिनेन्द्र भगवान की सम्यक् प्रकार से अर्चना करके (अघ्र्यादि चढ़ाकर या आरती उतारकर) आह्वानन विधि करके सम्यक् प्रकार से ‘स्नानपीठ’ पर जिनेन्द्र भगवान को विराजमान करे।।१४।। वहाँ पर (जलोढ या थाल आदि में) विराजमान जिनेन्द्र भगवान की स्थापना और सन्निधापन विधि करे। नीराजन आदि से आरती करके जल, गंध आदि से भगवान की पूजा करे।।१५।।

पुन: आठ दिशाओं में इन्द्र आदि आठ दिक्पालों को, ईशान और पूर्व दिशा के मध्य में धरणेन्द्र को एवं नैऋत और पश्चिम दिशा के मध्य में चन्द्र को स्थापित करे अर्थात् स्नानपीठ के चारों तरफ दश दिक्पालों की स्थापना करे और इन दिक्पालों का आह्वानन आदि करके क्रम से यज्ञभाग दान आदि विधि से उन-उन दिक्पाल के मंत्रों से उन-उनकी दिशाओं में उनको स्थापित करे अर्थात् उन-उन दिशाओं में उन-उनके मंत्रपूर्वक पुष्पांजलि क्षेपण करके अघ्र्य चढ़ावे।।१६-१७।।

पुन: जलकुंभ का समुद्धरण करके अभिषेक विधि प्रारंभ करे, उसमें सबसे पहले जल से अभिषेक करे तत्पश्चात् इक्षुरस, नालिकेर, आम्र आदि के रसों से, घृत से, दुग्ध से, दधि से जिनेन्द्र भगवान का विधिवत् अभिषेक करे।।१८।। पुन: जल से प्रक्षालन करके सच्चूर्ण (अष्टगंधादि) से उद्वर्तन क्रिया को करके (चंदनविलेपन करके) नीराजन विधि-आरती करे और कषाय जल-सर्वोषधि के द्वारा भगवान का अभिषेक करके जल गंध से पूरित चतुष्कोण कलशों से सुख का इच्छुक श्रावक जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करे।।१९-२०।।

भावार्थ–अन्य किन्हीं-किन्हीं ग्रंथों में चतुष्कोण कलशों के अभिषेक के बाद पंचम कलश से शांतिधारा करने का विधान है। प्राय: यही प्रथा सर्वत्र प्रचलित है। कहीं-कहीं पंचम कलश से सुगंधित जल से पूर्ण अभिषेक करके पुन: शांतिधारा करके अभिषेक पूर्ण करते हैं।

इस अभिषेक क्रिया के बाद जिनेन्द्र भगवान के अभिषेक के जल-गंधोदक को अपने मस्तक पर लगाकर पश्चात् जल, गंध, अक्षत आदि अष्ट द्रव्यों से अर्हंत भगवान् की प्रतिमा की पूजन करें।।२१।। जिनेन्द्र भगवान की स्तुति करके विसर्जन करके अर्चित की गई जिनप्रतिमा को मूलवेदी में स्थापित कर देवें।।२२।। अब अष्टद्रव्य से जिनपूजा की विधि और फल को बतलाते हैं। मुक्ति के अधिपति जिनेन्द्र भगवान की जल, गंध आदि से आराधना करें। कर्मरज की शांति के लिए जलधारा से भगवान की पूजा करें। सौगंध-सुगंधित शरीर की सिद्धि के लिए गंध से पूजा करें, अक्षय सुख की प्राप्ति के लिए अक्षतों से, कामबाण विनाश होने के लिए पुष्पों से, सुख संवृद्धि के लिए नैवेद्य से, देह दीप्ति के लिए दीपकों से, सौभाग्य की प्राप्ति के लिए धूप से, मोक्ष फल की प्राप्ति के लिए फलों से पूजा करें। आगे अष्टद्रव्य चढ़ाने के बाद मंगल की प्राप्ति के लिए अघ्र्य, घंटादि मंगल द्रव्यों से जिनदेव की पूजा करें। पुष्प सदृश दंतों की दीप्ति के लिए पुष्पांजलि करके एवं संपूर्ण कर्मोंे की शांति के लिए तीन शांतिधारा से जिनदेव की पूजा करना चाहिए।।२३-२४-२५-२६।।

भावार्थ-जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप और फल ये अष्ट द्रव्य हैं। इनसे पूजा करके अघ्र्य चढ़ाया जाता है पुन: पुष्पांजलि और शांतिधारा की जाती है। ऐसे ग्यारह प्रकार से जिनदेव की पूजा की जाती है। उत्तरप्रदेश में प्राय: अष्टद्रव्य से पूजा करके अघ्र्य, जयमाला एवं पुष्पांजलि की जाती है किन्तु पूजा शास्त्रों में और दक्षिण प्रांत में अष्टद्रव्य से पूजा करके अघ्र्य, शांतिधारा और पुष्पांजलि करते हैं, यही पूजा विधिवत् है।

इस प्रकार से जो भव्य जीव ग्यारह प्रकार से जिनेन्द्र भगवान की पूजा करते हैं, वे आठों कर्मों को जलाकर परम पद को प्राप्त कर लेते हैं।।२७।। पुन: यथावकाश जिनेन्द्र भगवान के सामने ही एक सौ आठ सुगंधित पुष्पों से पंच नमस्कार मंत्र की जाप्य करें।।२८।। अथवा विधिवत् सिद्धचक्र यंत्र का उद्धार-विधिवत् प्रतिष्ठित करके उसकी आराधना जाप्य आदि करें या पंचपरमेष्ठी यंत्र, गणधरवलय यंत्र, चिंतामणि यंत्र आदि यंत्रों की सम्यक् शास्त्रों के उपदेश से पूजा करके उन-उन मंत्रों से क्रम से उनकी जाप्य करें।।२९-३०।।

पुन: उस यंत्र के चंदन से अपने ललाट में तिलक करके ‘सिद्धशेषा’ को ग्रहण करके बुद्धिमान श्रावक अपने मस्तक पर लगावे।।३१।। अनंतर भक्ति से भरित होकर चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा जिनदेव की स्तुति करे और इस जन्म में आज अपनी आत्मा को कृतकृत्य मानता हुआ संतुष्ट होवे।।३२।। इस प्रकार से अति संक्षिप्त अभिषेक शास्त्र की विधि से जिनदेव का अभिषेक करके जल, गंध, अक्षत आदि के द्वारा अष्टविध पूजा पूर्ण करें।।३३।। अनंतर स्वस्थचित्त होकर अंतर्मुहूर्त मात्र चिदानंदैक लक्षण स्वरूप अपने शरीर में स्थित निज शुद्ध आत्मा का ध्यान करे।।३४।। इस प्रकार से अवकाश के अनुसार जिनेन्द्र भगवान की अर्चना को करके पुन: उठकर स्तुति करते हुए ‘जिनचैत्यालय’ में जावें।।३५।।

भावार्थ–गृह में स्थित जिनचैत्यालय की पूजा की है, अब जिनमंदिर में जाकर पूजा करेें, ऐसा विधान है। वहाँ जिनमंदिर में पहुँचकर पूजा करके देवाधिदेव जिनेन्द्र को नमस्कार करके जल, गंध, अक्षत आदि के द्वारा श्रुत-जिनवाणी की पूजा करके साधु के चरणों को नमस्कार करके विधिवत् गुरु की पूजन करके आर्य-ऐलक, क्षुल्लक और आर्यिकाओं की विधिवत् विनय, वंदामि आदि करके परस्पर में साधर्मी श्रावकों के साथ इच्छाकार करके पुन: गुरु के पास बैठकर वह बुद्धिमान श्रावक सच्चे धर्म के उपदेश को श्रवण करे।।३६-३७-३८।।

जैनदर्शनावलम्बी जनों को यथाशक्ति दान देना चाहिए और दयागुण की वृद्धि के लिए दयादान करना चाहिए।।३९।। इस प्रकार से जो गृहस्थ सामायिक विधि को सम्यक् प्रकार से विधिवत् करता है वह कुछ दिनों में ही मुक्तिश्री का पति हो जाता है।।४०।। यहाँ तक अभिषेक एवं देवपूजापूर्वक सामायिक विधि बतलाई गई है। अब आगे प्रोषध आदि व्रतों का वर्णन करेंगे।

भावार्थ–यहाँ जो सामायिक विधि में प्रात: पूजन क्रिया पर विशेष प्रकाश डाला है, उसकी विधि संध्या वंदन, सक करण, पूजामुख विधि, पंचामृत अभिषेक पाठ, पूजन, पूजा अन्त्य विधि इन छह प्रकारों से उनका अलग-अलग वर्णन है। प्रत्येक विधि के मंत्र, प्रयोग व विधि को जम्बूद्वीप पूजांजलि में लिखा है। वहीं से समझकर विधिवत् सामायिक (पूजन) करना चाहिए।

प्रोषधोपवास व्रत का लक्षण

प्रत्येक मास के चारों ही पर्वों में आहार का त्याग करना अथवा एक बार भोजन करना या कांजी आहार करना, इस प्रकार से शक्ति के अनुसार समभाव से जो विधि की जाती है, धर्मवत्सल मुनियों के द्वारा वह प्रोषध विधि कहलाती है।।४१-४२।।

भावार्थ-प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को चतुराहार का त्याग करके उपवास करना, उपवास की शक्ति न होवे तो एकाशन अथवा कांजी आहार करना भी प्रोषध है, ऐसा समझना चाहिए।

भोगोपभोगपरिमाण व्रत का लक्षण

जिस वस्तु का भोग करके छोड़ दिया जाता है वह वस्तु भोग कहलाती है और जिस वस्तु का बार-बार उपभोग किया जाता है, वह वस्तु उपभोग कहलाती है। इन भोग और उपभोग का परिमाण करना भोगोपभोग परिमाणव्रत है।।४३।।

अतिथिसंविभाग व्रत का लक्षण

अतिथिजनों के लिए जो विंâचित् सम्यक् प्रकार से विभाग किया जाता है वह अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है और जिसकी कोई तिथि नहीं है, जिसके आने की कोई तिथि निश्चित नहीं है वह अतिथि कहलाते हैं, वे ही पात्रता को प्राप्त हैं।।४४।।

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