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(१३) विशल्या द्वारा लक्ष्मण का उपचार एवं लक्ष्मण द्वारा रावण का वध!

March 16, 2018कहानियाँHarsh Jain

लक्ष्मण द्वारा रावण का वध


 उसी युद्ध भूमि में चारों तरफ से सफाई करके विद्याधर लोग तम्बू लगाकर शिविर बना देते हैंं। पहले गोपुर के दरवाजे पर राजा नल, दूसरे पर नील, तीसरे पर विभीषण, चौथे पर कुमुद, पाँचवें पर सुषेण, छठे पर सुग्रीव और सातवें द्वार पर स्वयं भामंडल हाथ में नंगी तलवार लेकर सुरक्षा में खड़े हो जाते हैं। महाराज राम वहाँ आकर भाई के शोक में विह्वल हो मूर्च्छित हो जाते हैं। अनेक उपचारों से होश को प्राप्त होकर वे करुण विलाप करने लगते हैं – ‘‘हे भाई! तू कर्म योग से इस दुर्लंघ्य सागर को भी उल्लंघ कर यहाँ आया और अब इस दुरावस्था को कैसे प्राप्त हो गया? हाय भाई ! मैं तेरे बिना एक क्षण भी नहीं रह सकता हूँ अब जल्दी उठ और मेरे से वार्तालाप कर। ओह!….अब तुझे सीता से भी कुछ प्रयोजन नहीं है। अरे….तू सुख में दुःख में सदैव साथ देता रहा है। तेरे बिना मैं जीवित नहीं रह सकूंगा।…..’’

राम इधर-उधर देखकर कहते हैं – ‘‘सुग्रीव! भामण्डल! अब तुम लोग अपने-अपने स्थान जाओ। ओह! विभीषण! मैं तुम्हारा कुछ भी उपकार नहीं कर सका सो मुझे बहुत ही दु:ख है। ओह!……अब आप लोग चिता प्रज्ज्वलित करो मैं अपने प्यारे भाई के साथ उसी में बैठकर परलोक प्रयाण करूँगा। अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए।’’ इतना कहते हुए श्रीराम लक्ष्मण का आलिंगन करने को आगे बढ़ते हैं कि मध्य में ही जाम्बूनद राजा उन्हें रोक लेते हैं – ‘‘नाथ! सावधान होइए, ऐसा प्रमाद उचित नहीं है ये दिव्य अस्त्र हैं। देव! आप धैर्य धारण करो, विलाप करना यह इसका प्रतीकार नहीं है। आपका भाई नारायण है इसका असमय में मरण नहीं हो सकता। आप शांति धारण करो।’’अन्य विद्याधर कहते हैं – ‘‘अहो! सूर्योदय के पहले-पहले यदि इस शक्ति का कुछ उपाय सूझ गया तो ठीक अन्यथा इनका मरण निश्चित है।’’ सभी विद्याधर मंत्रणा में लगे हुए हैं और र्दुिर्दन के समान अश्रुवर्षा कर रहे हैं। उधर दरवाजे पर एक अपरिचित व्यक्ति आता है और अन्दर घुसना चाहता है।

तब भामंडल पूछते हैं – ‘‘तू कौन है? कहाँ से आया है? और किसलिए अन्दर जाना चाहता है?’’ वह कहता है – ‘‘मैं राम का दर्शन करना चाहता हूँ , यदि आप लक्ष्मण को जीवित देखना चाहते हो तो मुझे शीघ्र ही अन्दर ले चलो।’’ भामण्डल अपने स्थान पर अन्य विद्याधर को बिठाकर आप उसे साथ लेकर अन्दर पहुँचते हैं। वह राम को नमस्कार कर कहता है – ‘‘प्रभो! आपके भाई जीवित हैं, आप मेरी प्रार्थना सुनिए।’’ सभी एक स्वर से बोल उठते हैं – ‘‘कहिए, जल्दी कहिए।’’ ‘‘मैं देवगीतपुर का रहने वाला चन्द्रप्रतिम विद्याधर हूँं। एक बार शत्रु द्वारा शक्ति शस्त्र से घायल होकर मैं अयोध्या के उद्यान में गिरा था सो भरत महाराज ने मुझ पर चन्दन मिश्रित दिव्य जल छिड़क कर मुझे जीवन दान दिया था, उसी जल से ये लक्ष्मण भी जीवित होंगे, आप उस जल को शीघ्र ही यहाँ मँगाइये। राजा द्रोणमेघ की कन्या विशल्या के स्नान का वह जल स्वर्ग की दिव्य शक्ति और सर्वरोग को नष्ट करने में समर्थ है।’’ इतना सुनते ही हनुमान तथा भामंडल रामचन्द्र की आज्ञा लेकर विमान से रात्रि में ही वहाँ पहुँचते हैं। भरत इस घटना को विदित कर मूर्च्छित हो जाते हैं उन्हें सचेत कर वे लोग उस जल की याचना करते हैं। तब भरत शीघ्र ही विश्वस्त लोगों को राजा द्रोणमेघ के पास भेज देते हैं साथ में माता कैकेयी भी जाती हैं। राजा द्रोणमेघ को सारी घटना मालूम होते ही वे कहते हैं – ‘‘ठीक है, स्वामी भरत की आज्ञा के अनुसार मेरी पुत्री विशल्या वहाँ स्वयं जायेगी। चूँकि वह लक्ष्मण की ही वल्लभा होगी ऐसा महामुनि ने बताया है।’’ भामण्डल स्वयं उस कन्या को अपने विमान में बैठाते हैं और चलने को उद्यत होते हैं। उस समय उस विशल्या के साथ एक हजार राजपुत्रियाँ भी भेजी जाती हैं। ये लोग तत्काल युद्धभूमि में पहुँच जाते हैं। वहाँ विशल्या का अर्घ्य आदि से यथायोग्य सन्मान कर उसे लक्ष्मण के पास ले जाया जाता है। जैसे-जैसे वह कन्या पास पहुँचती जाती है वैसे-वैसे ही लक्ष्मण की हालत सुधरती जाती है। जब वह निकट पहुँचती है कि ‘शक्ति’ नाम की विद्या लक्ष्मण के वक्षस्थल से निकलकर भागने लगती है।
हनुमान बीच में ही पकड़ कर उससे पूछते हैं – ‘‘तू कौन है?’’ वह कहती है – ‘‘हनुमन् ! कैलाशपर्वत पर जब रावण ने अपने हाथ की नसों को खींचकर उसकी वीणा बनाकर भगवान जिनेन्द्रदेव की भक्ति की थी उस समय धरणेंद्र ने प्रसन्न हो रावण के लिए मुझे ‘अमोघ विजया’ नाम की विद्या दी थी। इस विशल्या के सिवाय इस संसार में आज किसी में यह शक्ति नहीं है कि जो मेरा पराभव कर सके।’’ ‘‘ऐसा क्यों?’’ हनुमान पूछते हैं, तब वह कहती है – ‘‘विशल्या ने पूर्वभव में महा घनघोर वन में तीन हजार वर्ष तक घोरातिघोर तपश्चरण किया है। जिसके फलस्वरूप आज उसे यह शक्ति प्राप्त हुई है जिसके स्नान के जल से ही संपूर्ण रोग और संकट दूर हो जाते हैं। उसके सम्मुख मैं भी नहीं ठहर सकती हूँ अतः अब आप मुझे जाने दो।’’ हनुमान उसे छोड़ देते हैंं। इधर चन्दन के द्रव को लेकर विशल्या श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण के शरीर में विलेपन करती है और उनकी आज्ञा से ही अन्य कन्यायें भी उस विशल्या के हाथ से स्पर्शित चन्दन को अन्य विद्याधरों को लगाती हैं। वह चन्दन इन्द्रजीत आदि के पास भी भेजा जाता है। इधर जब लक्ष्मण सोये हुए से प्रतीत होते हैं तब बांसुरी की मधुर ध्वनि से उन्हें उठाया जाता है। उठते हुए लक्ष्मण कहते हैं – ‘‘वह रावण कहाँ गया? कहाँ गया?’’ कुछ-कुछ मुस्कराते हुए राम उन्हें अपनी बाहों में भर लेते हैं और कहते हैं – ‘‘भाई! रावण तो तुम्हें शक्ति द्वारा आहत कर कृतकृत्य होता हुआ अपने कटक में चला गया है और तुम इस कन्या के प्रभाव से आज पुनर्जन्म को प्राप्त हुए हो।’’ लक्ष्मण सारा वृत्तांत श्रवण करते हुए आश्चर्य व स्नेहपूर्ण दृष्टि से विशल्या की तरफ देखते हैं। उसी समय मंगलाचार में निपुण स्त्रियाँ कहती हैं-‘‘स्वामिन्! हम सब लोग अब आपका विवाहोत्सव देखना चाहते हैं।’’
लक्ष्मण मुस्कुराते हुए कहते हैं – ‘‘जहाँ प्राणों का संशय विद्यमान है ऐसे युद्ध क्षेत्र में यह विवाह कैसा?’’ ‘‘हे नाथ! इस कन्या के द्वारा आपका स्पर्श तो हो ही चुका है तथा आपके पुण्य के प्रभाव से समस्त विघ्न शांत हो चुके हैं। अतः अब आप इसके साथ पाणिग्रहण विधि को स्वीकार करके हम लोगों के मनोरथ सफल कीजिए।’’ राम की आज्ञा से लक्ष्मण स्वीकृति दे देते हैंं और वहीं युद्धस्थल में बड़े ही वैभव के साथ इन दोनों की विवाह विधि सम्पन्न की जाती है। इधर इस समाचार से रावण के यहाँ अती व क्षोभ उत्पन्न हो जाता है। अनेक सामंत और मंत्रीगण तरह-तरह से रावण को समझाते हैं और जैसे-तैसे एक दूत राम के पास भेजने का निर्णय लेते हैं। दूत आकर राम से निवेदन करता है – ‘‘हे पद्म! त्रिखंडाधिपति रावण का कहना है कि युद्ध में अनेक महापुरुषों के संहार से कोई लाभ नहीं है। आपको वे लंका का आधा भाग पर्यंत राज्य देकर संतुष्ट करते हैं किन्तु आप उनके भाई और पुत्रों को भेजो तथा सीता देना स्वीकृत करो।’’ तब राम कहते हैं – ‘‘हे भाई! तू रावण से कह दे कि मैं अभी ही उनके भाई एवं पुत्रों को भेजे देता हूँ किन्तु वह मेरी सीता मुझे वापस कर दे। मैं सीता के साथ वन में रहकर ही संतुष्ट हूँ मुझे राज्य की इच्छा नहीं है।’’ इतना सुनकर दूत सीता को भेजने के बारे में उत्तर प्रत्युत्तर शुरू कर देता है। भामंडल आदि क्षुभित हो उसे अपमानित करके निकाल देते हैं। तब रावण मंत्रियों के साथ मंत्रणा करके बहुरूपिणी विद्या सिद्ध करने हेतु श्री शांतिनाथ जिनालय में जाकर विधिवत् अनुष्ठान कर लेता है। मंदोदरी घोषणा कर देती है कि इस आष्टाह्निक महापर्व में रावण के अनुष्ठान तक सब लोग नियम अनुष्ठान करते रहें। युद्ध का विराम हो जाता है। भामंडल आदि यह समाचार ज्ञात कर चिंतित हो उठते हैं और श्रीराम के पास आकर निवेदन करते हैंं – ‘‘प्रभो! रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है, यह चौबीस दिन में सिद्धि को प्राप्त होती है। इसके सिद्ध हो जाने पर रावण इन्द्रों द्वारा भी जीता नहीं जा सकता पुनः हम जैसे क्षुद्र पुरुषों की तो बात ही क्या? अतः इस अवसर पर उसे क्षुभित किया जाये कि जिससे वह विद्या सिद्ध न कर सके।’’ मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र कहते हैं – ‘‘जो नियम लेकर जिनमंदिर में बैठा है उस पर ऐसा कुकृत्य करना कैसे योग्य हो सकता है? भाई ! हम उच्चकुलीन क्षत्रियों की यह प्रवृत्ति प्रशंसनीय नहीं है।’’ सब लोग अपना सा मुंह लेकर चले जाते हैं और आपस में मंत्रणा करते हैं कि – ‘‘हमारे स्वामी राम महापुरुष हैं ये अधर्म में प्रवृत्ति नहीं करेंगे। अतः चुपचाप अपने-अपने कुमारों को इस कार्य में लगा देना चाहिए।’’ सुभूषण आदि कुमार आठ दिन तक तो विचार-विमर्श में समय यापन कर देते हैं, पूर्णिमा के दिन लम्बे-चौड़े वज्रमय किवाड़ तोड़ कर लंका में घुस जाते हैं और उपद्रव करना शुरू कर देते हैं। तब शांतिनाथ जिनालय के शासनदेव बाहर निकल कर वानर सेना पर झपटते हैं यह देखकर इस पक्ष के रक्षक देव भी अपने शिविर से निकल कर परस्पर में युद्ध करने लगते हैं।
तब पूर्णभद्र और मणिभद्र यक्षेन्द्र अपनी विक्रिया से इन सबको परास्त कर श्रीराम के पास उलाहना लेकर पहुँचते हैं और कहते हैं – ‘‘हे महानुभाव! जबकि रावण सम्यक्त्व की भावना से सहित है, जिनेन्द्रदेव के चरणों का सेवक है और इस समय शांतचित्त है तो पुनः क्या इन लोगोें को यह उपद्रव करना उचित है? उस समय उसके क्रोध को देखकर प्रायः विभीषण आदि सभी विद्याधर भयभीत हो जाते हैं किन्तु लक्ष्मण ओजपूर्ण वचन कहते हैं – ‘‘हे यक्षराज! जबकि उसने हमारे स्वामी की प्राणप्रिया का हरण कर कितना घोर अनर्थ किया है और इस विद्या को सिद्ध कर युद्ध में न जाने कितने जीवों का संहार करेगा तब भला तुम उस पर दया क्यों कर रहे हो…..?’’ इधर सुग्रीव आदि भी उन यक्षों को अर्घ्य समर्पण कर निवेदन करते हैं – ‘‘हे यक्षराज! क्रोध छोड़िये और समभाव से देखिये कि हमारी सेना में और लंका की समुद्र सदृश सेना में कितना अन्तर है? फिर भी रावण बहुरूपिणी विद्या सिद्ध कर रहा है। अहो! इस स्थिति में हम लोगों की विजय अथवा धर्म की विजय कैसे होगी?’’ इतना सुनकर वे दोनों यक्षेंद्र लज्जित हो जाते हैं पुनः सबसे वार्तालाप करते हुए कहते हैं – ‘‘हे सत्पुरुषों! लंका में जीर्णतृण को भी पीड़ा मत पहुँचाओ और रावण के शरीर की भी कुशलता रखते हुए भले ही उसे क्षुभित करने का प्रयत्न करो कि जिससे वह विद्या न सिद्ध कर सके।’’ तत्पश्चात् राम के गुणों की चर्चा करते हुए वे यक्षेंद्र चले जाते हैं और ये लोग रावण को क्षुभित करने के अनेक उपाय करते हैं, कभी उसकी माला तोड़ डालते हैं तो कभी स्त्रियों को उसके सामने कष्ट देते हैंं। एक कुमार मंदोदरी को घसीट कर लाकर अनेक त्रास देने लगता है वह विलाप करने लगती है किन्तु रावण ध्यान मग्न है।
उसी समय बहुरूपिणी विद्या देवता आकर उपस्थित हो जाती है और कहती है – ‘‘हे स्वामी! मैं सिद्ध हो गई हूँ आप आज्ञा दीजिए। प्रतिकूल खड़े हुए एक चक्रधर को छोड़ कर मैं समस्त लोक को आपके अधीन कर सकती हूूँ।’’ विद्या सिद्ध होते ही अंग-अंगद आदि कुमार वहाँ से पलायन कर जाते हैं और रावण मंदिर की प्रदक्षिणा देकर अपने स्थान पर आ जाता है। विह्वल हुई मंदोदरी आदि रानियों को सान्त्वना देता है। अनंतर सीता को रिझाने के लिए उद्यान में पहुँचकर सीता को अपना वैभव, बल आदि दिखाकर कहता है – ‘‘हे सुन्दरी! मैं अपने सत्यव्रत का पालन करते हुए ही तुम्हारे प्रसाद की प्रतीक्षा कर रहा हूँ किन्तु बलपूर्वक मैं तुम्हारा उपभोग नहीं कर रहा हूँ। अब तुम राम की आशा छोड़ो, वह मेरे बाणों से मरने वाला ही है। अब तुम मुझ पर प्रसन्न होवो और मेरे साथ मेरु कुलाचल आदि में विहार करते हुए सर्वोत्तम सुखों का अनुभव करो।’’ अश्रुओं से मुँह को धोती हुई सीता कहती है – ‘‘हे दशानन! यदि तुम्हारी मेरे प्रति किंचित भी सद्भावना है तो राम को मारने के पहले उन्हें मेरा एक समाचार कह देना कि हे राम! जनकनंदिनी कहला रही है कि मैंने जो अभी तक प्राण नहीं छोड़े थे सो केवल आपके दर्शन की उत्कंठा से ही नहीं छोड़े थे……।’’ इतना कहते हुए वह मूर्च्छित हो पृथ्वी पर गिर जाती है। तब वैसी स्थिति में रावण अतीव दु:खी हो विचार करता है – ‘‘अहो! इन दोनों का यह कभी भी नहीं छुटने वाला निकाचित स्नेह है। ओह! मुझे बार-बार धिक्कार है, मैंने यह क्या किया? इस प्रेमयुक्त दंपत्ति का विछोह क्यों करा दिया? हाय! परस्त्री हरण के अपयश से मलिन हुआ मैं किस गति में जाऊँगा? क्या करूँ ?….मैं विचित्र ही धर्म संकट में पड़ गया हूँ।’’ कुछ क्षण बाद सोचता है – ‘‘ठीक है, अब तो युद्ध में करुणा करना विरुद्ध है अतः मैं युद्ध में रामचन्द्र को जीवित ही पकड़ लूँगा, पुनः वैभव के साथ उनकी सीता उन्हें सौंप दूँगा।’’ इत्यादि विचार करते हुए वह अपने स्थान पर पहुँचता है। पुनः इन्द्रजित, मेघनाद और कुम्भकर्ण को शत्रु के यहाँ बँधा हुआ स्मरण कर व्याकुल हो उठता है। अनेक अपशकुन होते हुए भी वह सब निमित्तज्ञानियों की उपेक्षा कर पुनः युद्ध के लिए निकल पड़ता है। पूर्ववत् युद्ध प्रारंभ हो जाता है, दोनों पक्ष में हार का नाम नहीं है। रावण का एक शिर कटते ही हजारों शिर बन जाते हैं, हजारों भुजाओं से एक साथ हजारों बाण छोड़ रहा है इस तरह वीर रावण और लक्ष्मण को युद्ध करते हुए दस दिन व्यतीत हो जाते हैं।आकाश मार्ग में स्थित चन्द्रवर्धन विद्याधर की आठ कन्यायें लक्ष्मण के युद्ध को देख रही हैं।
आपस में उनका परिचय पूछा जाने पर वे कहती हैं – ‘‘ये वीर लक्ष्मण ही मेरे भावी पति हैं अतः इनकी जो गति होगी सो ही मेरी गति होगी।’’ कन्याओं के मनोहारी वचन सुनकर अकस्मात् लक्ष्मण ऊपर की ओर दृष्टि उठाकर देखते हैं कि कन्याओं के मुख से सहसा शब्द निकलता है – ‘‘हे नाथ! आप सब प्रकार से ‘सिद्धार्थ’ होओ।’’ इतना सुनते ही लक्ष्मण को सिद्धार्थ नामक अस्त्र का स्मरण हो आता है और वे उसके द्वारा रणक्षेत्र में हाहाकार मचा देते हैं। तब रावण चक्ररत्न का स्मरण करता है, चक्ररत्न हाथ में आते ही वह लक्ष्मण पर चला देता है। चक्ररत्न को आता हुआ देख अब तो मरना ही होगा ऐसा निश्चय करते हुए श्री लक्ष्मण वज्रमुखी बाणों से उसे रोकने को तत्पर हो जाते हैं। उस समय श्रीरामचन्द्र एक हाथ में वज्रावर्त धनुष से और दूसरे हाथ से घुमाये हुए तीक्ष्णमुख हल से, सुग्रीव गदा से, भामंडल तलवार से, विभीषण त्रिशूल से, हनुमान उल्का मुद्गर, लांगूल आदि से, अंगद परिध से, अंग कुठार से और अन्य विद्याधर भी शेष अस्त्रशस्त्रों से एक साथ मिलकर जीवन की आशा छोड़ उस चक्ररत्न को रोकने में लग जाते हैं किन्तु सब मिलकर भी उसे रोकने में समर्थ नहीं हो पाते हैं। राम की सेना में व्यग्रता बढ़ रही है फिर भी भाग्य की बात देखो, वह चक्ररत्न लक्ष्मण की तीन प्रदक्षिणाएं देता है उसके सब रक्षकदेव विनय से खड़े हो जाते हैं और वह चक्ररत्न. लक्ष्मण के हाथ मेें आकर ठहर जाता है। यह देख रावण एक क्षण के लिए चिन्तासागर में डूब जाता है – ‘‘अहो! उस समय जगद्वंद्य अनन्तवीर्य केवली ने दिव्यध्वनि में जो कहा था कि लक्ष्मण नारायण होगा सो ऐसा लगता है कि यह वही नारायण आ गया है……ओह! धिक्कार हो इस राज्य लक्ष्मी को…….धिक्कार हो इन पंचेन्द्रिय विषयों को! हाय, हाय,! अब मैं इस भूमिगोचरी रंक से मरण को प्राप्त होऊँगा……।’’
उधर लक्ष्मण पुनः रावण को समझाते हुए कहते हैं – ‘‘दशानन! अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है यदि तुम सीता को वापस देकर कहो कि मैं रामचन्द्र के प्रसाद से जीवित हूँ तो तुम्हारी लक्ष्मी ज्यों की त्यों अवस्थित है।’’ तब रावण गर्विष्ठ हो कहता है – ‘‘अरे नीच! तू यदि इस चक्र से अपने को नारायण मान रहा है तो अपने को इन्द्र क्यों नहीं मान लेता?’’ इत्यादि वार्तालाप के मध्य लक्ष्मण कहते हैं – ‘‘बहुत कहने से क्या? अब मैं तुझे मारने वाला नारायण उत्पन्न हो चुका हूँ।’’ ऐसा कहते हुए लक्ष्मण चक्र को घुमाकर चला देते हैं। रावण अपने चन्द्रहास खड्ग से उसे रोकना चाहता है किन्तु वह चक्र उसके वक्षस्थल को विदीर्ण कर देता है। रावण अर्धनिमिष मात्र में पृथ्वी पर गिर पड़ता है। उसकी सेना में चारों तरफ से हाहाकार मच जाता है।‘‘रथ हटाओ, मार्ग देखो, भागो भागो, स्वामी धरती पर गिर पड़े, अरे अरे! हटो, हटो….।’’ इस तरह हलचल देख सुग्रीव, भामंडल, हनुमान आदि तत्क्षण वस्त्र के छोर को ऊपर उठाकर अभय घोषणा करते हुए कहते हैं – ‘‘डरो मत, डरो मत, शांत होओ, शांत होओ।’’ इधर पुनः चक्ररत्न कृतकृत्य होता हुआ लक्ष्मण के हाथ में आ जाता है और सब ओर से एक ही स्वर निकलता है – ‘‘ये लक्ष्मण आठवें नारायण के रूप में प्रकट हुए हैं। जय हो, जय हो। श्री रामचन्द्र बलभद्र की जय हो, जय हो, अर्धचक्री नारायण लक्ष्मण की जय हो, जय हो।’’ इधर युद्ध की विभीषिका समाप्त हो जाती है।
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