जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में आर्यखण्ड है। इस आर्यखण्ड में ‘विदेह’ नाम से एक प्रसिद्ध देश माना गया है। कभी यह देश खेट, खर्वट, मटंब, पुटभेदन, द्रोणामुख, आकर-सुवर्ण, चाँदी आदि की खान, खेत, ग्राम और घोषों से विभूषित था। जैसा कि वर्णन है-
सखेटखर्वटाटोपिमटंबपुटभेदनै: ।
द्रोणामुखाकरक्षेत्रग्रामघोषैर्विभूषित:१।।३।।
जो देश नगर, नदी और पर्वत से घिरा हो, वह ‘खेट’ है। जो केवल पर्वतों से घिरा हो, वह ‘खर्वट’ है। जो पाँच सौ गाँवों से घिरा हो, वह ‘मटम्ब’ है। जो समुद्र के किनारे हो तथा जहाँ पर लोग नाव से उतरते हों, वह ‘पत्तन’ या ‘‘पुटभेदन’’ कहलाता है। जो नदी के किनारे बसा हो, उसे ‘द्रोणामुख’ कहते हैं। जहाँ सोना, चाँदी आदि निकलते हैं, उसे ‘खान’ कहते हैं। अन्न उसन्न होने की भूमि क्षेत्र ‘खेत’ है। जिसमें बाढ़ से घिरे हुए घर हों, जिसमें अधिकतर किसान लोग निवास करते हों, जो बाग-बगीचा और मकानों से सहित हों, उन्हें ‘ग्राम’ कहते हैं और जहाँ अहीर लोग रहते हों, उसे ‘घोष’ कहते हैं। ये सब शास्त्रीय प्राचीन परिभाषाएँ हैं। इन सभी से सहित वह ‘विदेह’ देश था।
इस देश की राजधानी कुण्डपुर या कुण्डलपुर प्रसिद्ध थी। यह परकोटा एवं खाई आदि से विभूषित बहुत ही वैभवपूर्ण नगरी थी। इसका वर्णन बहुत ही सुन्दर किया गया है। यहाँ आचार्य कहते हैं कि-
एतावतैव पर्याप्तं, पुरस्य गुणवर्णनम्।
स्वर्गावतरणे तद्यद्वीरस्याधारतां गतम्२।।१२।।
इस नगर के गुणों का वर्णन तो इतने से ही पर्याप्त हो जाता है कि वह नगर स्वर्ग से अवतार लेते समय भगवान महावीर का आधार हुआ था अर्थात् साक्षात् महावीर स्वामी जहाँ अवतीर्ण हुए थे।
यहाँ के राजा “सर्वार्थ” महाराज थे और उनकी महारानी का नाम “श्रीमती” था। इनके पुत्र का नाम “सिद्धार्थ” था। इनकी रानी महाराजा चेटक की पुत्री “प्रियकारिणी” थीं जिनका दूसरा नाम “त्रिशला” था। जो राजा सिद्धार्थ वर्तमान में भगवान वर्द्धमान के पिता के पद को प्राप्त हुए थे भला उनके उत्कृष्ट गुणों का वर्णन कौन कर सकता है? तथा अपने पुण्य से तीर्थंकर महावीर को जन्म देने वाली उन त्रिशला के गुणों का वर्णन भी कोई मनुष्य नहीं कर सकता है।
राजा सिद्धार्थ के माता-पिता का नाम हरिवंशपुराण में वर्णित है-
सर्वार्थश्रीमतीजन्मा, तस्मिन् सर्वार्थदर्शन:।
सिद्धार्थोऽभवदर्काभो, भूप: सिद्धार्थपौरुष:१।।३।।
महावीर प्रभु का जन्म कुण्डलपुर में हुआ, ऐसा वर्णन तिलोयपण्णत्ति एवं षट्खण्डागम पु. ९ में भी आया है। यथा-
सिद्धत्थरायपियकारिणीहिं, णयरम्मि कुंडले वीरो।
उत्तरफग्गुणिरिक्खे, चित्तसियातेरसीए उप्पण्णो।।५४९।।
अब भगवान महावीर के नाना के कुल का संक्षिप्त वर्णन आपके लिए प्रस्तुत है-
िंसध्वाख्ये विषये भूभृद्वैशाली नगरेऽभवत्।
चेटकाख्योऽतिविख्यातो विनीत: परमार्हत:२।।३।।
िंसधुदेश के वैशालीनगर में चेटक नाम के प्रसिद्ध राजा थे, इनकी रानी का नाम भद्रा-सुभद्रा था। इनके दश पुत्र थे जिनके नाम धनदत्त, धनभद्र, उपेन्द्र, शिवदत्त, हरिदत्त, कम्बोज, कम्पन, प्रयंग, प्रभंजन और प्रभास थे। ये दशों पुत्र दशधर्मों के समान निर्मल गुणों से विभूषित थे। इन्हीं राजा चेटक की महारानी ने सात ऋद्धियों के समान ही सात पुत्रियों को जन्म दिया था, जो क्रमश: प्रियकारिणी, मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलिनी, ज्येष्ठा और चन्दना इन नाम को धारण करने वाली थीं।
विदेहदेश की कुण्डपुरी-कुण्डलपुरी नगरी में “नाथवंश” के राजा सिद्धार्थ के साथ राजा चेटक ने अपनी बड़ी पुत्री प्रियकारिणी “त्रिशला” का विवाह किया था। वत्सदेश में कौशाम्बी नगरी के चंद्रवंशी राजा शतानीक के साथ दूसरी पुत्री मृगावती का विवाह हुआ था। दशार्ण देश के हेरकच्छनगर में सूर्यवंशी राजा दशरथ राज्य करते थे, राजा चेटक की तृतीय पुत्री सुप्रभा इन दशरथ की पट्टरानी हुई थीं। कच्छदेश के “रोरुकनगर” में राजा उदयन राज्य करते थे, चतुर्थ पुत्री प्रभावती उनकी महारानी हुई थीं। पाँचवी पुत्री चेलिनी राजगृही के राजा श्रेणिक की पट्टरानी हुई थीं३ तथा ज्येष्ठा और चन्दना कुमारिका ने आर्यिका दीक्षा से अपना जीवन विभूषित किया था।
यही प्रकरण ‘‘वीरजिणिंदचरिउ’’ पुस्तक में भी आया है-
जम्बूद्वीप के विदेहप्रदेश में कुण्डपुर-कुण्डलपुर में राजा सिद्धार्थ की महारानी प्रियकारिणी से भगवान महावीर जन्में हैं।४
इसी ग्रंथ में राजा चेटक की राजधानी वैशाली का वर्णन आया है इसे सिंधुदेश में माना है। इन राजा के दश पुत्र और प्रियकारिणी आदि सात पुत्रियाँ थीं। जिनमें से बड़ी पुत्री प्रियकारिणी को कुण्डलपुर के राजा सिद्धार्थ की महारानी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।१
गर्भावतरण-भगवान महावीर होने वाले महापुरुष सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में थे। जब उनकी आयु मात्र छह महिने की शेष रही, तब सौधर्मेन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने विदेहदेश की राजधानी कुण्डलपुरी के राजा सिद्धार्थ के आँगन में रत्नों की वृष्टि करना शुरू कर दी। ये रत्न प्रतिदिन साढ़े सात करोड़ बरसते थे।
यहाँ यह बात ध्यान में रखना है कि राजा सिद्धार्थ वैशाली के राजा नहीं थे और न ही वे वैशाली के अन्तर्गत छोटे से कुण्डग्राम के छोटे-मोटे राजा थे किन्तु वे तत्कालीन वैशाली के राजा चेटक जो कि उनके श्वसुर थे, उनके समकक्ष तथा इन्द्रों से भी पूज्य महान राजा थे।
जैसा कि उत्तरपुराण में लिखा है-
तस्मिन् षण्मासशेषायुष्यानाकादागमिष्यति।
भरतेऽस्मिन् विदेहाख्ये, विषये भवनांगणे।।२५१।।
राज्ञ: कुंडपुरेशस्य, वसुधाराप तत्पृथु।
सप्तकोटीमणी: सार्द्धा:, सिद्धार्थस्य दिनं प्रति।।२५२।।
इन राजा के महल का नाम “नंद्यावर्त” था। यह सात खन का बहुत ही सुन्दर था। एक दिन महारानी त्रिशला अपने “नंद्यावर्त” महल में रत्ननिर्मित सुंदर पलंग पर सोई हुई थीं, रात्रि में रत्नों के दीपों का प्रकाश पैâला हुआ था। आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन पिछली रात्रि में रानी ने सोलह स्वप्न देखे। प्रात: पतिदेव से उनका फल पूछने पर “आप तीर्थंकर पुत्र को जन्म देंगी” ऐसा सुनकर प्रसन्नता को प्राप्त हुईं। तभी इन्द्रादिदेवगण ने आकर “गर्भकल्याणक” उत्सव मनाया।
जन्मकल्याणक-चैत्र शुक्ला त्रयोदशी को माता त्रिशला ने पुत्र रत्न को जन्म दिया, तब इन्द्रों ने असंख्य देवपरिवारों के साथ आकर बालक को ऐरावत हाथी पर बिठाकर सुमेरुपर्वत पर ले जाकर वहाँ स्वर्णमयी कुंभों से क्षीरसागर के जल से भरे ऐसे १००८ कलशों से प्रभु का जन्माभिषेक किया था। अनंतर आभूषण आदि से जिनबालक को विभूषित कर ‘‘वीर’’ और ‘‘वर्द्धमान’’ ऐसे दो नाम प्रसिद्ध किए थे।
एक बार ‘‘संजय’’ और ‘‘विजय’’ नाम के दो चारणऋद्धिधारी महामुनियों को किसी पदार्थ में संदेह उत्पन्न हो गया, तब जन्म के बाद ही जिनशिशु के समीप आए। भगवान के दर्शनमात्र से उनका संदेह दूर हो गया। तब उन महासाधुओं ने ‘‘सन्मति’’ इस नाम से शिशु को संबोधित किया था। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर उन भगवान के आयु, समय और इच्छा के अनुसार स्वर्ग से सारभूत भोग-उपभोग की वस्तुएँ लाते थे।
किसी एक दिन स्वर्ग में प्रभु की शूरवीरता की चर्चा चल रही थी। उसे सुनकर ‘‘संगम’’ देव ने उनकी परीक्षा करने की भावना की। उस समय वर्द्धमान कुमार उद्यान में अनेक राजकुमारों के साथ वृक्ष पर चढ़ने-उतरने का खेल खेल रहे थे। तभी संगम देव महासर्प का रूप धारणकर वृक्ष में नीचे से ऊपर तक लिपट गया। सभी बालक डर से वृक्ष से कूदकर भागने लगे किन्तु जिनवीर ने सर्प के मस्तक पर पैर रखकर ऐसी क्रीड़ा की कि जैसे माता के पलंग पर खेल रहे हों। तब संगमदेव ने अपना रूप प्रगटकर प्रभु की नाना स्तुति करके ‘‘महावीर’’ यह नाम रखा।
दीक्षाकल्याणक-जब भगवान तीस वर्ष के हो गये तब उन्हें एक दिन जातिस्मरण होने से आत्मज्ञान प्रगट हो गया। प्रभु के विरक्त होते ही लौकांतिक देव आ गये उन्होंने प्रभु के वैराग्य की प्रशंसा करते हुए खूब स्तुति की। अनंतर देवों ने चन्द्रप्रभा पालकी पर प्रभु को बिठाया। प्रभु ने षंड नाम के वन में रत्ननिर्मित शिला पर बैठकर उत्तरदिशा में मुख करके तेला का नियम लेकर सम्पूर्ण वस्त्राभरणोें का त्याग कर दिया एवं केशलोंच करके जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। यह दिन मगसिर कृष्णा दशमी का था। जन्म से प्रभु मति, श्रुत एवं अवधि इन तीन ज्ञान के धारी थे, अब चार ज्ञान के धारी हो गये। प्रभु ने ‘‘साल’’ वृक्ष के नीचे दीक्षा ली है ऐसा वर्णन प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में आया है। उसमें ऐसा बताया है कि चौबीसों तीर्थंकरों के दीक्षावृक्ष और केवलज्ञानवृक्ष वही-वही हैं।
वट, सप्तच्छद आदि वृक्षों में अंतिम तीर्थंकर के दीक्षावृक्ष का ‘‘साल’’ यह नाम है। उसमें कहा है-
सालश्चैते जिनेन्द्राणां, दीक्षावृक्षा: प्रकीर्तिता:।
एत एव बुधैर्ज्ञेया: केवलोत्पत्तिशाखिन:१।।४।।
जब भगवान श्री महावीर महामुनि के वेष में आहार के लिए निकले तो प्रथम आहार का लाभ ‘‘कूलग्राम’’ के राजा ‘‘कूल’’ को प्राप्त हुआ। इनका नाम हरिवंशपुराण में ‘‘वकुल’’ आया है। इन्होंने प्रभु को खीर का आहार दिया और देवों ने उसी क्षण पंचाश्चर्यवृष्टि की। इन पंचाश्चर्यों में रत्नों का प्रमाण साढ़े बारह करोड़ बताया है१।
तिलोयपण्णत्ति में ‘‘नाथवन’’ में दीक्षा लेने का कथन है। यथा-
मग्गसिरवहुलदसमी-अवरण्हे उत्तरासु णाधवणे।
तदियखवणम्मि गहिदं महव्वदं वड्ढमाणेण२।।६६७।।
वर्द्धमान स्वामी ने मगसिर कृष्णा दशमी को अपराण्ह काल में उत्तरा नक्षत्र के रहते ‘‘नाथवन’’ में तृतीय भक्त के साथ अर्थात् बेला का नियम लेकर महाव्रतों को ग्रहण किया था।
उपसर्गविजय-तपश्चर्या करते हुए भगवान एक बार उज्जयिनी महानगर के बाहर ‘‘अतिमुक्तक’’ नाम के श्मसान में प्रतिमायोग से ध्यान में लीन हो गये। उन्हें देखकर ‘‘स्थाणु’’ नामक रुद्र ने उनके धैर्य की परीक्षा करने के लिए उनके ऊपर उपसर्ग करना प्रारंभ कर दिया। विद्या से वहाँ अंधेरा करके अनेक बेतालों-भूतों को नचाना शुरू कर दिया। तदनंतर सर्प, हाथी, सिंह, अग्नि और वायु आदि के साथ भीलों की सेना बना दी। इत्यादि प्रकार से उस रुद्र ने अपनी विद्या के प्रभाव से ध्यानस्थ महावीर के ऊपर भयंकर उपसर्ग किया परन्तु भगवान अचल हुए ध्यान में लीन थे तब उनके ध्यान के प्रभाव से प्रभावित हो रुद्र ने प्रभु का नाम ‘‘महति महावीर’’ रखकर अपनी भार्या के साथ अनेक प्रकार से स्तुति करके भावविभोर हो नृत्य किया।३
चंदनबाला द्वारा आहारदान-कुछ समय बाद प्रभु महावीर आहार के लिए विचरण करते हुए कौशाम्बी नाम की महानगरी में आए। वहाँ ‘‘वृषभदत्त’’सेठ के यहाँ सती चंदना को उसकी पत्नी भद्रा ने दुष्ट अभिप्राय से सांकलों से बांधकर सिर मुंडाकर रखा था और खाने को मिट्टी के सकोरे में कांजी से मिला हुआ पुराने कोदों का भात दिया करती थी।
महामुनि महावीर को आहार हेतु आते देख भक्ति से महासती चंदना आगे बढ़ी, उसी क्षण प्रभु की भक्ति एवं उसके शील के प्रभाव से चंदना की बेड़ियाँ टूट गईं, उसके शिर पर केश आ गए और शरीर के वस्त्राभरण सुुंदर हो गये उसके पास रखा मिट्टी का सकोरा स्वर्णमयी हो गया और कोदों का भात सुंदर शालिधान्य की खीर बन गया। महासती चन्दना ने भक्ति से प्रभु का पड़गाहन करके नवधाभक्ति से खीर का आहार दिया। तत्क्षण ही देवों द्वारा पंचाश्चर्यवृष्टि होने लगी। दुंदुभि बाजों की ध्वनि सुनकर राजा शतानीक की रानी मृगावती, जो कि चंदना की बहन थीं, वे सब वहाँ आ गये। तब घबड़ा कर सेठ-सेठानी ने चंदना से क्षमायाचना की। तभी से कौशाम्बी नगरी, जो कि छठे तीर्थंकर पद्मप्रभ की जन्मभूमि थी, वह अत्यधिक महिमा को प्राप्त हो गई है।१
इस प्रकार प्रभु को तपश्चर्या करते हुए बारह वर्ष व्यतीत हो गये।
केवलज्ञानकल्याणक-एक बात यह विशेष ज्ञातव्य है कि तीर्थंकर भगवान दीक्षा लेते ही मौन ग्रहण कर लेते हैं और केवलज्ञान प्रगट होने तक उनकी वाणी नहीं खिरती है।
भगवान महावीर एक बार ‘‘जृंभिकाग्राम’’ के निकट ‘‘ऋजुकूला’’ नदी के किनारे ‘‘मनोहर’’ नामक वन में रत्ननिर्मित एक शिलापट्ट पर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। ध्यान में लीन प्रभु ने ‘‘वैशाख शुक्ला दशमी’’ के दिन घातिकर्म को नष्टकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। तत्क्षण ही इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने आकर आकाश में अधर समवसरण की रचना कर दी। समवसरण में बारह सभा बनी हुई थी किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी थी।
विपुलाचल पर प्रथम देशना-एक बार इंद्र ने विचार किया कि गणधर के अभाव में प्रभु की दिव्यध्वनि नहीं खिरी है। तब युक्ति से ‘‘इन्द्रभूति’’ नामक गौतम गोत्रीय ब्राह्मण को वहाँ उपस्थित किया। इन्द्रभूति ने आकर प्रभु से जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करके मन:पर्ययज्ञान के साथ-साथ अनेक ऋद्धियों को प्राप्तकर प्रथमगणधर का पद प्राप्त कर लिया। केवलज्ञान के ६६ दिन बाद श्रावण कृ. एकम् के दिन भगवान की दिव्यध्वनि खिरी, असंख्य भव्यों ने प्रभु का उपदेश श्रवण करके अपने जीवन को सफल किया। इन इन्द्रभूति का नाम गोत्र के नाम से ‘‘गौतम स्वामी’’ प्रसिद्ध हो गया। चन्दना ने भी आर्यिका दीक्षा लेकर आर्यिकाओं में प्रमुख ‘‘गणिनीपद’’ प्राप्त कर लिया। राजगृही में विपुलाचल पर्वत पर भगवान की प्रथम बार दिव्यध्वनि खिरी अत: वह पर्वत भी तीर्थ बन गया है। राजगृही के राजा श्रेणिक महावीर प्रभु के समवसरण में ‘‘मुख्य श्रोता’’ कहलाए हैं।
मोक्षकल्याणक-भगवान ने तीस वर्ष तक पूरे आर्यखंड में श्रीविहार करके समवसरण में स्थित हो दिव्यध्वनि द्वारा धर्मोपदेश दिया पुन: पावापुरी में सरोवर के मध्य से आकाश में अधर ही सर्व अघातिया कर्मों को नष्ट करके कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रभात समय निर्वाण पद को प्राप्त हो गये। तभी इन्द्रों ने असंख्य देवों के साथ प्रभु का निर्वाणकल्याणक महोत्सव करके दीपमालिका बनाई थी। तब से लेकर आज तक कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली पर्व मनाया जा रहा है, यह बात हरिवंशपुराण में कही गई है-
ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया, सुरासुरै: दीपितया प्रदीप्तया।
तदा स्म पावानगरी समंतत:, प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते।।१९।।
ततस्तु लोक: प्रतिवर्षमादरात, प्रसिद्धदीपालिकयात्रा भरते।
समुद्यत: पूजयितुं जिनेश्वरं, जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिभक्तिभाक्१।।२१।।
उस समय सुर और असुरों के द्वारा जलाई हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकों की पंक्ति से पावापुरी का आकाश सब ओर से जगमगा उठा। तदनंतर सभी मनुष्य एवं देवगण प्रभु की निर्वाणकल्याणक पूजा कर यथास्थान चले गये। उस समय से लेकर भगवान के निर्वाणकल्याणक की भक्ति से युक्त संसार के प्राणी इस भरतक्षेत्र में प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिका के द्वारा भगवान महावीर की पूजा करने के लिए उद्यत रहने लगे अर्थात् भगवान महावीर के निर्वाणकल्याणक की स्मृति में ही दीपावली पर्व मनाने लगे। ये इस युग के अंतिम एवं वर्तमान शासनपति तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हमारे और आप सबके लिए मंगलकारी होवे।