अध्यात्म प्रभा में रत मुनि भारत नाम को सार्थक करते हैं।।
चक्रीश भरत के नाम से जिसका नाम प्रसिद्ध हुआ जग में।
उस पावन भू को नमन करें जिसका पवित्र कण-कण सच में।।१।।
शासननायक महावीर प्रभू गौतम गणधर को वन्दन है।
श्रीकुंदकुंद आचार्यप्रवर अरु जैनधर्म को वन्दन है।।
जिनधर्मप्रभावक परम्पराचार्यों को मेरा वन्दन है।
उनमें से ही अकलंकदेव का करूँ यहाँ मैं वर्णन है।।२।।
जिनके चरित्र को सुन करके इक कन्या को वैराग्य हुआ।
अकलंक और निकलंक का नाटक बना एक इतिहास यहाँ।।
बन्धुओं ! आज जो ज्ञानमती माताजी गणिनी प्रमुख कहीं।
कन्या मैना के रूप में इक दिन वह नाटक थीं देख रहीं।।३।।
दोनों भाई का जीवन उनके जीवन का आदर्श बना।
फिर तो उनका पावन जीवन सारे जग का आदर्श बना।।
वह मैना बन गई ज्ञानमती जिनमत का अलख जगाने को।
अकलंकदेव सम दिखा दिया है आत्मिक शक्ति जमाने को।।४।।
अकलंक और निकलंक भाइयों की रोमाँचक कथा सुनो।
भाई—भाई का प्रेम और जिनधर्मप्रभावक व्यथा सुनो।।
अकलंकदेव का नाम जहाँ शास्त्रों में पाया जाता है।
निकलंक का भी बलिदान वहीं संसार में गाया जाता है।।५।।
धर्मप्रेमी बन्धुओं !
अब आप अकलंक और निकलंक के पवित्र कथानक को जानेंगे कि किस प्रकार से बचपन की अनजान अवस्था में गुरु से हंसी मजाक में लिए गये ब्रह्मचर्य व्रत को उन्होंने दृढ़तापूर्वक जीवनपर्यन्त पालन किया।
माता—पिता के द्वारा दोनों पुत्रों की शादी का प्रस्ताव आने पर अकलंक—निकलंक ने क्या उत्तर दिया था? जानिए उस प्रसंग को और प्रेरणा लीजिए अपने जीवन में।
है मान्यखेटपुर नगर जहाँ राजा शुभतुंग रहा करते।
वे न्यायनीति के संचालक सार्थक निज नाम किया करते।।
पुरुषोत्तम नामक मंत्री उनके पुरुषों में उत्तम ही हैं।
राजा के बहुत चहेते वे जिनधर्म के पुरुषोत्तम ही हैं।।६।।
रानी पद्मावती तथा पुत्र अकलंक और निकलंक कहे।
दो कुलदीपक पुत्रों के संग वे सदा सुखों में मग्न रहे।।
बालक भी दूज चन्द्रमा सम पितु—मात की आँखों के तारे।
बचपन में भी जिनधर्म के वे लगते सच्चे पालनहारे।।७।।
अब देखिए एक दिन क्या होता है—
फाल्गुन का अष्टान्हिका पर्व प्रारम्भ हुआ है अष्टमि तिथि।
जिनमंदिर के प्रांगण में जनता की अपूर्व है उपस्थिति।।
हाथों में पूजन सामग्री का थाल लिये सब नाच रहे।
रत्नों से निर्मित मण्डल पर पूजन करते सब भाव भरे।।८।।
जिनमन्दिर में इक चित्रगुप्त नामक मुनिराज विराजे हैं।
पिच्छिका सहित मुनिराज दिगम्बर ज्ञान व ध्यान सिखाते हैं।
मुनिवर की छवि में जिनवर का दिखता बस रूप सुहाना है।
उनका प्रवचन सुनकर भक्तों ने धन्य स्वयं को माना है।।९।।
मंत्री पुरुषोत्तम भी पत्नी पुत्रों के संग वहाँ जाते हैं।
जिनमंदिर के दर्शन करके आनंदित वे हो जाते हैं।।
पश्चात् गुरू के दर्शन कर निज जीवन धन्य बनाते हैं।।
धर्मोपदेश सुनकर सुखसागर में निमग्न हो जाते हैं।।१०।।
भक्तों की भीड़ लगी गुरु से आशीर्वाद सब लेते हैं।
आष्टान्हिक में निज शक्ती के अनुसार नियम व्रत लेते हैं।।
धीरे-धीरे जब लोगों का तांता वहाँ से कुछ हटता है।
तब गुरुवर सम्मुख बैठा पुरुषोत्तम परिवार भी कहता है।।११।।
गुरुदेव हमें भी आष्टान्हिक में ब्रह्मचर्य व्रत लेना है।
अपने गृहस्थ उपवन को कुछ व्रत से सुरभित कर लेना है।।
पुरुषोत्तम एवं पद्मावति यह कहकर शीश झुकाते हैं।।
गुरुदेव पिच्छिका रख मस्तक पर उनको नियम कराते हैं।।१२।।
हे श्रावकरत्न उन्हें कहकर मुनिवर संबोधन देते हैं।
इन नियमों का पालन कर श्रावक जन्म सफल कर लेते हैं।।
यह दृश्य देख अकलंक और निकलंक भी चिन्तन करते हैं।
वे भी इस व्रत को लेने हेतू मात पिता से कहते हैं।।१३।।
कह उठे पिता क्या पुत्रों ! तुमको भी व्रत ग्रहण की इच्छा है।
त्रैलोक्यपूज्य व्रत ब्रह्मचर्य ले सकते हो यदि इच्छा है।।
हाँ में सिर हिला दिया दोनों ने ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया।
पितु की आज्ञा से पुत्रों ने भी व्रत ले गुरु को नमन किया।।१४।।
गुरु बोले प्रिय बालकों ! तुम्हारी आत्मा हुई महान बड़ी।
मैं कहता हूँ बस आज से समझो जैनधर्म की शान बढ़ी।।
उज्ज्वल भविष्य है जो तुमने लघुवय में व्रत को धारा है।
तुम सम्मुख नतमस्तक होगा आगे संसार ये सारा है।।१५।।
गुरुमुख से शुभ वचनों को सुन हर्षित हो शीश झुकाते हैं।
निज मात—पिता के संग दोनों बालक पुलकित हो जाते हैं।।
आशीर्वाद हो फलीभूत ऐसा मन चिन्तन करते हैं।
वापस घर आकर बार—बार गुरुवचन स्मरण करते हैं।।१६।।
मेरे प्यारे भाइयों एवं बहनों !
यहाँ जाना है आपने कि इन छोटे—छोटे बालकों ने, जिन्हें ब्रह्मचर्य व्रत का मतलब भी नहीं पता है, उन्होंने कौतुकवश माता—पिता की देखादेखी उस महान व्रत को गुरु से ग्रहण कर लिया। माता—पिता भी अनुमान नहीं लगा पाये कि ये मेरे बच्चे व्रत के महत्त्व को इतनी गंभीरता से समझ सके हैं। धीरे—धीरे समय निकलता रहा और ये होनहार बालक अपने ज्ञान और योग्यता के कारण मान्यखेटपुर नगर में प्रसिद्ध होने लगे।
नगर के महाराजा शुभतुंग भी इन बालकों की प्रतिभा से बड़े प्रभावित होते और अपने महामंत्री पुरुषोत्तम की राजसभा में खूब इज्जत एवं प्रशंसा करते।
देखिए, अब आगे क्या होता है ? ……..
अकलंक और निकलंक बगीचे में मित्रों संग खेल रहे।
कंदुक क्रीडा में मग्न सभी दोनों की प्रतिभा देख रहे।।
नहिं कभी हारने वाले वे सबके प्रिय फिर भी रहते हैं।
मानो वे गेंद खेल करके निज शक्ति परीक्षण करते हैं।।१७।।
होता क्या है कुछ भिक्षुक इनका खेल देख वहाँ रुकते हैं।
इक तरुण भेज उनके समीप प्रश्नोत्तर उनसे करते हैं।।
वह तरुण तापसी पूछ रहा, बच्चों ! इस शहर का नाम है क्या?
इस नगर का राजा कौन है एवं तुम लोगों का नाम है क्या ?।।१८।।
अकलंक बताते हैं आगे होकर नगरी का नाम सुनो।
यह मान्यखेट नगरी प्रसिद्ध इसका सुन्दर गुणगान सुनो।।
राजा शुभतुंग यहाँ के शुभ कार्यों में उच्च कहाते हैं।
नगरी के हर बच्चे बूढ़े उनकी यशगाथा गाते हैं।।१९।।
भिक्षुक ने पूछा बच्चों से क्या तुम सब जैन कहाते हो।
जिनधर्म उपासक होने से हमको नहिं शीश झुकाते हो।
सब बालक एक साथ बोले, हाँ हम तो जैनी बच्चे हैं।
इंद्रिय विषयों के जेता जिनवर, हम सबके गुरु सच्चे हैं।।२०।।
भिक्षुक बोले अच्छा बतलाओ, यहाँ साधुमठ बना है क्या ?।
निकलंक इशारा कर उंगली से बतलाते मठ बना यहाँ।।
वे भिक्षुक मठ की ओर गये, बच्चों में चर्चा चलती है।
हम सबके नमन न करने से, इनमें क्रोधाग्नि झलकती है।।२१।।
इक बालक बोला तभी उन्होंने पूछा तुम जैनी हो क्या?।
अकलंक बोलते हैं मित्रों! तुमको इसमें भय लगता क्या?।।
सब बोल पड़े जिनवर प्रभु का, जयकारा उपवन गूंज उठा।
जिनधर्म के अनुरागी बच्चों का अपना मानस बोल उठा।।२२।।
सोचा हम सब मिल जैनधर्म की ध्वजा सदा फहराएंगे।
हम सार्वभौम सिद्धान्तों का झण्डा जग में लहराएंगे।।
यह धर्म न मात्र हमारा है, हर प्राणी का हित यह करता।
पशु पक्षी देव मनुज कोई भी, इसको है अपना सकता।।२३।।
अकलंक हुए कुछ िंचतित तो निकलंक उन्हें समझाते हैं।
भइया हम सभी तुम्हारे में कुछ अधिक योग्यता पाते हैं।।
लघुभ्राता को संबोधित कर, अकलंक तभी यह बोल पड़े।
वह दिन धरती पर लाना है, जब जैनधर्म का जोर बढ़े।।२४।।
हैं आज भी भारत वसुधा पर, जिनवर के लघुनन्दन मुनिवर।
वे यत्र-तत्र विचरण करते, रत्नत्रय में तन्मय होकर।।
ये अनेकान्त स्याद्वादमयी वाणी का पान कराते हैं।
अपने उपदेशों से जग को ज्ञानामृत स्नान कराते हैं।।२५।।
इक बालक ने पूछा भैय्या! क्या आज कोई ज्ञानी ऐसा।
इस भारत की धरती पर है शास्त्रार्थ कर सके जो सच्चा।।
अकलंक पुन: चिन्तन सागर में डूब गये चिन्तित होकर।
निकलंक कह पड़े अपने को, करना प्रभावना है सुखकर।।२६।।
इनकी प्रतिभा लखकर कुछ बालक चर्चा करते आपस में।
हमको क्रीडा सुखप्रद लगती ये पाठ याद करते सच में।।
धार्मिक प्रभावना की चिंता ये भ्रात सदा ही करते हैं।
ये कोई महापुरुष लगते इनमें सारे गुण दिखते हैं।।२७।।
बोलो जैनधर्म की जय!
महानुभावों ! यह है अकलंक—निकलंक की मनोभावना, कि हम खूब ज्ञान प्राप्त करके जैनधर्म का विश्वव्यापी प्रचार—प्रसार करेंगे।
आगे देखें उन अकलंक और निकलंक के जीवन में घटित एक अपूर्व
घटना—
अर्थात् वे दोनों भाई अब युवावस्था में प्रवेश कर चुके हैं।
अत: माता—पिता उनके विवाह की योजना बना रहे हैं।
मंत्री पुरुषोत्तम पद्मावति के साथ महल में बैठे हैं।
दोनों प्रसन्न हो पुत्रों की वैवाहिक चर्चा करते हैं।।
बोले मंत्री मैंने सुन्दर-सुन्दर कन्याएँ देखी हैं।
मेरे घर की शोभा उनसे द्विगुणित होगी निश्चित ही है।।२८।।
रानी पद्मावति अब इनकी शादी की तैयारी कर लो।
लाडले मेरे पुत्रों का जीवन उपवन खुशियों से भर दो।।
हम हैं सचमुच सौभाग्यवान जो ज्ञानी पुत्र हमारे हैं।
इनके गुण से आकर्षित अब राजा और प्रजा भी सारे हैं।।२९।।
पद्मावति बोली हे प्रियतम! बच्चों को नजर न लग जावे।
मेरी आँखों के तारे ये इनको न कभी कुछ हो पावे।।
मैं मंदिर में भी प्रतिदिन इनकी चर्चा सुनती रहती हूँ।
इनके विवेक की महिलाओं से प्रशंसा सुनती रहती हूँ।।३०।।
जो होता पात्र प्रशंसा का उसकी ही प्रशंसा होती है।
पुरुषोत्तम बोल पड़े इनसे कुल की अनुशंसा होती है।।
देखो ! मेरा अकलंक एकपाठी विद्वान कहा जाता।
जो एक बार वह पढ़ लेता फिर कभी न विस्मृत कर पाता।।३१।।
निकलंक भी है दो पाठी उसे दुबारा पढ़ना पड़ता है।
गुरु एवं बड़े भाई से उसको पढ़ना अच्छा लगता है।।
ये होनहार दोनों बालक अब युवा उम्र में आये हैं।
इन विद्वानों के जनक और जननी बन हम हरषाये हैं।।३२।।
अच्छा अब उनको बुलवाओ उनसे भी कुछ चर्चा कर लें।
वे भी अपनी इच्छानुरूप कन्या का स्वयं चयन कर लें।।
देखो ! यह मान्यखेट नगरी दुल्हन सी सजने वाली है।
क्योंकि कितनी कन्याएँ अपने पितु संग आने वाली हैं।।३३।।
पद्मावति बोलीं धाय मात! जल्दी बच्चों को ले आओ।
मेरी खुशियों का आंगन अब कुलपुत्रवधू से महकाओ।।
बस धाय तुरत अकलंक और निकलंक के पास में जाती है।
किंचित् संकेत उन्हें देकर वापस जल्दी आ जाती है।।३४।।
धाय बालकों के पास जाती है और कहती है आप दोनों को पिताश्री ने बुलाया है। दोनों बालक जानना चाहते हैं बात क्या है, धाय कुछ शर्माती जैसी कहती है-शायद तुम दोनों की शादी की बात है।
यह समाचार सुन दोनों पहले आपस में चर्चा करते।
हम नहीं विवाह करेंगे ऐसा ही दोनों निर्णय करते।।
तो चलो पिता—माता के सम्मुख निर्णय यही बताना है।
उनके आशीषाें को पाकर अपना कर्तव्य निभाना है।।३५।।
दोनों भाई आकर माता पितु को प्रणाम सादर करके।
उनकी बातें सुनने हेतू माता व पिता के निकट बैठे।।
पुरुषोत्तम बोले तुम दोनों का ब्याह हमें अब करना है।
तुमको गृहस्थ के आश्रम में पुत्रों ! प्रवेश अब करना है।।३६।।
तब हाथ जोड़ अकलंक कहें, क्या आप पिताजी ! भूल गये।
मुनि चित्रगुप्त से आपने ही व्रत दिलवाया था भूल गये।।
व्रत ब्रह्मचर्य को धारण कर हमने अब मन में ठाना है।
जिनधर्म का व्यापक कर प्रचार जग भर में उसे पैâलाना है।।३७।।
निस्तब्ध रह गये पुरुषोत्तम रानी एवं पद्मावति भी।
ये इस प्रकार कह सकते हैं हमने नहिं सोचा था ये कभी।।
कब ? वैâसा ? ब्रह्मचर्य तुम दोनों को हमने दिलवाया है?।
बोलो पुत्रों ! तुमने यह वैâसा निर्णय हमें सुनाया है।।३८।।
निकलंक कहे हे पूज्य पिता! आष्टान्हिक पर्व था जब आया।
कीजिए याद तब मुनिवर से व्रत ब्रह्मचर्य था दिलवाया।।
जब आप और माँ दोनों ने ही, आठ दिनों का लिया था व्रत।
मैंने एवं भैय्या ने भी आजन्म का ग्रहण किया था व्रत।।३९।।
पुरुषोत्तम जी की आँखों से आंसू का झरना फूट पड़ा।
बोले उन आठ दिनों के व्रत को तुमने क्यों कर दिया बड़ा।।
माँ बोली किंचित् गुस्से में बेटा ऐसा क्यों कहते हो।
अपने पितु की इच्छाओं की क्या बिल्कुल कदर न करते हो।।४०।।
दोनों भाई बोले हे माँ ! जब हमने था व्रत ग्रहण किया।
तब आठ दिवस की बात न थी हमने आजन्म था समझ लिया।।
इसलिए पूज्यवर अब हम तो पूरा जीवन व्रत पालेंगे।
क्यों चिंता करती हो माता हम नहीं विघ्न आने देंगे।।४१।।
इतने निर्मोही वैâसे तुम बन गये पुत्र हम सबके प्रति।
मैं तो नहिं मोह छोड़ सकती अपने दोनों बच्चों के प्रति।।
जबरन मैं ब्याह रचाऊँगी निज पुत्रवधू घर लाऊंगी।
उनके पायल की रूनझुन से अपना घर स्वर्ग बनाऊंगी।।४२।।
बेटा ! अपनी प्राचीन रीति यह सदा-सदा से आई है।
पहले गृहस्थ आश्रम में त्रय पुरुषार्थ की बात बताई है।।
हैं धर्म अर्थ अरु काम तीन इनका सेवन विधिवत् करना।
घर छोड़ पुन: दीक्षा लेकर पुरुषार्थ मोक्ष का है करना।।४३।।
पुरुषोत्तम बोले यही ठीक है बेटा प्रथम विवाह करो।
हम चलें त्याग के पथ पर तुम कर्त्तव्य मेरे निर्वाह करो।।
फिर मेरी आयु में आने तक तुम भी दीक्षा धारण करना।
व्रत ब्रह्मचर्य ही क्या पूरे मुनिवर के व्रत पालन करना।।४४।।
अब सुनो बन्धु ! अकलंक और निकलंक पिता से क्या कहते।
इक मार्मिक सूक्ति सुना करके अपने दृढ़ निश्चय को कहते।।
कीचड़ में पग रखकर धोना जग के सब प्राणी करते हैं।
इससे अच्छा कीचड़ में पग न रखें हम यही समझते हैं।।४५।।
हे मात ! सुनो, उस ही प्रकार हम गृहकीचड़ में पग न धरें।
तुम जैसे मात-पिता ने हैं हम दोनों में संस्कार भरे।।
उन संस्कारों के उपवन को हम सदा—सदा लहराएंगे।
विश्वास करो हे माँ ! हम तेरी कोख को धन्य बनाएंगे।।४६।।
बन्धुओं! ७२ वर्ष पूर्व हमारे टिवैâतनगर में यही अकलंक और निकलंक नाटक समाज में हो रहा था जिसे बचपन में मैना देख रही थी बस यही एक सूक्ति मैना के मन में भी घर कर गई।
अकलंक के इन शब्दों ने इक कन्या का मानस बदल दिया।
हे बन्धु ! सुनो इस पंक्ति ने हमको ज्ञानमती सा रत्न दिया।।
समझो दूजे अकलंक ने आ जिनधर्म का अलख जगाया है।
अपनी माँ मोहिनि सहित जैनसंस्कृति का मान बढ़ाया है।।४७।।
अब आगे चलो देखना है दोनों भाई क्या करते हैं।
वे ज्ञानपिपासू ज्ञान प्राप्ति का चिन्तन हरदम करते हैं।।
इक दिवस पिजाजी को प्रणाम कर अपनी इच्छा कहते हैं।
नालन्दा के विद्यालय में जाकर पढ़ने को कहते हैं।।४८।।
कुछ देर विचार-विमर्श हुआ फिर आज्ञा ले प्रस्थान किया।
आशीर्वाद पितु—मात का ले निकलंक के संग प्रस्थान किया।।
अकलंक से कहती है माता निकलंक का ध्यान सदा रखना।
निकलंक सुनो तुम भी अपने भैय्या का मान सदा रखना।।४९।।
आँखों में आंसू रोक—रोक कर रुंधे गले से बोल रही।
आशीश का हाथ उठा मां का तुम राम लखन हो बोल रही।।
ये मान्यखेट से चल करके, नालंदा निकट पहुँचते हैं।
विद्यालय में पढ़ने हेतू वे खुद को जैन न कहते हैं।।५०।।
इस विद्यालय में जैनधर्म के प्रति विद्वेष झलकता है।
अकलंक और निकलंक में बस श्रुत ज्ञान का भाव छलकता है।।
इनकी तेजस्वी आभा से प्राचार्य प्रभावित हुए बहुत।
इस महाबोधि विद्यालय में जन—जन इनसे हो गये परिचित।।५१।।
अकलंक पढ़ें जो एक बार वह सदा उन्हें स्मरण रहे।
निकलंक पुन: भाई से दुबारा पढ़कर पाठ स्मरण करें।
ये दोनों भाई इकपाठी दो पाठी भी कहलाते हैं।
इनकी प्रतिभा के सम्मुख सारे शिष्य सुस्त रह जाते हैं।।५२।।
इक दिन गुरु को संदेह हुआ क्या कोई जैन यहाँ पर है।
पूछा तो सबने मना किया हममें से कोई जैन न है।।
अपना संदेह पुष्ट करने को एक बड़ा षडयंत्र रचा।
महावीर प्रभू की प्रतिमा रखकर उसे लांघने हेतु कहा।।५३।।
सब बालक क्रम से उस प्रतिमा को लांघ रहे निर्भय होकर।
मौका पाकर निकलंक ने भाई से पूछा चिंतित होकर।।
यह बड़ा धर्मसंकट अपने सम्मुख आया है हे भाई।
भगने या छिपने से भी काम नहीं चल सकता है भाई।।५४।।
आंसू भरकर निकलंक ने भाई से बोला अब क्या होगा।
जिनधर्म की रक्षा का अपना संकल्प पूर्ण अब क्या होगा।।
भाई को छाती से चिपका अकलंक ने आंसू पोंछ दिये।
फिर इक उपाय सोचा उनने निकलंक भी सुन निश्चिंत हुए।।५५।।
दोनों ने दिगम्बर प्रतिमा पर इक सूत का धागा डाल दिया।
बस उसे सरागी मान भाइयों ने भी उसको लांघ लिया।।
इस कठिन परीक्षा में उनको कोई भी नहिं पहचान सका।
पर विद्यालय में छाया है सन्नाटा अभी भी शंका का।।५६।।
प्यारे बन्धुओं! वहाँ बड़े—बड़े विद्वानों ने आपस में विचार—विमर्श करके एक और उपाय सोचा कि शायद उससे जैन बच्चों के यहाँ पढ़ने का पता लग जावे। अत: चलें आगे की ओर—
इक रात गाढ़ निद्रा में जब सारा विद्यालय सोया है।
हर शयनकक्ष में गुप्तचरों के भी समूह को छोड़ा है।।
बस अर्द्धरात्रि में कांसे के बर्तन की बोरी गिरती है।
ऐसा हो गया धमाका मानो नभ से बिजली गिरती है।।५७।।
दिग्नाग नाम के गुरु ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ।
सबके मुख से डर के मारे ईश्वर का नाम ही प्रगट हुआ।।
अकलंक और निकलंक ने बस अरिहंत शरण को याद किया।
मुख से यह शब्द निकलते ही उन्हें कारावास में डाल दिया।।५८।।
कारावास में दोनों भाई भगवान से प्रार्थना कर रहे हैं।
प्रार्थनागीत—
नाथ ! तेरे सिवा कौन मेरा। आके विपदा ने हमको है घेरा।
आके भगवन् ! हमें अब बचाओ, जेल बन्धन से हमको छुड़ावो।।१।।
धर्म की आन रख लो प्रभूजी। हमको अपना समझ लो प्रभूजी।।
मेरी रक्षा करो नाथ ! मेरे। वेग संकट हरो नाथ मेरे।।२।।
बच गये प्राण यदि मेरे भगवन। मेरा जीवन तुम्हें ही समर्पण।।
मिथ्याभावों का करके समापन। सर्व व्यापी करूँ जैनशासन।।३।
जैनशासन के रक्षक कहाँ हो, आओ हे देव अब तुम जहाँ हो।
मुझको बस आपकी ही शरण है, आप ही एक तारणतरण हैं।।४।।
उस कारावास में भी जिनेन्द्र भगवान का सुमिरन चलता है।
वैâसे जिनधर्म प्रचार करें बस यह ही चिंतन चलता है।।
दोनों ने मिल प्रार्थना किया अरिहंत प्रभू रक्षा करिये।
जिनधर्म पे संकट आया है इसको प्रभु दूर जरा करिये।।५९।।
फिर तो हे प्रभु ! हम सर्वोदय इस धर्म को ही चमकाएंगे।
स्याद्वादमयी जिनशासन का दुनिया में अलख जगाएंगे।।
हम तो यह दिल से कहते हैं असली अरिहंत शरण ही है।
हर प्राणी की रक्षा करता भव से यह तारणतरण ही है।।६०।।
प्रात: होते—होते इनको फाँसी पे चढ़ाया जाना है।
विद्यालय के परिवार ने उनके प्रति यह मन में ठाना है।।
अरिहंत शरण ने उससे पहले चमत्कार है दिखलाया।
दोनों की बेड़ी टूट पड़ी और कारावास खुला पाया।।६१।।
आँखे खोली देखा दरवाजा खुला पड़ा सब सोये हैं।
खर्राटे भरकर सभी सिपाही पड़े नींद में सोये हैं।।
बस फिर दोनों प्रभु नाम मंत्र जपते—जपते वहाँ से भागे।
बेभान दौड़ते चले जा रहे जब तक लोग वहाँ जागें।।६२।।
निकलंक बहुत थक गये उन्हें अकलंक ने गोद में सुला लिया।
प्रभु नाम मंत्र का चमत्कार निकलंक को उनने बता दिया।।
निकलंक तुरत ही बोल पड़े, भैय्या ! हमको चलना चहिए।
वे दुष्ट कहीं आते ना हों, कुछ दूरी तय करना चहिए।।६३।।
दोनों तेजी से दौड़ चले, णमोकार मंत्र जपते—जपते।
जिनधर्म की रक्षा हेतु हमें, जीना है बस यह ही रटते।।
अब उधर की बात सुनो भाई, कोलाहल का स्वर उठता है।
दो वैâदी कारावास से भागे यही सिपाही कहता है।।६४।।
विद्यालय के गुरुजी ने माथा, ठोक लिया क्रोधित होकर।
फिर भेज दिये चहुँ ओर सिपाही, नंगी तलवारें लेकर।।
सेनापति ने तब घुड़सवार सब तरफ शीघ्र हैं दौड़ाए।
लपलप करती तलवार लिये सैनिक प्रात: ही दौड़ाए।।६५।।
अकलंक और निकलंक दौड़ते हुए बहुत थक जाते हैं।
बह रही खून की धार पैर से लेकिन चलते जाते हैं।।
बोले निकलंक मेरे भइया! पीछा हो रहा हमारा है।
लगता हत्यारे आये हैं, अब बचना कठिन हमारा है।।६६।।
दोनों भाई अब णमोकार महामंत्र का सुमिरन करते हैं।
अब प्राण नहीं बच पाएंगे यह अच्छी तरह समझते हैं।।
है खेद हमें जिनधर्म की हम, सेवा नहिं कुछ भी कर पाये।
मन का सपना मन में ही रहा, दोनों यह सोच के दुख पायें।।६७।।