राजा लघुहत्व के ज्येष्ठ पुत्र प्रसिद्ध आचार्य अकलंक देव हुए। जिस समय आपने जन्म लिया उस समय बौद्धधर्मानुयायी जिनधर्म के अत्यधिक विद्वेषी थे। अकलंक और निकलंक इन दोनों भाइयों ने धर्म की रक्षा हेतु अनेकों संघर्षो का सामना किय और ब्रह्मचर्य व्रत को अंगीकार कर धर्म की रक्षा में दत्तचित्त रहे।
जिसमें भाई निकलंक को अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी। आचार्य अकलंक देव ने जिनदीक्षा ग्रहण कर ली और एक बार राजा हिमशीतल की सभा में एक बौद्ध साधु को परास्त किया, जिसकी ओर से तारादेवी शास्त्रार्थ किया करती थी और जिनधर्म की महती प्रभावना की। आपने तत्त्वार्थ राजवार्तिक सभाष्य, अष्टशती, स्वरूप सम्बोधन आदि अनेक ग्रन्थों की रचनाएं की जिस पर अनेक आचार्यों ने महान टीकाओं की रचना की। जो सम्पूर्ण कलंक से रहित हो वह अकलंक है।