पीढस्स चउदिसासुं बारसवेदीओ होंति भूमियले।
वरगोउराओ तेत्तियमेत्ताओ पीढउड्ढम्मि२।।१९०३।।
पीढस्सुवरिमभागे सोलसगव्वूदिमेत्तउच्छेहो।
सिद्धंतो णामेणं चेत्तदुमो दिव्ववरतेओ ।।१९०४।।
को १६ ।
खंधुच्छेहो कोसा चत्तारो बहलमेक्कगव्वूदी।
बारसकोसा साहादीहत्तं चेय विच्चालं।।१९०५।।
को ४ । १ । १२ । १२ ।
इगिलक्खं चालीसं सहस्सया इगिसयं च वीसजुदं।
तस्स परिवाररुक्खा पीढोवरि तप्पमाणधरा।।१९०६।।
१४०१२० ।
विविहवररयणसाहा मरगयपत्ता य पउमरायफला।
चामीयररजदमयाकुसुमजुदा सयलकालं ते।।१९०७।।
सव्वे अणाइणिहणा पुढविमया दिव्वचेत्तवररूक्खा।
जीवुप्पत्तिलयाणं कारणभूदा सइं भवंति।।१९०८।।
रुक्खाण चउदिसासुं पत्तेक्कं विविहरयणरइदाओ।
जिणसिद्धप्पडिमाओ जयंतु चत्तारि चत्तारि।।१९०९।।
चेत्ततरूणं पुरदो दिव्वं पीढं हवेदि कणयमयं।
उच्छेहदीहवासा तस्स य उच्छण्णउवएसा।।१९१०।।
पीढस्स चउदिसासुं बारस वेदी य होंति भूमियले।
चरिअट्टालयगोउरदुवारतोरणविचित्ताओ ।।१९११।।
चउजोयणउच्छेहा उवरिं पीढस्स कणयवरखंभा।
विविहमणिणियरखचिदा चामरघंटापयारजुदा।।१९१२।।
सव्वेसुं थंभेसुुं महाधया विविहवण्णरमणिज्जा।
णामेण महिंदधया छत्तत्तयसिहरसोहिल्ला।।१९१३।।
पुरदो महाधयाणं मकरप्पमुहेहिं मुक्कसलिलाओ।
चत्तारो वावीओ कमलुप्पलकुमुदछण्णाओ।।१९१४।।
पण्णासकोसउदया कमसो पणुवीस रुंददीहत्ता।
दस कोसा अवगाढा वावीओ वेदियादिजुत्ताओ।।१९१५।।
को ५० । १०० । गा १० ।
वावीणं बहुमज्झे चेट्ठदि एक्को जिणिंदपासादो।
विप्फुरिदरयणकिरणो किं बहुसो सो णिरुवमाणो।।१९१६।।
तत्तो दहाउ पुरदो पुव्वुत्तरदक्खिणेसु भागेसुं।
पासादा रयणमया देवाणं कीडणा होंति।।१९१७।।
पण्णासकोसउदया कमसो पणुवीस रुंददीहत्ता।
धूवधडेहिं जुत्ता ते णिलया विविहवण्णधरा।।१९१८।।
को ५० । २५ । २५ ।
वरवेदियाहिं रम्मा वरकंचणतोरणेहिं परियरिया।
वरवज्जणीलमरगयणिम्मिदभित्तीहिं सोहंते।।१९१९।।
ताण भवणाण पुरदो तेत्तियमाणेण दोण्णि पासादा।
धुव्वंतधयवदाया फुरंतवररयणकिरणोहा।।१९२०।।
५० । २५ । २५ ।
तत्तो विचित्तरूवा पासादा दिव्वरयणणिम्मविदा।
कोससयमेत्तउदया कमेण पण्णासदीहवित्थिण्णा।।१९२१।।
जे जेट्ठदारपुरदो दिव्वमुहमंडवादि कहिदा य।
ते खुल्लयदारेसुं हवंति अद्धप्पमाणेंहि ।।१९२२।।
तत्तो परदो वेदी एदाणिं वेढिदूण सव्वाणिं।
चेट्ठदि चरिअट्टालयगोउरदोरहिं कणयमई।।१९२३।।
तीए परदो वरिया तुंगेहिं कणयरयणथंभेहिं।
चेट्ठंति चउदिसासुं दसप्पयारा धयणिबंधा।।१९२४।।
हरिकरिवसहखगाहिवसिहिससिरविहंसकमलचक्कधया।
अट्ठुत्तरसयसंखा पत्तेक्कं तेत्तिया खुल्ला।।१९२५।।
चामीयरवरवेदी एदाणिं वेढिदूण चेट्ठेदि।
विप्फुरिदरयणकिरणा चउगोउरदाररमणिज्जा।।१९२६।।
बे कोसाणिं तुंगा वित्थारेणं धणूणि पंचसया।
विप्फुरिदधयवदाया फडिहमयाणेयवरभित्ती।।१९२७।।
को २ । दं ५०० ।
तीए परदो दसविहकप्पतरू ते समंतदो होंति।
जिणभवणेसुं तिहुवणविम्हयजणणेहिं रूवेहिं।।१९२८।।
गोमेदयमयखंधा कंचणमयकुसुमणियररमणिज्जा।
मरगयमयपत्तधरा विद्दुमवेरुलियपउमरायफला।।१९२९।।
सव्वे अणाइणिहणा अकट्टिमा कप्पपायवपयारा।
मूलेसु चउदिसासुं चत्तारि जिणिंदपडिमाओ।।१९३०।।
तप्फलिहवीहिमज्झे वेरुलियमयाणि माणथंभाणिं।
वीहिं पडि पत्तेयं विचित्तरूवाणि रेहंति।।१९३१।।
चामरघंटाकिंकिणिकेतणपहुदीहिं उवरि संजुत्ता।
सोहंति माणथंभा चउवेदीदारतोरणेहिं जुदा।।१९३२।।
ताणं मूले उवरिं जिणिंदपडिमाओ चउदिसंतेसुं।
वररयणणिम्मिदाओ जयंतु जयथुणिदचरिदाओ।।१९३३।।
कप्पमहिं परिवेढिय साला वररयणणियरणिम्मविदा।
चेठ्ठदि चरियट्टालयणाणाविहधयवडाडोवा।१९३४।।
चूलियदक्खिणभाए पच्छिमभायम्मि उत्तरविभागे।
एक्केक्कं जिणभवणं पुव्वम्हि व वण्णणेहिं जुदं।।१९३५।।
एवं संखेवेणं पंडुगवणवण्णणाओ भणिदाओ।
वित्थारवण्णणेसुं सक्को वि ण सक्कदे तस्स।।१९३६।।
पंडुगवणस्स हेट्ठे छत्तीससहस्सजोयणा गंतुं।
सोमणसं णाम वणं मेरुं परिवेढिदूण चेट्ठेदे।।१९३७।।
३६०००।
पणसयजोयणरुंदं चामीयरवेदियािंह परियरियं।
चउगोउरसंजुत्तं खुल्लयदारेिंह रमणिज्जं।।१९३८।।
चत्तारि सहस्साणिं बाहत्तरिजुत्तदुसयजोयणया।
एक्करसहिदट्ठकला विक्खंभो बाहिरो तस्स।।१९३९।।
४२७२। ८।
पीठ के चारों ओर उत्तम गोपुरों से युक्त बारह वेदियां भूमितल पर और इतनी ही पीठ के ऊपर हैं।।१९०३।। पीठ के उपरिम भाग पर सोलह कोस प्रमाण ऊंचा दिव्य व उत्तम तेज को धारण करने वाला सिद्धार्थ नामक चैत्यवृक्ष है ।। १९०४ ।। को. १६ ।
चैत्यवृक्ष के स्कन्ध की ऊँचाई चार कोस, बाहल्य एक कोस और शाखाओं की लम्बाई व अन्तराल बारह कोस प्रमाण है।।१९०५।। को. ४ । १। १२। १२। पीठ के ऊपर इसी प्रमाण को धारण करने वाले एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस इसके परिवार वृक्ष हैं।।१९०६।। १४०१२०। ये वृक्ष विविध प्रकार के उत्तम रत्नों से निर्मित शाखाओं, मरकतमणिमय पत्तों, पद्मरागमणिमय फलों और सुवर्ण एवं चाँदी से निर्मित पुष्पों से सदैव संयुक्त रहते हैं।।१९०७।।
ये सब उत्तम दिव्य चैत्यवृक्ष अनादिनिधन और पृथ्वीरूप होते हुए जीवों की उत्पत्ति और विनाश के स्वयं कारण होते हैं ।। १९०८ ।। इन वृक्षों में प्रत्येक वृक्ष के चारों ओर विविध प्रकार के रत्नों से रचित चार-चार जिन और सिद्धों की प्रतिमायें विराजमान हैं। ये प्रतिमायें जयवन्त होवें ।। १९०९ ।।
चैत्यवृक्षों के आगे सुवर्णमय दिव्य पीठ है। इसकी ऊँचाई, लम्बाई और विस्तारादिक का उपदेश नष्ट हो गया है ।।१९१०।। पीठ के चारों ओर भूमितल पर मार्ग व अट्टालिकाओं, गोपुरद्वारों और तोरणों से विचित्र बारह वेदियां हैं।।१९११।।
पीठ के ऊपर विविध प्रकार के मणिसमूह से खचित और अनेक प्रकार के चमर व घंटाओं से युक्त चार योजन ऊँचे सुवर्णमय खम्भे हैं।।१९१२।। सब खम्भों के ऊपर अनेक प्रकार के वर्णों से रमणीय और शिखर पर तीन छत्रों से सुशोभित महेन्द्र नामक महाध्वजायें हैं।।१९१३।। महाध्वजाओं के आगे मगर आदि जलजन्तुओं से रहित जल वाली और कमल, उत्पल व कुमुदों से व्याप्त चार वापिकायें हैं।।१९१४।। वेदिकादि से सहित वापिकायें प्रत्येक पचास कोस प्रमाण विस्तार से युक्त, इससे दुगुणी अर्थात् सौ कोस लम्बी और दश कोस गहरी हैं।।१९१५।। को. ५० । १०० । ग. १०। वापियों के बहुमध्य भाग में प्रकाशमान रत्नकिरणों से सहित एक जिनेन्द्रप्रासाद स्थित है। बहुत कथन से क्या, वह जिनेन्द्रप्रासाद (जिनमंदिर) निरूपम है।।१९१६।। अनन्तर वापियों के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में देवों के रत्नमय क्रीडाभवन हैं।।१९१७।। विविध वर्णों को धारण करने वाले वे भवन पचास कोस ऊँचे, क्रम से पच्चीस कोस विस्तृत और पच्चीस ही कोस लम्बे तथा धूपघटों से संयुक्त हैं।।१९१८।। को. ५० । २५ । २५।
उत्तम वेदिकाओं से रमणीय और उत्तम सुवर्णमय तोरणों से युक्त वे भवन उत्कृष्ट वङ्का, नीलमणि और मरकत मणियों से निर्मित भित्तियों से शोभायमान हैं।।१९१९।। उन भवनों के आगे इतने ही प्रमाण से संयुक्त फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित
और प्रकाशमान उत्तम रत्नों के किरणसमूह से सुशोभित दो प्रासाद हैं।।१९२०।। ५० ।। २५ । २५ ।
इसके आगे सौ कोस ऊंचे और क्रम से पचास कोस लम्बे-चौड़े दिव्य रत्नों से निर्मित विचित्र रूप वाले प्रासाद हैं।।१९२१।। ज्येष्ठ द्वार के आगे जो दिव्य मुखमण्डपादिक कहे जा चुके हैं, वे आधे प्रमाण से सहित क्षुद्र द्वारों में भी हैं।।१९२२।। इसके आगे मार्ग, अट्टालिकाओं और गोपुरद्वारों से सहित सुवर्णमयी वेदी इन सबको वेष्टित करके स्थित है।।१९२३।। इस वेदी के आगे चारों दिशाओं में सुवर्ण एवं रत्नमय उन्नत खम्भों से सहित दश प्रकार की श्रेष्ठ ध्वजपंक्तियाँ स्थित हैं ।।१९२४।। सिंह, हाथी, बैल, गरुड़, मोर, चन्द्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र, इन चिह्नों से युक्त ध्वजाओं में से प्रत्येक एक सौ आठ और इतनी ही क्षुद्रध्वजायें हैं ।।१९२५।।
प्रकाशमान रत्नकिरणों से संयुक्त और चार गोपुरद्वारों से रमणीय सुवर्णमय उत्तम वेदी इनको वेष्टित करके स्थित है।।१९२६।। यह वेदी दो कोस ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से सहित और स्फटिक मणिमय अनेक उत्तम भित्तियों से संयुक्त है।।१९२७।। को. २ । द. ५००।
इसके आगे जिनभवनों में चारों ओर तीनों लोकों को आश्चर्य उत्पन्न करने वाले स्वरूप से संयुक्त वे दश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं।।१९२८।। सब प्रकार के कल्पवृक्ष गोमेदमणिमय स्कन्ध से सहित, सुवर्णमय कुसुमसमूह से रमणीय, मरकतमणिमय पत्तों को धारण करने वाले, मूंगा, नीलमणि एवं पद्मरागमणिमय फलों से संयुक्त, अकृत्रिम और अनादिनिधन हैं। इनके मूल में चारों ओर चार जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान हैं।। १९२९-१९३०।। उन स्फटिक मणिमय वीथियों के मध्य में से प्रत्येक वीथी के प्रति विचित्र रूप वाले वैडूर्यमणिमय मानस्तम्भ सुशोभित हैं।।१९३१।। चार वेदीद्वार और तोरणोें से युक्त ये मानस्तम्भ ऊपर चँवर, घंटा, किंकिणी और ध्वजा इत्यादि से संयुक्त होते हुए शोभायमान होते हैं।।१९३२।।
इन मानस्तम्भों के नीचे और ऊपर चारों दिशाओं में विराजमान, उत्तम रत्नों से निर्मित और जग से कीर्तित चरित्र से संयुक्त जिनेन्द्रप्रतिमाएँ जयवन्त होवें।।१९३३।। मार्ग व अट्टालिकाओं से युक्त, नाना प्रकार की ध्वजापताकाओं के आटोप से सुशोभित और श्रेष्ठ रत्नसमूह से निर्मित कोट इस कल्पमही को वेष्टित करके स्थित है।।१९३४।। चूलिका के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर भाग में भी पूर्वदिशावर्ती जिनभवन के समान वर्णनों से संयुक्त एक-एक जिनभवन है उपर्युक्त वर्णन पांडुकवन के जिनमंदिर का है।।१९३५।। इस प्रकार यहां संक्षेप से पाण्डुकवन का वर्णन किया गया है । उसका विस्तार से वर्णन करने के लिये तो इन्द्र भी समर्थ नहीं हो सकता है।।१९३६।। पाण्डुकवन के नीचे छत्तीस हजार योजन जाकर सौमनस नामक वन मेरु को वेष्टित करके स्थित है।।१९३७।। ३६०००। यह सौमनस वन पाँच सौ योजनप्रमाण विस्तार से सहित, सुवर्णमय वेदिकाओं से वेष्टित, चार गोपुरों से संयुक्त और क्षुद्रद्वारों से रमणीय है।।१९३८।। उसका बाह्यविस्तार चार हजार दो सौ बहत्तर योजन और ग्यारह से भाजित आठ कलाप्रमाण है।।१९३९।। ४२७२-८/११।