ताणं सभाधराणं पुरदो थूहाणि होंति रम्माणि।
जिणवरपडिमच्छण्णा णाणामणिरयणपरिणामा।।४१।।
रयणमयविउलपीढं उत्तुंगं जोयणाणि चालीसं।
थूहस्स दु चउवीसाकंचणवेदीसमाजुत्तं।।४२।।
पीढस्सुवरि विचित्तं तिमेहलापरिउडं महाथूहं।
आयामं विक्खंभं उच्छेहं होइ चउसट्ठी।।४३।।
थूहादो पुव्वदिसं गंतूणं होइ कणयमयपीढं।
विक्खंभायामेण य सहस्स तह जोयणाणेया।।४४।।
वारसवेदिसमग्गं वरतोरणमंडियं परमरम्मं।
मणिगणजलंतणिवहं बहुतरुगणसंकुलं दिव्वं।।४५।।
तस्स दु पीढस्सुवरिं सोलस तह जोयणा समुत्तुंगा।
चेदियरुक्खा णेया णाणामणिरयणपरिणामा।।४६।।
एगं च सयसहस्सं चालीसा तह सहस्स परिसंखा।
एगसयं वीसहिया सिद्धत्थतरूण परिसंखा।।४७।।
उड्ढं गंतूण पुणो धरणीदो जोयणाणि चत्तारि।
चदुसु वि दिसाविभागे साहाओ होंति णिद्दिट्ठा।।४८।।
बारहजोयण दीहा सिद्धत्थयणामधेयरुक्खाणं।
विक्खंभेण य जोयण णिद्दिट्ठा सव्वदरिसीहिं।।४९।।
अट्ठेव जोयणेसु य रुंदेसु महादुमेसु णिद्दिट्ठा।
जिणइंदाणं पडिमा अकिट्टिमा सासयसभावा।।५०।।
पलियंकासणबद्धा रयणमया पाडिहेरसंजुत्ता।
सव्वाणं रुक्खाणं चदुसु वि भागेसु ते होंति।।५१।।
तत्तो दुमसंडादो गंतूण पुणो वि पुव्वदिसभागे।
धयणिवहाणं पीढं वारसवेदीहिं संजुत्तं।।५२।।
तम्मि वरपीढसिहरे सोलस तह जोजणा समुत्तुंगा।
कोसेग होंति रुंदा वेरुलियमया महाखंभा।।५३।।
खंभेसु होंति दिव्वा महाधया विविहवण्णसंजुत्ता।
छत्तत्तयवरसिहरा अणोवमा रूवसंपण्णा।।५४।।
धयणिवहाणं पुरदो वावीओ होंति सलिलपुण्णाओ।
सययोजणदीहाओ पण्णासाओ य रुंदाओ।।५५।।
दसजोजणउंडाओ कंचणमणिवेदिएहि जुत्ताओ।
मणितोरणणिवहाओ कमलुप्पलकुसुमछण्णाओ।।५६।।
एवं पुव्वदिसाए जिणभवणं मंदरस्स णिद्दिट्ठं।
अवसेसाण दिसाणं एमेव कमो मुणेयव्वो।।५७।।
तत्तो दहादु परदो पुव्वुत्तरदक्खिणेसु भागेसु।
पासादा णायव्वा देवाणं कीडणा होंति।।५८।।
कणयमया पासादा पण्णासा जोयणा समुत्तुंगा।
विक्खंभायामेण य पणवीसा होंति णिद्दिट्ठा।।५९।।
कणयमया पासादा वेरुलियमया य मरगयमया य।
ससिकंतसूरकंताकक्केयणपुस्सरागमया ।।६०।।
वरवेदिएहिं जुत्ता कंचणमणिरयणजालपरियरियं।
अक्खइअणाइणिहणा को सक्कइ वण्णिउं सयलं।।६१।।
तेहिंतो गंतूणं पुव्वदिसाए पुणो वि णायव्वो।
वरतोरणं विचित्तं मणिकंचणरयणसंछण्णं।।६२।।
जोयणसयद्धतुंगं तदद्धवित्थार भासुरं दिव्वं।
मुत्तादामेणद्धं वरघंटाजालरमणीयं।।६३।।
तत्तो परं विचित्ता पासादा गोउराण पासेसु।
जोयणसयउव्विद्धा दो दो दु हवंति णायव्वा।।६४।।
तत्तो परं विचित्ता धयणिवहा विविहवण्णजादीया।
असिदी सहस्स संखा णिद्दिट्ठा होंति णायव्वा।।६५।।
तोरणसयसंजुत्ता वरवेदीपरिउडा समुत्तुंगा।
सायरतरंगभंगा सोहंति महाधया रम्मा।।६६।।
तत्तो परं वियाणह वणसंडं विविहपायवाइण्णं।
वणवेदिएहि जुत्तं णाणामणिरयणपरिणामं।।६७।।
रयणमयपीढसोहं मणितोरणमंडियं मणभिरामं।
कणयमयकुसुमसोहं मरगयवरपत्तसंछण्णं।।६८।।
चंपयअसोयगहणं सत्तच्छयअंबकप्पतरुणिवहं।
वेरुलियफलसमिद्धं विद्दुमसाहाउलसिरीयं।।६९।।
ताणं कप्पदुमाणं मूलेसु हवंति चदुसु वि दिसासु।
जिणइंदाणं पडिमा सपाडिहेरा विरायंति।।७०।।
सीद्दासणछत्तत्तयभामंडलचामरादिसंजुत्ता।
पलियंकासणसंगद अणोवमा रूवसंठाणा।।७१।।
उन सभागृहों के आगे जिनेन्द्रप्रतिमाओं से युक्त नाना मणि एवं रत्नों के परिणामरूप रमणीय स्तूप होते हैं।।४१।। स्तूप का रत्नमय विशाल पीठ चौबीस सुवर्णमय वेदियों से संयुक्त तथा चालीस योजन ऊँचा होता है।।४२।। पीठ के ऊपर तीन मेखलाओं से वेष्टित महास्तूप होता है। इसका आयाम, विष्कम्भ और उत्सेध चौंसठ योजन प्रमाण होता है।।४३।।स्तूप से आगे पूर्व दिशा में जाकर एक हजार योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित सुवर्णमय पीठ जानना चाहिये।।४४।। यह दिव्य पीठ बारह वेदियों से परिपूर्ण, उत्तम तोरणों से मण्डित, अतिशय रमणीय, देदीप्यमान मणिगणों के समूहों से युक्त और बहुत से तरुगणों से व्याप्त होता है।।४५।। उस पीठ के ऊपर स्थित सोलह ऊँचे नाना मणियों एवं रत्नों के परिणामरूप चैत्यवृक्ष जानना चाहिये।।४६।।
सिद्धार्थ वृक्षों की संख्या एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है।।४७।।पृथिवी से चार योजन ऊपर जाकर चारों ही दिशा विभागों में उनकी शाखायें निर्दिष्ट की गई हैं।।४८।। सर्वदर्शियों द्वारा सिद्धार्थ नामक वृक्षों की (शाखाएँ) बारह योजन दीर्घ और एक योजन विष्कम्भ से युक्त निर्दिष्ट की गई हैं।।४९।। आठ योजन रुंद वाले उन महाद्रुमों पर अकृत्रिम और शाश्वतिक स्वभाव वाली जिनेन्द्रों की प्रतिमाएँ निर्दिष्ट की गई हैं।।५०।। पल्यंकासन से विराजमान और प्रातिहार्यों से संयुक्त वे रत्नमय जिनप्रतिमायें सब वृक्षों के चारों ही भागों में होती हैं।।५१।।उस वृक्षसमूह से पुनः पूर्व दिशाभाग में जाकर बारह वेदियों से संयुक्त ध्वजासमूहों का पीठ होता है ।।५२।। उस उत्तम पीठ के शिखर पर सोलह योजन ऊँचे और एक कोश विस्तार वाले वैडूर्यमणिमय विशाल खम्भ होते हैं।।५३।।खम्भा पर विविध वर्णों से संयुक्त, शिखर पर उत्तम तीन छत्रों से सुशोभित और अनुपम रूप से सम्पन्न दिव्य महाध्वजायें होती हैं।।५४।। ध्वजासमूहों के आगे सौ योजन दीर्घ, पचास योजन विस्तृत, दश योजन गहरी, सुवर्ण एवं मणिमय वेदिकाओं से युक्त, मणिमय तोरण समूह से संयुक्त, कमल व उत्पल कुसुमों से व्याप्त और जल से परिपूर्ण वापियां होती हैं ।। ५५-५६ ।। इस प्रकार मन्दर पर्वत की पूर्व दिशा में स्थित जिनभवन का स्वरूप निर्दिष्ट किया है । शेष दिशाओं के जिनभवनों का भी यही क्रम होना चाहिये।। ५७।। उस द्रह के आगे पूर्व, उत्तर और दक्षिण भागों में देवों के क्रीडाप्रासाद हैं ।। ५८।। ये सुवर्णमय प्रासाद पचास योजन उâंचे और पच्चीस योजन प्रमाण विष्कम्भ व आयाम से सहित निर्दिष्ट किये गये हैं।।५९।। उक्त प्रासाद सुवर्ण, वैडूर्यमणि, मरकतमणि, चन्द्रकान्त, सूर्यकान्त, कर्वेâतन एवं पुखराज मणियों से निर्मित, उत्तम वेदिकाओं से युक्त, सुवर्ण, मणि एवं रत्नों के समूह से व्याप्त, अक्षयी व अनादिनिधन हैं। उनका सम्पूर्ण वर्णन करने के लिये कौन समर्थ है ?।।६०-६१।। उनसे आगे फिर भी पूर्व दिशा में जाकर मणि, सुवर्ण, रत्नों से व्याप्त विचित्र उत्तम तोरण जानना चाहिये।।६२।।
यह तोरण पचास योजन ऊंचा, इससे आधे (२५ यो.) विस्तार से सहित, भासुर, दिव्य, मुक्तामाला से संयुक्त और उत्तम घंटा समूह से रमणीय है।।६३।। इसके आगे गोपुरों से पार्श्व भागों में सौ योजन ऊंचे दो-दो विचित्र प्रासाद जानना चाहिये।।६४।। इसके आगे विविध वर्ण व जाति के एक हजार अस्सी ( १८० ² १० ) संख्या प्रमाण विचित्र ध्वजाओं के समूह निर्दिष्ट किये गये हैं।।६५।। सौ तोरणों से संयुक्त व उत्तम वेदी से वेष्टित वे ऊंची रमणीय महाध्वजायें समुद्र की तरंगों के भंग के समान शोभायमान होती हैं।।६६।। इसके आगे विविध पादपों से व्याप्त, वनवेदिकाओं से युक्त, नाना मणियों व रत्नों के परिणामरूप, रत्नमय पीठ से सुशोभित, मणिमय तोरणों से मण्डित, मनोहर, सुवर्णमय कुुसुमों से शोभित, मरकत मणिमय उत्तम पत्तों से व्याप्त, चंपक व अशोक वृक्षों से गहनः, सप्तच्छद व आम्र कल्पवृक्षों से परिपूर्ण, वैडूर्यमय फलों से समृद्ध और मूंगामय शाखाओं की शोभा से संयुक्त वनखण्ड जानना चाहिये।।६७-६९।। उन कल्पवृक्षों के मूल भागों में चारों ही दिशाओं में प्रातिहार्य सहित जिनेन्द्रों की प्रतिमायें विराजमान हैं।।७०।।
ये प्रतिमायें सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चामरादि से संयुक्त, पल्यंकासन से स्थित और अनुपम रूप व संस्थान से युक्त हैं।।७१।।