जंबूद्वीप में बीचोंबीच में सुदर्शनमेरु पर्वत है। इसके दक्षिण और उत्तर में देवकुरु और उत्तरकुरु नाम से दो उत्तम भोगभूमि हैं। पूर्व और पश्चिम में विदेह क्षेत्र हैं।
उत्तरकुरु भोगभूमि में जंबूवृक्ष है। यह अनादिनिधन पृथ्वीकायिक रत्नमयी है। फिर भी इनके पत्ते रत्नमयी होते हुए भी हवा के झकोरे से हिलते हैं। इस वृक्ष की बड़ी-बड़ी चार शाखाएँ हैं। इस जंबूवृक्ष की उत्तर की शाखा पर अकृत्रिम जिनमंदिर है।
जंबूद्वीप में अकृत्रिम जिनमंदिर अठत्तर हैं, उन्हीं में इनकी गणना है। इसके चारों ओर बारह वेदिकाओं के अंतराल में जंबूवृक्ष के परिवार वृक्ष हैं। इन वृक्षों में भी शाखाओं पर देवों के भवन बने हुए हैं, उनके गृहों में भी जिनमंदिर हैं अतः एक जंबूवृक्ष के परिवार वृक्ष १,४०,११९ हैं तो उतने ही व्यंतर देवों के गृह में जिनमंदिर हैं। इसी प्रकार ‘देवकुरु’ भोगभूमि में शाल्मली वृक्ष है। उसका भी वर्णन इसी के समान है। इनके प्रमुख व्यंतर देवों के नाम आदरदेव एवं अनादरदेव हैं।
धातकीखण्ड में धातकी—धात्री अर्थात् आंवले के वृक्ष हैं। धातकीखंड में दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वत के निमित्त से पूर्वधातकी एवं पश्चिमधातकी ऐसे दो भेद हो गए हैं। पूर्वधातकीखंड में विजयमेरु व पश्चिमधातकी खंड में अचलमेरु पर्वत हैं अतः वहाँ दो धातकीवृक्ष व दो शाल्मली वृक्ष हैं। इनके परिवार वृक्षों की संख्या दूनी-दूनी है।
इसी प्रकार पुष्करार्धद्वीप में दक्षिण-उत्तर में इष्वाकार पर्वत के निमित्त से पूर्व पुष्करार्ध व पश्चिम पुष्करार्ध ऐसे दो खंड हो गए हैं। इनमें भी मंदरमेरु व विद्युन्मालीमेरु पर्वत हैं। वहाँ पर भी उत्तरकुरु व देवकुरु भोगभूमि में पुष्करवृक्ष व शाल्मलीवृक्ष हैं। धातकीवृक्ष से वहाँ के वृक्ष के परिवार वृक्ष दूने-दूने हो गए हैं।
इस प्रकार-
१. जंबूवृक्ष, | २. शाल्मलीवृक्ष, |
३. धातकीवृक्ष, | ४. शाल्मलीवृक्ष, |
५. धातकीवृक्ष, | ६. शाल्मलीवृक्ष, |
७. पुष्करवृक्ष, | ८. शाल्मलीवृक्ष, |
९. पुष्करवृक्ष व | १०. शाल्मलीवृक्ष। |
इन दस वृक्षों की एक-एक शाखा पर एक-एक अकृत्रिम जिनमंदिर हैं। इनकी संख्या मध्यलोक के ४५८ अकृत्रिम मंदिरों में आ जाती है तथा इनके जो परिवार वृक्ष हैं उन पर जो परिवार देव रहते हैं उनके भवनों में जो जिनमंदिर हैं, उनकी गणना व्यंतरदेवों के जिनमंदिरों में आती हैं। इस बात का हमें और आपको ध्यान रखना है।
जंबूवृक्ष की उत्तर शाखा पर मंदिर है। शेष तीन दिशाओं की शाखाओं पर आदर और अनादर नाम के व्यंतर देवों के भवन हैं। परिवार वृक्षों में इन्हीं देव के परिवार देव हैं । ‘सिद्धांतसारदीपक’ आदि ग्रन्थों में जंबूवृक्ष का स्वामी अनावृत नाम का व्यंतर देव माना है। शाल्मलीवृक्ष की दक्षिण शाखा पर सिद्धायतन-जिनमंदिर है व शेष तीन दिशा की शाखाओं पर वेणु एवं वेणुधारी देव रहते हैं। परिवार वृक्षों में इन्हीं देवों के परिवार देव रहते हैं। इसी प्रकार धातकीवृक्ष व शाल्मलीवृक्ष के अधिपति प्रियदर्शन व प्रभास नाम के व्यंतर देव हैं। पुष्करार्धद्वीप में पुष्करवृक्ष व शाल्मलीवृक्षों के अधिपति व्यंतर देव हैं। इनके नाम पद्म व पुण्डरीक हैं। इन वृक्षों की उत्तर व दक्षिण शाखा पर जिनमंदिर तथा शेष तीन शाखाओं पर एवं परिवार वृक्षों पर व्यंतर देव रहते हैं।
इन वृक्षों के पत्ते-पत्ते या डाल-डाल पर भगवान की प्रतिमाएँ नहीं हैं यह बात ध्यान में रखना है।
इन सभी दश सिद्धायतन अकृत्रिम जिनमंदिरों को, उनमें विराजमान प्रतिमाओं को मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे तथा ढाई द्वीप के इन दश वृक्षों की तथा परिवार वृक्षों के देवभवनों की कुल संख्या छत्तीस लाख तेतालिस हजार एक सौ बीस है उनमें से दश घटाकर शेष ३६,४३,११० परिवार वृक्षों के जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओं को भी मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे।
गाथार्थ- नील कुलाचल के समीप, सीता नदी के पूर्व तट पर सुदर्शन मेरु की ईशान दिशा में उत्तरकुरुक्षेत्र में जम्बूवृक्ष की स्थली है जिसका तलव्यास पाँच सौ योजन है ।।६३९।।
गाथार्थ :- वह स्थली अन्त में आधा योजन ऊँची,बीच में आठ योजन ऊँची , गोल आकार वाली और स्वर्णमयी है। उसके बीच में आठ योजन ऊँचा , बारह योजन भूव्यास एवं चार योजन मुख व्यास वाला एक पीठ या पीठिका है।।६४०।।
गाथार्थ :-उस स्थली के उपरिम भाग में बारह-बारह एक दूसरे को वेष्टित करती हुई स्वर्णवलय सदृश आधे योजन ऊँची और ऊँचाई के आठवें भाग प्रमाण अर्थात् १/१६ योजन चौड़ी बारह अम्बुज वेदिकाएँ हैं ।।६४१।।
गाथार्थ :-वे १२ वेदियां चार-चार गोपुरों (दरवाजों ) से युक्त हैं। बाह्य वेदिका की ओर से प्रारम्भ करके प्रथम और द्वितीय अन्तराल में शून्य अर्थात् परिवार वृक्षादि कुछ नहीं हैं । तीसरे अन्तराल की आठों दिशाओं में उत्कृष्ट यक्षदेवों के १०८ वृक्ष हैं।।६४२।।
गाथार्थ :-चौथे अन्तराल में पूर्व दिशा में यक्षी देवाङ्गनाओं के चार जम्बूवृक्ष हैं। पाँचवें अन्तराल में वन हैं और उन वनों में चौकोर और गोल आकार वाली बावड़ियाँ हैं । छठे अन्तराल में किसी तरह की रचना नहीं है, वहाँ शून्य है।।६४३।।
गाथार्थ :-सातवें अन्तराल की चारों दिशाओं में (प्रत्येक दिशा में चार-चार हजार) सोलह हजार वृक्ष तनुरक्षकों के हैं तथा आठवें अन्तराल में ईशान, उत्तर और वायव्य दिशाओं में सामानिक देवों के चार हजार वृक्ष हैंं।।६४४।।
विशेषार्थ :-सातवें अन्तराल में चारों दिशाओं के मिलाकर कुल सोलह हजार वृक्ष उन्हीं उपर्युक्त यक्षों के अङ्गरक्षक देवों के वृक्ष हैं।
गाथार्थ :-नवमत्रये अर्थात् नौवें, दसवें और ग्यारहवें अन्तराल में आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशाओं में अभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य पारिषद देवों के क्रमश: बत्तीस हजार, चालीस हजार और अड़तालीस हजार जम्बूवृक्ष हैं।।६४५।
विशेषार्थ :-नवम अन्तराल की आग्नेय दिशा में अभ्यन्तर पारिषद देवों के ३२००० वृक्ष, दसवें अन्तराल की दक्षिण दिशा में मध्यम पारिषद देवों के चालीस हजार वृक्ष और ग्यारहवें अन्तराल की वायव्य दिशा में बाह्य पारिषद देवों के ४८००० जम्बूवृक्ष हैं।
गाथार्थ :-बारहवें अन्तराल की पश्चिम दिशा में सेना महत्तरों के सात वृक्ष हैं। एक मुख्य वृक्ष सहित सर्व परिवार वृक्षों का प्रमाण पद्म के परिवार पद्मों के प्रमाण से पाँच अधिक है।।६४६।।
विशेषार्थ :-बारहवें अन्तराल में पश्चिम दिशा में सेना महत्तरोें के सात ही जम्बूवृक्ष हैं । इस प्रकार एक मुख्य जम्बूवृक्ष से युक्त सम्पूर्ण परिवार जम्बूवृक्षों का प्रमाण पद्मद्रह में स्थित श्रीदेवी के पद्म परिवारों के प्रमाण से पाँच अधिक है। यहाँ चौथे अन्तराल में चार अग्रदेवांगनाओं के चार और एक मुख्य जम्बूवृक्ष इस प्रकार पाँच अधिक हैं। इस प्रकार-१ + १०८ + ४ + १६००० + ४००० + ३२००० + ४०००० + ४८००० + ७ =१,४०,१२० अर्थात् सम्पूर्ण जम्बूवृक्षों का प्रमाण एक लाख चालीस हजार एक सौ बीस है।
गाथार्थ :-अर्ध योजन गहरी और एक कोश चौड़ी जड़ से युक्त तथा पीठ से दो योजन ऊँचे मरकत मणिमय, सुदृढ़ स्कन्ध से सहित जम्बूवृक्ष है। अपने स्कन्ध से ऊपर वङ्कामय अर्ध योजन चौड़ी और आठ योजन लम्बी उसकी चार शाखाएँ हैं।।६४७।।
विशेषार्थ :-पीठ के बहुमध्य भाग में पाद पीठ सहित मुख्य जम्बूवृक्ष है, जिसका मरकत मणिमय सुदृढ़ स्कन्ध पीठ से दो योजन ऊँचा, एक कोस चौड़ा और अर्ध योजन अवगाह (नींव) सहित है। स्कन्ध से ऊपर वङ्कामय अर्ध योजन चौड़ी और आठ योजन लम्बी उसकी चार शाखाएँ हैं।
गाथार्थ :-वह जम्बूवृक्ष नाना प्रकार की रत्नमयी उपशाखाओं से युक्त, प्रवाल (मूँगा) सदृश वर्ण वाले पुष्प और मृदङ्ग सदृश फल से संयुक्त पृथ्वीकायमय है (वनस्पतिकाय नहीं) उसकी सम्पूर्ण ऊँचाई दस योजन है। मध्य भाग की इसकी चौड़ाई ६ योजन और अग्रभाग की चौड़ाई चार योजन प्रमाण है।।६४८।।
गाथार्थ :-उस जम्बूवृक्ष की जो शाखा उत्तर कुरुगत नील कुलाचल की ओर गई है, उस पर जिनमन्दिर है। अवशेष तीन शाखाओं पर यक्षकुलोत्पन्न आदर-अनादर नामक देवों के आवास हैं।।६४९।।
गाथार्थ :-जम्बूवृक्ष का जो प्रमाण कहा गया है, उसका अर्धप्रमाण परिवार जम्बूवृक्षों का कहा गया है। ये सभी परिवार जम्बूवृक्ष आदर-अनादर देवों के परिवारों के आवास स्वरूप हैं।।६५०।।
विशेषार्थ :- परिवार जम्बूवृक्षों का प्रमाण मुख्य जम्बूवृक्ष के प्रमाण का आधा है तथा परिवार जम्बूवृक्षों की जो शाखाएँ हैं उन पर आदर-अनादर यक्ष परिवारों के आवास बने हुए हैं।
दो गाथाओं में शाल्मली वृक्ष का स्वरूप कहते हैं-
गाथार्थ :-सीतोदा नदी के पश्चिम तट पर, निषध कुलाचल के समीप, सुदर्शन मेरु की नैऋत्य दिशागत देवकुरुक्षेत्र में शाल्मली वृक्ष की मनोहारिणी रूप्यमयी स्थली है । वहाँ अपने १,४०,१२० परिवार शाल्मली वृक्षों सहित मुख्य शाल्मली वृक्ष है।।६५१।।
गाथार्थ :-शाल्मली वृक्ष का वर्णन भी जम्बूवृक्ष सदृश ही है। शाल्मली की दक्षिण शाखा पर जिनभवन और शेष तीन शाखाओं पर गरुड़कुमारों के स्वामी वेणु और वेणुधारी देवों के भवन हैं।।६५२।।
जम्बूवृक्ष एवं शाल्मली वृक्ष के परिवार | सहित वृक्षों की संख्या |
(१) जम्बूवृक्ष संबंधी कुल परिवार वृक्ष | = १,४०,१२० |
(२) शाल्मलि वृक्ष संबंधी कुल परिवार वृक्ष | = १,४०,१२० |
जम्बूद्वीप के कुल वृक्ष | = २,८०,२४० |
पूर्व धातकीखण्ड
(१) धातकी वृक्ष संबंधी कुल वृक्ष | =२८०२४० |
(२) शाल्मलि वृक्ष संबंधी कुल वृक्ष | = २८०२४० |
कुल मिलाकर =२,८०, २,८०,२४० | ५,६०,४८० वृक्ष |
(१) धातकी वृक्ष संबधी कुल वृक्ष | =२८०२४० |
(२) शाल्मलि वृक्ष संबंधी कुल वृक्ष | =२८०२४० |
कुल मिलाकर =२,८०, २,८०,२४० | = ५,६०,४८० वृक्ष |
(१) पुष्करवृक्ष संबंधी कुल वृक्ष | = ५,६०,४८० |
(२) शाल्मलिवृक्ष संबंधी कुल वृक्ष | = ५,६०,४८० |
कुल योग | = ११,२०,९६० |
(१) पुष्करवृक्ष संबंधी कुल परिवार वृक्ष | = ५,६०,४८० |
(२) शाल्मलिवृक्ष संबंधी कुल पीरवार वृक्ष | = ५,६०,४८० |
कुल योग | = ११,२०,९६० |
पुष्करार्धद्वीप संबंधी कुल वृक्ष = ५,६०,४८०+ ५,६०,४८० + ५,६०,४८० + ५,६०,४८० = २२,४१,९२०
ये जितने वृक्ष हैं उतने ही जिनमंदिर हैं। इन सभी अकृत्रिम जिनमंदिर और उनमें विराजमान जिनप्रतिमाओं को मेरा कोटि-कोटि नमस्कार होवे।