—शंभु छंद—
पाँचों मेरू के उत्तर में, उत्तरकुरु में तरु पांच कहे।
ये जंबू धात्री पुष्कर हैं, इनमें शाश्वत जिनसद्म कहे।।
दक्षिण में पाँच देवकुरु में, शाल्मलि तरु पाँच कहे शाश्वत।
इन दश वृक्षों के जिनमंदिर, जिनप्रतिमायें पूजूं नितप्रति।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबतत्परिवारवृक्षजिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबतत्परिवारवृक्षजिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबतत्परिवारवृक्षजिनालयजिनिंबबसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
—अथाष्टकं—गीता छंद—
जल पद्मद्रह का लाय, उज्ज्वल कनक झारी में भरा।
दे धार जिनपद पद्म को, आनंदरस में मन भरा।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।१।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
गोशीर चंदन घिस सुगन्धित, भर कटोरी में लिया।
जिन पादपद्म चढ़ाय श्रद्धा, भाव से अर्चन किया।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।२।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरुदेवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अति धवल तंदुल चंद्र की, कांती सदृश भर थाल की।
जिन चन्द्र सन्मुख पुंज धर, नाऊं खुशी से भाल मैं।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।३।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
मचकुंद चंपक औ कदंबक, पुष्प निज कर से चुने।
जिनराज पद अरविन्द को, जजतें सभी दु:ख को धुने।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।४।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
गोक्षीर तंदुल शर्करायुत, फेनि शतछिद्रा१ बनी।
निज क्षुधारोग विनाश हेतु, पूजहूँ त्रिभुवन धनी।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।५।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वर कनक दीपक सुरभितघृत, कार्पास बाती जगमगे।
सब दिशा हों उद्योत उससे, जजों जिनपद सुख जगे।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।६।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
वर धूपदह में धूप दहते, धूम उड़ता दशदिशा।
वसु कर्म जरते देखकर, मोहारि भगता सब दिशा।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: अष्टकर्मदहनाय धूपंं निर्वपामीति स्वाहा।
फल आम्र कमरख सेव केला, और एला थाल भर।
जिनराज सन्मुख भेंटकर, सिद्धिप्रिया तत्काल वर।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।८।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
वर नीर गंधाक्षत सुमन, चरु दीप धूप फलौघ ले।
शुभ अर्घ सों जिन चरण पूजत, पाप अरि सेना टले।।
दशवृक्ष के शाश्वत जिनालय, जैन प्रतिमा को जजूँ।
परिवार तरु के जिनभवन को, जजत भव दुख से बचूँ।।९।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ—उत्तरकुरु-देवकुरुस्थितजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय—जिनिंबबेभ्य: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—सोरठा—
क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल ले भृंग में।
श्रीजिनचरण सरोज, धारा देते भव मिटे।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
सुरतरु के सुम लेय, प्रभुपद में अर्पण करूँ।
कामदेव मद नाश, पाऊँ आनंद धाम मैं।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य मंत्र–ॐ ह्रीं अकृत्रिमजंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालयजिनबिम्बेभ्यो नम:।
—दोहा—
दश वृक्षों के जिनभवन, जिनप्रतिमा अभिराम।
मन वच तन से नित्य ही, शिरनत करूँ प्रणाम।।१।।
—शंभु छंद—
जिनभवनों में जिनप्रतिमायें, हैं शाश्वत सिद्ध कही जातीं।
बहु रत्नों की सुन्दर आकृति, छवि वीतराग मन को भाती।।
रत्नों के िंसहासन ऊपर, प्रतिमा पद्मासन से राजें।
भामंडल की कांती ऐसी, जिससे कोटी सूरज लाजें।।२।।
मणि मुक्ता लटक रहीं जिनमें, त्रय छत्र फिरें महिमाशाली।
ढोरें नित चौंसठ चमर यक्ष, निर्झर तम श्वेत चमकशाली।।
वसु मंगल द्रव्य अनूपम हैं, मंगल घट धूप घड़े शोभे।
मणि कंचन की मालायें औ, पुष्पों की माला मन लोभे।।३।।
मानस्तंभों में जिनमूर्ती, दर्शन कर मान गलित होवे।
सब अद्भुत रचना रत्नमयी, दर्शक का मिथ्या मल धोवे।।
प्रतिमंदिर इक सौ आठ बिंब, सब पाप कलाप नशाते हैं।
मुक्ती लक्ष्मी के प्रिय वल्लभ, सब को शिवमार्ग दिखाते हैं।।४।।
बावड़िया कमल सहित शोभें, बहु रत्नों के सुर भवन बने।
सुर अप्सरियां खग खेचरनी, क्रीड़ा करतीं मन मुदित घनें।।
वहां पर नित चारण ऋषिगण भी, नित विहरण करते दीखे हैं।
शुद्धात्म ध्यानारूढ़ कहीं, समरसमय अमृत पीते हैं।।५।।
वर्णादि सहित यह पुद्गल है, इससे सम्बन्ध नहीं मेरा।
यह तन भी मुझसे पृथक््â कहा, इससे संश्लेष नहीं मेरा।।
इक मोहराज ही इस जग में बहुविध के नाच नचाता है।
जो पर से निज को पृथव्â किये, उसका जग में क्या नाता है।।६।।
इन मिथ्या भ्रांति अविद्या ने, मुझको इस तन में घेरा है।
सम्यक््â विद्या के होते ही, मिटता भव भव का फेरा है।।
रागादि भाव भी औपाधिक, वे भी जब मुझसे भिन्न कहें।
फिर धन गृह सुत मित्रादिकजन, वे तो बिल्कुल ही पृथक््â रहें।।७।।
हे नाथ! आपकी भक्ती से, मुझमें वह शक्ती आ जावे।
मैं पर से निज को भिन्न करूँ, यह सम्यक््â युक्ति आ जावे।।
चैतन्य चमत्कारी आत्मा िंचतामणि कल्पतरू निधि ही।
मैं उसमें ही बस रम जाऊँ, समरस पीयूष पिऊँ नित ही।।८।।
दुख इष्ट वियोग अनिष्ट योग, भय शोकादिक का भान न हो।
केवल सुखदर्शन ज्ञानवीर्य धारी आत्मा का ध्यान रहो।।
परमानंदामृत निर्झर में, स्नान करूँ मल धो डालूँ।
अपने अनन्तगुण पुंजरूप, शिवपद साम्राज्य तुरत पालूँ।।९।।
जो दर्शन पूजन करते हैं, वे रत्नत्रय निधि पाते हैं।
जो वंदन करें परोक्ष सदा, वे भी स्वातम सुख पाते हैं।।
बस नाथ! सुयश तुम सुन करके, चरणों में आन पुकारा है।
अब मुझ को भी प्रभु पार करो, बस तेरा एक सहारा है।।१०।।
इतनी ही आशा लेकर मैं, हे नाथ! शरण में आया हूँ।
अब िंकचित भी ना देर करो, भव भव दु:ख से अकुलाया हूँ।।
बहु जन्म अनंतों में संचित, अब संचय शीघ्र समाप्त करो।
भगवन् ! सुज्ञानमती लक्ष्मी देकर अब मुझे कृतार्थ करो।।११।।
—घत्ता—
सब कर्म निकंदा, हर भव फंदा, आनंदकंदा जो ध्यावें।
‘सज्ज्ञानमती‘ कर निज संपति भर, मुक्तिरमावर सुख पावें।।
ॐ ह्रीं सार्धद्वयद्वीपस्थ-उत्तरकुरुदेवकुरुस्थित-जंबूवृक्षादिदशवृक्षजिनालय-जिनबिम्बेभ्यो जयमाला महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
—नरेन्द्र छंद—
जो अकृत्रिम वृक्षजिनालय, पूजा करते रुचि से।
अकृत्रिम जिनगृह जिनप्रतिमा, वंदन करते मुद से।।
वे अकृत्रिम शाश्वत अनुपम, शिवसुख प्राप्त करेंगे।
केवल ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी सह, गुण आनन्त्य भरेंगे।।१।।
।।इत्याशीर्वाद:।।