भगवान ऋषभदेव ने चैत्र कृष्णा नवमी को प्रयाग में वटवृक्ष के नीचे जैनेश्वरी दीक्षा ली थी। छह माह तक प्रभु ध्यान में लीन रहे, अनंतर आहार की चर्या दिखलाने के लिए भगवान चांद्रीचर्या से आहार हेतु निकले किन्तु उन दिनों किसी को भी नवधाभक्तिपूर्वक आहार देने की विधि मालूम नहीं थी अत: प्रभु के पुन: छह माह से अधिक निकल गये। पुन: भगवान चांद्रीचर्या से भ्रमण करते हुए हस्तिनापुर आये। वहाँ के राजा सोमप्रभ के भ्राता श्रेयांसयुवराज को सात स्वप्न हुए अनंतर प्रभु के दर्शन करते ही उन्हें आठ भव पूर्व का जातिस्मरण हो गया जबकि उन्होंने रानी श्रीमती और राजा वज्रजंघ के रूप में युगलमुनि चारण ऋद्धिधारियों को आहार दिया था। उसी की सारी विधि ज्ञात हो गई और उन्होंने जान लिया कि ये भगवान ऋषभदेव आठ भव पूर्व मेरे पति राजा वज्रजंघ थे और मैं इनकी रानी श्रीमती था आदि…।
तत्क्षण ही युवराज श्रेयांस ने अपने भ्राता के साथ-साथ प्रभु का पड़गाहन किया और नवधाभक्तिपूर्वक प्रभु को इक्षुरस का आहार दिया। उसी क्षण आकाश से देवों ने पंचाश्चर्य वृष्टि करके विशेष जयजयकारा किया था। वह तिथि वैशाख शुक्ला तीज थी जो कि आज भी ‘‘अक्षयतृतीया’’ के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त है एवं जिसके नीचे प्रभु ने दीक्षा ली थी, वह वृक्ष ‘अक्षयवटवृक्ष’ के नाम से आज भी प्रयाग-इलाहाबाद में विद्यमान है।
इन्हीं प्रभु की प्रथम पारणा के उपलक्ष्य में यह व्रत करना चाहिए। इसकी विधि इस प्रकार है-
चैत्र कृ. ९ को उपवास करके आगे दशमी को पारणा करें अर्थात् दो बार भोजन करें। एक वर्ष चालीस दिन तक रात्रि में चतुर्विध आहार का त्याग रखें। जिस दिन पारणा हो, दिन में दो बार भोजन, जल एवं औषधि ले सकते हैं। इस तरह एक दिन व्रत-उपवास या एकाशन करें। अगले दिन पारणा में दो बार भोजन करें, इस प्रकार एक व्रत-एक पारणा, एक व्रत-एक पारणा करते हुए अक्षयतृतीया के एक दिन पहले वैशाख शु. द्वितीया तक व्रत करके हस्तिनापुर पहुँचकर अक्षयतृतीया के दिन जम्बूद्वीप में विराजमान भगवान ऋषभदेव की आहार मुद्रा की प्रतिमा को इक्षुरस का आहार देकर स्वयं इक्षुरस से पारणा उस दिन एकाशन-एक बार ही भोजन करके व्रत को पूर्ण करें।
भगवान ने वटवृक्ष के नीचे दीक्षा लेकर छह महीने का योग धारण किया था अत: छह माह-चैत्र कृ.नवमी से आश्विन कृ. नवमी तक निम्न मंत्र का जाप्य करें-
ॐ ह्रीं प्रयागतीर्थे वटवृक्षतले दीक्षाकल्याणकप्राप्ताय ध्यानमग्नश्रीऋषभदेवाय नम:।
पुन: आश्विन कृ. दशमी से वैशाख शु. ३-अक्षयतृतीया तक छह माह चालीस दिन निम्न मंत्र का जाप्य करें-
ॐ ह्रीं चान्द्रीचर्याप्रकाशकाय प्रथमतीर्थंकर- श्रीऋषभदेवाय नम:।
व्रत के दिन श्री ऋषभदेव का अभिषेक करके श्री ऋषभदेव की पूजा करें एवं उपर्युक्त ऋषभदेव के मंत्र का जाप करें। व्रत के पूर्ण होने पर उद्यापन में श्री ऋषभदेव की प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा करावें । श्री ऋषभदेव की जन्मभूमि अयोध्या, दीक्षा एवं केवलज्ञान भूमि प्रयाग-इलाहाबाद तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली के दर्शन करें पुन: हस्तिनापुर प्रथम पारणा भूमि के दर्शन करके श्री ऋषभदेव विधान करके यथाशक्ति मुनि-आर्यिका आदि को आहार, औषधि आदि दान देकर मंदिर में ९-९ उपकरण आदि रखकर दीन-दु:खियों को करुणादान आदि देकर व्रत पूर्ण करें । इस व्रत के प्रभाव से अक्षय धन-धान्य के साथ-साथ अक्षय पुण्य संपादित कर अक्षयमोक्षधाम को प्राप्त करेगे ।
यदि एक वर्ष ४० दिन का यह व्रत एकान्तरा से नहीं कर सकते हैं तो लघुव्रत भी करके अपनी भावना को सफल कर सकते हैं ।
चैत्र कृ. ९ को उपवास करके अगले दिन पारणा करें, पुन: एक उपवास या एकाशन एवं एक पारणा, एक उपवास या एकाशन एवं एक पारणा ऐसे वैशाख शु. द्वितीया तक मात्र ३९ दिन का व्रत करके चालिसवें दिन ‘अक्षयतृतीया’ को हस्तिनापुर में आकर भगवान की मूर्ति-आहारमुद्रावाली को इक्षुरस का आहार देकर व्रत की पारणा करके उस दिन एकाशन-एक बार ही भोजन करके यथाशक्ति उद्यापन करके व्रत पूर्ण करें । इस व्रत में उपर्युक्त दो मंत्रों में से द्वितीय मंत्र का जाप्य करना चाहिए । प्रथम उत्तम-उत्कृष्टव्रत एक वर्ष चालीस दिन का है और द्वितीय लघुव्रत मात्र चालीस दिन का है। इन व्रतों को करके भक्तगण संपूर्ण मनोरथों को सफल करें ।