जो कभी क्षय अर्थात् नष्ट नहीं होता है वह अक्षय है जैसे सुख, अक्षय निधि आदि । अक्षय सुख की प्राप्ति मोक्ष के द्वारा सम्भव है जिसे अर्हन्त, सिद्ध परमेष्ठियों ने प्राप्त किया। हम और आप भी उस अक्षय सुख को प्राप्त कर सकते है मात्र आवश्यकता अपने अन्दर शक्ति रूप में विद्यमान परमात्मा को प्रकट करने की है।
तीर्थंकर भगवान या ऋद्धिधारी मुनियों को नवधाभक्ति पूर्वक आहार देने से उनकी ऋद्धि के प्रभाव से वह भोजन अक्षय हो जाता है जिसे चक्रवर्ती का समूह भी जीम ले वो खत्म नहीं होता है। आज भी किन्हीं-२ संतो की आगमोक्त और निर्दोष चर्या के प्रभाव से आहारार्थ दिया गया भोजन भी अक्षय होता देखा गया है।
भगवन ऋषभदेव की दीक्षा के पश्चात् जब वे आहारचर्या हेतु निकले उस समय किसी को आहारविधि का ज्ञान न था। एक वर्ष उनतालीस दिन के बाद हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ के भाई युवराज श्रेयांस ने रात्रि में उत्तम स्वप्न देखे जिससे उन्हें आठ भव पूर्व का जातिस्मरण हो जाने से आहार विधि का परिज्ञान हुआ तब नवधा भक्ति पूर्वक उन्होनें भगवान को इक्षुरस का आहार दिया, उस दिन दिया गया वह इक्षुरस अक्षय हो गया वह तिथि वैशाख शुक्ला तीज थी जो अक्षय तृतीया के नाम से विख्यात हुई । आज भी हस्तिनापुर एवं आसपास इक्षु अर्थात् गन्ने की बहुलता है।