जब जगद्गुरु भगवान ऋषभदेव को योग धारण किये हुए छह मास पूर्ण हो गये, तब यतियों की चर्या अर्थात् शरीर की स्थिति के अर्थ आहार लेने की विधि बतलाने के उद्देश्य से निर्दोष आहार ढूंढने के लिए वे (भगवान) विचार करने लगे कि बड़े दु:ख की बात है कि ये बड़े-बड़े वंशों में उत्पन्न हुए नवदीक्षित साधु क्षुधादि परीषहों से शीघ्र ही भ्रष्ट हो गये इसलिए अब सुखपूर्वक मोक्ष की सिद्धि के लिए मैं आहार देने की विधि सिखलाता हूँ। संयम की सिद्धि के लिए मुनियों को निर्दोष आहार ग्रहण करना चाहिए, ऐसा निश्चय कर भगवान आहार के लिए विहार करने लगे। उस समय मुनियों की आहारविधि से अनभिज्ञ सभी लोग भगवान को विहार करते हुए देखकर कोई प्रणाम करते, कोई भगवान के पीछे-पीछे चलने लगते, कोई रत्न आदि बहुमूल्य वस्तुएँ भेंट में लाते, कोई हाथी, घोड़ा आदि सामग्री भेंट में देना चाहते और कोई मूढ़ लोग कन्याओं को लाकर भगवान से प्रार्थना करते कि हे देव! इन्हें ग्रहण कीजिए। भगवान प्रसन्न होइये। कितने ही लोग प्रार्थना करते कि हे भगवन्! स्नान कीजिए, भोजन कीजिए इत्यादि। इस प्रकार की प्रक्रिया से भगवान की चर्या में विघ्न आ जाता और वे आगे विहार कर जाते। इस तरह गूढ़ चर्या से उत्कृष्ट चर्या धारण करने वाले भगवान के छ: महीने और भी व्यतीत हो गये क्योंकि तब तक कोई भी विधिपूर्वक आहार देना नहीं जानता था।
एक वर्ष पूर्ण होने पर भगवान ऋषभदेव कुरुजांगल देश के आभूषण के समान सुशोभित हस्तिनापुर नगर में पहुँचे, उस समय इस नगर के स्वामी राजा सोमप्रभ थे, उनके छोटे भाई राजा श्रेयांस कुमार थे। जब भगवान हस्तिनापुर नगर के समीप आने को हुए तब श्रेयांस कुमार ने रात्रि के पिछले प्रहर में सात स्वप्न देखे। ‘‘सुवर्णमय सुमेरुपर्वत, कल्पवृक्ष, सिंह, बैल, सूर्य-चन्द्र, समुद्र एवं सातवें स्वप्न में अष्ट मंगल द्रव्य धारण कर सामने खड़े हुए व्यंतर देवोंं की मूर्तियाँ देखीं। विनय सहित राजा सोमप्रभ के पास श्रेयांस कुमार ने इन स्वप्नों को कहा और राजा सोमप्रभ ने भी इनका फल यह बतलाया कि आज अपने घर में कोई देव अवश्य ही आवेंगे। दोनों भाई पुरोहित के साथ इन स्वप्नों के फल की चर्चा करते हुए बैठे थे कि इतने में ही भगवान ऋषभदेव ने अकेले ही हस्तिनापुर में प्रवेश किया।
वे दोनों भाई (सोमप्रभ व श्रेयांस कुमार) सिद्धार्थ द्वारपाल से सूचना पाकर राजमहल के आँगन तक बाहर आये और दूर से ही नम्रीभूत होकर भक्तिपूर्वक भगवान के चरणों को नमस्कार किया, जगद्गुरु भगवान की प्रदक्षिणा दी। भगवान के रूप को देखते ही श्रेयांस कुमार को जातिस्मरण हो गया जिससे उनने अपने पूर्वभवसंबंधी संस्कारों से भगवान को आहार देने की बुद्धि की।
इस भव से आठवें भव पहले भगवान ऋषभदेव वङ्काजंघ नाम के राजा थे और राजा श्रेयांस कुमार का जीव उनकी रानी श्रीमती था। इनके वीरबाहु आदि अट्ठानवे पुत्र थे जो कि मुनिदीक्षा ले चुके थे। किसी समय राजा वङ्काजंघ सेना सहित वन में किसी तालाब के किनारे ठहरे हुए थे। उसी समय आकाश में गमन करने वाले श्रीमान् दमधर नामक मुनिराज, सागरसेन नामक मुनिराज के साथ-साथ वङ्काजंघ के पड़ाव में पधारे। उन दोनों ने वन में ही आहार लेने की प्रतिज्ञा ली थी। राजा वङ्काजंघ ने श्रीमती रानी सहित दोनों मुनियों का पड़गाहन करके नवधाभक्ति से आहारदान दिया। उस आहारदान के प्रभाव से देवों ने पंचाश्चर्य किये। आहार लेकर मुनियों के जाने के बाद वंâचुकी के द्वारा राजा वङ्काजंघ को पता चला कि ये अपने ही अंतिम पुत्र थे, तब राजा-रानी के आनंद का पार नहीं रहा। इस प्रकार आठ भव पहले जो रानी श्रीमती ने पति सहित आहारदान दिया था, उस भव का स्मरण हो गया और राजा श्रेयांस कुमार आहारदान की सारी विधि समझकर नवधाभक्ति करने लगे।
प्रथम ही दोनों भाइयों ने रानियों सहित भगवान का पड़गाहन किया-हे भगवन्! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु। अत्र तिष्ठ तिष्ठ। पुन: तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर उच्चासन पर विराजमान किया, चरण प्रक्षालन किये, अष्टद्रव्य से पूजा की, विधिवत् नमस्कार किया। अनंतर प्रासुक इक्षुरस लेकर बोले-हे भगवन्! मन शुद्ध है, वचन शुद्ध है, काय शुद्ध है, आहार जल शुद्ध है, भोजन ग्रहण कीजिए। मुनिराज का पड़गाहन करना, उन्हें ऊँचे स्थान पर विराजमान करना, उनके चरण धोना, उनकी पूजा करना, उन्हें नमस्कार करना, अपने मन, वचन, काय की शुद्धि और आहार की विशुद्धि रखना इस प्रकार दान देने वाले के यह नौ प्रकार का पुण्य अथवा नवधाभक्ति कहलाती है। नवधाभक्ति के अनंतर भगवान ने खड़े होकर अपने दोनों हाथों की अंजली बनाई। श्रेयांस कुमार ने राजा सोमप्रभ और रानी लक्ष्मीमती के साथ भगवान को आदरपूर्वक ईख (गन्ने) के प्रासुक रस का आहार दिया। उसी समय आकाश से देवों द्वारा छोड़ी गई रत्नों की वर्षा होने लगी, पुष्पवृष्टि होने लगी, देवदुंदुभि बजने लगी, शीतल सुगंध वायु चलने लगी और उच्च स्वर से जय-जयकार करते हुए देव कहने लगे कि ‘धन्य यह दान, धन्य यह पात्र और धन्य यह दाता, इस प्रकार बहुत भारी शब्द आकाश में हो गया। रत्नवृष्टि, पुष्पवृष्टि, दुंदुभि वाद्य, शीतल वायु और अहोदानम् इत्यादि प्रशंसा वाक्य ये पाँच कार्य स्वाभाविकरूप से आहार दान के समय होते हैं, तब इन्हें पंचाश्चर्य कहते हैं।
भगवान के पारणा के दिन दातारों के यहाँ अधिक से अधिक साढ़े बारह करोड़ एवं कम से कम साढ़े बारह लाख रत्न बरसते हैंं।
भगवान आहार ग्रहणकर वन को चले गये, कुछ दूर तक राजा सोमप्रभ, श्री श्रेयांस के साथ-साथ भगवान के पीछे-पीछे गये पुन: बारम्बार नमस्कार कर वापस आ गये। उस दिन वैशाख सुदी तृतीया थी, राजा श्रेयांस के यहाँ उस दिन रसोई- गृह में भोजन अक्षीण हो गया अत: इसे आज भी सभी लोग ‘अक्षय तृतीया’ पर्व मानते हैं। जबकि आहारदान को हुए आज कुछ अधिक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण काल व्यतीत हो चुका है।
भगवान ऋषभदेव धर्मतीर्थ के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर थे तो राजा श्रेयांस दानतीर्थ के प्रवर्तक प्रथम दातार थे। इस हस्तिनापुर नगर से ही दानतीर्थ की प्रवृत्ति हुई है अत: यह नगर उसी समय से पुण्यभूमि बन गई है। भरतक्षेत्र में दान देने की प्रथा उस समय से प्रचलित हुई और दान देने की विधि भी राजकुमार श्रेयांस से ही प्रगट हुई। दान की इस विधि से भरत आदि राजाओं को और देवों को बड़ा आश्चर्य हुआ। देवों ने आकर बड़े आदर से राजा श्रेयांस की पूजा की। महाराज भरत ने भी श्रेयांस के मुख से सारी बातों को सुनकर परम प्रीति को प्राप्त किया और राजा सोमप्रभ तथा श्रेयांस कुमार का खूब सम्मान किया।