ॐकार हृदयं धरूँ, सरस्वति को शिरनाय ।
अक्षयदशमी व्रत कथा, भाषा कहूँ बनाय ।।१।।
इसी राजगृही नगर में मेघनाद नाम के राजा की रानी पृथ्वीदेवी अत्यन्त रूप और शीलवान थी, परन्तु कोई पूर्व पाप के उदय से पुत्रविहीन होने से सदा दु:खी रहती थी। एक दिन अति आतुर हो वह कहने लगी-हे भर्तार!क्या कभी मैं कुलमण्डनस्वरूप बालक को अपनी गोद में खिलाऊँगी? क्या कभी ऐसा शुभोदय होगा कि जब मैं पुत्रवती कहाऊँगी?
अहा! देखो, संसार में स्त्रियों को पुत्र की कितनी अभिलाषा होती है? वे इस ही इच्छा से दिन-रात व्याकुल रहती हैं, अनेकों उपचार करती हैं और कितनी ही तो (जिन्हें धर्म का ज्ञान नहीं है) अपना कुलाचरण भी छोड़कर धर्म तक से गिर जाती हैं। रानी की बात सुनकर राजा ने कहा-प्रिये! चिन्ता न करो, पुण्य के उदय से सब कुछ होता है। हम लोगों ने पूर्व जन्मों में कोई ऐसा ही कर्म किया होगा कि जिसके कारण नि:संतान हो रहे हैं। इस प्रकार वे राजा-रानी परस्पर धैर्य बंधाते कालक्षेप करते थे।
एक दिन उनके शुभोदय से श्री शुभंकर नामक मुनिराज का शुभागमन हुआ, सो राजा-रानी उनके दर्शनार्थ गये। उनकी वंदना करने के अनन्तर धर्म श्रवण करके राजा ने पूछा-
हे प्रभु! आप त्रिकाल ज्ञानी हैं, आपको सब पदार्थ दर्पणवत् प्रतिभाषित होते हैं, सो कृपाकर यह बताइए कि किस कारण से मेरे घर पुत्र नहीं होता है? तब श्रीगुरु ने भवांतर की कथा विचार कर कहा-हे राजा! पूर्व जन्म में इस तुम्हारी रानी ने मुनिदान में अन्तराय किया था, इसी कारण से तुम्हारे पुत्र की अन्तराय हो रही है। तब राजा ने कहा-प्रभु! कृपया कोई यत्न बताइए कि जिससे इस पापकर्म का अन्त आवे।यह सुनकर श्री मुनिराज बोले-वत्स! तुम अक्षय (फल) दशमी व्रत करो”
व्रत की विधि-
श्रावण सुदी १० को प्रोषध करके श्री जिनमंदिर में जाकर भाव सहित पूजन-विधान करो, पंचामृताभिषेक करो और ‘ॐ नमो ऋषभाय’ इस मंत्र का जाप्य करो। यह व्रत दस वर्ष तक करके उद्यापन करो, दस-दस उपकरण श्री मंदिर जी में भेंट करो, दस शास्त्र लिखकर (छपाकर) साधर्मियों को भेंट करो और भी दीनदु:खी जीवों पर दया दान करो, विद्यादान देवो, अनाथों की रक्षा करो, जिससे शीघ्र ही पाप का नाश हो, सातिशय पुण्य लाभ हो, इत्यादि विधि सुनकर राजा-रानी घर वापस आए और क्रम-क्रम से विधिपूर्वक व्रत पालन करके उद्यापन किया।
सो इस व्रत के माहात्म्य तथा पूर्व पाप के क्षय होने से राजा को सात पुत्र और पाँच कन्याएँ हुर्इं। इस प्रकार कितने ही काल तक राजा दयाधर्म का पालन करते हुए मनुष्योचित सुख भोगते रहे, पश्चात् समाधिमरण करके पहिले स्वर्ग में देव हुए और वहाँ से चयकर मनुष्य भव लेकर मोक्षपद प्राप्त किया। इस प्रकार और भव्य जीव यदि श्रद्धा सहित यह व्रत पालेंगे तो उन्हें भी उत्तमोत्तम सुखों की प्राप्ति होवेगी।