अनुष्टुप्– गलनादणुरित्युक्त: पूरणात्स्कन्धनामभाक्।
विनानेन पदार्थेण लोकयात्रा न वर्तते।।३७।।
अर्थ-स्कंधों के गलन-भेद से अणु कहलाता है और पूरण से परमाणु या स्कंधों के मिलने से स्कंध नाम पाता है। इस पुद्गल पदार्थ के बिना लोक यात्रा नहीं हो सकती है।
भावार्थ-‘‘भेदादणु:’’ इस सूत्र के नियम से अणु हमेशा स्कंध के भेद से ही बनता है, स्वयं शुद्ध परमाणु अनादिनिधन कोई भी नहीं है तथा एक पुद्गल परमाणु में एक, दो आदि के मिलने से ही द्वयणुक, त्रयणुक आदि स्कंध होते हैं अथवा भेद संघाताभ्यामुत्पद्यंते’’ इस सूत्र के अनुसार बड़े स्कंधों के भेद से छोटे स्कंध एवं अणु, द्वयणुक आदि के संघात-मिलने से भी स्कंध बनते हैं इस पुद्गल द्रव्य के बिना यदि आप संसार की यात्रा करना चाहें तो नहीं कर सकते हैं। यह पुद्गल द्रव्य आपको संसार की यात्रा कराने के लिये मोटर, रेल आदि वाहन के समान है, इसी में बैठकर अर्थात् इसी का संबंध करके आप पंचपरिवर्तन रूप लोकयात्रा कर रहे हैं। कहा भी है-अजंगमं जंगमनेय यंत्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरं। जैसे जंगम-चेतन जीव से चलाने योग्य यंत्र अजंगम-अचेतन होता है वैसे ही जीव चेतन शरीर रूप अचेतन यंत्र को चलाता है।
मालिनी– इति विविधविकल्पे पुद्गले दृश्यमाने
न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन्।
कुरु रतिमतुलां त्वं चिच्चमत्कारमात्रे।
भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूप:।।३८।।
अर्थ-इस प्रकार दिखाई देने वाले नाना प्रकार के पुद्गलों में हे भव्योत्तम्! तू रति भाव मत कर। तू चिच्चमत्कार मात्र आत्मा में अतुल रति-प्रीति कर जिससे तू परमश्री-मुक्तिश्री रूपी स्त्री का वल्लभ होगा अर्थात् इन दिखने वाले पौद्गलिक पदार्थों से प्रीति हटाकर तू अपनी शुद्ध चैतन्य स्वरूप आत्मा में प्रीति कर, जिससे तू संसार भ्रमण से छूट जावेगा।
अनुष्टुप्-स्कंधैस्तै: षट्प्रकारै: िंक चतुर्भिरणुभिर्मम।
आत्मानमक्षयं शुद्धं भावयामि मुहुर्मुहु:।।३९।।
अर्थ-उन छह प्रकार के स्कंधों से और चार प्रकार से अणुओं से मेरा क्या प्रयोजन है ? मैं तो अक्षय और श्ुाद्ध आत्मा की पुन:-पुन: भावना करता हूँ।
विशेषार्थ-स्कंध के स्थूल स्थूल, स्थूल, स्थूल सूक्ष्म, सूक्ष्म स्थूल और सूक्ष्म ऐसे छह भेद माने हैं। उनके उदाहरण में पृथ्वी आदि स्थूल स्थूल हैं। दूध जल आदि स्थूल हैं जो भेद कर पुन: मिल जाते हैं। स्थूल छाया आतप आदि स्थूल सूक्ष्म हैं जोकि दिखते हैं परन्तु भेदे नहीं जा सकते। चक्षु इंद्रिय के बिना स्पर्शन आदि चार इंद्रियों के विषय स्पर्श, रस आदि सूक्ष्म स्थूल हैं जो कि दिखते नहीं हैं किन्तु ग्रहण किए जाते हैं। कर्म योग्य स्कंध सूक्ष्म हैं और उससे विपरीत जो कर्म के योग्य नहीं हैं ऐसे स्कंध सूक्ष्म सूक्ष्म कहे जाते हैं। यहाँ पर स्कंध के छह भेद करने से परमाणु को नहीं लिया है क्योंकि ग्रंथकार ने स्वयं परमाणु के अलग भेद किये हैं किन्तु गोम्मटसार जीवकांड में सामान्यतया पुद्गल के छह भेद करने से अति सूक्ष्म में परमाणु को लिया है। यथा-
परमाणु के कारण परमाणु और कार्य परमाणु से दो भेद हैं। जो पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार धातुओं में कारण हैं वे कारण परमाणु हैं और जो स्कंधों की अंतिम अवस्था है वह कार्य परमाणु है अथवा कार्य परमाणु, कारण परमाणु, जघन्य परमाणु और उत्कृष्ट परमाणु के भेद से परमाणु के चार भेद हो जाते हैं। जो बंधने योग्य नहीं है वह जघन्य गुण वाला जघन्य परमाणु है। स्निग्ध, रूक्ष आदि में दो गुण अधिक होने से बंध हो सकता है वे उत्कृष्ट परमाणु हैं।इन छह भेद रूप स्कंध और चार भेद रूप परमाणुओं से मुझे प्रयोजन क्या है ? मैं तो अपनी शुद्ध, कभी क्षय न होने वाली ऐसी आत्मा की ही भावना-आराधना करता हूँ, यह सार हुआ।
अनुष्टुप्– अप्यात्मनि स्थििंत बुद्ध्वा पुद्गलस्य जडात्मन:।
सिद्धास्ते िंक न तिष्ठंति स्वस्वरूपे चिदात्मनि।।४०।।
अर्थ-जड़ात्मक पुद्गल की स्थिति को उसके स्वरूप में ही जानकर वे सिद्ध भगवान चिदात्मक अपने स्वरूप में ही क्यों नहीं रहेंगे अर्थात् रहेंगे ही रहेंगे।
भावार्थ-जड़स्वरूप पुद्गल अपने जड़स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं प्रत्युत् अपने जड़स्वभाव में ही रहते हैं उसी प्रकार से सिद्ध परमेष्ठी भी अपने चैतन्य स्वभाव में ही स्थिर रहते हैं यह अभिप्राय हुआ।
मालिनी– अथ सति परमाणेरेकवर्णादिभास्वन-
निजगुणनिचयेऽस्मिन् नास्ति मे कार्यसिद्धि:।
इति निजहृदि मत्त्वा शुद्धमात्मानमेकम्।
परम सुखपदार्थी भावयेद्भव्यलोक:।।४१।।
अर्थ-परमाणु में एक वर्णादि रूप भासमान अपने गुणों का समुदाय होने पर भी उसमें मेरे कार्य की सिद्धि नहीं है। इस प्रकार से अपने हृदय में समझकर परमसुखपद-मोक्षपद के इच्छुक भव्यजीव अपनी शुद्ध एक आत्मा की भावना करें।
भावार्थ-यहाँ पूर्व गाथा में आचार्यश्री ने यह बतलाया है कि पुद्गल के परमाणु में एक वर्ण, एक रस, एक गंध और दो स्पर्श ऐसे पाँच गुण पाए जाते हैं। ये परमाणु के स्वभावगुण कहलाते हैं और स्कंध में इन्द्रियों से ग्राह्य यथायोग्य सभी गुण पाये जाते हैं। ये स्कंध के गुण विभावगुण कहलाते हैं। यद्यपि परमाणु शुद्ध है और अपने स्वभावगुण समुदाय से शोभायमान है फिर भी उससे मेरा क्या कार्य सिद्ध होगा अर्थात् मेरा कुछ भी प्रयोजन उस परमाणु से सिद्ध नहीं होने वाला है, ऐसा समझकर भव्यजीव केवल एकमात्र अपनी शुद्ध आत्मा की ही भावना करें क्योंकि शुद्ध आत्मा की भावना से ही मुक्ति मिलेगी, यह अभिप्राय हुअा।
मालिनी– परपरिणतिदूरे शुद्धपर्यायरूपे।
सति न च परमाणो: स्कंधपर्यायशब्द:।।
भगवति जिननाथे पंचबाणस्य वार्ता।
न च भवति यथेयं सोऽपि नित्यं तथैव।।४२।।
अर्थ-परमाणु में पर परिणति से दूर शुद्ध पर्याय रूप होने पर उसमें स्कंध की पर्याय रूप शब्द नहीं है। जैसे कि जिनेन्द्र भगवान में कामदेव की वार्ता नहीं है उसी प्रकार से परमाणु भी नित्य है उसमें शब्दरूप पर्याय नहीं है।
भावार्थ-यहाँ गाथा में आचार्यश्री ने परमाणु में शुद्ध षड्गुण हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म अर्थ पर्याय माना है और स्कंध में विभावरूप अशुद्ध पर्याय माना है। यहाँ टीकाकार अपने कलश में कहते हैं कि जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान में कामदेव की बात भी नहीं है उसी प्रकार से परमाणु में शब्द पर्याय नहीं है चूँकि शब्द पर्याय पुद्गल स्कंध की ही है। परमाणु नित्य द्रव्य है पर दूसरे अणु अथवा जीव आदि के सम्पर्क से रहित है शुद्ध पर्याय वाला है, उसमें स्कंध की पर्यायें असंभव है।
मालिनी– इति जिनपतिमार्गाद् बुद्धतत्त्वार्थजात:।
त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च।
भजतु परमतत्त्वं चिच्चमत्कारमात्रं।
परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ।।४३।।
अर्थ-इस प्रकार से जिनेन्द्र भगवान के मार्ग (आगम) से जान लिया है तत्त्वार्थ के समूह को जिसने, ऐसे भव्य जीव सम्पूर्ण चेतन और अचेतन रूप परद्रव्य को छोड़ों तथा अंतरंग निर्विकल्प समाधि में पर से विरहित चिच्चमत्कार मात्र परम तत्त्व का आश्रय लेवो।
भावार्थ-ग्रंथकार ने यह स्पष्ट किया है कि निश्चयनय से परमाणु ही पुद्गल द्रव्य है और व्यवहारनय से स्कन्ध को भी पुद्गल द्रव्य कहा जाता है। यहाँ टीकाकार का कहना है कि जिनेन्द्र भगवान के आगम से जीव-अजीव आदि तत्त्वों को समझकर अपने से भिन्न सभी चेतन-अचेतन द्रव्यों का सम्पर्क छोड़ो और वीतराग निर्विकल्प समाधि में स्थित होकर चिच्चैतन्य स्वरूप अपनी शुद्ध आत्मा का ध्यान करो।
अनुष्टुप्– पुद्गलोऽचेतनो जीवश्चेतनश्चेति कल्पना।
सापि प्राथमिकानां स्यान्न स्यान्निष्पन्नयोगिनाम्।।४४।।
अर्थ-पुद्गल अचेतन है और जीव चेतन है, इस प्रकार की जो कल्पना है वह प्राथमिक शिष्यों को ही होती है किन्तु निष्पन्न योगियों को यह कल्पना नहीं होती है।
भावार्थ-चौथे से छठे गुणस्थान तक जीव प्राथमिक शिष्य कहलाते हैं क्योंकि ये सविकल्प अवस्था में हैं और यहीं तक जीव चेतन है, पुद्गल अचेतन है ऐसी कल्पनाएँ होती हैं। आगे निर्विकल्प ध्यान में यह किल्प ही नहीं उठता है अतएव निर्विकल्प ध्यानी योगी निष्पन्न योगी कहलाते हैं क्योंकि वे योग ध्यान के अभ्यास में निष्पन्न (कुशल) हो चुके हैं अत: उनके ध्यान में ये कल्पनाएँ वैâसे हो सकती हैं ?
उपेन्द्रवङ्काा– अचेतने पुद्गलकायकेऽस्मिन्।
सचेतने वा परमात्मतत्त्वे।।
न रोषभावो न च रागभावो।
भवेदियं शुद्धदशा यतीनाम्।।४५।।
अर्थ-पुद्गलकाय रूप उस अचेतन में अथवा परमात्म तत्त्व रूप सचेतन में न द्वेष भाव है न राग भाव है। यह शुद्ध दशा यतियों की होती है।
विशेषार्थ-पुद्गलरूप अचेतन में द्वेष नहीं होवे और परमात्म तत्त्व रूप चेतन द्रव्य में राग नहीं होवे यह वीतराग रूप शुद्ध दशा यतियों के ही हो सकती है। असंयत सम्यग्दृष्टि या देशव्रती श्रावकों में तो असंभव ही है किन्तु छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों को भी परमात्मतत्त्वस्वरूप अरिहंत, सिद्ध परमेष्ठियों में अनुराग पाया जाता है। छठे गुणस्थान के योग्य वंदना, स्तुति आदि क्रियाओं में वे मुनि प्रवृत्त होते हैं। श्री कुंदकुंद स्वामी ने भी स्वयं प्रवचनसार में मुनियों की सरागचर्या का विधान किया है। यथा-
‘‘साधु अवस्था में यदि अर्हंतादि के प्रति भक्ति तथा प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य पाया जाता है तो वह शुभोपयोगी चर्या है। साधु श्रमणों के प्रति वंदन, नमस्कारपूर्वक खड़े होना, पीछे चलना, विनय सहित प्रवृत्ति करना, उनकी थकान दूर करना आदि करते हैं तो वह सरागचर्या में निषिद्ध नहीं है, प्रत्युत सम्यग्दर्शन, ज्ञान का उपदेश, शिष्यों का संग्रह, उनका पोषण और जिनेन्द्र भगवान की पूजा का उपदेश ये सब सरागी मुनियों की चर्या है।’’इससे यह स्पष्ट है कि निर्विकल्प समाधि में स्थित निश्चय रत्नत्रय में परिणत वीतरागी मुनि के ही पंचपरमेष्ठी का राग छूटता है और उपर्युक्त वीतरागता रूप शुद्ध दशा होती है, सामान्य मुनियों की नहीं।
मालिनी– इह गमननिमित्तं यत्स्थिते: कारणं वा
यदपरमखिलानां स्थानदानप्रवीणम्।।
तदखिलमवलोक्य द्रव्यरूपेण सम्यक्।
प्रविशतु निजतत्त्वं सर्वदा भव्यलोक:।।४६।।
अर्थ-यहाँ लोक में (जीव और पुद्गल को) गमन में निमित्त (धर्म द्रव्य) है और जो स्थिति में कारण है, जो अपर-अन्य द्रव्य अखिल द्रव्यों को स्थान देने में प्रवीण है इन सभी को द्रव्य रूप से सम्यक् प्रकार अवलोकन करके भव्य जीव सर्वदा अपने आत्मतत्त्व में प्रवेश करो।
भावार्थ-ग्रंथकार ने गाथा में धर्म, अधर्म और आकाश इन तीन द्रव्यों का वर्णन किया है। पुन: टीकाकार कहते हैं कि इन द्रव्यों को द्रव्य रूप से जानकर अपने आत्मस्वरूप का अवलोकन करो।
मालिनी– समयनिमिषकाष्ठा सत्कलानाडिकाद्याद्।
दिवसरजनिभेदाज्जायते काल एष:।
न च भवति फलं मे तेन कालेन िंकचिद्।
निजनिरूपमतत्त्वं शुद्धमेकं विहाय।।४७।।
अर्थ-समय, निमिष, कला और नाड़ी को आदि लेकर दिवस और रात्रि के भेद से यह काल (व्यवहार काल) उत्पन्न होता है। मुझे निज निरूपम तत्त्व रूप, शुद्ध, एक आत्मा को छोड़कर उस काल से िंकचित् भी फल नहीं है।
विशेषार्थ-ग्रंथकार ने गाथा में व्यवहार काल का वर्णन किया है। उसमें समय और आवली के भेद से भेद अथवा भूत, भविष्यत्, वर्तमान काल से तीन भेद माने हैं। एक आकाश प्रदेश पर स्थित एक परमाणु को परमाणु मंद गति से जितने काल में उल्लंघन करता है उसे समय कहते हैं। असंख्यात समयों का निमिष (आवली) होता है। पलक झपकने के काल को निमेष कहते हैं। ८ निमेष की काष्ठा, १६ काष्ठाओं की कला, ३२ कलाओं की एक घटिका होती है। यह घड़ी चौबीस मिनट की है। ऐसी साठ घड़ी का एक दिन-रात्रि, ३० दिन-रात्रि का महिना, २ महिने की ऋतु, ३ ऋतुओं का अयन और दो अयन का एक संवत्सर होता है। ये सब व्यवहार काल के भेद हैं। ये सूर्योदय और सूर्यास्त की अपेक्षा रखने से पराश्रित कहलाते हैं।यहाँ कलश काव्य में टीकाकार का कहना है कि शुद्ध निज आत्मतत्त्व के सिवाय मुझे इन कालों से कुछ भी प्रयोजन नहीं है।
अनुष्टुप्– वर्तनाहेतुरेष: स्यात् कुम्भकृच्चक्रमेव तत्।
पंचानामस्तिकायानां नान्यथा वर्तना भवेत्।।४८।।
अर्थ-यह काल द्रव्य कुंभकार के चक्र के समान पाँचों अस्तिकायों में वर्तना का हेतु है। इसके बिना वर्तना नहीं हो सकती है।
भावार्थ-इस प्रकरण में ग्रंथकार ने पहले तो जीव राशि और पुद्गल राशि से भी अनंतगुणे काल के समय बताए हैं। पुन: परमार्थकाल का लक्षण किया है कि जो लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित हैं ये ही परमार्थ काल हैं अर्थात् काल द्रव्य लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण असंख्यात हैं।
यह काल द्रव्य सभी द्रव्यों की वर्तना में परिणमन में हेतु है। यदि यह द्रव्य न हो तो किसी भी द्रव्य में परिणमन रूप परिवर्तन नहीं हो सकता है। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य स्वभाव से परिणमनशील है फिर भी उनके परिणमन में काल द्रव्य सहकारी कारण है। जैसे घड़े को बनाने में चाक सहकारी कारण है।
अनुष्टुप्– प्रतीतिगोचरा: सर्वे जीवपुद्गलराशय:।
धर्माधर्मनभ:काला: सिद्धा: सिद्धान्तपद्धते:।।४९।।
अर्थ-सभी जीव और पुद्गल राशि प्रतीति के गोचर हैं और धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल ये चार द्रव्य सिद्धान्त पद्धति से सिद्ध हैं।
भावार्थ-टीकाकार का ऐसा आशय प्रतीत होता है कि जीव और पुद्गल तो प्रतीति के विषय हो ही रहे हैं और धर्मादि चारों द्रव्य सर्वथा अमूर्तिक होने से सिद्धान्त-आगम से सिद्ध हैं। इन पर भी विश्वास करना चाहिये।
हिन्दी भाषाकारों ने ऐसा भी अर्थ किया है कि ये छहों द्रव्य आगम से सिद्ध हैं और प्रतीति के गोचर हैं। वैसे इन चारों द्रव्यों के कार्यों को देखकर इनका अनुमान भी अनुभवगोचर हो रहा है।
मालिनी– इति विरचितमुच्चैर्द्रव्यषट्कस्य भास्वद्।
विवरणमतिरम्यं भव्यकर्णामृतं यत्।।
तदिह जिनमुनीनां दत्तचित्तप्रमोदं।
भवतु भवविमुक्त्यै सर्वदा भव्यजन्तो:।।५०।।
अर्थ-इस प्रकार से जो अतिरम्य, भव्य जीवों के कर्णों को अमृत के समान शोभायमान छह द्रव्यों का विवरण विस्तार से (मेरा द्वारा) रचा गया है, वह विवरण जैन मुनियों के चित्त को प्रमुदित करने वाला है। वह षट्द्रव्य का विवरण सर्वदा भव्य जीव को संसार से मुक्ति के लिए होवे।
विशेषार्थ-यहाँ ग्रंथकार ने गाथा में यह स्पष्ट किया है कि कालद्रव्य पाँचों अस्तिकायों में परिवर्तन का हेतु है तथा धर्म आदि चार द्रव्यों के विभावगुण विभाव पर्यायें नहीं होती हैं। मात्र स्वभाव गुण पर्याय होती है तथा जीव और पुद्गल में स्वभाव, विभाव दोनों प्रकार की गुण पर्यायें होती हैं।पुन: टीकाकार ने कलश काव्य में यह बताया है कि यह छहों द्रव्यों का विवरण भव्य जीवों को मुक्ति प्रदान करे। मतलब यह है कि भव्य जीव इन द्रव्यों के विवरण को समझकर उन पर दृढ़ श्रद्धान करेंगे तभी वे रत्नत्रय से सहित होकर मुक्ति प्राप्त कर सकेंगे अन्यथा नहीं।
आर्या– इति जिनमार्गाम्भोधेरुद्धृता पूर्वसूरिभि: प्रीत्या।
षड्द्रव्यरत्नमाला कंठाभरणाय भव्यानाम्।।५१।।
अर्थ-इस प्रकार पूर्वाचार्यों ने प्रीतिपूर्वक भव्यों के कंठ के भूषण के लिये षड्द्रव्य रूपी रत्नों की माला निकाली है।
भावार्थ-यहाँ श्रीकुंदकुंददेव ने बताया है कि काल के अतिरिक्त पाँच द्रव्य अस्तिकाय हैं क्योंकि ये द्रव्य अस्तिरूप हैं और काय के सदृश बहुप्रदेशी भी हैं और काल द्रव्य अस्तिरूप तो है किन्तु एकप्रदेशी होने से काय नहीं है अत: वह द्रव्य तो है किन्तु अस्तिकाय नहीं है। इसी संदर्भ में टीकाकार ने सत्ता के महासत्ता और अवांतर सत्ता दो भेद करके उनका लक्षण भी बतलाया है। अनंतर टीकाकार कलश में कहते हैं कि जिस प्रकार समुद्र से रत्न निकाले जाते हैं और धनी पुरुष उसकी माला बनाकर पहन लेते हैं उसी प्रकार से भगवान की वाणी रूपी समुद्र से आचार्यों ने छहद्रव्य रूपी रत्न निकाले हैं और इन रत्नों की माला भव्यों के कंठ का आभरण बनती है अर्थात् भव्य जीव ही इन छहों द्रव्यों के मर्म को हृदयंगम करते हैं अभव्य नहीं कर सकते हैं।
उपेन्द्रवङ्काा– पदार्थरत्नाभरणं मुमुक्षो:
कृतं मया कंठविभूषणार्थम्।।
अनेन धीमान् व्यवहारमार्गं
बुद्ध्वा पुनर्बोधति शुद्धमार्गम्।।५२।।
अर्थ-मैंने मुमुक्षु जीव के कंठ को भूषित करने के लिये पदार्थ रूपी रत्नों का आभरण (हार) बनाया है। इससे बुद्धिमान् लोग व्यवहारमार्ग को जान करके पुन: शुद्धमार्ग (निश्चय मार्ग) को जान लेते हैं।
विशेषार्थ-यहाँ मूल ग्रंथकार ने गाथा में द्रव्यों के प्रदेशों की गणना बताई है। यथा-पुद्गल द्रव्य के संख्यात, असंख्यात और अनंत प्रदेश होते हैं। धर्म, अधर्म, एक जीव और लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश होते हैं। अलोकाकाश के अनंत प्रदेश होते हैं एवं काल द्रव्य के एक प्रदेश होता है।
मालिनी– इति ललितपदानामावलिर्भाति नित्यं
वदनसरसिजाते यस्य भव्योत्तमस्य।
सपदि समयसारस्तस्य हृत्पुण्डरीके
लसति निशितबुद्धे: िंक पुनश्चित्रमेतत्।।५३।।
अर्थ-इस प्रकार ललित पदों की पंक्ति जिस भव्योत्तम के मुखकमल में सदा शोभती है उस तीक्ष्ण बुद्धि वाले पुरुष के हृदयकमल में शीघ्र ही समयसारस्वरूप शुद्ध आत्मा प्रकाशित होता है पुन: इसमें आश्चर्य ही क्या है?
विशेषार्थ-ग्रंथकार श्रीकुंदकुंददेव ने गाथा में यह कहा है कि एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है बाकी पाँच द्रव्य अमूर्तिक हैं तथा जीव द्रव्य चेतन है बाकी पांच द्रव्य अचेतन हैं। इसी बात को स्पष्ट करते हुये टीकाकार कलशकाव्य में कहते हैं कि छह द्रव्यों का पठन-पाठन करने वाले भव्य जीव आत्मा के शुद्ध स्वभाव को प्राप्त कर लेते हैं, इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं है।इस प्रकार से नियमसार की तात्पर्यवृत्ति टीका से उद्धृत कलश काव्य के भाषानुवाद रूप अजीव अधिकार नाम का यह तृतीय श्रुतस्कंध पूर्ण हुआ।