पुद्गल औ धर्म अधर्म तथा, आकाश काल ये हैं अजीव।
इन पाँचों में पुद्गल मूर्तिक, रूपादि गुणों से युत सदीव।।
बाकी के चार अमूर्तिक हैं, स्पर्श वर्ण रस गंध रहित।
चैतन्य प्राण से शून्य अत:, ये द्रव्य अचेतन ही हैं नित।।१५।।
अजीव द्रव्य के पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये पाँच भेद हैं, ऐसा जानो। इनमें से पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है क्योंकि वह रूप, रस, गंध और स्पर्श गुण वाला है, बाकी शेष द्रव्य अमूर्तिक हैं।
उपयोग के दो भेद हैं – शुद्धोपयोग और अशुद्धोपयोग।
सकल, विमल केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दोनों शुद्धोपयोग हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान ये चारों ज्ञान तथा चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों दर्शन ये सब अशुद्ध उपयोग हैं।
चेतना के भी तीन भेद हैं – कर्मफल चेतना, कर्मचेतना और शुद्ध चेतना (ज्ञानचेतना)।
अव्यक्त सुख-दु:ख के अनुभव रूप कर्म फल चेतना है। अपनी इच्छापूर्वक इष्ट-अनिष्ट विकल्परूप से विशेष राग- द्वेष रूप परिणमन कर्मचेतना है और केवलज्ञान रूप शुद्ध (ज्ञान) चेतना है। ये उपयोग और चेतना जिनमें नहीं हैं, वे अजीव हैं।
पुद्गल द्रव्य – उनके पाँच भेदों में पुद्गल का लक्षण है-पूरण गलन स्वभाव। इसमें पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गंध और आठ स्पर्श ये बीस गुण पाये जाते हैं। इस पुद्गल के अणु और स्वंध की अपेक्षा दो भेद भी होते हैं। दो अणु, तीन अणु आदि से लेकर अनंत अणुओं तक मिलकर स्कंध बनते हैं। अणु में दो स्पर्श-स्निग्ध-रूक्ष में से कोई एक और शीत-उष्ण में से कोई एक, एक वर्ण, एक रस और एक गंध ऐसे पाँच गुण ही रहते हैं। यह अणु शुद्ध माना जाता है अत: इसके गुण भी शुद्ध ही माने जाते हैं किन्तु स्कंध अशुद्ध माना जाता है। अब इसी पुद्गल द्रव्य की पर्यायों को बताते हैं-
ये शब्द और जो बंध कहे, सूक्ष्मत्व और स्थूलपना।
आकार भेद तम छाया औ, उद्योत तथा आतप जितना।।
ये सब पुद्गल की पर्यायें, जो हैं विभाव व्यंजन जानो।
इन सबसे विरहित निज आत्मा, को निश्चयनय से पहचानो।।१६।।
शब्द, बंध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, संस्थान, भेद-खण्ड, अंधकार, छाया, उद्योत और आतप ये सब पुद्गल द्रव्य की पर्यायें हैं अर्थात् इन्हें विभाव व्यंजन पर्याय कहते हैं। निश्चयनय से आत्मा इन सभी पुद्गल पर्यायों से रहित है ऐसा समझना चाहिए।
शब्द – शब्द के दो भेद हैं-भाषात्मक और अभाषात्मक। इनमें से भाषात्मक भी अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक के भेद से दो प्रकार का है। अक्षरात्मक भाषा भी संस्कृत, प्राकृत और उनके अपभ्रंश रूप पैशाची आदि भाषाओं के भेद से आर्य और म्लेच्छ मनुष्यों के व्यवहार का कारण है अत: इसके अनेक भेद हो जाते हैं। अनक्षरात्मक भाषा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय पशु-पक्षियों में पाई जाती है जिसमें अक्षर, वर्ण, पद, वाक्य स्पष्ट नहीं रहते हैं। सर्वज्ञ की वाणी-दिव्यध्वनि को भी अनक्षरात्मक कहा है१। अभाषात्मक शब्द भी प्रायोगिक और वैश्रसिक के भेद से दो प्रकार का है। इसमें से प्रायोगिक के तत, वितत, घन और सुषिर भेद माने गये हैं। वीणा आदि के शब्द को ‘तत’ कहते हैं। ढोल आदि के शब्द का ‘वितत’ नाम है। मंजीरा, घण्टा, ताल आदि के शब्द ‘घन’ कहलाते हैं और वंशी आदि के शब्द को सुषिर नाम है। ये सभी शब्द मनुष्यों के द्वारा प्रयोग किये जाते हैं इसलिए इनका प्रायोगिक यह नाम सार्थक है। वैश्रसिक का अर्थ है जो स्वभाव से-बिना किसी की प्रेरणा या प्रयोग से प्रगट होते हैं। ये मेघ, गर्जना आदि से होने वाले हैं इसीलिए इनके अनेक भेद हो जाते हैं। यहाँ विशेष ज्ञातव्य यह है कि संसारी जीव शब्द आदि मनोज्ञ और अमनोज्ञ पंच इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर सुस्वर अथवा दुस्वर नामकर्म का बंध करते हैं। उदय में आकर वही कर्म जीव के स्वर को अच्छा या बुरा बना देता है। वहाँ पर यद्यपि ये शब्द जीव के दिखते हैं फिर भी ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं। जीव के संयोग से उत्पन्न होने के निमित्त से व्यवहारनय की अपेक्षा ये जीव के कहे जाते हैं किन्तु निश्चयनय से ये शब्द पुद्गलरूप ही हैं। महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में कहा है- ‘शरीरवाङ्मन: प्राणापाना: पुद्गलानाम्१।’ शरीर, वचन, मन और श्वासोच्छ्वास ये सब पुद्गल के उपकार हैं जो कि जीव में होते हैं। बंध-मिट्टी आदि में जो पिण्डरूप से बंध होता है वह मात्र पुद्गल बंध है। जीव और पुद्गल के संयोग से जो बंध होता है वह कर्मबंध और नोकर्मबंध कहा जाता है। यहाँ यह बात विशेष है कि जीव के अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य बंध है और अशुद्ध निश्चयनय से रागादि परिणाम रूप भाव बंध है तथा शुद्ध निश्चयनय से जीव में बंध नहीं है। मात्र पुद्गल की ही बंध पर्याय है।
सूक्ष्मत्व – बेल, नारंगी आदि की अपेक्षा बेर में सूक्ष्मता है और परमाणु में साक्षात् सूक्ष्मता है अर्थात् वह किसी की अपेक्षा से नहीं है।
स्थूलत्व – बेर आदि की अपेक्षा बेल, नारियल आदि में स्थूलता-बड़ापन है। तीन लोक में व्याप्त महास्वंâध में सबसे अधिक स्थूलता है अर्थात् इससे बड़ा और कोई नहीं है।
संस्थान – संस्थान अर्थात् आकार। इस संस्थान के ६ भेद हैं-समचतुरस्र, न्यग्रोध, सातिक-स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक। व्यवहारनय से ये संस्थान जीव के हैं किन्तु निश्चयनय से ये जीव के नहीं हैं प्रत्युत पुद्गल के ही हैं। चूँकि जीव चेतन चमत्कार परिणाम वाला है अत: जीव से भिन्न पुद्गल के ही गोल, त्रिकोण, चौकोन आदि प्रगट, अप्रगट अनेक आकार माने गये हैं। ये सब पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
भेद – गेहूँ आदि के दलिया, आटा तथा घी, शक्कर आदि के प्रकार से भेद भी अनेक प्रकार का होता है।
तम – अंधकार की ‘तम’ संज्ञा है। यह दृष्टि को रोकने वाला है। यह भी पुद्गल की पर्याय है।
छाया – पेड़ आदि के आश्रय से होने वाली छाया है। मनुष्य, घर आदि वस्तुओं की जो परछार्इं पड़ती है, उसे भी छाया कहते हैं। जो फोटो-चित्र खिचते हैं, टेलीविजन आदि में चित्र दिखते हैं, ये सब छाया ही हैं।
उद्योत – चन्द्रमा के विमान से जो चांदनी छिटकती है, वह उद्योत है उसी प्रकार से जुगनू आदि तिर्यंच जीवों के भी उद्योत नामकर्म के उदय से उद्योत होता है। यह सब प्रकाश भी पुद्गल की ही पर्यायें हैं।
आतप – सूर्य के विमान में तथा सूर्यकांत आदि मणिरूप पृथ्वीकाय में ‘आतप’ जानना चाहिए। सूर्य के विमान में रहने वाले एक इन्द्रिय पृथ्वीकायिक जीव के आतप नामकर्म का उदय पाया जाता है तथा सूर्यकांत मणि से जो प्रकाश निकलता है, आतप-घाम, जिसे धूप भी कहते हैं, यह पुद्गल की ही पर्यायें हैं। यह आतप नामकर्म भी जीव में अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से पाया जाता है। शुद्ध निश्चयनय से जीव में आतप आदि कुछ भी नहीं हैं। जीव से सर्वथा भिन्न ऐसे पुद्गल द्रव्य का वर्णन पढ़ा है। इसमें पुद्गल के भेद अणु-स्वंध व पुद्गल के गुण रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा पुद्गल की पर्यायें शब्द, बंध आदि बताई गई हैं। संसार में जो भी दिख रहा है, वह सब पुद्गल ही है। चूँकि धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य रूप, रसादिरहित अमूर्तिक ही हैं। वे कथमपि दृष्टिगोचर नहीं हो सकते हैं। उन्हें मात्र आगमज्ञान से या अनुमान से अथवा केवलज्ञान रूप प्रत्यक्षज्ञान से ही जाना जा सकता है। जीव द्रव्य भी वस्तुत: अमूर्तिक है किन्तु जब तक वह संसारी है तब तक पुद्गल से निर्मित शरीर आदि के संबंध से मूर्तिक हो रहा है और वही मूर्तिक जीव ही दिख रहा है अथवा यों कहिए कि जीव का शरीर ही दिख रहा है। श्री पूज्यपाद स्वामी ने कहा भी है-
अचेतनमिदं दृश्यमदृश्यं चेतनं तत:।
क्व रुष्यामि क्व तुष्यामि मध्यस्थोऽहं भवाम्यत:१।।
जो भी दिख रहा है, वह सब अचेतन है और चेतना दिखता नहीं है अत: मैं किसमें रोष या द्वेष करूँ और किसमें संतोष या राग करूँ इसीलिए मैं अब मध्यस्थ भाव को अर्थात् समताभाव को धारण करता हूँ। इसी वीतराग अवस्था को प्राप्त करने के लिए स्वाध्याय आदि साधन हैं।
गति क्रियाशील जो जीव और, पुद्गल नित गमन करें जग में।
इन दोनों के ही चलने में, यह धर्मद्रव्य सहकारि बने।।
जैसे मछली को चलने में, जल सहकारी बन जाता है।
नहिं रुकी हुई को प्रेरक हो, वैसे यह द्रव्य कहाता है।।१७।।
गमन करते हुए जीव और पुद्गल को जो गति क्रिया में सहकारी है, वह धर्म द्रव्य है। जैसे जल मछलियों को गमन में सहकारी है किन्तु वह नहीं चलते हुए को नहीं ले जाता है अर्थात् जैसे जल प्रेरक नहीं है वैसे यह द्रव्य प्रेरक नहीं है। यह धर्मद्रव्य धर्म नाम का जीव का स्वभाव नहीं है प्रत्युत यह एक स्वतंत्र द्रव्य है।
पुद्गल औ जीव ठहरते हैं, उनको जो होता सहकारी।
वह द्रव्य अधर्म कहाता है, नहिं बल से ठहराता भारी।।
जैसे चलते पथिकों को तरु, छाया नहिं रोके बलपूर्वक।
रुकते को मात्र सहायक है, वैसे यह द्रव्य सहायक बस।।१८।।
ठहरते हुए पुद्गल और जीवों को ठहरने में जो सहायक है वह अधर्म द्रव्य है। जैसे-छाया पथिकों को ठहरने में सहकारी है किन्तु यह द्रव्य चलते हुए को रोकता नहीं है।
जीवादी द्रव्यों को नित ही, अवकाश दान के योग्य रहे।
जिनदेव कथित आकाश द्रव्य, उसके भी हैं दो भेद कहे।।
पहला है लोकाकाश कहा, औ दुतिय अलोकाकाश सही।
बस एक अखण्ड द्रव्य के भी, दो भेद हुए कारणवश ही।।१९।।
जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल इन द्रव्यों को अवकाश देने में योग्य आकाश द्रव्य है, ऐसा तुम जानो। जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित इस आकाश द्रव्य के लोकाकाश और अलोकाकाश ऐसे दो भेद होते हैं। लोकाकाश-अलोकाकाश विभाजन- जितने आकाश प्रदेशों में, पुद्गल औ जीव सभी रहते।
औ धर्म अधर्म व काल रहें, बस लोकाकाश उसे कहते।।
उसके बाहर में सभी तरफ है, वृहत् अलोकाकाश रहा।
जिससे बढ़कर नहिं कोई है, फिर भी यह चेतनशून्य कहा।।२०।।
धर्म, अधर्म, काल, जीव और पुद्गल ये पाँचों द्रव्य जितने आकाश में रहते हैं, वह लोकाकाश है और उससे परे चारों तरफ अलोकाकाश है फिर भी यह आकाश चैतन्य शून्य अचेतन ही है।
द्रव्यों में परिवर्तनकारी, व्यवहारकाल कहलाता है।
परिणाम क्रियादिक लक्षण से, यह जग में जाना जाता है।।
व्यवहार और निश्चय से जो, दो भेद रूप भी हो जाता।
बस मात्र वर्तना लक्षण से, परमार्थकाल जाना जाता।।२१।।
कालद्रव्य के दो भेद हैं-व्यवहार और निश्चय। जो द्रव्यों में परिवर्तन कराने वाला है और परिणाम, क्रिया आदि लक्षण वाला है वह व्यवहारकाल है तथा वर्तना लक्षण वाला परमार्थकाल है। जीव, पुद्गल आदि द्रव्यों के परिवर्तन में अर्थात् नई या जीर्ण अवस्थाओं के होने में काल द्रव्य सहायक हैं, इनमें घड़ी, घण्टा, दिन, रात आदि व्यवहार काल है और वर्तना रूप सूक्ष्म परिणमन रूप निश्चयकाल है।
कालद्रव्य कितने हैं– सब लोकाकाश प्रदेशों में, इक-इक प्रदेश पर एक-एक। कालाणू संस्थित हैं सदैव, सब पृथक रहें नहिं एकमेक।। रत्नों की राशी के समान, वे अलग-अलग ही रहते हैं। वे हैं असंख्य कालाणु द्रव्य, जो लोकाकाश प्रमित ही हैं।।२२।।
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक कालाणु स्थित है जो कि रत्नों की राशि के समान पृथक्-पृथक् है। काल द्रव्य असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश पर अलग-अलग एक-एक कालद्रव्य स्थित है इसलिए वे कालद्रव्य असंख्यात हैं। यहाँ पर अजीव के अन्तर्गत धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्य का वर्णन किया है। संसारी जीवों के लिए ये चारों द्रव्य सहकारी तो हैं ही हैं किन्तु मुक्त जीवों के लिए भी सहकारी कारण हैं। देखिए, जब यह आत्मा कर्मों से छूटता है, तब धर्म की सहायता से ही इस मध्यलोक से ऊपर सात राजू जाकर सिद्धशिला से आगे लोक के अग्रभाग में पहुँचता है। लोकाकाश के बाहर क्यों नहीं चला जाता ? तो आगे धर्म द्रव्य का अभाव है। उसी प्रकार वहाँ लोकाग्र पर ठहरने में अधर्म द्रव्य सहकारी कारण है। वैसे ही आकाश द्रव्य में ही सिद्ध जीव निवास कर रहे हैं अत: लोकाकाश ने अवकाश भी दिया है। साथ ही प्रतिसमय अनंतगुणों में षट्गुण हानि वृद्धि रूप सूक्ष्म परिणमन भी काल द्रव्य की सहायता से हो रहा है इसलिए सिद्धों के लिए भी ये द्रव्य सहकारी कारण हैं तो हम और आपके लिए तो हैं ही हैं। यद्यपि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है फिर भी निमित्त कारण अवश्य मिलते हैं। निश्चयनय की अपेक्षा प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वतंत्र है और अपने में ही है किन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा से पर की सहायता स्वीकार किये बिना सिद्धांत ग्रंथों से बाधा आती है। स्वयं श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी नियमसार में कहा है कि- कर्म से रहित आत्मा लोक के अग्रभाग पर चला जाता है क्योंकि जीवों और पुद्गलों का गमन जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जानो। यह मुक्त जीव धर्मास्तिकाय के अभाव में लोकाकाश से बाहर नहीं जा सकते हैं१। इस प्रकार से इन द्रव्यों के अस्तित्व को तथा कार्य को आगम से जानकर उस पर दृढ़ श्रद्धान रखना ही सम्यग्दर्शन है।