इन उपर्युक्त त्रेपन क्रियाओं में से प्रारंभ की तेरह क्रियाएँ निकाल दीजिए तथा अवतार आदि आठ क्रियाएँ मिला दीजिए, तब अड़तालीस हो जाती हैं, यथा ५३-१३·४०, ४०±८·४८। उन आठ क्रियाओं के नाम-अवतार, वृत्तलाभ, स्थानलाभ, गणग्रह, पूजाराध्य, पुण्ययज्ञ, दृढ़चर्या और उपयोगिता।
अवतार क्रिया – मिथ्यात्व से दूषित हुआ कोई भव्यपुरुष जब समीचीन मार्ग को ग्रहण करने के सम्मुख होता है, तब यह क्रिया की जाती है। वह भव्य गुरु के पास जाकर धर्म को सुनकर मिथ्यामार्ग से प्रेम छोड़ता हुआ समीचीन मार्ग में अपनी बुद्धि लगाता है। उस समय गुरु ही उसका पिता और तत्त्वज्ञान ही संस्कार किया हुआ गर्भ है। वह भव्य पुरुष धर्मरूप जन्म के द्वारा उस तत्त्वज्ञान रूप गर्भ में अवतीर्ण होता है। इसकी यह क्रिया गर्भाधान क्रिया के समान मानी जाती है क्योंकि जन्म की प्राप्ति दोनों ही क्रियाओं में नहीं है। इस प्रकार यह पहली ‘अवतार’ क्रिया है।
वृत्तलाभ – उसी समय गुरु के चरणकमलों को नमस्कार करते हुए और विधिपूर्वक व्रतों के समूह को प्राप्त हुए उस भव्य के ‘वृत्तलाभ’ नाम की दूसरी क्रिया होती है।
स्थानलाभ– तत्पश्चात् जिसने उपवास किया है, ऐसे उस भव्य के पूजा की विधिपूर्वक ‘स्थानलाभ’ नाम की तीसरी क्रिया होती है। इस क्रिया में गुरु विधिपूर्वक शिष्य को जैनधर्म की दीक्षा देते हैं।
गणग्रह – स्थानलाभ क्रिया के बाद वह भव्यपुरुष मिथ्या देवताओं को घर से बाहर निकालता है, तब उसके ‘गणग्रह’ क्रिया होती है। उस समय उन देवताओं से कहता है कि ‘‘मैंने अज्ञानवश इतने दिन आपकी पूजा की, अब अपने ही जैनमत के देवताओं की पूजन करूँगा इसलिए क्रोध करना व्यर्थ है, आप अपनी इच्छानुसार किसी अन्य जगह रहिए। इस प्रकार उन्हें अन्य स्थान पर छोड़कर अपने मत के शान्त देवताओं का पूजन करते हुए यह ‘गणग्रह’ क्रिया होती है।
पूजाराध्य – जिनेन्द्रदेव की पूजा तथा उपवास आदि करते हुए द्वादशांग का अर्थ सुनना ‘पूजाराध्य’ क्रिया है।
पुण्ययज्ञ – अनन्तर साधर्मी पुरुषों के साथ-साथ चौदह पूर्व विद्याओं का अर्थ सुनने वाले उस भव्य के पुण्य को बढ़ाने वाली ‘पुण्ययज्ञा’ नाम की क्रिया होती है।
दृढ़चर्या – अपने मत के शास्त्र समाप्त कर अन्य मत के ग्रंथों अथवा अन्य किन्हीं दूसरे विषयों को सुनने वाले उस भव्य के ‘दृढ़चर्या’ क्रिया होती है।
उपयोगिता – पर्व के दिन उपवास में रात्रि में प्रतिमायोग धारण करना ‘उपयोगिता’ क्रिया है। पूर्व में जो गर्भाधान से लेकर निर्वाणपर्यन्त तिरेपन क्रियाएँ बतलाई हैं, उनमें से प्रारंभ की गर्भाधान से लेकर लिपि संख्यान तक तेरह क्रियाओं के निकाल देने से तथा इन अवतार आदि आठ क्रियाओं के मिला देने से उपर्युक्त वे ही अड़तालीस क्रियाएँ ‘दीक्षान्वय क्रिया’ कहलाती हैं।