अड़िंदा का श्री पार्श्वनाथ मंदिर : अभिलेख एवं इतिहास
सारांश
यहाँ के मुख्य मंदिर परिसर में एवं बाहर कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख विद्यमान है जिनके ऐतिहासिक महत्व की ओर अब तक किसी का ध्यान नहीं हो पाया है। राष्ट्रकूट से संबंधित अभिलेखों से संबद्ध क्षेत्र में उनका शासन होने एवं उनका जैन धर्मानुयायी होना ज्ञात होता है। अप्रत्यक्ष रूप से इनसे यह भी ज्ञात होता है कि संबंद्ध क्षेत्र में आचार्य वीरसेन एवं उनकी सेनसंघ परम्परा का प्रभाव रहा था। काष्ठासंघनंदीतट गच्छ के अभिलेख संबद्ध क्षेत्र में इस परम्परा के प्रभाव की जानकारी देते हैं। पूर्व में यहाँ के मंदिर का विशाल एवं भव्यरूप होना ज्ञात होता है। राजस्थान के उदयपुर जिले की वल्लभनगर तहसील में स्थित अड़िंदा ग्राम में भगवान पार्श्वनाथ का एक मंदिर है। मुख्य मंदिर में विद्यमान मूलनायक प्रतिमा, इसके अंतराल में स्थित चौबीसी प्रतिमाओं, संवत् १११०, संवत् १३३४ एवं अन्य अभिलेखों, पूर्व में खुदाई में यहाँ पायी गई खंडित प्रतिमाओं इत्यादि के आधार पर कहा जा सकता है कि पहले यहाँ विशाल एवं भव्य मंदिर रहा होगा। ज्ञात होता है कि पूर्व में यहाँ जैनों की बहुत अच्छी बस्ती रही थी। संभवत: मुस्लिम आक्रमणकारियों के आक्रमण इत्यादि से मंदिर के ध्वस्त हो जाने एवं कालांतर में यहाँ पर जैन बस्ती नहीं रहने के कारण यहाँ मंदिर का अस्तित्व नाम मात्र का रह गया था। वर्तमान में विद्यमान मुख्य मंदिर में एक छोटा सा गर्भ गृह एवं इसके बाहर का चौक भी छोटा ही है। इन्हें एवं इसके शिखर को देखने से ज्ञात होता है कि जीर्ण—शीर्ण हो रहे पूर्व के मंदिर का लगभग सौ—डेढ़ सौ वर्ष पूर्व जीर्णोद्धार करवाकर इसे वर्तमान स्वरूप प्रदान किया गया है। संवत् १११० के अभिलेक्ष से ज्ञात होता है कि यह मंदिर इससे पूर्व का है। मुख्य मंदिर परिसर के बाहर एक चबूतरा है, जिसके समीप ही भूमि में गड़ा हुआ लगभग ६ फीट ऊँचाा एक शिलाखंड है। ज्ञात होता है कि इस पर उत्कीर्ण अस्पष्ट सा लेख का सबसे पुरातन लेख है। उक्त अनेक प्रमाणों से ज्ञात होता है कि यह क्षेत्र प्राचीन है। प्राचीन होते हुए भी यह क्षेत्र इतिहास एवं पुरातत्ववेताओं का विशेष ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाया है। संभवत: इसका मुख्य कारण इस क्षेत्र के इतिहास के बारे में लोगों को विशेष जानकारी का नहीं होना एवं इस विषय में शोध इत्यादि का नहीं होना रहा है। यह मंदिर दक्षिणमुखी है, दक्षिणमुखी मंदिर भारत में अन्यत्र प्राय: नहीं पाये जाते हैं। पुरातन मुख्य मंदिर में भगवान पार्श्वनाथ की काले पाषाण की प्रतिमा है जो अन्य २३ तीर्थंकरों की प्रतिमाओं के साथ में है। मंदिर के गर्भगृह के द्वार के ठीक बाहर अन्तराल में एक—एक चौबीसी दोनों ओर बनी हुई है। दोनों ओर की ये चौबीस तीर्थंकर प्रतिमाएँ श्वेत पाषाण की हैं और इन्हें मूलनायक प्रतिमा के समय की माना जा सकता है। संभव है मूलनायक प्रतिमा इनसे पूर्व की हो। अन्तराल में विद्यमान दोनों ओर की प्रतिमाओं के केन्द्र में स्थित मुख्य प्रतिमाएं खड्गासन स्थिति में है। पूर्व में इस स्थान के बारे में लोगों को अधिक जानकारी नहीं थी। सन् १९६० के बाद इस क्षेत्र के विकास हेतु लोगों का ध्यान आकृष्ट हुआ एवं कुछ निर्माण कार्य प्रारम्भ किये गये। सन् १९९१ में यहाँ हुए आचार्य श्री वर्धमान सागरजी के चातुर्मास से भी अनेक लोगों की इस क्षेत्र के प्रति रुचि जागृत हुई। बाद में गणधराचार्य वुंâथुसागर जी महाराज की प्रेरणा से यहाँ अनेक निर्माण कार्य हुए एवं सन् १९९६ में यहाँ उनके संसंघ सानिध्य में एक भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठा समारोह हुआ। इस तरह धीरे—धीरे इस क्षेत्र के बारे में लोगों की जानकारी बढ़ने लगी। अड़िंदा एवं नागदा नामक स्थानों के नामकरण—मध्यकाल में मेवाड़ में अड़िंदा एवं नागदा नामक स्थान यहाँ पर भगवान पार्श्वनाथ के मंदिर होने के कारण जैनों के प्रमुख तीर्थ रहे हैं। नागदा जैन तीर्थ रहा है। यहाँ दिगम्बर जैन परम्परा का पार्श्वनाथ तीर्थ अधिक पुरातन रहा है। संभवत: यह इस नगर के प्रारम्भिक इतिहास से जुड़ा हुआ है। गुहिल शासक नागादित्य द्वारा स्थापित किये जाने से नगर का नाम नागद्रह अथवा नागहृद होना माना जाता है। इस नामकरण का एक और भी कारण ज्ञात होता है। पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं नागफण से युक्त होती हैं। यह नाग यक्ष धरेन्द्र का रूप है तथा धरणेन्द्र को नागेन्द्र भी कहा जाता है। नागेन्द्र के आराध्य पार्श्वनाथ को नागहृदेश्वर कहा है। नागहृदेश्वर से ही नागहृद, नागद्रह एवं नागदा शब्द बने हैं। वर्तमान में अड़िंदा को ‘अणिदा’ भी कहा जाता है। ‘अणिंदा’ नाम के पूर्व रूप ‘अणींधा’, ‘अणींदहा’ इत्यादि रहे हैं। नागेन्द्र का एक पर्यायवाची शब्द अहीन्द्र है। अहीन्द्र से अहीन्द्र हृदेश्वर, अहीन्द्र हृदा, ‘अणींदहा’ इत्यादि शब्द बने प्रतीत होते हैं। मंदिर परिसर एवं इसके बाहर विद्यमान अभिलेख—मंदिर परिसर में एवं बहार कुछ शिलालेख उत्कीर्ण हैं जिनसे मंदिर, इस क्षेत्र इत्यादि के बारे में अनेक तथ्यों की जानकारी प्राप्त होती है। आश्चर्य की बात यह है कि इन शिलालेखों की ओर अब तक इतिहास वेत्ताओं एवं विद्वानों का ध्यान आर्किषत नहीं हुआ है। ये अभिलेख दो प्रकार के हैं, जिनसे संबंधित विवरण निम्नानुसार है— (क) राष्ट्रकूट के अभिलेख—मुख्य मंदिर के गर्भगृह के दरवाजे के ठीक ऊपर पाषाण पर दो लेख उत्कीर्ण हैं। इन लेखों का पढ़ा जाने योग्य अंश इस प्रकार है— ‘‘।।………..०।। सं. १११० वर्षे ज्येष्ट सु. ५ सुक्रे राष्ट्रकूट रा. विक्रम (भ्युत) पीपाकेन देव श्री पार्श्वनाथस्य पूजनार्थं आय दानं कृतं। नृशनं (भूषनं) प्रति विंसोपक……ग्राममर्थेन्द्र: (४) देवस्योत्तरस्यां दिशि वायं (वा) टिका…….देवस्य……क्षिणस्यां….. ।।…….०।। सं. १३३४ वर्षे महाराजाधि रा……श्री समर सिंह) …..श्री…सर्वसंघ प्रतिपालयती (न्ये) वं काले प्रवर्तमाने अणींदहा ग्राम नंदी….सं……पार्श्वनाथ चैत्ये…….संघ समुदायेन उद्धारका…..राष्ट्रराष्ट्रकूटय रा…(मुजेन) रा…..न देवस्य पूजनार्थे देवस्य वप…..ती……(गोषेत्र) प्रदतं।। तदा भट्टापुरस्य (महा(भृतिन) देवस्य पूजनार्थं (गऊषा…..पटकेड) प्रदत्ता।। ये दोनों शिलालेख एक साथ हैं—एक के बाद दूसरा लिखा हुआ है। विद्वानों की मान्यता है कि अलग—अलग समय के ये दो लेख हैं। पहले लेख से ज्ञात होता है कि अड़िंदा नामक गांव का पार्श्वनाथ मंदिर विक्रम संवत् १११० में विद्यमान था एवं राष्ट्रकूटवंश के किसी राजा ने मंदिर के लिए दान दिया। लेख से राजा द्वारा मंदिर की उत्तर एवं दक्षिण दिशा में वाटिका इत्यादि बनाये जाने का उल्लेख होना भी ज्ञात होता है। संवत् १३३४ के दूसरे लेख से ज्ञात होता है कि गुहिलवंशी शासक समरसिंह के काल में उनके किसी राष्ट्रकूट वंशी सामंत एवं भट्टपुर के महाभृति द्वारा मंदिर हेतु विविध दान दिये गये। प्रथम लेख में ‘विंसोपक’ शब्द आया है। ‘िंवसोपक’ उस समय प्रचलित रही मुद्रा की एक इकाई का नाम है। ‘द्रम्म’ का २०वां भाग होने के कारण सम्बन्धित इकाई को ‘विंसोपक’ कहा जाता था। दूसरे लेख में उल्लेखित समरिंसह के बारे में ज्ञात होता है कि उसकी माता जयतल्लदेवी को जैनधर्म पर श्रद्धा थी एवं उसने चित्तौड़ में श्याम पार्श्वनाथ नामक मंदिर बनवाया था। लेख में भट्टपुर के महाभृति के उल्लेख से ज्ञात होता है कि अणिंदा के समीप के वर्तमान भटेवर कस्बे का ही पूर्व नाम भट्टपुर रहा था। मेवाड़ के गुहिलवंशी शासक भर्तृभट्ट ने सन् ९४३ ई. में अपने नाम से भरतरिपुर नगर बसासा था। संभवत: भरतरिपुर ही भट्टपुर एवं बाद में भटेवर हुआ। भर्तृभट्ट द्वितीय की रानी महालक्ष्मी राष्ट्रकूट (राठौड़ वंश) की थी। राष्ट्रकूट का शासन एवं जैनधर्म—८वीं शताब्दी ई. से दक्षिण भारतीय साम्राज्य के शासक राष्ट्रकूटश के राजा हुए। इस वंश का प्रथम ज्ञात राजा दंतिवर्मन हुआ। उसके उत्तराधिकारी क्रमश: इन्द्र प्रथम, गोविंद प्रथम एवं कर्क हुए। इसके बाद इस वंश में क्रम से इन्द्र द्वितीय, दंतिदुर्ग, कृष्ण प्रथम, गोविन्द द्विती, ध्रुव इत्यादि अनेक राजा हुए। कर्वâ द्वितीय का समय वि. सं. १०२९-३० था। इसके बाद इन्द्र चतुर्थ हुआ। राष्ट्रकूट देश के राजा ध्रुव ने राष्ट्रकूट शक्ति को सम्पूर्ण भारत में सर्वोपरि बनाया। ध्रुव का उत्तराधिकारी गोविन्द्र तृतीय (जगतुंग) था। गोविन्द ने लाट (गुजरात) को जीतकर अपने छोटे भाई इन्द्र को वहाँ का शासक बनाया और मालवा पर विजय प्राप्त कर गुर्जर राज्य में सम्मिलित किया। इसने अपने जीवन काल में ही अपने पुत्र अमोघवर्ष (८१४-८७८ ई.) को राजा बना दिया। गोविन्द तृतीय के समय जब अमोघवर्ष राजा बन चुके थे, वाटनगर (वाटग्राम) में दिगम्बर जैन परम्परा के मूलसंघ—सेनगण के आचार्य वीरसेन ने महान ग्रंथ ‘धवला’ टीका को शक सवंत् ७३८ (सन् ८१७ ई.) में पूर्ण किया। सम्राट अमोघवर्ष जैन धर्मानुयायी एवं आदर्श जैन श्रावक था। वीरसेन के पट्टशिष्य आचार्य जिनसेन उसके राजगुरु और धर्मगुरु थे। अमोघवर्ष के आश्रय में तथा उसके प्रधानामात्य कर्कराज के संरक्षण में वाटनगर में ही आचार्य जिनसेन ने अपने गुरु द्वारा अधूरे छोड़े गये जयधवला टीका ग्रंथ को शक सवंत् ७५९ (सन् ८३७ ई.) में पूर्ण किया। तदन्तर वे राजधानी नगर मान्यखेट में जाकर रहने लगे।१राष्ट्रकूटट वंश के शासक प्रारम्भ से ही सभी धर्मो के प्रति आदर और समान दृष्टि रखते थे। उनमें से कई राजाओं का व्यक्तिगत धर्म शैव वैष्णव इत्यादि था फिर भी वे जैनधर्म के विशेष पक्षधर एवं संरक्षक रहे। अमोघवर्ष इत्यादि कई राजा जैनधर्मी हुए।राष्ट्रकूटट वंश की अनेक शाखाएं हुई एवं उनका शासन उत्तर भारत के अनेक स्थानों पर रहा। डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन ने लिखा है कि लगभग ढ़ाई सौ वर्ष केराष्ट्रकूटट युग में जैनधर्म, विशेषकर उसका दिगम्बर सम्प्रदाय, संपूर्ण दक्षिणापथ में सर्व प्रधान धर्म के रूप में रहा। उन्होंने डॉ. अल्तेकर के विचारों को प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि इस युग के अमोघवर्ष प्रभृति जैन नरेशों एवं उनके बंकेय, श्री विजय, नरिंसह चामुण्डराय जैसे प्रचण्ड सेनापतियों ने पूरे दक्षिण भारत पर ही नहीं, पूर्वी, पश्चिमी एवं मध्यभारत तथा उत्तरापथ के मध्य देश पर्यन्त अपनी विजय वैजयन्ती फहराई। राष्ट्रकूटट वंश ही राजस्थान के जोधपुर, मारवाडद्व मेवाड़, एवं वागड़ प्रदेशों में कालांतर में ‘राठौड़’ वंश कहलाया। राजस्थान के मेवाड़ वागड़ एवं अन्य प्रदेशों मेंराष्ट्रकूटटों का शासन—१० वीं शताब्दी ई. में राजस्थान के मारवाड़ के गोडवाड क्षेत्र के अन्तर्गत हथूंडी नगर में राठौड़ वंशी राजपूतों का प्राचीन राज्य था। इन राठौड़ों का सम्बन्ध दक्षिण के राष्ट्रकूट वंश से था। जोधपुर—मारवाड़ का राठौड़ वंश भी हथूंडी के राठोड वंश से ही सम्बन्धित होना माना जाता है। हथूंडी का राठोड़ वंश जैनधर्म का अनुयायी था। ९१६ ई. में इस वंश का राजा विदग्धराज जैनधर्म का परम भक्त था। उसने अपनी राजधानी हथूंडी में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का विशाल मंदिर बनवाया और मंदिर के लिए बहुत सी भूमि प्रदान की। राजा ने स्वयं को स्वर्ण के साथ तुलवाकर उसे मंदिर और गुरु को दान कर दिया। सन् ९३९ ई. में विदग्धराज के पुत्र एवं उत्तराधिकारी मम्मट ने भी मंदिर के लिए लिए विपुल दान दिया। इसके उपरान्त उसके पुत्र महाराज धवल ने मंदिर का जीर्णोद्धार कर मंदिर में ऋषभदेव की नवीन प्रतिमा स्थापित करायी। अनेक लेखों एवं अन्य स्रोतों से ज्ञात होता है कि मध्यकाल में समय—समय पर मेवाड़ एवं वागड़ प्रदेश में राष्ट्रकूटों का शासन रहा था। ८वीं शताब्दी के अन्त में चित्तौड़ दुर्ग राष्ट्रकूटों के अधिकार में चला गया था। बाद में दसवीं शताब्दी के तीसरे दशक में गुहिल भर्तृरी ने इस पर अपना अधिकार किया।३ धनोप (जिला भीलवाड़ा) के वि. सं. १०६३ (सन् १००६) के शिलालेख के विवरण के अनुसार वहाँ राष्ट्रकूटों का एक छोटा राज्य था। गोविन्द तृतीय ने अपने एक रिश्तेदार को इस राज्य का स्वामी बनाया। लेख के अनुसार दंतिवर्मा ने यहा शिवमंदिर बनवाया था एवं उसके पौत्र गोविन्द ने देवी माता का मंदिर बनवाया। राष्ट्रकूटों से सम्बन्धित एक शिलालेख वि. सं. १२१२ (सन् ११६५) का मेनाल (जिला—चित्तौड़गढ) से भी प्राप्त हुआ है। डा. दशरथ शर्मा ने लिखा है कि राजस्थान में राष्ट्रकूटों का शासन ई. सन् १००० से पूर्व रहा है एवं मेवाड़ एवं वागड़ के छप्पन प्रदेश में राष्ट्रकूट परिवारों का होना ज्ञात होता है। इतिहासवेत्ता गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने बांसवाड़ा जिले के नौगामा नामक गांव के निकट वि. सं. १३६१ के किसी राठौड़ वीर पुरुष से संबंधित लेख युक्त एक स्मारक का विवरण देते हुए लिखा है कि वागड़ के राठौड़ वागड़िए राठौड़ एवं छप्पन के राठौड़ छप्पनिए राठौड़ कहलाते थे। महाराणा उदयिंसह के समय पर मेवाड़ वालों का छप्पन पर अधिकार हुआ था। मेवाड़—वागड़ से प्राप्त राष्ट्रकूटों से संबधित अभिलेखों में दक्षिण के राष्ट्रकूट शासकों के नामों के उल्लेख हुए हैं एवं यहाँ के राष्ट्रकूट शासकों के नाम दक्षिण भारत के राष्ट्रकूट शासकों के नामों से मिलते—जुलते रहे हैं। वागड़ के समीप के मेवाड़ के कुछ भूभाग को ‘छप्पन’ कहा जाता है। राजस्थान के उदयपुर, राजसमंद, चितौड़गढ़ एवं भीलवाड़ा जिलों का क्षेत्र मेवाड़ के अंतर्गत माना जाता है। वागड़ के अंतर्गत इसके डूंगरपुर, बांसवाडा तथा प्रतापगढ़ जिले से संबंधित क्षेत्र को माना जाता है। पूर्व में विभिन्न शासकों के परस्पर संघर्ष एवं एक दूसरे के राज्य के भूभाग पर अधिकार किये जाने तथा अन्य कारणों से इनकी सीमाओं में परिवर्तन होता रहा है। मेवाड़ एवं वागड़ की र्धािमक एवं अन्य परम्पराएं एक दूसरे से घनिष्टता के साथ संबद्ध रही हैं। वाटग्राम कहाँ था ?—यह मान्यता है कि चित्तौड़ के मोरिय राजा का उपनाम धवलप्पदेव था। इनके उत्तराधिकारी का नाम राहपदेव था। राहपदेव को राष्ट्रकूट नरेश दन्तिदुर्ग ने पराजित किया था। धवलप्पदेव के कनिष्ठ पुत्र का नाम वीरप्पदेव था जो बाद में आचार्य वीरसेन के नाम से प्रसिद्ध हुर्ए इन्द्रनन्दि ने श्रुतावतार में लिखा है कि चित्रकूटपुर (चित्तौड़) वासी एलाचार्य के समीप वीरसेन ने सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन किया एवं गुरु की आज्ञा लेकर वे वाटग्राम आ गये। यहीं पर उन्होंने धवला एवं जयधवला टीका ग्रंथ लिखे। जय धवला टीका को वे पूरा नहीं कर पाये जिसे उनके शिष्य जिनसेन ने वाटग्राम में ही पूर्ण किया। कुछ विद्वानों ने वाटग्राम नामक स्थान को गुजरात राज्य का बड़ौदा नगर माना है। स्व. पं. नाथूराम प्रेमी ने वाटग्राम की स्थिति के बारे में इतिहासवेत्ता डा. उमाकान्त शाह से जानकारी चाही थी। डा. शाह के अनुसार राष्ट्रकूट राजाओं के समय गुजरात का बड़ौदा नगर राजधानी के रूप में नहीं रहा। वाटग्राम को सौराष्ट्र और चित्तौड़ के नजदीक भी ढूंढा जाना चाहिए। कुछ विद्वान वाटग्राम को विदर्भ में मानते हैं। इस प्रकार वाटग्राम की निश्चित पहचान नहीं हो पाई है। राजस्थान के डूंगरपुर जिल में भी बड़ौदा नामक एक गांव है, जिसे पूर्व में ‘वाटग्राम’, ‘वटपद्रक’ कहा जाता था। वि. स. १४१५ (ई. सन् १३५८) के आसपास डूंगरपुर को वागड़ प्रदेश की राजधानी बनाया गया इससे पूर्व इसकी राजधानी यही बड़ौदा अर्थात् वाटग्राम थी। चित्तौड़ से इस बड़ौदा की दूरी लगभा २०० कि.मी. ही है जो यहाँ से गुजरात के बड़ौदा नामक शहर की दूरी से बहुत ही कम है। वर्तमान में बड़ौदा नामक यह स्थान एक छोटे गांव के रूप में है, इसी कारण वाटग्राम की पहचान हेतु विद्वान का ध्यान इस ओर नहीं गया। इन विवरणों से ज्ञात होता है कि डूंगरपुर जिले का बड़ौदा नामक स्थान ही वह स्थान रहा था जहाँ पर दिगम्बर जैनाचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा धवला एवं जयधवला नामक टीका ग्रंथ रचे गये। वटपद्रक या वाटग्राम को गुर्जरार्य अथवा गुर्जर नरेन्द्र द्वारा अनुपालित होना लिखा है। उस समय राष्ट्रकूटों की मुख्य राजधानी मान्यखेट थी। बड़ौदा नामक यह स्थान गुजरात की सीमा के समीप स्थित है। अत: अधिक संभावना यह है कि गुजरात प्रदेश के साथ ही वागड़ के इस भूभाग पर भी उस समय राष्ट्रकूटों का शासन रहा एवं बड़ौदा नामक यह स्थान ही उसकी राजधानी रहा। वागड़ के परमारों की राजधानी अर्थूणा नगर थी। अर्थूणा वर्तमान में बांसवाड़ा जिले का एक गांव है। विभिन्न राज्यों की सीमाएं राज्य के विस्तार इत्यादि के कारण परिर्वितत होती रहती है। अमोघवर्ष की समूचे प्रदेश पर अधिकार होने से उन्हें गुर्जर नरेन्द्र कहा जाना उचित प्रतीत होता है। यह मानना भी ठीक है कि आचार्य वीरसेन एवं उनकी परम्परा के आचार्य जिनसेन, गुणभद्र इत्यादि का विहार मेवाड़ वागड़ प्रदेश में समय—समय पर होता रहा था। ऋषभदेव के केसरियाजी मंदिर में विराजित मूलनायक प्रतिमा वहाँ पर कहां से लाई गई, इस बारे में विद्वानों की मान्यताओं में भिन्नताएँ है। एक मान्यता यह है कि खड़क प्रान्त के खुणादरी गांव से इसे यहाँ लाया गया था। इतिहासवेत्ता ओझाजी ने लिखा है कि यह प्रतिमा डूंगरपुर राज्य की प्राचीन राजधानी बड़ौदा (वटपद्रक) से ले जाई गई थी। उनके अनुसार बड़ौदा नामक इस स्थान का पुरातन मंदिर गिर गया था जिसके पत्थर वहाँ वटवृक्ष के नीचे एक चबूतरे पर चुने हुए हैं। बड़ौदा में निश्चित ही दिगम्बर परम्परा का पुरातन मंदिर रहा होगा। कालान्तर में श्वेताम्बर जैनों के प्रभाव के बढ़ने के कारण ही अब यहाँ यह श्वेताम्बर, जैन मंदिर है। इस मंदिर का सबसे पुरातन शिलालेख संवत् १३६४ का होना लिखा है। ऋषभदेव के केसरियाजी मंदिर की मूलनायक प्रतिमा को १० वीं शताब्दी अथवा इससे भी पूर्व की दिगम्बर परम्परा की प्रतिमा होना माना गया है। ओझाजी ने प्रतिमा के परिकर में दोनों और नग्न कायोत्सर्ग स्थिति वाले पुरुष की आकृतियों के होने एवं इस पर दिगम्बरों की मान्यता के अनुसार १६ स्वप्न होने के विवरण दिये हैं।९ यह संभावित है कि यह प्रतिमा वागड़ की बड़ौदा रही राजधानी के समय में राष्ट्रकूटों के शासन एवं आचार्य वीरसेन, जिनसेन अथवा उनकी पट्ट परम्परा के ही अन्य किसी आचार्य के समय की हो। अड़िंदा मंदिर के उक्त र्विणत अभिलेख से संबंधित राजा, सामंत इत्यादि के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की दृष्टि से यह शोध के विषय हैं। प्राप्त विवरणों से ज्ञात होता है कि संबंधित राष्ट्रकूट राजा एवं सामंत निश्चित ही जैनधर्म एवं इसकी दिगम्बर परम्परा के अनुयायी रहे हैं। उनके धर्मगुरु सेनसंघी महान आचार्य वीरसेन की ही परम्परा के रहे हैं। उक्त विवरणों से ज्ञात होता है कि सेनसंघ की परम्परा के आचार्यों एवं भट्टारकों का मेवाड़—वागड़ प्रदेश में आगमन एवं विहार होता रहा था। चित्तौड़गढ़ में स्थित र्कीितस्तम्भ के बारे में नंदगांव के जैन मंदिर के एक र्मूित लेख से ज्ञात होता है कि मूलसंघ के सेनगण के भट्टारक सोमसेन के उपदेश से साह जीजा ने इस स्तंम्भ को बनवाया था। (ख) काष्ठासंघ—नंदीतट गच्छ के स्तूप—लेख—मुख्य मंदिर के सामने चबूतरे के ऊपर एक चौकोर स्तूप है। इसे नंदीश्वर स्तूप कहा जाता है। इसके ऊपर सभी ओर तीन पंक्तियों में पहले पद्मासन एवं बाद में खड्गासन प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। स्तूप पर मंदिर के सामने की ओर नीचे कुछ लेख अंकित है। ज्ञात होता है कि ये भिन्न—भिन्न समय के दो लेख हैं। इनके कुछ शब्द अस्पष्ट हैं जिनके अतिरिक्त इन्हें पढ़ा जा सकता है। इसके पढ़े जाने योग्य अंश इस प्रकार हैं— ‘स्वस्ति श्री संवत् १५४९ फागुण सुदि ५ गुरौ श्रीमद काष्टासंघे नंदीतट गच्छे विद्य (।) गणे भ. (श्री) रामसेनान्वये भीमसेन स्ततपट्टे भ. सो (म) र्कीित स्ततपट्टे भ. विजयसेन स्ततपट्टे भ. श्री (क) मलर्कीित स्ततपट्टे भ. श्री रत्नर्कीित स्ततपट्टे भ. (श्री) महेन्द्रसेने….त…… चतुष्किका पंचकं कारापितं पश्चातदन्वये संवत १६ …..वर्ष फागुण सुदि …… गुरौ भ. श्री महेन्द्रसेन स्ततपट्टे भ. श्री विशाल (की)र्ति स्तदाज्ञाधारी नरिंसहपुरा ज्ञातीय वलुला गोत्रे सा. नारद भार्या गांगी प्रवर सा…… लघु पुत्र वस्ता दीक्षा नाम भ. श्री वि(श्व) भूषण……अ…..वि चतुष्किका पंच(क) काराप्य पुन: स्त भेकृनि वि…..नि का दयि दिनवति सूरी चंदा न नित्यं प्रणमति…..ब्र. सबी ब्र. श्री जिता….. मुख्य मंदिर के प्रथम प्रवेश द्वार के बाद चौक है। चौक के दाहिनी एवं बायीं ओर छोटे देवालय (देवरिया) हैं। बायीं ओर के पार्श्वनाथ देवरी के दायीं ओर बायीं ओर भी एक—एक स्तूप बना हुआ है। दाहिनी ओर वाले स्तूप पर एक लेख उत्कीर्ण है। इसके जो अंश पढ़े जा सके हैं, वे निम्नानुसार हैं— ‘संवत् १५८७ वर्षे’ मगसिर सुदि ५ बुधो श्री काष्ठासंघे नंदीतट गच्छे विद्यागणे क्षुल्लिका बाई (धनी नीमिस्यही) चेली बाई……कारापिता। ……चेली…….मुख्य मंदिर के सामने चबूतरे के ऊपर जो स्तूप है उस पर अंकित लेखों में दो घटनाओं का उल्लेख है। एक घटना फाल्गुन शुक्ला ५ गुरुवार संवत् १५४९ की है। दूसरी घटना भी फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की है किन्तु तिथि एवं संवत् स्पष्ट नहीं है। ये घटनाएं काष्ठासंघ—नंदीतट गच्छ के भट्टारक महेन्द्रसेन एवं भट्टारक विश्वभूषण की अड़िंदा में समाधि होने से संबंधित ज्ञात होती है। इन घटनाओं की स्मृति में इस स्तूप पर स्मृति लेख उत्कीर्ण कराये गये प्रतीत होते हैं। स्तूप लेख में ‘चतुष्किका’ एवं ‘कारापितं’ शब्दों का प्रयोग चौकोर स्तंभ बनवाये जाने के अर्थ में हुआ है। विश्वभूषण के पूर्ववर्ती विशालर्कीित द्वारा संवत् १६१८ में श्रेयांसनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित किये जाने के उल्लेख प्राप्त होते हैं अत: दूसरी घटना संवत १६१८ के बाद की है। इस लेख से भट्टारक विश्वभूषण के बारे में ज्ञात होता है कि वे काष्ठासंघ—नंदीतट गच्छ परम्परा की आज्ञाधारी नरिंसहपुरा जाति के वलुला गोत्र के सा. नारद एवं उनकी पत्नी गांगी के लघु पुत्र थे। इन लेखों में भट्टारक महेन्द्रसेन एवं भट्टारक विश्वभूषण की पट्ट परम्परा की पूर्ववर्ती कुछ भट्टारकों के नाम भी दिये गये हैं। पार्श्वनाथ देवरी के दाहिनी ओर वाले स्तूप का मगसर शुक्ला ५ बुधवार संवत् १५८७ का लेख काष्ठासंघ नंदीतट गच्छ की किसी क्षुल्लिका से संबंधित है। ज्ञात होता है कि इस स्तूप पर क्षुल्लिका जी, जिनका नाम स्पष्ट नहीं है, की अड़िंदा में समाधि होने पर यह स्मृति लेख अंकित करवाया गया है। बायें ओर के स्तूप पर किसी तरह का लेख दृष्टिगोचर नहीं होता है। इन दोनों स्तूपों पर भी तीर्थंकरों की एवं अन्य प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। भीलवाडा जिले के बिजौलिया क्षेत्र पर भी इस तरह के स्मृति लेख अंकित हैं। वहां पर दो चौकोर स्तंभों पर, एक पर संवत् १४८३ एवं दूसरे पर १४६५ के लेख हैं। एक लेख भट्टारक शुभचंद्र के शिष्य हेमर्कीित एवं दूसरा र्आियका आगम श्री से संबंधित है। वहाँ पर ये स्तंभ मंदिर के सामने मंडप में रहे हैं। संभव है अड़िंदा के ये स्तूप पूर्व में और किसी स्थान पर भी रहे हों। अड़िंदा में स्तूप पर अंकित उक्त सभी लेख इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इन लेखों एवं अन्य विवरणों से ज्ञात होता है कि यहाँ एवं समीपस्थ क्षेत्रों में काष्ठासंघ—नंदीतट गच्छ के भट्टारकों इत्यादि का अत्यधिक प्रभाव रहा है। यह मान्यता रही है कि काष्ठासंघ—नंदीतट गच्छ परम्परा की गादी भी यहां रही है। इन विवरणों से यह भी ज्ञात होता है कि अड़िंदा नामक स्थान विक्रम की १६वीं एवं १७वीं सदी में भी एक प्रसिद्ध अतिशय एवं तीर्थक्षेत्र के रूप में रहा है। यहाँ उस समय भी जैनों की अच्छी बस्ती रही ज्ञात होती है। सत्रहवीं सदी के पूर्वाद्र्ध में हुए काष्ठासंघ—नंदीतट गच्छ से संबंद्ध जयसागर ने तीर्थ वंदना विषयक अपनी कृति ‘तीर्थ जयमाला’ में इस स्थान का तीर्थ के रूप में उल्लेख करते हुए लिखा है— सुबायडे वंदो जिनदेव। अणिधो पास करी सुरसेव।।१६।।कृतिकार ने उक्त शब्दों में बाठेड़ा के अड़िंदा पार्श्व जिन की वंदना की है। बाठेड़ा अड़िंदा गांव का समीपस्थ कस्बा है जो पूर्व में मेवाड़ राज्य का एक ठिकाना था और इसी के अंतर्गत अड़िंदा गांव रहा है। कृतिकार ने तीर्थ इत्यादि के नामों से पूर्व ‘सु’ अक्षर का उपयोग किया है। काष्ठासंघ नन्दीतट गच्छ की क्षेत्र इत्यादि से संबंद्धता—दिगम्बर जैन परम्परा में मूलसंघ प्रधान रहा है किन्तु इसके अतिरिक्त भी इस परम्परा में अन्य कई संघ रहे हैं। मध्यकाल में देश के कई क्षेत्रों में काष्ठासंघ तथा इससे संबद्ध संघ एवं गण गच्छों का प्रभाव रहा है। अणिंदा के पार्श्वनाथ मंदिर में मूलसंघ के बलात्कार गण का कोई अभिलेख नहीं है। मेवाड़—वागड़ क्षेत्र के प्रमुख रहे ऋषभदेव—केसरियाजी मंदिर एवं इस क्षेत्र के अनेक अन्य दिगम्बर जैन मंदिरों पर मूलसंघ एवं इसके बलात्कार गण की परम्परा के साथ—साथ काष्ठासंघ, विशेष रूप से इसके नन्दीतट गच्छ, का भी व्यापक प्रभाव रहा है। ध्यान से संबंधित अध्यात्म विषयक ग्रंथ के कृतिकार रातसेनाचार्य नन्दीतट गच्छ के संस्थापक माने जाते हैं। विभिन्न विवरणों से ज्ञात होता है कि नंदीतट एवं इसके संस्थापक आचार्य रामसेन की प्रारंभिक संबद्धता मूलसंघ एवं इसके सेनगण से रही है नन्दीतट पहले स्वतंत्र संघ था किन्तु बाद में काष्ठासंघ से संबद्ध होकर इसका एक गच्छ बन गया। रामसेनाचार्य द्वारा मेवाड़ के नरिंसहपुर में एक समुदाय विशेष को जैन संस्कारों से संस्कारित करके नरिंसहपुरा जाति की स्थापना किये जाने की मान्यता रही है। रामसेनाचार्य के ही शिष्य नेमिसेन के द्वारा भटेवर नगर में एक अन्य समुदाय को जैन संस्कारों से संस्कारित करके भटेवरा जाति की स्थापना की मान्यता है। भटेवर अड़िंदा के समीप का ही एक कस्बा है। ज्ञात होता है कि भटेवर जाति की स्थापना की मान्यता है। भटेवर अड़िंदा के समीप का ही एक कस्बा है। ज्ञात होता है कि भटेवर का यह समुदाय पूर्व में गुजरात प्रदेश में जाकर बस गया। मेवाड़ प्रदेश से संबंधित होने से अब यह समुदाय मेवाड़ा के नाम से जाना जाता है। गुजरात में रहने वाली दिगम्बर जैनों से संबंधित इस जाति के लोग आज भी यह मानते हैं कि वे मूलत: भटेवर के हैं। चित्तौड़ा एवं वाच जाति को भी जैन संस्कारों से संस्कारित करने का श्रेय नन्दीतट गच्छ को ही दिया जाता है। बघेरवाल जाति की संबद्धता लाड़वागड गच्छ एवं बाद में नन्दीतट गच्छ के साथ रही है। संदर्भ सूची १. भारतीय इतिहास एक दृष्टि—डा. ज्योतिप्रसाद जैन—पृष्ठ २१९-२२५. २. प्रमुख ऐतिहासिक जैन पुरुष एवं महिलाएं—डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन—पृष्ठ—११२. ३. राजस्थान का इतिहास—पनगड़िया—पृष्ठ—१४-१५ ४. ‘स्वस्ति संवत् १२१२ वर्शे भाद्रपद मासे…….मंडलिक नरवर्मक सुत: राणक स्त्रिभुवने वरस्नतो मेघनाद इह तस्य संभव:।’ हिस्ट्री ऑफ मेवाड़—१९७६—रामवल्लभ सोमानी—पृष्ठ ६५. ५. राजस्थान थ्रू द एजेज (१९६६) वाल्यूम १—डा. दशरथ शर्मा—पृष्ठ ६८७ ६. जोधुपर राज्य का इतिहास—प्रथम खंड (१९३८)—पृष्ठ—१३४ ७. जैन साहित्स और इतिहास—नाथूराम प्रेमी (द्वि. संस्करण) १९५६-पृष्ठ—१४७ ८. उदयपुर राज्य का इतिहास—भाग १ (१९९६—९७ संस्करण)—पृष्ठ—४२ ९. वही १०. तीर्थ वन्दन संग्रह—डॉ. विद्याधर जोहरापुरकर—पृष्ठ—८८