समीक्षक—पं. पदम चन्द्र जैन शास्त्री, साहिबाबाद, (उ. प्र.)
(उपाध्यक्ष-तीर्थंकर ऋषभदेव जैन विद्वत् महासंघ)
पूज्य आचार्यवर्य कुन्दकुन्द जैन आचार्य परम्परा के मूर्धन्य आचार्य हुए हैं। भगवान महावीर और गौतम गणधर के बाद उन्हीं का नाम स्मरण आज तक किया जा रहा है। और सभी मुनिराज स्वयं को कुन्दकुन्द आम्नायी कहलाने में गौरव का अनुभव करते हैं यथा—
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोस्तु मंगलम्।।
ऐसे महान आचार्य कुन्दकुन्द देव ने अनेक ग्रंथों की रचना करके जिनवाणी का भण्डार समृद्ध किया है। एवं जैन वाङ्मय की श्रीवृद्धि में महान योगदान दिया है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्द का यह विशाल साहित्य जनसामान्य नहीं पढ़पाता है और ना ही हृदयंगम कर पाता है, इसका कारण यह है कि उसके पास समय और बुद्धि की कमी है। ऐसी स्थिति में गणिनीप्रमुख आर्यिका शिरोमणि ज्ञानमती माताजी ने कुन्दकुन्द देव की १०८ अनमोल गाथाएँ चुनकर एक ‘‘कुन्दकुन्द मणिमाला’’ नाम की सर्वोपयोगी कृति का निर्माण किया। इस पावन कृति के निर्माण से सामान्य जन के साथ-साथ भव्य प्राणियों को बड़ा भारी लाभ प्राप्त हुआ है क्योंकि ऐसे लोग संक्षेप में एवं बहुत कम समय में आचार्य कुन्दकुन्द देव की अमृतवाणी का रसास्वादन कर सकते हैं। किन्तु यह कृति मन्दबुद्धि जीवों की समझ के बाहर थी, जिसका कारण यह है कि ज्ञानमती माताजी द्वारा संकलित यह ‘‘कुन्दकुन्द मणिमाला’’ मूल प्राकृत में ही संकलित की गयी है, और प्राकृत भाषा हर कोई समझ नहीं सकता। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका रत्न श्री चंदनामती माताजी ने इस ‘कुन्दकुन्द मणिमाला’ का हिन्दी पद्यानुवाद करके वह कमी भी पूरी कर दी है और अब इस कृति के माध्यम से साधारण से साधारण व्यक्ति भी आचार्य कुन्दकुन्द देव की अमृतवाणी का रसास्वादन करके अपना आत्मकल्याण कर सकते हैं। आर्यिका ज्ञानमती माताजी की सुशिष्या आर्यिका प्रज्ञाश्रमणी श्री चंदनामती माताजी भी, आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की अनुगामिनी प्रकाण्ड विदुषी एवं कुशल लेखिका हैं, विशेषतौर पर इनकी काव्य कला भी अत्यन्त परिष्कृत है, क्योंकि आर्यिका गणिनी ज्ञानमती माताजी ने उनको बहुत कुशलता पूर्वक विद्वत्ता में तैयार किया है। अतः उनके द्वारा रचित यह हिन्दी पद्यानुवाद अत्यन्त सरस, सरल एवं सुबोध बन गया है। इस पद्यानुवाद में पूज्य प्रज्ञाश्रमणी माताजी ने सभी १०८ प्राकृत गाथाओं का निर्धारित क्रम में ही शम्भु छन्द में ऐसा पद्यानुवाद किया है, जिसे सामान्य जन के साथ-साथ विद्वत्वर्ग भी भली-भाँति गा सकता है, समझ सकता है और कण्ठस्थ भी कर सकता है, अतः यह पद्यानुवाद गेय भी है, जो लोग प्राकृत नहीं जानते हैं, उनके लिए तो यह कृति एक अनुपम वरदान सिद्ध होती है। इस पद्यानुवाद को यदि साहित्यिक दृष्टि से समीक्षा करके देखा जाय तो भी ज्ञात होता है कि इस रचना का भावपक्ष और कलापक्ष दोनों ही अत्यन्त समृद्ध एवं लोकोपयोगी है। पूरे पद्यानुवाद में माताजी ने कठिन शब्दों का प्रयोग प्रायः कहीं नहीं किया है। अतः यह इस रचना की सबसे बड़ी विशेषता है। साथ ही सरल, सुबोध होते हुए भी वह परिष्कृत एवं काव्यात्मक भी है, उसमें कहीं भी हल्कापन नहीं है। उदाहरणार्थ :— निम्न पद्यानुवाद को देखिये :—
दाणं पूजा मुक्खो श्रावक, के धर्म प्रमुख कहलाते हैं। क्योंकि इनसे विरहित मानव, श्रावक संज्ञा निंह पाते हैं।।
मुनि पदवी में हैं ध्यान और, अध्ययन प्रमुख जाने जाते। क्योंकि इनसे विरहित साधु, निंह मुनी अवस्था को पाते हैं।।२२।।
इसी प्रकार निम्नलिखित एक और पद्यानुवाद भी पठनीय है, उल्लेखनीय है, जिसमें माताजी ने समयसार की ४९वीं गाथा का पद्यानुवाद करते हुए उसमें आत्मा का व्यापक स्वरूप स्पष्ट किया हैं—
यह जीव रूप रस गन्ध रहित, अरु शब्द रहित शुद्धात्मा है। इन्द्रिय गोचर भी नहीं, चेतनागुण से सहित चिदात्मा है।।
उस आत्मा को निंह किसी लिंग से, ग्रहण किया जा सकता है। आकार रहित उस आत्मा को, शुद्धात्मा ही पा सकता है।।८७।।
आचार्य कुन्दकुन्द दिगम्बर आम्नाय के शिरोमणि आचार्य माने जाते हैं, यह तो सर्वविदित है। क्योंकि उन्होंने दिगम्बरत्व की रक्षा के लिए अनेक पाहुड लिखे हैं। आर्यिका चंदनामती माताजी ने भी दिगम्बरत्व की रक्षा करने वाली इस गाथा का (जो सूत्रपाहुड़ में पायी जाती हैं) पद्यानुवाद इस प्रकार प्रस्तुत करने में अद्भुत सफलता प्राप्त की है :—
यदि तीर्थंकर भी वस्त्रधरि हैं, मोक्ष प्राप्त निंह कर सकते। ऐसा जिनशासन में माना, निंह मिथ्या उनको कह सकते।।
बस एक नग्न मुद्रा से ही, मुक्ती का मारग मिल सकता। बाकी के सब उन्मार्गों से, भव भव का भ्रमण हुआ करता।।
यह पद्यानुवाद दिगम्बरत्व की मूल अवधारणा को तो स्पष्ट करता ही है, साथ में अपनी सरल सुबोध शैली के कारण भी सभी के मानस को आर्किषत करता है। कुन्दकुन्द मणिमाला पद्यानुवाद के सभी छन्दों में यतिमात्रा एवं तुक के काव्य-शास्त्रीय नियमों का भी पूर्ण पालन दृष्टिगोचर हमें होता है, जो पद्यानुवादकात्र्री की काव्य कुशलता को प्रकट करता है। ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या, वीरनिर्वाण सम्वत् २५१६ को पूर्ण हुई इस पावन काव्य रचना में आर्यिका चंदनामती माताजी ने प्रवाह पूर्ण शैली में क्लिष्टता से बचते हुए, परन्तु शुद्धता का निर्वाह करते हुए जो काव्य कौशल दिखाया है, वह उन्हें एक उच्च कोटि की कवियित्री के आसन पर विराजमान करता है। मोक्षपाहुड की निम्नलिखित गाथा का मूल एवं अनुवाद ध्यानपूर्वक पठनीय एवं दृष्टव्य है :—
सुहेण भाविदं णाणं, दुहे जादे विणस्सदि। तम्हा जहाबलं जोई, अप्पा दुक्खेहिं भावए।।
अर्थात :— सुख में भावित किया गया तत्वज्ञान दुःख के आने पर नष्ट हो जाता है, अतः योगी यथाशक्ति दुःखों में अपनी आत्मा की भावना करें। तात्पर्य यह है कि उपसर्ग और परीषहों के आने पर भी तत्वज्ञान काम आ सके और अन्तिम समाधि की सिद्धि भी हो सके ऐसा पुरुषार्थ श्रेष्ठ है। इस बात को चंदनामती माताजी ने अपने पद्यानुवाद के माध्यम से इस प्रकार र्विणत किया है—
सुखिया जीवन में किया गया, जो तत्वज्ञान सुख देता है। वह ही सुख थोड़ा दुःख आने पर, ज्ञान नष्ट कर देता है।।
इसलिए यथाशक्ति दुःखों में, आत्मा का चिन्तवन करें। जिससे कि परिषह आने पर भी, वे समाधि में रमण करें।।
माताजी ने यहाँ स्पष्ट किया है कि केवल सुख के क्षणों में किया गया ज्ञान ध्यान स्थायी नहीं है, इसलिए दुःखों के क्षणों में भी ज्ञान, ध्यान, तप लीन रहना श्रेयस्कर है क्योंकि परिषह आने पर भी पूर्व अभ्यास होने के कारण समाधि श्रेष्ठ होती है। ज्ञातव्य है कि कुन्दकुन्द देव ने स्पष्ट रूप से समयसार में बताया है कि बाह्म में नग्न-दिगम्बर होने पर भी जो अन्तर में मोह राग द्वेष से युक्त हों, उनमें भी गुरुत्व का निषेध समझना चाहिए। द्रव्य से (वस्तुतः) बाह्म में तो सभी प्राणी नग्न होते हैं। नारकी जीव और तिर्यंच जीव तो निरन्तर वस्त्रादि से रहित नग्न ही रहते हैं। मनुष्यादि भी कारण पाकर नग्न होते देखे जाते हैं, तो भी वे सब परिणामों से अशुद्ध हैं, अतः भावश्रमणपने (साधुत्व-भाव) को प्राप्त नहीं होते हैं। जिनेन्द्र भावना से रहित अर्थात् सम्यग्दर्शन से रहित नग्न-श्रमण सदा दुःख पाता है और वह बोधि अर्थात् रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग को चिकरकाल तक नहीं पाता है। महाकवि भूधरदास जी ने अपने जैन शतक में मत्तगयन्द सवैया के माध्यम से इस बात को स्पष्ट करते हुए लिखा है किः—
शीत सहैं तन धूप दहैं, तरुहेट रहैं करुणा उर आनैं। झूठ कहैं न अदत्त गहैं, वनिता न चहैं लव लोभ न जानैं।।
मोन वहैं पढ़िभेद लहैं, निंह नेम जहैं व्रतरीति पिछानैं। यौं निबहैं पर मोख नहीं, विन ज्ञान यहैं जिन वीर बखानैं।।
अतः भेदज्ञान एवं आत्मज्ञान के बिना सब अधूरा है। आचार्य कुन्दकुन्द मणिमाला का हिन्दी पद्यानुवाद पूजनीया आर्यिका श्री चंदनामती माताजी की एक सर्वोत्कृष्ट कृति है इसमें कोई संदेह नहीं है। साहित्य सृजन में माताजी का ज्ञान अति श्रेष्ठ है, तथा यह कृति गागर में सागर के समान है, पद्यसौंदर्य सर्वत्र देखने को मिलता है। इसकी रचना करके माताजी ने भव्य जीवों पर बड़ा उपकार किया है, एवं इसके द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द की वाणी का रसास्वादन करने का स्र्विणम अवसर विश्व के प्राणियों को उपलब्ध कराया है। अतः यह विश्व माताजी का सदैव ऋणी रहेगा। मेरी वीरप्रभु से प्रार्थना है कि माताजी शतायु से भी अधिक समय तक इस वसुन्धरा पर रहकर हम सबका कल्याण करें। मैं उन्हें शत शत बार प्रणाम करके अपने को धन्य समझता हूँ। उनका उपकार सदैव युगों युगों तक स्मरणीय रहेगा।