नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि, विक्रिया नोपपद्यते।
प्रागेव कारकाभाव:, क्व प्रमाणं क्व तत्फलम्।।३७।।
यदि सर्वथा सभी वस्तु हैं, नित्य कहो तब क्या होगा?
हलन, चलन परिणमनरूप, विक्रिया कार्य कैसे होगा।।
कर्त्तादि कारक के पहले, ही अभाव होगा निश्चित।
ज्ञाता बिन फिर ज्ञान कहाँ, अरु कहाँ ज्ञान का फल सुघटित ?।।३७।।
अन्वयार्थ-(नित्यत्वैकांतपक्षे अपि विक्रिया न उपपद्यते) यदि सर्वथा सभी वस्तुओं को नित्य ही माना जाये, तब तो कुछ भी क्रिया आदि परिवर्तन नहीं होंगे (प्रागेव कारकाभाव: क्व प्रमाणं क्व तत्फलं) क्योंकि नित्य में पहले ही कर्त्ता-कर्म आदि कारकों का अभाव है पुन: प्रमाण कहाँ रहेगा और जब प्रमाण नहीं होगा, तब उसका फल भी कहाँ रहेगा ?
कारिकार्थ-नित्यत्वैकांत पक्ष में भी परिणमन स्वरूप एवं परिस्पंदरूप विविध क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं क्योंकि कार्य की उत्पत्ति के पहले से ही कारक का अभाव है एवं कारक के अभाव में प्रमाण भी कहाँ रहेगा ? और उसका फल भी कहाँ रहेगा ?
भावार्थ-जब सभी जीवादि पदार्थ सर्वथा नित्य हैं, तब उनमें किसी भी प्रकार का परिणमन, एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त करना आदि नहीं बन सकता है। कथंचित् अनित्य मानने से ही जीव का जन्म, मरण, बचपन से युवावस्था आदि परिवर्तन घटित नहीं होंगे, सर्वथा में नहीं बनेंगे।
प्रमाणकारवैâर्व्यक्तं, व्यक्तं चेदिन्द्रियार्थवत्।
ते च नित्ये विकार्यं किं, साधोस्ते शासनाद्बहि:।।३८।।
इन्द्रिय द्वारा विषयों की है, अभिव्यक्ति जैसे वैसे।
कारक और प्रमाणों द्वारा, वे अव्यक्त प्रगट होते।।
ये प्रमाण कारक दोनों ही, नित्य सर्वथा सांख्य कहें।
भगवन्! तव शासन से बाहर, विधि क्रिया भी हो वैâसे?।।३८।।
अन्वयार्थ-(इन्द्रियार्थवत् प्रमाणकारवैâ: व्यक्तं व्यक्तं चेत्) जिस प्रकार से इन्द्रियाँ अपने विषय को व्यक्त करती हैं, उसी प्रकार से यदि प्रमाण और कारकों के द्वारा व्यक्त को अभिव्यक्त-प्रकट किया जाता है, तब तो (ते च नित्ये ते साधो: शासनाद्बहि: किं विकार्यं) आपके यहाँ वे प्रमाण और कारक सर्वथा नित्य हैं अत: हे साधो! आपके शासन से बहिर्भूत जनों के यहाँ व्यक्त को प्रकट करने रूप से भी विक्रिया वैâसे बन सकेगी ?
कारिकार्थ-जिस प्रकार इन्द्रियों के द्वारा अर्थ अपने-अपने विषय के पदार्थ अभिव्यक्त किये जाते हैं, उसी प्रकार प्रमाण और कारकों के द्वारा व्यक्त-महान, अहंकार आदि तत्त्व अभिव्यक्त किये जाते हैं। इस प्रकार से यदि सांख्य कहें तो उचित नहीं है। उनके यहाँ प्रमाण और कारक तो सर्वथा नित्य हैं, इसलिए हे भगवन्! आपके शासन से बहिर्भूत उन सांख्यों के यहाँ विकार्य-अभिव्यक्ति या अवस्था परिणमन वैâसे हो सकता है ? अर्थात् किसी भी प्रकार का अभिव्यक्ति- रूप भी परिणमन नहीं हो सकता है।
यदि सत्सर्वथा कार्यं पुंवन्नोत्पत्तुमर्हति।
परिणाम-प्रक्ऌप्तिश्च, नित्यत्वैकान्त-बाधिनी।।३९।।
विद्यमान यदि कार्य हमेशा, कारण क्यों माना जावे।
उत्पत्ती के योग्य न आत्मा, वैसे ही घट मत होवे।।
मिट्टी में घट सदा उपस्थित, चक्र दण्ड फिर क्या करते ?।
यदि परिणमन व्यवस्था है फिर, नित्यपक्ष बाधित उससे।।३९।।
अन्वयार्थ-(यदि कार्यं सर्वथा सत् पुंवत् उत्पत्तुं न अर्हति) यदि कार्य को सर्वथा विद्यमान रूप ही माना जाये, तो पुरुष के समान उत्पन नहीं हो सकता है (परिणामप्रक्ऌप्ति: च नित्यत्वैकांतबाधिनी) क्योंकि जो वस्तु में परिणमन-परिवर्तन की कल्पना है वह सर्वथा नित्यत्व एकांत को बाधित करने वाली है।
कारिकार्थ-यदि कार्य को सर्वथा सत् रूप माना जाये, तब तो पुरुष के समान वह उत्पन्न ही नहीं हो सकता है और यदि परिणमन की कल्पना करें, तब तो नित्यत्वैकांत में बाधा आ जाती है।
भावार्थ-सांख्य कार्य को सर्वथा विद्यमान रूप ही मानता है उसका कहना है कि मिट्टी में घड़ा, बीज में अंकुरे सदा ही विद्यमान हैं चक्र, कुंभकार एवं किसान मिट्टी, जल आदि कारण सामग्री केवल कार्य को प्रकट कर देती हैंं। वे कारण कलाप कार्य को उत्पन्न नहीं करते हैं।
इस पर जैनाचार्यों का कहना है कि यह कल्पना ठीक नहीं है। हेतु के दो भेद हैं-कारक हेतु और ज्ञापक हेतु। मिट्टी से घट बनाने में कुंभकार, चक्र, दण्ड आदि कारक हेतु हैं और कमरे में घट-पट आदि वस्तुएँ रखी हैं अंधेरा होने से दिखती नहीं है। तब दीपक आदि से उन्हें प्रकट कर देना, देख लेना होता है अत: दीपक आदि ज्ञापक हेतु हैं। संसार के बहुत से कार्य कारक हेतु से ही बनते हैं। यदि ऐसा न माने तो पदार्थों में जो परिवर्तन देखा जाता है, वह वैâसे बनेगा क्योंकि परिवर्तन होने से सर्वथा नित्य एकांत की व्यवस्था नहीं है।
पुण्य-पापक्रिया न स्यात्, प्रेत्यभाव: फलं कुत:।
बन्ध-मोक्षौ च तेषां न, येषां त्वं नाऽसि नायक:।।४०।।
नित्यैकांत पक्ष में शुभ अरु अशुभ क्रिया भी नहिं होवे।
नहिं होगा परलोकगमन फिर, सुख-दु:ख फल वैâसे होवे।।
कर्मबंध अरु मोक्ष व्यवस्था, भी उनके मत में नहिं है।
हे भगवन्! जिनके तुम स्वामी, नहीं उन्हें सब दुर्घट है।।४०।।
अन्वयार्थ-(येषां त्वं नायक: न असि) हे भगवन्! जिनके आप स्वामी नहीं हैं (तेषां पुण्यपापक्रिया न स्यात्) उनके यहाँ पुण्य और पाप क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं (प्रेत्यभावं फलं कुत: बंधमोक्षौ च न) पुण्य पाप के फलस्वरूप परलोकगमन भी वैâसे होगा? पुन: बंध और मोक्ष की व्यवस्था भी नहीं बन सकेगी।
कारिकार्थ-सर्वथा नित्य पक्ष में पुण्य, पापरूप क्रिया नहीं हो सकती है। उसके अभाव में परलोक एवं सुख-दु:खादि फल भी वैâसे हो सकते हैं ? हे भगवन्! जिनके आप नायक-स्वामी नहीं हैं उनके यहाँ बंध और मोक्ष भी नहीं हो सकते हैं।
क्षणिवैâकान्तपक्षेऽपि, प्रेत्यभावाद्यसंभव:।
प्रत्यभिज्ञाद्यभावान्न, कार्यारम्भ: कुत: फलम्।।४१।।
क्षणिवैâकांत पक्ष में भी, परलोकगमन वैâसे होगा?।
बंध-मोक्ष प्रक्रिया असंभव, है फिर धर्म कहाँ होगा?।।
क्योंकि प्रत्यभिज्ञान असंभव, है स्मृति अनुमान कहाँ?।
पुन: कार्य आरंभ न होगा, फल भी उसका रहा कहाँ?।।४१।।
अन्वयार्थ-(क्षणिवैâकांत पक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्य संभव:) यदि वस्तु को सर्वथा क्षणिक रूप ही माना जाये, तो भी परलोक गमन आदि असंभव ठहरते हैं (प्रत्यभिज्ञाद्यभावात् कार्यारंभ: न फलं कुत:) और प्रत्यभिज्ञान, स्मरण, अनुमान आदि ज्ञानों का अभाव हो जाने से कार्य का आरंभ भी नहीं हो सकेगा पुन: कार्य के अभाव में सुख-दु:खादि फल भी वैâसे बन सकेंगे ?
कारिकार्थ-क्षणिवैâकांत पक्ष में भी प्रेत्यभाव आदि असंभव हैं, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान आदि का अभाव होने से कार्यादि का आरंभ नहीं हो सकता है पुन: फल वैâसे हो सकेगा ?
भावार्थ-प्रत्येक वस्तु को यदि सर्वथा क्षण-क्षण में नष्ट होने वाली मान लिया जावे, तब तो आत्मा का अस्तित्व कुछ काल के लिए भी नहीं रह सकता है। पुन: पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष, परलोक-गमन आदि किसको होंगे और स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान आदि के न होने से कोई भी व्यक्ति कुछ भी कार्य वैâसे कर सकेगा एवं उसका फल सुख-दु:ख भी वैâसे भोगेगा? अर्थात् क्षणिवैâकांत में भी कुछ भी व्यवस्था नहीं बन सकती है।
यद्यसत्सर्वथा कार्यं, तन्माजनि ख-पुष्पवत्।
मोपादान-नियामोऽभून्माऽऽश्वास: कार्य-जन्मनि।।४२।।
यदि कार्य सर्वथा असत् है, गगन कुसुमवत् निंह होगा।
यदि असत् की हो उत्पत्ती, उपादान फिर क्या होगा?
जौ बीजों से जौ ही हों, यह उपादान कारण निष्फल।
पुन: कार्य के उत्पादन में, सब विश्वास रहा असफल।।४२।।
अन्वयार्थ-(यदि सर्वथा कार्यं असत् तत् खपुष्पवत् मा जनि) यदि कार्य को सर्वथा असत् ही माना जावे, तब तो वह कार्य आकाश पुष्पवत् उत्पन्न मत होवे (उपादाननियामो मा भूत् कार्यजन्मनि आश्वास: मा) असत् के उत्पाद में तो कार्य के उपादान का नियम भी नहीं बन सकता एवं कार्य की उत्पत्ति में कुछ भी विश्वास नहीं रहेगा।
कारिकार्थ-यदि कार्य को सर्वथा असत्रूप ही मानें, तब तो आकाश पुष्प के समान वह कभी उत्पन्न ही नहीं हो सकेगा एवं उसके उपादान कारण का नियम भी नहीं बन सकेगा तथा उसके अभाव में कार्य की उत्पत्ति का कोई विश्वास भी नहीं हो सकेगा।
भावार्थ-बौद्धों का कहना पूर्वोक्त सांख्य से सर्वथा उल्टा ही रहता है। सांख्य ने कहा था कि मिट्टी में घट सदा विद्यमान ही रहता है और बौद्ध कहता है कि मिट्टी के पिंड का सर्वथा नाश हो जाने के बाद घड़ा उत्पन्न होता है अत: घट कार्य सर्वथा अविद्यमान से ही बना है।
इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो जैसे आकाश के फूल नहीं हैं वैसे ही कारण के नहीं रहने से वे कार्य भी नहीं होंगे। यदि जबरदस्ती मान भी लेवोगे तो भी उस कार्य की उत्पत्ति में उपादान कारण का कुछ भी नियम नहीं रहेगा। कारण दो प्रकार के होते हैं एक निमित्तकारण, दूसरा उपादान कारण। घट के बनने में मिट्टी उपादान कारण है, वही घटरूप परिणत हो जाती है। दण्ड, चाक, कुंभार आदि निमित्त कारण हैं ये छूट जाते हैं। यदि उपादान कारण का सर्वथा विनाश करके घड़ा बना है, तब तो तन्तु से या बीज से भी घड़ा बन जावे, मिट्टी से घट, तंतु से वस्त्र और बीज से अंकुर ऐसा नियम नहीं बन सकेगा तथा कार्य की उत्पत्ति में भी विश्वास न रहने से कृषक गेहूँ के बीज को बोकर गेहूँ की उत्पत्ति में विश्वास नहीं कर पावेगा।
न हेतु-फल-भावादि-रन्यभावादनन्वयात्।
सन्तानान्तरवन्नैक:, सन्तानस्तद्वत: पृथक्।।४३।।
हेतुभाव फलभाव न होंगे, क्योंकि न अन्वय हैं उनमें।
भिन्न-भिन्न संतान सदृश, है अन्यभाव पूर्वोत्तर में।।
पूर्वोत्तर क्षण में इक ही, संतान कहो तो ठीक नहीं।
क्योंकि निज वस्तू से इक, संतान पृथक् है कभी नहीं।।४३।।
अन्वयार्थ-(हेतुफलभावादि: न अन्यभावात् सन्तानान्तरवत् अनन्वयात्) सर्वथा क्षणिक एकांत में कार्य कारण भाव आदि नहीं बन सकते हैं क्योंकि वे परस्पर में भिन्न होते हैं उनमें भिन्न सन्तान के समान अन्वय नहीं पाया जाता है (एक: संतान: तद्वत: पृथक् न) जो एक संतान होता है, वह संतानी से भिन्न नहीं होता है।
कारिकार्थ-इस क्षणिक एकांत पक्ष में भिन्न संतान के समान कारण-कार्यभाव आदि कुछ भी नहीं हो सकते हैं, क्योंकि इनमें अन्वय के न होने से भिन्नपना है। संतानी से पृथक् कोई एक संतान नहीं है।
भावार्थ-बौद्धो के यहाँ मृत्पिंड और घट में कारण कार्य भाव नहीं बनता है क्योंकि उनके यहाँ दोनों ही भिन्न हैं। दोनों में अन्वय रूप द्रव्य एक नहीं है। हम जैनों ने तो मृत्पिंड और घट दोनों में अन्वय रूप द्रव्य एक माना है ये लोग नहीं मानते हैं। अतएव जैसे देवदत्त और जिनदत्त भिन्न-भिन्न हैं, उनमें अन्वय भाव नहीं है। वैसे ही देवदत्त की बाल्यावस्था, युवावस्था रूप पर्यायें भी भिन्न ही हैं क्योंकि इन पर्यायों में भी बौद्ध अन्वय रूप एक आत्मा नहीं मानता है। अत: संतानी से भिन्न एक संतान परमार्थभूत कोई वस्तु नहीं है।
अन्येष्वनन्यशब्दोऽयं, संवृत्तिर्न मृषा कथम्।
मुख्यार्थ: संवृत्तिर्न स्याद्, विना मुख्यान्न संवृति:।।४४।।
भिन्न चित्तक्षण में जो है, संतानरूप से इक आत्मा।
यह संवृति से कथन यदि तव, संवृति क्यों नहिं हो मिथ्या।।
यदि संतति को मुख्य कहो तो, मुख्य अर्थ संवृत्ति नहिं है।
यदि संवृति है पुन: मुख्य के, बिन संवृत्ति नहीं घटती है।।४४।।
अन्वयार्थ-(अन्येषु अनन्यशब्द: अयं संवृति: मृषा कथं न) यदि कहा जाये कि भिन्न-भिन्न चित्तक्षणों में जो अभिन्न एक आत्मा कहा जाता है, वह संवृति से कहा जाता है तब यह संवृति काल्पनिक होने से मिथ्या क्यों नहीं है। (मुख्यार्थ: संवृति: न स्यात्) क्योंकि संवृति मुख्य अर्थ को कहने वाली नहीं है (मुख्यात् बिना संवृति: न) और मुख्य अर्थ के बिना संवृति हो नहीं सकती है।
कारिकार्थ-अन्य भिन्न-भिन्न क्षणों में अनन्य-ये क्षण अभिन्न है ऐसा कहना यह संवृति है तो यह असत्य क्यों नहीं होगी ? क्योंकि संवृत्ति मुख्य अर्थ को नहीं कह सकती है और मुख्य के बिना भी संवृति हो नहीं सकती है।
भावार्थ-कार्य-कारण आदि भिन्न-भिन्न लक्षणों में जो एकता का व्यवहार है, वह संवृति से कहा जाता है और बौद्धों की यह संवृति काल्पनिक है ऐसा स्वयं उन्होंने ही संवृति का लक्षण किया है, तब यह संवृति मुख्य अर्थ को कहने वाली न होने से असत्य अर्थ को ही कहती है और यह नियम है कि मुख्य अर्थ के बिना काल्पनिक अर्थ भी असंभव है, जैसे अग्नि पदार्थ मुख्य है तभी क्रोधी बालक में अग्नि की कल्पना की जाती है अन्यथा नहीं।
चतुष्कोटेर्विकल्पस्य, सर्वान्तेषूक्त्ययोगत:।
तत्त्वाऽन्यत्वमवाच्यं चेत्तयो: संतानतद्वतो:।।४५।।
सब धर्मों में चार कोटि से, भेद कहे नहिं जा सकते।
सत् या असत् उभय-अनुभय, इन चारों में ही दोष दिखे।।
इसीलिए संतान और संतानी तत्त्व ‘अवाच्य’ कहे।
क्योंकि ये दोनों हि एक या, भिन्न नहीं यह बौद्ध कहें।।
अन्वयार्थ–(चेत् सर्वान्तेषु चतुष्कोटे: विकल्पस्य उक्त्ययोगत:) यदि यह कहा जाये कि सभी धर्मों में चतुष्कोटि विकल्प के कहने का अभाव है (तयो: संतानतद्वतो: तत्त्वान्यत्वं अवाच्यं) अत: उन संतान और संतान का भी तत्त्व-एकत्वधर्म और अन्यत्वधर्म अवाच्य ठहरता है। बौद्ध के कथन का आचार्य आगे की कारिका द्वारा उत्तर दे रहे हैं।
कारिकार्थ-सर्वांत-समस्त धर्मों में चार कोटि रूप विकल्प के कहने का अभाव होने से उन संतान और संतानी के तत्त्व-एकत्व और अन्यत्व-अनेकत्व धर्म अवाच्य हैं यदि बौद्ध ऐसा कहते है, तब तो आचार्य उसका स्पष्टीकरण करते हुए आगे कारिका में कहेंगे।
अवक्तव्यचतुष्कोटि-विकल्पोऽपि न कथ्यताम्।
असर्वान्तमवस्तु स्या-दविशेष्य-विशेषणम्।।४६।।
तब तो चतुष्कोटि का विकल्प, अवक्तव्य है इस विध भी।
नहीं कथन हो सकता फिर सब, वस्तु विकल्पातीत हुई।।
सब धर्मों से विरहित वस्तू, सदा अवस्तूरूप हुई।
चूँकि विशेष्य-विशेषण भी, उसमें हो सकता कभी नहीं।।४६।।
अन्वयार्थ-(अवक्तव्यचतुष्कोटिविकल्प: अपि न कथ्यताम्) तब तो चार कोटि का विकल्प ‘अवक्तव्य’ है, यह भी नहीं कहना चाहिए (असर्वांतं अवस्तु अविशेष्यविशेषणं स्यात्) क्योंकि जो वस्तु सभी धर्मों से रहित है वह अवस्तु है और उसमें विशेषण-विशेष्य भाव भी नहीं बन सकता है।
कारिकार्थ-‘‘चतुष्कोटि विकल्प अवक्तव्य है’’ ऐसा भी नहीं कहा जा सकेगा, पुन: वे जीवादि पदार्थ असर्वांत-सभी धर्मों से रहित होते हुए अवस्तुरूप ही हो जायेंगे।
द्रव्याद्यन्तरभावेन, निषेध: संज्ञिन: सत:।
असद्भेदो न भावस्तु, स्थानं विधि-निषेधयो:।।४७।।
संज्ञी स्वद्रव्यादि चतुष्टय, से सत्रूप प्रसिद्ध रहे।
उसका परद्रव्यादि चतुष्टय, से ही सदा निषेध कहें।।
असत्रूप का निषेध वैâसे, हो सकता है कहो सही।
चूँकि सर्वथा असत् पदारथ, विधि-निषेध का विषय नहीं।।४७।।
अन्वयार्थ-(संज्ञिन: सत: द्रव्याद्यंतर भावेन निषेध:) जो संज्ञी और सत् है उसी का परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से निषेध किया जाता है (असद्भेदो भावस्तु विधिनिषेधयो: स्थानं न) क्योंकि असत् रूप पदार्थ विधि और निषेध का स्थान नहीं हो सकता है।
अर्थात् जो वस्तु अस्ति रूप है, उसी में अस्ति-नास्ति धर्म की कल्पना शक्य है, जो वस्तु है ही नहीं उसमें नास्ति आदि धर्म वैâसे रहेंगे। यदि कहो आकाश का पुष्प नहीं है अत: उसमें ‘नास्ति’ शब्द का व्यवहार होता है, तो बात भी ठीक नहीं है क्योंकि स्वयं स्वामीजी ने अन्यत्र भी कहा है कि ‘खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धं’ आकाश में पुष्प नाम की चीज है, अतएव उनका निषेध किया जाता है।
कारिकार्थ-सत्रूप संज्ञी पदार्थ का ही द्रव्यांतर आदि की अपेक्षा से निषेध किया जाता है। क्योंकि असत् रूप वस्तु विधि-निषेध का स्थान ही नहीं हो सकती है।
अवस्त्वनभिलाप्यं स्यात्सर्वान्तै: परिवर्जितम्।
वस्त्वेवावस्तुतां याति, प्रक्रियाया विपर्ययात्।।४८।।
सब धर्मों से रहित वस्तु में, सदा अवस्तू ही होंगी।
वे तो ‘अवक्तव्य’ कोटि में, वाच्य वचन से नहिं होंगी।।
वस्तू ही प्रक्रिया पलटने, से अवस्तु बन जाती है।
परद्रव्यादि चतुष्टय से ही, वस्तु अवस्तु कहाती है।।४८।।
अन्वयार्थ-(सर्वान्तै: परिवर्जितं अवस्तु अनभिलाप्यं स्यात्) जो सभी धर्मों से रहित है वही अवस्तु है और वही अवक्तव्य है (प्रक्रियाया विपर्ययात् वस्तु एव अवस्तुतां याति) क्योंकि प्रक्रिया के पलट देने से वस्तु ही अवस्तुपने को प्राप्त हो जाती है।
कारिकार्थ-जो समस्त धर्मों से रहित है वह अवस्तु है और वही अवाच्य है। क्योंकि प्रक्रिया के विपर्यय से-स्वरूपादि से विपरीत पररूपादि से वस्तु ही अवस्तु रूप हो जाती है।
भावार्थ-जब वस्तु में परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव चतुष्टय की अपेक्षा करते हैं, तभी वह वस्तु कथंचित् अवस्तु कहलाती है न कि सभी धर्मों से रहित अवस्तु।
सर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुन:।
संवृत्तिश्चेन्मृषैवेषा परमार्थ-विपर्ययात्।।४९।।
यदि सब धर्म अवाच्य रहेंगे, पुन: कथन उनका कैसे?
धर्मदेशना, स्वपर पक्ष, साधन दूषण वाणी कैसे?
यदी वचन संवृतीरूप, फिर मिथ्या ही वे सिद्ध हुए।
इन परमार्थ विरुद्ध वचन से, नहिं सत्यार्थ बोध होवे।।४९।।
अन्वयार्थ-(चेत् सर्वांता अवक्तव्या: पुन: तेषां वचनं िंक) यदि सभी धर्म अवक्तव्य हैं, तब तो उनका धर्म देशना आदि कथन भी वैâसे होगा ? (संवृति: चेत् परमार्थविपर्ययात् एषा मृषा एव) यदि कहो कि अवक्तव्य का कथन संवृति रूप है, तब तो यह संवृति परमार्थ से विपरीत होने से असत्य ही है।
कारिकार्थ-यदि सभी धर्म अवक्तव्य ही हैं पुन: आपके यहाँ उनका कथन भी वैâसे हो सकेगा ? और यदि आप कहें कि उनका कथन संवृति रूप है तब तो परमार्थ से विपरीत होने से यह संवृति तो असत्य ही है।
अशक्यत्वादवाच्यं किमभावात्किमबोधत:।
आद्यन्तोक्ति-द्वयं न स्यात् िंक व्याजेनोच्यतां स्फुटम्।।५०।।
कहो बौद्ध जी! तत्त्व आपका, ‘अवक्तव्य’ किस विध से है?।
क्या अशक्ति से या अभाव से या अबोध से नहिं कहते।।
इन तीनों में आदि-अंत के, कारण शक्य नहीं दिखते।
अत: बहाना करने से क्या, साफ कहो कि अभाव है।।५०।।
अन्वयार्थ–(किं अशक्यत्वात् अवाच्यं अभावात् किं अबोधत:) क्या वस्तु का कहना शक्य न होने से वह अवाच्य है अथवा उसका अभाव है या उसका ज्ञान नहीं है ? (अद्यान्तोक्तिद्वयं न स्यात् व्याजेन किं स्फुटं उच्यताम्) इन तीनों प्रश्नों में से आदि के और अंत के हेतु तो हो नहीं सकते हैं अत: बहानेबाजी से क्या ? स्पष्ट कहिए कि वस्तु का अभाव है।
कारिकार्थ-आप बौद्धों के यहाँ तत्व अवाच्य क्यों है ? क्या अशक्य होने से अवाच्य है या उसका अभाव होने से अवाच्य है अथवा उसका ज्ञान न होने से अवाच्य है ? इनमें से आदि और अन्त रूप दो पक्ष तो बन नहीं सकते। इसलिए बहानेबाजी से क्या ? स्पष्ट कहिए कि तत्त्व का अभाव है।
हिनस्त्यनभिसंधातृ, न हिनस्त्यभिसंधिमत्।
बध्यते तद्द्वयापेतं, चित्तं बद्धं न मुच्यते।।५१।।
हिंसा के अभिप्राय रहित, हिंसा करता कोई निश्चित।
िंहसा के अभिप्राय सहित, नहिं हिंसा कर सकता िंकचित्।।
इन दोनों से रहित बंधा है, बद्ध जीव नहीं छूटेगा।
क्षणिक निरन्वय नाश पक्ष में, अन्य जीव फल भोगेगा।।५१।।
अन्वयार्थ-(अनभिसंधातृ हिनस्ति अनभिसंधिमत् न हिनस्ति) क्षणिक एकांत में हिंसा के अभिप्राय से रहित जीव हिंसा करता है और हिंसा के अभिप्राय से सहित आत्मा हिंसा नहीं कर सकती है (तद्द्वयापेक्षं बध्यते बद्धं चित्तं न मुच्यते) अभिप्राय और अनभिप्राय इन दोनों अवस्थाओं से रहित अन्य ही आत्मा बंध को प्राप्त होती है और बंधी हुई आत्मा नहीं छूटती है।
कारिकार्थ-हिंसा के अभिप्राय से सहित चित्त तो हिंसक नहीं होगा तथा अभिप्राय से रहित चित्त हिंसा करे एवं हिंसा के अभिप्राय से सहित और रहित से भिन्न तीसरा ही चित्त बंध को प्राप्त होगा तथा जो बंधा है, उससे भिन्न चौथा ही चित्त बंध से युक्त हो सकेगा अर्थात् आप बौद्धों के क्षणिवैâकांत में यह व्यवस्था हो जायेगी।
भावार्थ-बौद्ध के क्षणिक एकांत मत में जो हिंसा का अभिप्राय करता है, वह द्वितीय क्षण में समाप्त हो गया और दूसरा कोई आत्मा आ गया, जो हिंसा कर डालता है पुन: द्वितीय क्षण में वह समाप्त हो जाता है, तब तीसरा ही इस हिंसा के पाप से बंध जाता है और वह समाप्त हो जाता है, इत्यादि बाधाएँ आती हैं।
अहेतुकत्वान्नाशस्य, हिंसाहेतुर्न हिंसक:।
चित्त-सन्तति-नाशश्च, मोक्षो नाष्टांग-हेतुक:।।५२।।
यदी नाश निर्हेतुक है, हिंसक हिंसा में हेतु नहीं।
तथा चित्तसंतति विनाश से, मोक्ष कहा निर्हेतु सही।।
पुन: आप अष्टांग निमित्तक, मोक्ष कहा सो वैâसे हो?
यदी नाश निर्हेतुक है तब मोक्ष सहेतुक वैâसे हो?।।५२।।
अन्वयार्थ-(नाशस्य अहेतुकत्वात् हिंसाहेतु: हिंसक: न) नाश को अहेतुक मानने से हिंसक हिंसा में हेतु नहीं हो सकता है (चित्तसंततिनाश: मोक्ष: च अष्टांगहेतुक: न) यदि चित्तसंतति के नाशरूप मोक्ष होता है, तब वह मोक्ष अष्टांग हेतुक नहीं बन सकता है।
कारिकार्थ-यदि आप बौद्ध नाश को अहेतुक मानते हैं तो हिंसा के हेतु को हिंसक नहीं मानना चाहिए और चित्तसंतति के निरोधरूप मोक्ष को भी अष्टांग हेतुक नहीं कहना चाहिए।
भावार्थ-बौद्धों ने नाश को निष्कारणक माना है और चित्त संतति के नाश को मोक्ष कहा है पुन: उस मोक्ष को सम्यक्त्व, संज्ञा, संज्ञी, वाक्कायकर्म, अंतर्व्यायाम, अजीव, स्मृति और समाधि इन आठ कारणों से होना बताया है। उधर नाश को अहेतुक कह दिया है पुन: चित्तसंतति के नाशरूप मोक्ष को अष्टांग हेतुक कह दिया, यह बात परस्पर विरुद्ध हो गई है।
विरूपकार्यारम्भाय, यदि हेतुसमागम:।
आश्रयिभ्यामनन्योऽसा-वविशेषादयुक्तवत्।।५३।।
कार्य विसदृश करने हेतू, हेतु समागम यदी कहो।
तब वह हेतू नाश और उत्पाद उभय में निमित अहो।।
आश्रयभूत अत: हेतू, इन दोनों से अभिन्न रहता।
इक ही मुद्गर घट का नाश, कपाल उत्पाद उभय करता।।५३।।
अन्वयार्थ-(यदि विरूपकार्यारम्भाय हेतु समागम:) यदि विसदृश कार्य को उत्पन्न करने के लिए हेतु का समागम माना जावे (असौ आश्रयिभ्यां अनन्य: अविशेषात् अयुक्तवत्) तो यह हेतु नाश तथा उत्पाद दोनों का कारण होने से अपने इन दोनों आश्रयियों से भिन्न नहीं है, क्योंकि उन नाश, उत्पाद रूप दोनों आश्रयीभूतों में परस्पर में भेद नहीं है। जैसे अपृथक् सिद्ध पदार्थों का कारण अपने आश्रयियों से भिन्न नहीं होता है।
कारिकार्थ-यदि आप विसदृश कार्य को आरंभ करने के लिए हेतु का समागम स्वीकार करते हैं। तब तो यह हेतु का व्यापार अपने आश्रयी-नाश और उत्पाद से अभिन्न ही है क्योंकि उन दोनों में परस्पर में कोई भेद नहीं है। जैसे- अयुक्त-अपृथक् सिद्ध पदार्थों का कारण अपने आश्रयियों से भिन्न नहीं होता है।।
भावार्थ-बौद्ध का यह कहना है कि नाश तो निर्हेतुक है किन्तु उससे जो कार्य होता है, वह सहेतुक है। जैसे किसी ने घड़े पर मुद्गर मारा तो घड़े का फूटना मुद्गर हेतुक नहीं है, किन्तु जो कपाल बन गये हैं वे मुद्गर हेतुक हैं क्योंकि वे विसदृश कार्य हैं किन्तु जैनाचार्यों का कहना है कि एक मुद्गर ही घड़े के फूटने में और कपाल के उत्पन्न होने में दोनों में हेतु है अत: एक ही हेतु नाश और उत्पाद दोनों को करता है, वह बात ही स्पष्ट सिद्ध है।
स्कन्धा: सन्ततयश्चैव, संवृतित्वादसंस्कृता:।
स्थित्युत्पत्तिव्ययास्तेषां, न स्यु: खर-विषाणवत्।।५४।।
बौद्धों की स्कंध संततियाँ, कही गई हैं असंस्कृतरूप।
क्योंकी वे संवृत्तिरूप हैं, नहिं परमार्थभूत सत्रूप।।
रूप, वेदना, विज्ञान अरु संज्ञा, संस्कार पांच स्कंध।
व्यय, उत्पाद, ध्रौव्य उनमें नहिं, घट सकता जैसे खरशृंग।।५४।।
अन्वयार्थ-(स्कंधा: संततयश्चैव असंस्कृता: संवृतित्वात्) बौद्धों के यहाँ संततियाँ अकार्य रूप हैं क्योंकि वे संवृति रूप हैं (तेषां स्थित्युत्पत्तिव्यया: खरविषाणवत् न स्यु:) अत: उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य नहीं हो सकते हैं जैसे कि गधे के सींग में उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का अभाव है।
कारिकार्थ-स्कंधों की परम्परा असंस्कृत ही है। क्योंकि वह संवृत्ति रूप है, इसलिए खर विषाण के समान इन स्कंधों में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य भी नहीं हो सकता है।
भावार्थ-बौद्धों ने हमेशा ही प्रत्येक परमाणु-परमाणु को पृथक्-पृथक् आपस में स्पर्श रहित माना है अत: उसके यहाँ स्कंध परम्परा असत्य ही है पुन: वह कपाल आदि कार्यरूप वैâसे हो सकेगी और जब स्कंध वास्तविक नहीं है, तब उनमें उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य व्यवस्था असंभव है। बौद्ध के यहाँ स्कंध के पाँच भेद हैं-रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा, संस्कार। इनकी उत्पत्ति आदि वैâसे बनेगी, क्योंकि ये कार्यभूत नहीं हैं।
विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम्।
अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते।।५५।।
नित्य अनित्य उभय धर्मों का, मेल सदैव विरोधी है।
स्याद्वाद नय के विद्वेषी चूँकि सदा निरपेक्ष कहें।।
इन दोनों का ‘अवक्तव्य’ भी, यदि एकांत विधी से है।
तब तो अवक्तव्य यह कहना, सचमुच स्ववचन बाधित है।।५५।।
अन्वयार्थ-(स्याद्वादन्यायविद्विषां उभयैकात्म्यं न विरोधात्) स्याद्वादन्याय के विद्वेषियों के यहाँ नित्य क्षणिक का उभय एकात्म्य भी असंभव है, क्योंकि परस्पर में विरोध आता है (अवाच्यतैकांते अपि अवाच्यं इति उक्ति: न युज्यते) और इन दोनों का अवाच्य एकांत माना जावे, तो ‘तत्त्व अवाच्य है’ यह कथन भी युक्त नहीं है।
कारिकार्थ-स्याद्वादनीति से द्वेष रखने वालों के यहाँ नित्यत्व, अनित्यत्व रूप उभयैकांत मानना भी सिद्ध नहीं है क्योंकि निरपेक्ष उभयैकांत में परस्पर में विरोध है तथा यदि तत्त्व को सर्वथा अवाच्यरूप ही स्वीकार करें तो भी ‘‘तत्त्व अवाच्य है’’ यह कथन भी युक्त नहीं हो सकता है।
नित्यं तत्प्रत्यभिज्ञानान्नाकस्मात्तदविच्छिदा।
क्षणिकं कालभेदात्ते बुद्ध्यसंचरदोषत:।।५६।।
वस्तु सभी हैं नित्य कथंचित् चूँकि उनका प्रत्यभिज्ञान।
नहिं होता यह अकस्मात् अविच्छिन्नरूप से अनुभवज्ञान।।
वस्तु कथंचित् अनित्य भी है, चूँकि काल से भेद दिखें।
भगवन्! यदि सर्वथा कहें तब ज्ञान असंचर दोष दिखे।।५६।।
अन्वयार्थ-(ते तत् नित्यं प्रत्यभिज्ञानात् अकस्मात् न तत् अविच्छिदा) हे भगवन्! आपके मत में वह वस्तु नित्य है क्योंकि उसका प्रत्यभिज्ञान पाया जाता है और यह प्रत्यभिज्ञान आकस्मिक नहीं है क्योंकि वह अविच्छिन्न रूप से अनुभव में आता है (क्षणिकं कालभेदात् बुद्ध्यसंचरदोषत:) वही वस्तु क्षणिक भी है क्योंकि काल के भेद से परिणमन पाया जाता है। यदि ऐसा न मानें, तो ज्ञान का संचार नहीं होना यह दोष्ा आ जावेगा।
कारिकार्थ-हे भगवन्! आपके यहाँ सभी वस्तु कथंचित् नित्य हैं क्योंकि प्रत्यभिज्ञान से जानी जाती है। यह प्रत्यभिज्ञान आकस्मिक-निर्विषयक भी नहीं है। क्योंकि उसका अविच्छेद रूप से अनुभव होता है तथा वे ही जीवादि वस्तुएँ काल भेद की अपेक्षा से कथंचित् क्षणिक भी हैं अन्यथा बुद्धि का वहाँ संचरण नहीं हो सकता है।
भावार्थ–सभी वस्तुएँ कथंचित् नित्य हैं क्योंकि ‘यह वही है’ ऐसा जोड़ रूप ज्ञान होता है। यह ज्ञान अकस्मात् तो हो नहीं सकता है प्रत्युत अविच्छिन्न परम्परा से अनुभव में आ रहा है। दस वर्ष पहले किसी को देखा है यदि वह सामने आ गया, तब दस वर्ष पहले की याद होकर ‘यह वही है’ ज्ञान देखा जाता है। यदि ज्ञान एक आत्मा के अन्वयरूप से विच्छेद रहित न हो, तो ऐसा वैâसे होगा ? उसी प्रकार वे ही सभी वस्तुएँ कथंचित् अनित्य हैं क्योंकि काल के निमित्त से परिणमन हो रहा है। एक ही पर्याय में बचपन का नाश, जवानी का उत्पाद अथवा देवपर्याय का नाश, मनुष्य पर्याय का उत्पाद आदि देखा जाता है। यदि सभी वस्तुओं को कथंचित् नित्य और अनित्य न मानों तो ज्ञान में जो संचरण-परिणमन दिखता है, वह नहीं होना चाहिए।
न सामान्यात्मनोदेति, न व्येति व्यक्तमन्वयात्।
व्येत्युदेति विशेषात्ते, सहैकत्रोदयादि सत्।।५७।।
भगवन्! तव मत में द्रव्यार्थिक नय से वस्तू नहिं उपजे।
नहिं विनशे भी कोई वस्तू, क्योंकि अन्वय प्रगट रहे।।
वही वस्तु पर्यायदृष्टि से, विनशे उपजे क्षण-क्षण में।
एक वस्तु में युगपत् व्यय, उत्पाद घ्रौव्य होना सत् है।।५७।।
अन्वयार्थ-(ते सामान्यात्मना न उदेति न व्येति व्यक्तं अन्वयात्) हे भगवन्! आपके यहाँ सभी वस्तुएँ सामान्य रूप से न उत्पन्न होती हैं न विनष्ट ही होती हैं क्योंकि प्रगटरूप से अन्वयरूप हैं (विशेषात् व्येति उदेति एकत्र सह उदयादि सत्) और विशेष-पर्याय रूप से वे ही वस्तुएँ नष्ट होती हैं एवं उत्पन्न होती हैं क्योंकि एक ही वस्तु में एक साथ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का होना ‘सत्’ कहलाता है।
कारिकार्थ-हे भगवन्! आपके अनेकांत शासन में सभी जीवादि वस्तु सामान्य रूप से न तो उत्पन्न होती हैं, न विनष्ट होती हैं। क्योंकि उनमें सामान्य रूप अन्वय स्पष्टतया देखा जाता है। किन्तु विशेष की अपेक्षा से वही उत्पन्न होती और विनष्ट होती है एवं युगपत् एक वस्तु में उत्पादादि तीनों ही पाये जाते हैं, क्योंकि ‘सत्’ उत्पादादि त्रयात्मक ही है।
भावार्थ-‘‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’’ इस प्रकार से सत् का लक्षण माना गया है और वही सत् द्रव्य का लक्षण है ‘‘सद्द्रव्यलक्षणं’’ इस सूत्र से स्पष्ट है। द्रव्य का यह लक्षण प्रत्येक द्रव्य में प्रतिसमय पाया जाता है।
कार्योत्पाद: क्षयो हेतोर्नियमाल्लक्षणात्पृथक्।
न तौ जात्याद्यवस्थाना-दनपेक्षा: खपुष्पवत्।।५८।।
उपादान कारण का जो क्षय, वही कार्य का है उत्पाद।
एक हेतु है दोनों में, फिर भी लक्षण से भिन्न विभाग।।
जाती आदि अवस्थित कारण, से दोनों में भेद नहीं।
उत्पादादि यदी अनपेक्षित, गगनपुष्पवत् असत् सही।।५८।।
अन्वयार्थ-(हेतो: क्षय: नियमात् कार्योत्पाद: लक्षणात् पृथक्) जो उपादान कारणभूत हेतु का नाश है, वही नियम से कार्य का उत्पाद है एवं लक्षण से दोनों में भिन्नता है (न तौ जात्याद्यवस्थानात् अनपेक्षा: खपुष्पवत्) किन्तु जाति अवस्थान के कारण उत्पाद, व्यय भिन्न नहीं है। परस्पर की अपेक्षा से रहित उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य आकाश पुष्प के समान असत् ही हैं।
कारिकार्थ-कार्य का उत्पाद ही एक हेतु नियम से अपने मृत्पिंड रूप उपादान कारण का विनाश है। उत्पाद और विनाश ये दोनों अपने-अपने लक्षण से भिन्न-भिन्न हैं तथा जाति सामान्य आदि के अवस्थान से ये दोनों भिन्न नहीं है। परस्पर में अनपेक्ष उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य ये तीनों ही खपुष्प के समान हैं।
भावार्थ-मृत्पिंड रूप उपादान कारण का नाश होकर ही घटरूप कार्य उत्पन्न होता है, ऐसा नियम देखा जाता है। यदि उत्पाद व्यय सर्वथा भिन्न ही हों, तो व्यवस्था नहीं बन सकती है। हाँ! दोनों का लक्षण भिन्न-भिन्न अवश्य है। उपादान कारण का पूर्व के आकार से नष्ट हो जाना व्यय है, उत्तराकार से प्रगट हो जाना उत्पाद है एवं दोनों अवस्थाओं में वस्तु का अस्तित्व विद्यमान रहना ध्रौव्य है। ये कथंचित् सापेक्ष होकर ही रहते हैं।
घट-मौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम्।।५९।।
घट का इच्छुक घड़ा नाश से, करता शोक सहेतुक है।
मुकुट अर्थि तो मुकुटोत्पाद से, हर्षित हुआ सहेतुक है।।
स्वर्णार्थी इन उभय अवस्था, में मध्यस्थ स्वभाव धरे।
व्यय-उत्पाद-ध्रौव्य के ये, दृष्टांत सहेतुक कहे खरे।।५९।।
अन्वयार्थ-(अयं जन: घटमौलिसुवर्णार्थी) जो मनुष्य घट, मुकुट या स्वर्ण के इच्छुक हैं वे क्रम से (नाशोत्पादस्थितिषु सहेतुकम् शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं याति) घट के नाश में सकारणक शोक को, मुकुट के उत्पाद में प्रमोद को एवं दोनों अवस्थाओं में सुवर्ण के रहने से सुवर्ण इच्छुक माध्यस्थ भाव को प्राप्त होते हैं।
कारिकार्थ-घट, मौलि एवं सुवर्ण के इच्छुक ये तीन व्यक्ति नाश, उत्पाद एवं स्थिति में सहेतुक ही शोक, प्रमोद एवं माध्यस्थ भाव को प्राप्त होते हैं।
भावार्थ-यदि कोई सुवर्ण के घट को तुड़वाकर उससे मुकुट बनवा रहा है, तो घट का इच्छुक जन शोक को प्राप्त हो जाता है और उसका शोक सकारणक होता है। जो मुकुट चाहता था, वह मनुष्य मुकुट पाकर प्रसन्न हो जाता है एवं यदि कोई सुवर्ण मात्र का इच्छुक था, तो वह दोनों ही अवस्थाओं में शोक-हर्ष न करके मध्यस्थ भाव से उसे ले लेता है। नाश, उत्पाद और ध्रौव्य इन तीनों ही अवस्थाओं में मनुष्य की प्रवृत्ति विषाद आदिरूप हो रही है, वह सहेतुक है, अहेतुक नहीं है।
पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोत्ति दधिव्रत:।
अगोरसव्रतो नोभे, तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम्।।६०।।
क्षीर पिऊँगा यह व्रत जिसके, दही नहीं वह खाता है।
दधिव्रत वाला क्षीर न पीता, चूँकि क्षीर को त्यागा है।।
गोरस त्यागी उभय न लेता, चूँकि द्रव्य पर दृष्टि धरे।
इससे वस्तू तत्त्व त्रयात्मक, सह ध्रुव व्यय उत्पाद धरें।।६०।।
अन्वयार्थ-(पयोव्रतो न दधि अत्ति दधिव्रत: न पय: अत्ति) जिसको दूध पीने का व्रत है वह दही नहीं खाता है, दधि के नियम वाला दूध को नहीं पीता है (अगोरसव्रतो न उभे तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकं) और जिसको गो रस का त्याग है, वह दूध-दही दोनों को नहीं पीता है, इसीलिए वस्तु तत्त्व त्रयात्मक है।
कारिकार्थ-जिसका दूध ही लेने का नियम है वह दधि को नहीं खाता है और जिसको दधि को लेने का नियम है वह दूध नहीं पीता है और जिसका गोरस का ही त्याग है वह दूध और दही दोनों को ही नहीं खाता है इसलिए तत्त्व भी त्रयात्मक है।
।।इति तृतीय: परिच्छेद:।।