-दोहा-
सब कर्मों में एक ही, मोह कर्म बलवान।
उसके नाशन हेतु मैं, पूजूँ भक्ति प्रधान।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
-सोरठा-
‘महामुनी’ प्रभु आप, मुनियों में उत्तम कहे।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत ही सुखसंपदा।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामुनिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मुनि हो मौन धरंत प्रभू ‘महामौनी’ तुम्हीं।
नाम मंत्र पूजंत, रोग शोक संकट टले।।२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामौनिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
धर्म शुक्लद्वय ध्यान, धार ‘महाध्यानी’ हुये।
नाममंत्र का ध्यान, करते ही सब सुख मिले।।३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाध्यानिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्ण जितेंद्रिय आप, नाम ‘महादम’ धारते।
नाममंत्र तुम नाथ! पूजत आतम निधि मिले।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महादमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ क्षमा के ईश, नाम ‘महाक्षम’ सुर कहें।
नाममंत्र नत शीश, पूजूँ मैं अतिभाव से।।५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाक्षमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अठरह सहस सुशील, ‘महाशील’ तुम नाम है।
पूरण हो गुण शील, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाशीलगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तप अग्नी में आप, कर्मेंधन को होमिया।
‘महायज्ञ’ तुम नाथ, पूजूँ भक्ति बढ़ाय के।।७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महायज्ञगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अतिशय पूज्य जिनेश! नाम ‘महामख’ धारते।
पूजूँ भक्ति समेत, नाममंत्र प्रभु सुख मिले।।८।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामखगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पाँच महाव्रत ईश, नाम ‘महाव्रतपति’ धरा।
जजूँ नमाकर शीश, नाममंत्र प्रभु आपके।।९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाव्रतपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मह्य’ आप जगपूज्य, गणधर साधूगण नमें।
मिलें स्वात्मपद पूज्य, नाममंत्र को पूजते।।१०।।
ॐ ह्रीं अर्हं मह्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकान्तिधर’ आप, अतिशय कांतिनिधान हो।
नाममंत्र तुम जाप, करे अतुल सुखसंपदा।।११।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाकान्तिधरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सब के स्वामी इष्ट, अत: ‘अधिप’ सुरगण कहें।
नाशो सर्व अनिष्ट, नाममंत्र तुम पूजहूँ।।१२।।
ॐ ह्रीं अर्हं अधिपगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महामैत्रिमय’ नाथ! सबसे मैत्रीभाव है।
नाममंत्र तुम जाप, त्रिभुवन को वश में करे।।१३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामैत्रिमयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
अनवधि गुण के नाथ, तुम्हें ‘अमेय’ मुनी कहें।
पूजत बनूँ सनाथ, नाममंत्र प्रभु आपके।।१४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अमेयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महोपाय’ तुम नाथ! शिव के श्रेष्ठ उपाययुत।
जजत सर्व सुखसाथ, नाममंत्र को नित जपूँ।।१५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महोपायगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! ‘महोमय’ आप, अति उत्सव अरु ज्ञानयुत।
नाममंत्र तुम जाप, सर्व उपद्रव नाशता।।१६।।
ॐ ह्रीं अर्हं महोमयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महाकारुणिक’ आप, दया धर्म उपदेशिया।
नाम मंत्र का जाप्य, करत जन्म मृत्यू टले।।१७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाकारुणिकगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘मंता’ आप महान, सब पदार्थ को जानते।
जजूँ नाम गुणखान, पूर्ण ज्ञान संपति मिले।।१८।।
ॐ ह्रीं अर्हं मंतागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व मंत्र के ईश, ‘महामंत्र’ तुम नाम है।
तुम्हें नमें गणधीश, नाममंत्र मैं भी जजूँ।।१९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामंत्रगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यतिगण में अतिश्रेष्ठ, नाम ‘महायति’ आपका।
पूजत ही पद श्रेष्ठ, नाममंत्र को पूजहूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं अर्हं महायतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महानाद’ प्रभु आप, दिव्यध्वनी गंभीर धर।
नमत बनूँ निष्पाप, नाममंत्र भी मैं जजूँ।।२१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महानादगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दिव्यध्वनी गंभीर, योजन तक सुनते सभी।
जजत मिले भवतीर, ‘महाघोष’ तुम नाम को।।२२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाघोषगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ ‘महेज्य’ सुनाम, महती पूजा पावते।
सौ इन्द्रों से मान्य, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।२३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महेज्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘महसांपति’ प्रभु आप, सर्व तेज के ईश हो।
तुम प्रताप भवताप, हरण करे मैं पूजहूँ।।२४।।
ॐ ह्रीं अर्हं महासांपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ज्ञान यज्ञ को धार, नाम ‘महाध्वरधर’ प्रभू।
मिले सर्व सुखसार, नाममंत्र मैं पूजहूँ।।२५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाध्वरधरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-स्रग्विणी छंद-
‘धुर्य’ हो मुक्ति के मार्ग में श्रेष्ठ हो।
कर्म-भू आदि में सर्व में ज्येष्ठ हो।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।२६।।
ॐ ह्रीं अर्हं धुर्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय नम: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महौदार्य’ अतिशायि ऊदार हो।
आप निर्ग्रंथ भी इष्ट दातार हो।।आपके..।।२७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महौदार्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पूज्य वाक्याधिपति सु ‘महिष्ठवाक्’ हो।
दिव्यवाणी सुधावृष्टि कर्ता सु हो।।आपके..।।२८।।
ॐ ह्रीं अर्हं महिष्ठवाक्गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
लोक आलोक व्यापी ‘महात्मा’ तुम्हीं।
अंतरात्मा पुन: सिद्ध आत्मा तुम्हीं।।आपके..।।२९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व तेजोमयी ‘महासांधाम’ हो।
आत्म के तेज से सर्व जग मान्य हो।।आपके..।।३०।।
ॐ ह्रीं अर्हं महासांधामगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व ऋषि में प्रमुख हो ‘महर्षी’ तुम्हीं।
ऋद्धी सिद्धी धरो आप सुख की मही।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।३१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महर्षिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेष्ठ भव धार के आप ‘महितोदया’।
तीर्थकर नाम से पूज्य धर्मोदया।।आपके..।।३२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महितोदयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महाक्लेशअंकुश’ परीषहजयी।
क्लेश के नाश हेतू सुअंकुश सही।।आपके..।।३३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाक्लेशांकुशगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘शूर’ हो कर्मक्षय दक्ष हो लोक में।
नाथ! मेरे हरो कर्म आनन्द हो।।आपके..।।३४।।
ॐ ह्रीं अर्हं शूरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाभूतपति’ गणधराधीश हो।
नाथ! रक्षा करो आप जगदीश हो।।आपके..।।३५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाभूतपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘गुरू’ धर्म उपदेश दो।
तीन जग में तुम्हीं श्रेष्ठ हो सौख्य दो।।आपके..।।३६।।
ॐ ह्रीं अर्हं गुरुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महापराक्रम’ के धनी।
केवलज्ञान से सर्ववस्तू भणी।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।३७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महापराक्रमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘अनंत’ आपका अंत ना हो कभी।
नाथ! दीजे अनंतों गुणों को अभी।।आपके..।।३८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हे ‘महाक्रोधरिपु’ क्रोध शत्रू हना।
सर्व दोषारि नाशा सुमृत्यू हना।।आपके..।।३९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाक्रोधरिपुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप इंद्रिय ‘वशी’ लोक तुम वश्य में।
आत्मवश मैं बनूँ चित्त को रोक के।।आपके..।।४०।।
ॐ ह्रीं अर्हं वशीगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नाथ! हो ‘महाभवाब्धिसंतारि’ भी।
आप संसार सागर तरा तारते।।आपके..।।४१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाभवाब्धिसंतारिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही ‘महामोहाद्रिसूदन’ कहे।
मोह पर्वत सुभेदा सुज्ञाता बने।।आपके..।।४२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामोहाद्रिसूदनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
आप ही हो ‘महागुणाकर’ लोक में।
रत्नत्रय की खनी भव्य पूजूँ तुम्हें।।
आपके नाम के मंत्र को मैं जजूँ।
ज्ञान आनंद पीयूष को मैं चखूँ।।४३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महागुणाकरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘क्षान्त’ हो सर्व परिषह उपद्रव सहा।
आपकी भक्ति से हो क्षमा गुण महा।।आपके..।।४४।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्षान्तगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भो ‘महायोगिश्वर’ गणधरादी पती।
योगियों में धुरंधर जगत के पती।।आपके..।।४५।।
ॐ ह्रीं अर्हं महायोगीश्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘शमी’ शांत परिणाम से विश्व में।
पूर्ण शांती मिले पूजहूँ नाथ! मैं।।आपके..।।४६।।
ॐ ह्रीं अर्हं शमीगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाध्यानपति’ शुक्लध्यानीश हो।
शुक्ल परिणाम हों नाथ! वरदान दो।।आपके..।।४७।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाध्यानपतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘ध्यानमहाधर्म’ सब जीव रक्षा करो।
शुभ अिंहसामयी धर्म के हो धुरी।।आपके..।।४८।।
ॐ ह्रीं अर्हं ध्यानमहाधर्मगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाव्रत’ प्रभो! पाँच व्रत श्रेष्ठ धर।
पूर्ण होवें महाव्रत बनूँ मुक्तिवर।।आपके..।।४९।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाव्रतगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
हो ‘महाकर्मअरिहा’ महावीर हो।
कर्म अरि को हना आप अरिहंत हो।।आपके..।।५०।।
ॐ ह्रीं अर्हं महाकर्मारिहा-गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-सुन्दरी छंद-
जिन स्वरूप विदित ‘आत्मज्ञ’ हो।
सब चराचर लोक सुविज्ञ हो।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५१।।
ॐ ह्रीं अर्हं आत्मज्ञगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सर्व देवन मधि ‘महादेव’ हो।
सुर असुर पूजित महादेव हो।।जजतहूँ..।।५२।।
ॐ ह्रीं अर्हं महादेवगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
महत समरथवान ‘महेशिता’।
सकल ऐश्वर धारि जिनेशिता।।जजतहूँ..।।५३।।
ॐ ह्रीं अर्हं महेशितागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरवक्लेशापह’ दुख नाशिये।
सकल ज्ञान सुधामय साजिये।।जजतहूँ..।।५४।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वक्äलेशापहगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
निज हितंकर ‘साधु’ कहावते।
स्वपर हित साधन बतलावते।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।५५।।
ॐ ह्रीं अर्हं साधुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरबदोषहरा’ जिन आप हो।
सकल गुणरत्नाकर नाथ हो।।जजतहूँ..।।५६।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वदोषहरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘हर’ तुम्हीं सब पाप विनाशते।
प्रभु अनंतसुखाकर आप ही।।जजतहूँ..।।५७।।
ॐ ह्रीं अर्हं हरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘असंख्येय’ प्रभु आप ही।
गिन नहीं सकते गुण साधु भी।।जजतहूँ..।।५८।।
ॐ ह्रीं अर्हं असंख्येयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अप्रमेयात्मा’ जिन आप हो।
अनवधी शक्तीधर नाथ हो।।जजतहूँ..।।५९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अप्रमेयात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन ‘शमात्मा’ शांतस्वरूप हो।
सकल कर्मक्षयी शिवभूप हो।।जजतहूँ..।।६०।।
ॐ ह्रीं अर्हं शमात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रगट ‘प्रशमाकर’ शमखानि हो।
जगत शांतिसुधा बरसावते।।जजतहूँ..।।६१।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रशमाकरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘सरबयोगीश्वर’ मुनि ईश हो।
गणधरादि नमावत शीश को।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।६२।।
ॐ ह्रीं अर्हं सर्वयोगीश्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
भुवन में तुम ईश ‘अचिन्त्य’ हो।
निंह किसी जन के मन चिन्त्य हो।।जजतहूँ..।।६३।।
ॐ ह्रीं अर्हं अचिन्त्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘श्रुतात्मा’ सब श्रुत रूप हो।
सकल भाव श्रुतांबुधि चन्द्र हो।।जजतहूँ..।।६४।।
ॐ ह्रीं अर्हं श्रुतात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल जानत ‘विष्टरश्रव’ कहे।
धरम अमृतवृष्टि करो सदा।।जजतहूँ..।।६५।।
ॐ ह्रीं अर्हं विष्टरस्वगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
वश किया मन ‘दान्तात्मा’ प्रभो।
सुतप क्लेश सहा जिन आपने।।जजतहूँ..।।६६।।
ॐ ह्रीं अर्हं दान्तात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु तुम्हीं ‘दमतीरथईश’ हो।
सकल इन्द्रियनिग्रह तीर्थ हो।।जजतहूँ..।।६७।।
ॐ ह्रीं अर्हं दमतीर्थेशगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सकल ध्यात सु ‘योगात्मा’ तुम्हीं।
शुकल योगधरा जिन आपने।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।६८।।
ॐ ह्रीं अर्हं योगात्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु सदा तुम ‘ज्ञानसुसर्वगा’।
जगत व्याप्त किया निज ज्ञान से।।जजतहूँ..।।६९।।
ॐ ह्रीं अर्हं ज्ञानसर्वगगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रधान’ तुम्हीं त्रय लोक में।
प्रमुख हो निज आतम ध्यान से।।जजतहूँ..।।७०।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रधानगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुमहि ‘आत्मा’ ज्ञान स्वरूप हो।
सकल लोक अलोक सुजानते।।जजतहूँ..।।७१।।
ॐ ह्रीं अर्हं आत्मागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रकृति’ हो तिहुँलोक हितैषि हो।
प्रकृतिरूप धरम उपदेशि हो।।जजतहूँ..।।७२।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रकृतिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘परम’ हो सबमें उत्कृष्ट हो।
परम लक्ष्मीयुत जिनश्रेष्ठ हो।।जजतहूँ..।।७३।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जगत ‘परमोदय’ जिननाथ हो।
परम वैभव से तुम ख्यात हो।।जजतहूँ..।।७४।।
ॐ ह्रीं अर्हं परमोदयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभु ‘प्रक्षीणाबंध’ जिनेश हो।
सकल कर्म विहीन तुम्हीं कहे।।
जजतहूँ तुम नाम सुमंत्र को।
सकल सौख्य लहूँ हन कर्म को।।७५।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रक्षीणबंधगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-मोतीदाम छंद-
प्रभो! तुम ‘कामारी’ जग सिद्ध।
किया तुम काम महाअरि विद्ध।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।७६।।
ॐ ह्रीं अर्हं कामारिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘क्षेमकृता’ अभिराम।
जगत् कल्याण किया सुखधाम।।जजूँ तुम.।।७७।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमकृत्गुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘क्षेमसुशासन’ सिद्ध।
किया मंगल उपदेश समृद्ध।।जजूँ तुम.।।७८।।
ॐ ह्रीं अर्हं क्षेमशासनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणव’ तुमही ओंकार स्वरूप।
सभी मंत्रों मधि शक्तिस्वरूप।।जजूँ तुम.।।७९।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रणवगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रणत’ सबका तुम ही में प्रेम।
नहीं तुम बिन होता सुख क्षेम।।जजूँ तुम.।।८०।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रणतगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘प्राण’ जगत वेत्राण।
दिया सब ही को जीवनदान।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।८१।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्राणगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘प्राणद’ बलदातार।
सभी जन रक्षक नाथ उदार।।जजूँ तुम.।।८२।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्राणदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणतेश्वर’ भव्यन ईश।
नमें तुमको उनके प्रभु ईश।।जजूँ तुम.।।८३।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रणतेश्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘प्रमाण’ तुम्हीं जग ज्ञान धरंत।
तुम्हें भवि पा होते भगवंत।।जजूँ तुम.।।८४।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रमाणगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘प्रणिधी’ निधियों के स्वामि।
अनंत गुणाकर अंतर्यामि।।जजूँ तुम.।।८५।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रणिधिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं प्रभु ‘दक्ष’ समर्थ सदैव।
करो मुझ कर्म अरी का छेव।।जजूँ तुम.।।८६।।
ॐ ह्रीं अर्हं दक्षगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘दक्षिण’ हो सर्व प्रवीण।
सरल अतिशायि महागुणलीन।।जजूँ तुम.।।८७।।
ॐ ह्रीं अर्हं दक्षिणगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
तुम्हीं ‘अध्वर्यु’ सुयज्ञ करंत।
महा शिवमार्ग दिया भगवंत।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।८८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अध्वर्युगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अध्वर’ शिवपथ दर्शंत।
सदा ऋजु ही परिणाम धरंत।।जजूँ तुम.।।८९।।
ॐ ह्रीं अर्हं अध्वरगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ही ‘आनंद’ अनूप।
मुझे सुखदेव सदा सुखरूप।।जजूँ तुम.।।९०।।
ॐ ह्रीं अर्हं आनंदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सदा सबको आनंद करंत।
तुम्हीं प्रभु ‘नन्दन’ नाम धरंत।।जजूँ तुम.।।९१।।
ॐ ह्रीं अर्हं नन्दनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘नन्द’ समृद्ध निधान।
सदा करते तुम ज्ञान सुदान।।जजूँ तुम.।।९२।।
ॐ ह्रीं अर्हं नन्दगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘वंद्य’ सुरासुर पूज्य।
सभी वंदन करते अनुकूल्य।।जजूँ तुम.।।९३।।
ॐ ह्रीं अर्हं वंद्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अनिंद्य’ तुम्हीं सब दोष विहीन।
अनंत गुणों के पुंज प्रवीण।।जजूँ तुम.।।९४।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनिंद्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! ‘अभिनंदन’ जग आनंद।
प्रशंसित हो त्रिभुवन में वंद्य।।
जजूँ तुम नाम महा गुणखान।
भजूँ निज धाम अनन्त महान।।९५।।
ॐ ह्रीं अर्हं अभिनंदनगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो! तुम ‘कामह’ काम हनंत।
विषयविषमूर्च्छित को सुखकंद।।जजूँ तुम.।।९६।।
ॐ ह्रीं अर्हं कामहागुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
प्रभो तुम ‘कामद’ हो जग इष्ट।
सभी अभिलाष करो तुम सिद्ध।।जजूँ तुम.।।९७।।
ॐ ह्रीं अर्हं कामदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोहर ‘काम्य’ सभी जन इष्ट।
तुम्हें नित चाहत साधु गणीश।।जजूँ तुम.।।९८।।
ॐ ह्रीं अर्हं काम्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मनोरथ पूरण ‘कामसुधेनु’।
करो मुझ वांछित पूर्ण जिनेंद्र।।जजूँ तुम.।।९९।।
ॐ ह्रीं अर्हं कामधेनुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
‘अरिंजय’ आप करम अरि जीत।
हरो मुझ कर्म तुम्हीं जगमीत।।जजूँ तुम.।।१००।।
ॐ ह्रीं अर्हं अिंरजयगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पृथ्वी छंद-
‘वरप्रद’ जिनेशा एक वरदान दे दीजिये।
मिले तुरत सिद्धिधाम बस और ना चाहिये।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०१।।
ॐ ह्रीं अर्हं वरप्रदगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! यम नाश के ‘समुन्मूलिकर्मारि’ हो।
उखाड़ जड़मूल से करम शत्रु नाशा तुम्हीं।।जजूँ.।।१०२।।
ॐ ह्रीं अर्हं समुन्मूलिकर्मारिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र! तुम ‘कर्मकाष्ठाशुशुक्षणी’ लोक में।
समस्त अठ कर्म ईंधन जलावते अग्नि हो।।जजूँ.।।१०३।।
ॐ ह्रीं अर्हं कर्मकाष्ठाशुशुक्षणिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त शिव कार्य में निपुण आप ‘कर्मण्य’ हो।
प्रभो! निमित आप पाय सब कार्य मेरे बनें।।जजूँ.।।१०४।।
ॐ ह्रीं अर्हं कर्मण्यगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त कर्मारि के हनन में सुसामर्थ्य है।
अतेव ‘कर्मठ’ तुम्हीं सकल कार्य में दक्ष हो।।जजूँ.।।१०५।।
ॐ ह्रीं अर्हं कर्मठगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समर्थ प्रभु आप ही सतत ‘प्रांशु’ सर्वोच्च भी।
समस्त अघ नाश के सकल सौख्य संपद् भरो।।जजूँ.।।१०६।।
ॐ ह्रीं अर्हं प्रांशुगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेश! बस आप ‘हेयआदेयवीचक्षण:’।
हिताहित विचारशील तुम सा नहीं अन्य है।।
जजूँ सतत नाम मंत्र दुख शोक दारिद्र नशे।
मिले निकल आतमा सकल ज्ञानज्योती जगे।।१०७।।
ॐ ह्रीं अर्हं हेयादेयविचक्षणगुणविभ्ाूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
समस्त जग जानते प्रभुु ‘अनंतशक्ती’ तुम्हीं।
अनंत गुण पूरिये हृदय में सदा राजिये।।जजूँ.।।१०८।।
ॐ ह्रीं अर्हं अनंतशक्तिगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथतीर्थंकराय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-पूर्णार्घ्य-शंभु छंद-
प्रभु महामुनी से लेकर इक सौ आठ नाम तुम जग पूजें।
जो भक्ति वंदना नित्य करें वो भव भव के दुख से छूटें।।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके मेरी भव भव की व्याधि हरो।
प्रभु सात परम स्थान देय, जिनगुण संपत्ती पूर्ण करो।।१।।
ॐ ह्रीं अर्हं महामुनिआदि-अनंतशक्तिपर्यन्तशताष्टगुणविभूषिताय श्रीअनंतनाथ-तीर्थंकराय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। दिव्य पुष्पांजलि:।
जाप्य–ॐ ह्रीं अर्हं श्रीअनंतनाथजिनेन्द्राय नम:।
(९ बार या १०८ बार सुगंधित पुष्प या पीले चावल से जाप्य करें)…………..