—सोरठा—
तीर्थ प्रवर्तन काल, उसमें केवलि मुनि हुये।
ये सब गुणमणिमाल, पुष्पांजलि कर पूजहूँ।।१।।
इति मंडलस्योपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।
—गीता छंद—
सागर पचास सुलाख कोटी, तथा इक पूर्वांग है।
पुरुदेव जिनका तीर्थ वर्तन, काल शास्त्र प्रमाण है।।
इस काल में बहुकेवली श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु जजूँ उनको नत हुये।।१।।
ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवस्य पंचाशल्लक्षकोटिसागर-एकपूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ तीस लाख करोड़ सागर, और त्रय पूर्वांग है।
श्री अजित जिनका तीर्थ वर्तन, काल भविजन त्राण है।।इस.।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीअजित्नााथस्य िंत्रशल्लक्षकोटिसागरपूर्वांगतीर्थप्रवर्तनकालकेवलि-श्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दश लाख कोटी सागरोपम, तथा चउ पूर्वांग है।
संभव जिनेश्वर तीर्थ वर्तन, काल शिव पथ दान है।।इस.।।३।।
ॐ ह्रीं संभव्नााथस्य दशलक्षकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव लाख कोटी सागरा, पूर्वांग चार प्रमाण है।
अभिनंदनेश्वर तीर्थ वर्तन, काल सब जग त्राण है।।इस.।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीअभिनंदनतीर्थंकरस्य नवलक्षकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नब्बे हजार करोड़ सागर, और चउ पूर्वांग है।
श्री सुमतिजिन का तीर्थ वर्तन, काल मुक्ति निदान है।।
इस काल में बहुकेवली, श्रुतकेवली मुनिगण हुये।
निज आत्म संपद प्राप्त हेतु, जजूँ उनको नत हुये।।५।।
ॐ ह्रीं श्री सुमत्निााथस्य नवतिसहस्रकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव सहस कोटी सागरा, पूर्वांग चार प्रमाण है।
श्रीपद्म जिनका तीर्थ वर्तन, काल मुक्ति प्रदान है।।इस.।।६।।
ॐ ह्रीं श्री पद्मप्रभ्नााथस्य नवसहस्रकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नौ सौ करोड़ सुसागरा, पूर्वांग चार प्रमाण है।
सूपार्श्व जिनका तीर्थ वर्तन, काल मोक्ष निदान है।।इस.।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसुपार्श्व्नााथस्य नवशतकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तनकालकेवलि-श्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
सागर सुनब्बे कोटि चउ, पूर्वांग काल प्रमाण है।
श्री चंद्रप्रभु का तीर्थ वर्तन, चतु:संघ निधान है।।इस.।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीचंद्रप्रभ्नााथस्य नवतिकोटिसागरचतु:पूर्वांगतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—शंभु छंद—
नवकोटी सागर में पूर्वांग, अठाइस पल्य का चतुर्थांश।
कम कीजे पुन: मिला दीजे, इक लाख पूर्व का वर्ष अंक।।
श्री पुष्पंदत का तीर्थ प्रवर्तन, काल धर्म युग माना है।
पाव पल्य तक इसमें धर्म, तीर्थ विच्छेद बखाना है।।
—दोहा—
धर्म तीर्थ विच्छेद में, चतु:संघ नहिं होय।
शेष काल के केवली, मुनी नमूँ नत होय।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीपुष्पदंत्नााथस्य पल्यचतुर्थांश-अष्टाविंशतिपूर्वांगहीन-एकलक्ष-वर्षाधिकनवकोटिसागरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्याय-साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक कोटी सागर में सौ सागर, आधा पल्य हीन करिये।
छ्यासठ लख छब्बिस सहसवर्ष, कम पच्चिस सहस पूर्व धरिये१।।
शीतल जिनका यह तीर्थ प्रवर्तन, काल चार संघ से राजे।
इसमें जिन धर्मतीर्थविच्छित्ती, आधा पल्य शास्त्र भाषें।।
तीर्थ प्रवर्तन काल में, नग्न दिगंबर साधु।
मोक्ष सतत जाते रहें, नमूँ साम्यरस स्वादु।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीशीतल्नााथस्य अर्धपल्यशतसागरन्यून-एककोटिसागरषट्षष्टि-लक्षषट्विंशतिसहस्रवर्षन्यूनपंचिंवशतिसहस्रवर्षपूर्वतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौवन सागर इक्कीस लाख, वर्षों में पौन पल्य कम हैं।
श्रेयांसनाथ का तीर्थकाल, इसमें केवलिगण मुनिगण हैं।।
इनके तीरथ में पौन पल्य, जिनधर्म तीर्थ व्युच्छिन्न रहा।
धर्मामृत इच्छुक मुनि ने ही, इस तीर्थ काल को पूज्य कहा।।
रत्नत्रयनिधि के धनी, केवलज्ञानी साधु।
नमूँ नमूँ उनको सदा, मिटे जन्म की व्याधि।।११।।
ॐ ह्रीं श्रीश्रेयांस्नााथस्य पादोपल्यहीन-एकिंवशतिलक्षवर्षअधिकचतु:पंचा-शत्सागरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ तीस सागरा चौवन लाख, बरस में एक पल्य कम है।
श्रीवासुपूज्य का तीर्थकाल यह, मोक्षमार्ग का साधन है।।
इस एक पल्य कम में ही, तीर्थ का छेद बखाना है।
इन दिनों न होवें जैन साधु, शिवद्वार बंद ही माना है।।
तीर्थ काल के केवली, साधु सुरासुर वंद्य।
नमूँ नमूँ उनके चरण, हरूँ जगत का फंद।।१२।।
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्य्नााथस्य एकपल्यहीनत्रिंशत्सागरचतु:पंचाशल्ल-क्षवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्याय साधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नव सागर पंद्रह लाख बरस में, पौन पल्य कम कर दीजे।
यह विमलनाथ का तीर्थ प्रवर्तन, काल इसे वंदन कीजे।।
यह पौन पल्य का धर्म तीर्थ, व्युच्छेद शास्त्र में गाया है।
जिनशासन के केवलज्ञानी, मुनियों को शीश नमाया है।।
बहिरातमता छोड़कर, निज शुद्धात्म स्वरूप।
ध्याते परमात्मा बनें, चिदानंद चिद्रूप।।१३।।
ॐ ह्रीं श्रीविमल्नााथस्य पादोपल्यहीननवसागरपंचदशलक्षवर्षतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह सात लाख पच्चास सहस, है बरस चार सागर माना।
बस आधा पल्य घटा दीजे, यह तीर्थ विछेद काल माना।।
जिनवर अनंत के शासन में, केवलज्ञानी बहुतेहि मुनी।
रस वर्ण गंध स्पर्श शून्य, निज आत्म ध्यान करते सुगुणी।।
भव्य जहां दीक्षाभिमुख, नहीं हुये वह काल।
धर्मतीर्थ विच्छेद का, कहें यति१ वृषभ कृपालु।।१४।।
ॐ ह्रीं श्रीअनंत्नााथस्य अर्धपल्योनचतु:सागरसप्तलक्षपंचाशत्सहस्रवर्षतीर्थ-प्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो लाख पचास हजार वर्ष, त्रय सागर में इक पल्य हीन।
यह धर्मनाथ का तीर्थकाल, इसमें करते मुनि कर्म क्षीण।।
जिनधर्म ध्वजा फहराती है, भवि ज्ञान ज्योति से जग देखें।
हम पूजें उन सब मुनियों को, जो भव्य कमल विकसाते थे।।
पाव पल्य विच्छेद था, धर्मतीर्थ इस काल।
तीर्थ प्रवर्तन काल को, नमूँ नमूँ नत भाल।।१५।।
ॐ ह्रीं श्रीधर्म्नााथस्य एकपल्यहीनत्रयसागरद्विलक्षपंचाशत्सहस्रवर्ष-तीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
बारह शतक सुपचास वर्ष, व अर्ध पल्य प्रमाण है।
श्रीशांतिजिन का तीर्थ वर्तन, काल जिनमत प्राण है।।
श्रीशांतिजिन से आज तक, औ दुषम कालावधी तक।
निरबाध चउविध संघ है, होता रहेगा अंत तक।।१६।।
ॐ ह्रीं श्रीशांत्निााथस्य अर्धपल्यद्वादशशतपंचाशत्वर्षतीर्थप्रवर्तन-कालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नवसौ निन्यानवे कोटि, निन्यानवे लक्ष सत्तानवे।
हजार द्विशत पचास वर्ष, कम पल्य के चतुर्थांश में।।
यह तीर्थ वर्तन काल, कुंथूनाथ का सुरवंद्य है।
मुनि केवली होते रहें, पूजूँ उन्हें वे वंद्य हैं।।१७।।
ॐ ह्रीं श्रीकुंथु्नााथस्य नवार्बुदनवनवतिकोटिनवनवतिलक्षसप्तनवतिसहस्र-द्विशतपंचाशत्वर्षहीनपल्यचतुर्थभागतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
नौ अरब निन्यानवे कोटि, निन्यानवे ही लाख हैं।
छ्यासठ सहस सौ वर्ष अर—जिन तीर्थ वर्तन काल है।।
ऋषि मुनि यती अनगार केवल, ज्ञान प्राप्ती कर रहें।
इनकी करें अर्चा सतत, ये ताप त्रय मेरे दहें।।१८।।
ॐ ह्रीं श्रीअर्नााथस्य नवार्बुदनवनवतिकोटिनवनवतिलक्षषट्षष्टिसहस्रशत-वर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जिन तीर्थ चौवन लाख सैंतालिस सहस चउशत बरस।
यह मल्लि प्रभु का सुरगणों के, आगमन से जिनसदृश।।
मुनिराज जिन मुद्रा धरें, विहरें सदा मंगल करें।
हम पूजतें इन साधुओं को, विघ्न बाधा परिहरें।।१९।।
ॐ ह्रीं श्रीमल्ल्निााथस्य चतु:पंचाशल्लक्षसप्तचत्वािंरशत्सहस्रचतु:शतवर्षतीर्थ-प्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
छह लाख पांच हजार वर्षों, धर्म वर्तन काल है।
प्रभु मुनीसुव्रत नाथ का, शासन महान उदार है।।
जो केवली मुनिगण हुये हैं, मैं उन्हें वंदन करूँ।
निज आत्म सौरभ प्राप्त करके, जगत को सुरभित करूँ।।२०।।
ॐ ह्रीं श्रीमुनिसुव्रत्नााथस्य षट्लक्षपंचसहस्रवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलि-श्रुतकेवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पण१लाख अठरह सौ वरस, नमिनाथ तीरथ काल है।
अर्हंतमुद्रा धारि मुनिगण, करें भविक निहाल हैं।।
मैं आत्मरस पीयूष अनुभव, प्राप्ति हेतू जजत हूँ।
सम्यक्त्व क्षायिक होय मेरा, आश यह मन धरत हूँ।।२१।
ॐ ह्रीं श्रीनम्निााथस्य पंचलक्ष-अष्टादशशतवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलि-आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चौरासि सहस्र सु तीन सौ, अस्सी बरस तक धर्म है।
श्री नेमि जिनका तीर्थ वर्तन, करत भवि को धन्य है।।
सज्जाति२ सद्गार्हस्थ्य, पारिव्राज्य और सुरेंद्रता।
साम्राज्य अरु आर्हन्त्य परिनिर्वाण पूजत हों स्वत:।।२२।।
ॐ ह्रीं श्रीनेमिनाथस्य चतुरशीतिसहस्रत्रयशत-अशीतिवर्षतीर्थप्रवर्तनकाल-केवलिश्रुतकेवलि—आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दो सौ अठत्तर वर्ष तक प्रभु, पार्श्व का शासन चला।
इसमें सतत सुरगण यहां, जिन भक्त का करते भला।।
मैं पूजहूँ निज सात परम, स्थान पाने के लिये।
हे नाथ! अब करके दया, मुझ थान मुझको दीजिये।।२३।।
ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथस्य द्विशत-अष्टसप्ततिवर्षतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुत-केवलिआचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
इक्किस सहस ब्यालिस बरस, तक वीर का शासन यहाँ।
तब तक चतुर्विध धर्म चलता, ही रहेगा नित यहाँ।।
त्रय वर्ष साढ़े आठ महिने, पूर्व पंचम काल तक।
यह अविच्छिन्न परंपरा मुनि, की सभी को नमूँ नत।।२४।।
ॐ ह्रीं श्रीमहावीरस्वामिन: एकिंवशतिसहस्रद्विचत्वािंरशद्वर्षतीर्थप्रवर्तनकाल-केवलिश्रुतकेवलि—आचार्योपाध्यायसाधुभ्य: अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
—पूर्णार्घ्य—
श्री ऋषभदेव से लेकर के, अंतिम वीरांगज मुनि तक भी।
जिन मुद्राधारी रत्नत्रय निधि१, धरा धरत धारेंगे भी।।
निश्चय व्यवहार रत्नत्रय युत, निज आत्मतत्त्वविद इन सबको।
नित शत शत मेरा वंदन है, मैं भक्ती से पूजूँ गुरु को।।१।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्योपाध्याय-पंचमकालान्त्यवीरांगजसाधुपर्यंतसर्वसाधुभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
ब्राह्मी सुंदरि से लेकर के, अंतिम साध्वी सर्वश्री तक।
संयतिका जिनकी हुईं हो रहीं, होवेंगी आरजखंड तक।।
दो साड़ी मात्र परिग्रह धर, उपचार महाव्रतिका मानीं।
इन सबको मेरा वंदन है, प्रतिवंदन है ये गुणखानी।।२।।
ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरशासनकालब्राह्मीगणिनीप्रभृतिसर्वश्री-आर्यिका-पर्यंतसर्व-आर्यिकाभ्य: पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। पुष्पांजलि:।
जाप्य—ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरतीर्थप्रवर्तनकालकेवलिश्रुतकेवलि-आचार्यो— पाध्यायसाधुभ्यो नम:।