-आर्याछन्द:-
मालाहरिकमलांबरगरुडेभगवेशचक्रशिखिहंसै:।
उपलक्षितध्वजानि न्यसामि दशदिक्षु पंचवर्णानि।।
पुष्पांजलि: ।। (पुष्पांजलि क्षेपण करें)
-अनुष्टुप्छन्द:-
पीतप्रभाव्हया देवी, पीतवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, पूर्वस्यां दिशि तिष्ठतु।।१।।
ॐ पीतप्रभायै स्वाहा ।। (पूर्व दिशा में पीली ध्वजा लगावें)
पद्माख्यदेवी पद्माभा, पद्मवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, आग्नेय्यां दिशि तिष्ठतु।।२।।
ॐ पद्मायै स्वाहा।। (आग्नेय दिशा में लाल ध्वजा लगावें)
सा मेघमालिनी कृष्णा, कृष्णवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, अपाच्यां दिशि तिष्ठतु।।३।।
ॐ मेघमालिन्यै स्वाहा।। (दक्षिण दिशा में काली ध्वजा लगावें)
हरिन्मनोहरा देवी, हरिद्वर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, नैऋत्यां दिशि तिष्ठतु।।४।।
ॐ मनोहरायै स्वाहा।। (नैऋत्य दिशा में हरी ध्वजा लगावें)
श्वेताभा चंद्रमालेयं, श्वेतवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, प्रतीच्यां दिशि तिष्ठतु।।५।।
ॐ चंद्रमालायै स्वाहा।। (पश्चिम दिशा में सफेद ध्वजा लगावें)
नीलाभा सुप्रभा देवी, नीलवर्णमिदं ध्वजं।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, वायव्यां दिशि तिष्ठतु।।६।।
ॐ सुप्रभायै स्वाहा।। (वायव्य दिशा में नीली ध्वजा लगावें)
श्यामप्रभा जयादेवी, श्यामवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मुदीच्यां दिशि तिष्ठतु।।७।।
ॐ जयायै स्वाहा।। (उत्तर दिशा में काली ध्वजा लगावें)
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम्।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्यां, ईशान्यां दिशि तिष्ठतु।।८।।
ॐ विजयायै स्वाहा।। (ईशान दिशा में पंचवर्णी ध्वजा लगावें)
विजया पंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम् ।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मधरादिशि तिष्ठतु।।९।।
ॐ विजयायै स्वाहा।। (अधो दिशा में पंचवर्णी ध्वजा लगावें)
विजयापंचवर्णाभा, पंचवर्णमिदं ध्वजम् ।
धृत्वा जयाय श्रीवेद्या-मूर्ध्वायां दिशि तिष्ठतु।।१०।।
ॐ व्यक्तांतरायै स्वाहा।। (ऊर्ध्व दिशा में पंचवर्णी ध्वजा लगावें)
।। (इति पंचवर्णपताकार्चनम्।। पंचवर्ण ध्वजार्चन विधि पूर्ण हुई)।।
यहाँ यह ध्यान देना है कि भेरीताड़न विधि का ध्वजारोहण कार्यक्रम से कोई सम्बन्ध ही नहीं है, उपर्युक्त भिन्न-भिन्न वर्ण की दश प्रकार की ध्वजाएँ तो प्रतिष्ठा मण्डप के चारों ओर विधिपूर्वक स्थापित की जाती हैं इन्हीं में पंचवर्ण की तीन ध्वजाएँ हैं इनके लिए और भिन्न-भिन्न वर्ण की ध्वजाओं के लिए ‘पंचवर्णकेतून्’ शब्द वहाँ आया है। ये सभी ध्वजाएँ दश देवियों की कल्पना के साथ स्थापित की जाती हैं।
३. प्रतिष्ठा सारोद्धार ग्रंथ के पृ. ७८ पर भी अलग-अलग वर्ण की आठ पताका स्थापित करने का विधान है, जिनका ध्वजारोहण वाले महाध्वज से कोई सम्बन्ध नहीं है।
यथा-
पीता प्रभारुणा पद्मा, कृष्णाभा मेघमालिनी।
हरिन्मनोहरा श्वेता, चंद्रमालेंद्रनीलभा।।२०८।।
सुप्रभाख्या जया श्यामा, विजया पंचवर्णभा।
दिक्षु तिष्ठत्विमा देव्य:, सवर्णध्वजपाणय:।।२०९।।
इसी प्रतिष्ठा ग्रन्थ में (अध्याय-२, पृष्ठ-४६ पर) श्लोक नं. १४५ में यागमण्डल विधान के अंतर्गत मण्डल पर पंचचूर्ण स्थापित करने का श्लोक एवं मंत्र है, उसका भी ध्वजा के रंगों से कोई तात्पर्य नहीं है-
नागेंद्रार्थपते हरित्प्रभजपां भासासिताभप्रिया
युक्ता एत्य सवर्णचूर्णनिचयै: प्रीतेंद्रवेद्यामिव।
वेद्यां द्वित्रिचतुर्गुणाष्टदलयुक्पद्मं चतुर्धाश्चतुष्-
कोणं वर्तयतात्र मंडलमथो वङ्कााल्लिखेंद्राश्रिषु।।१४५।।
ॐ ह्रीं क्लीं श्वेतपीतहरितारुणकृष्णमणिचूर्णं स्थापयापि स्वाहा ।
चूर्णस्थापनमंत्र:।
तथा यहीं पर पंचचूर्ण अलग-अलग भी स्थापित करने के लिए
पाँच श्लोक एवं मंत्र पृथक्-पृथक् भी हैं।प्रतिष्ठा सारोद्धार के अध्याय ५ में पृ. १२४ पर श्लोक नं. ५० से ७८ तक पठनीय विषय है, जिनमें से निम्न श्लोक विशेष ध्यान देने योग्य हैं-
सितं रक्तं सितं पीतं, सितं कृष्णं पुन: पुन:।
यावत्प्रासाददीर्घत्वं, तावत्संघट्टयेत् क्रमात् ।।५२।।
ध्वजा का कपड़ा सफेद, लाल, सफेद, पीला, सफेद, काला फिर इसी क्रम से रंग वाला तैयार करावे।
चंद्रार्धचंद्रमुक्तास्त्रक्किंकिणीतारकादिभि: ।
नाना सद्रूपयुग्मैश्च, चित्रै: पत्रैर्विचित्रयेत् ।।५३।।
ध्वजा में चंद्रमा, माला, घंटियाँ, तारे इत्यादि अनेक चिन्ह बनाके चित्रित करें।
अधश्छत्रत्रयं मूर्धस्तस्याध: पद्मवाहनम् ।
तस्याध: कलशं पूर्णं पार्श्वयो: स्वस्तिकं लिखेत् ।।५४।।
दीपदंडौ लिखेत्स्वस्ति शिखाया: पार्श्वयोस्तथा।
पार्श्वयोरातपत्रस्य श्वेतचामरयुग्मकम् ।।५५।।
मूर्धाधो धवलच्छत्रे ध्वजे वा यक्षमालिखेत्।
श्यामं चतुर्भुजं हस्तयुग्मेन रचितांजलिम् ।।५६।।
पराम्यां दधतं मूधर््िन धर्मचक्रमृजुस्थितम् ।
जिनबिबोर्धमूर्धाने ह्येकछत्रसमन्वितम् ।।५७।।
दीपदंडादिसंयुक्तं नानालंकरणान्वितम् ।
हस्तिपृष्टसमारूढं सर्वज्ञाख्याममुं लिखेत् ।।५८।।
अशोकासननिर्यासचंपकाम्रकदंबका: ।
पूगवंशादयोन्येपि दंडस्य भवभूरुहा: ।।५९।।
कलश, साथिया, दीपदंड, छत्र, चमर, धर्मचक्र लिखकर ध्वजा के ऊपर जिनबिंब का आकार बनावें। उसमें एक छत्र लगावें। उस ध्वजा में अशोक, चंपा, आम, कदंब, सुपारी, वंश आदि के वृक्ष चिन्हित करें।।५४-५९।।
सादाप्रायाममानार्धं त्रिभागं वा चतुर्थकम् ।
ध्वजदंडस्य मानं तद्यथाशोभं प्रकल्पयेत् ।।६०।।
ध्वजा के दंडे का प्रमाण शोभा के अनुसार होना चाहिए।
प्रासादस्योर्ध्वतुर्यांशे वेदिका वेदिकस्थितम् ।
आधारं धनदंडस्य यथोक्तं परिकल्पयेत् ।।६१।।
वह प्रमाण मंदिर की ऊँचाई से चौथाई हो तो अच्छा है और वेदी के ऊपर भी ध्वजा चढ़ाना चाहिये।
अर्थात् ध्वजा में पहले सफेद कपड़ा, पुन: लाल, पुन: सफेद, पुन: पीला, पुन: सफेद, पुन: काला फिर इसी क्रम से तैयार करावे।
इस विधि से तैयार किये गये ध्वज में तो छह पट्टियाँ और चार रंग आते हैं और साथिया के साथ-साथ दीपदंड, छत्र, चमर, धर्मचक्र लिखकर ध्वजा के ऊपर जिनबिम्ब का आकार बनाने का विधान है जो कि प्रतिष्ठातिलक वाले ध्वज के समान ही आकार को बताता है।
इसी में श्लोक नं. ७१ से ७३ तक में ध्वजारोहण के बाद ध्वजा की दिशा से शुभ-अशुभ शकुन देखने का फलादि बताया है।
श्वेत पताका का वर्णन उत्तरपुराण में भी आया है-
शतसंवत्सरे याते कुमारसमये पुरम् ।
चलत्सितपताकाभि: सर्वत्रोद्बद्धतोरणै: ।।३८।।
अर्थात् कुमारकाल के सौ वर्ष बीत जाने पर एक दिन भगवान मल्लिनाथ ने देखा कि समस्त नगर हमारे विवाह के लिए सजाया गया है, कहीं चञ्चल सफेद पताकाएँ फहराई गई हैं तो कहीं तोरण बाँधे गये हैं ।
अर्थात् घर के अग्र भाग पर सफेद ध्वजा फहरा रही थी।
पद्मपुराण भाग-१, पर्व – ८, पृ.-१८८ पर मंदिर पर श्वेत ध्वजा का स्पष्ट वर्णन है-
सितकेतुकृतच्छाया: सहस्राकारतोरणा:।
शृङ्गेषु पर्वतस्यामी विराजन्ते जिनालया:।।२७६।।
अर्थात् सफेद पताकाएँ जिन पर छाया कर रही हैं तथा जिनमें हजारों प्रकार के तोरण बने हुए हैं ऐसे ये जिनमन्दिर पर्वत के शिखरों पर सुशोभित हो रहे हैं।
पद्मपुराण-भाग ३ में सुमेरु पर्वत के पाण्डुक वन के जिनमंदिर के शिखरों पर नाना वर्ण की ध्वजाओं का प्रमाण आता है। यथा-
नानावर्णचलत्केतुकाञ्चनस्तम्भभासुरम्।
गम्भीरं चारुनिर्व्यूहमशक्याशेषवर्णनम्।।४७।।
पञ्चाशद्योजनायामं षट्त्रिंशन्मानमुत्तमम्।
इदं जिनगृहं कान्ते सुमेरोर्मुकुटायते।।४८।।
जिस पर नाना रंग की पताकाएँ फहरा रही हैं, जो सुवर्णमय खम्भों से सुशोभित है, गंभीर है, सुन्दर छज्जों से युक्त है, जिसका सम्पूर्ण वर्णन करना अशक्य है, जो पचास योजन लम्बा है और छत्तीस योजन चौड़ा है। हे कान्ते! ऐसा यह जिनमंदिर सुमेरु पर्वत के मुकुट के समान जान पड़ता है।।४७-४८।।
कारिता हरिषेणेन, सज्जनेन महात्मना।
एतान् वत्स नमस्य त्वं, भव पूतमना: क्षणात् ।।२७७।।
ये सब मन्दिर महापुरुष हरिषेण चक्रवर्ती के द्वारा बनवाये हुए हैं।
हे वत्स! तू इन्हें नमस्कार कर और क्षण-भर में अपने हृदय को पवित्र कर।
७. कुल मिलाकर जैनशासन में ध्वजा के वर्णन में भिन्न-भिन्न वर्ण की ध्वजाओं के प्रमाण मिलते हैं। इस विषय में सन् १९७४ से प्रचलित हुई पंचरंगी ध्वजा के संदर्भ में मैंने पूज्य गणिनी प्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से वार्ता की, उनसे प्राप्त उत्तर यहाँ यथानुरूप प्रस्तुत है –
‘‘सन् १९७२ में मैं दिल्ली के अनेक प्रतिष्ठित महानुभावों (परसादी लाल जी पाटनी, पारसदास जी मोटर वाले आदि) के विशेष आग्रह पर राजस्थान से दिल्ली आई। वहाँ परमपूज्य भारतगौरव आचार्यश्री देशभूषण महाराज ने मुझे भगवान महावीर का २५००वाँ निर्वाण महोत्सव को राष्ट्रीय और शासन स्तर पर मनाने की सम्पूर्ण रूपरेखा से परिचित कराया। सन् १९७३ में मुनिश्री विद्यानंद महाराज दिल्ली पधारे, सन् १९७४ में पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर जी का भी ससंघ पदार्पण हुआ और निर्वाण महोत्सवसम्बन्धी सभी मीटिंगों में हम सभी साधुगण भाग लेते थे। एक बार जैनध्वज के सम्बन्ध में जब पंचरंगी ध्वज का प्रारूप आया तो आचार्य श्री धर्मसागर महाराज ने पहले तो उसे पूर्णरूपेण अस्वीकृत कर दिया, क्योंकि तब तक परम्परागतरूप से केशरिया ध्वज ही जैनशासन के ध्वजरूप में मंदिरों के शिखरों पर एवं महोत्सवों के प्रारंभ में किये जाने वाले ध्वजारोहण में फहराया जाता था इसलिए दोनों आचार्य इसे सहज स्वीकार नहीं कर पाए। बात कुछ और आगे बढ़ी, तब दोनों आचार्यभगवंतों ने मुझे आदेशित किया कि ज्ञानमती जी ! क्या कहीं आगम में पंचरंगी ध्वज का कोई प्रमाण आया है…. आदि। मैंने २ दिन का समय माँगा और दिगम्बर जैन आगम ग्रंथों का आलोडन किया तो जम्बूद्बीप-पण्णत्ति ग्रंथ में सुमेरु पर्वत के मंदिरों के वर्णन में एक जगह वर्णन मिला, उसे यहाँ ज्यों की त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है-
रयणमए जगदीए रयद्णमयापीढैतंगसिहरेसु।
मणिमयखंभेसु तहा धयणिवहा होंति णिद्दिट्ठा।।३१।।
सीहगयहंसगोवहसयवत्तमऊरमयरधयणिवहा।
चक्कायवत्तगरुढा दसविहसंखा गुणेयव्वा।।३२।।
अट्ठसयं अट्ठसयं एगेगधयाण होंति परिवारा।
वरपंचवण्णदिव्वा मुक्तामणिदामकयसोहा।।३३।।
(पंचम अधिकार)
रत्नमय पृथिवी पर स्थित रजतमय पीठ के ऊपर ऊँचे शिखरों वाले मणिमय खम्भों के ऊपर ध्वजासमूह निर्दिष्ट किये गये हैं।सिंह, गज, हंस, गोपति (वृषभ), कमल, मयूर, मकर, चक्र, आतपत्र और गरुड़, इन दश प्रकार की ध्वजाओं के समूह जानना चाहिए।इनमें से एक-एक ध्वजा के मोतियों व मणियों की मालाओं से शोभायमान उत्तम पाँच वर्णवाली एक सौ आठ-एक सौ आठ दिव्य परिवारध्वजाएँ होती हैं।अर्थात् परिवार ध्वजाओं में यहाँ पंचरंगी लघु ध्वजाएँ ग्रहण की गई हैं। लेकिन वहाँ महाध्वजा के वर्ण का कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है।इस प्रमाण को देखकर आचार्यद्वय ने इस पंचरंगी ध्वज के लिए अपनी स्वीकृति प्रदान की थी ।इन सबसे तात्पर्य यह निकलता है कि आगम में जिनमंदिरों के शिखरों पर श्वेत ध्वजा फहराने के उदाहरण तो मिलते हैं किन्तु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, विधि-विधानों के प्रारंभ में केशरिया ध्वज लहराने की ही प्राचीन परम्परा रही है। सन् १९७४ से पूर्व तो पूर्णरूपेण केशरिया ध्वज से ही ध्वजारोहण किया जाता था और सन् १९७४ के बाद से भीr अधिकतम महोत्सवों में केशरिया ध्वज से तथा कतिपय स्थानों पर पंचरंगी ध्वज से भी ध्वजारोहण किया जाता है एवं कहीं-कहीं दक्षिण भारत में विद्वानों द्वारा सफेद ध्वजा लहराने की सूचना भी प्राप्त हुई है।
२४ फरवरी २०१० को हस्तिनापुर पधारे एक प्रतिष्ठित महानुभाव से चर्चा हुई तो उन्होंने चर्चा के मध्य बताया कि ‘‘सन् १९७४ से पूर्व सभी मंदिरों में केशरिया ध्वज ही लहराने की परम्परा थी, उसके बाद से अब कहीं-कहीं पंचरंगी ध्वज भी लगाते हैं किन्तु ध्वजारोहण में सर्वत्र आज भी केशरिया ध्वज ही लगाने की परम्परा दक्षिण भारत में है।’’इसी प्रकार पूज्य मुनिश्री अमितसागर महाराज (आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के शिष्य) ने फरवरी २०१० में बताया कि मैंने स्वयं दक्षिण भारत में अनेक स्थानों पर पंचकल्याणक महोत्सव में केशरिया ध्वज से ही ध्वजारोहण होते देखा है।
फरवरी २०१० में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में विराजमान तीर्थंकरत्रय महामस्तकाभिषेक में दक्षिण भारत से पधारे क्षुल्लक श्री निर्वाणसागर जी (शिष्य-मुनि श्री नमिसागर महाराज) ने बताया कि दक्षिण भारत में ध्वजारोहण में अधिकतम केशरिया ध्वज ही प्रयोग किया जाता है, कहीं-कहीं मंदिर के ऊपर पंचरंगी ध्वज भी अब लगाया जाने लगा है।इसी प्रकार अन्य अनेक वरिष्ठ सन्तों, भट्टारकों एवं विद्वान् प्रतिष्ठाचार्यों से ज्ञात हुआ कि ध्वजारोहण में तो सदा हम लोगों ने केशरिया ध्वज ही प्रयुक्त किया है क्योंकि केशरिया ध्वज ही प्राचीन समय से चला आ रहा है ।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज की परम्परा के वरिष्ठतम ब्रह्मचारी थे बाबा सूरजमल जी प्रतिष्ठाचार्य, उन्हें भी हमने हमेशा (सन् १९७४ के बाद भी) केशरिया झण्डे से ही झण्डारोहण कराते देखा है।पं. वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री-सोलापुर ने भी सन् १९७५ में हस्तिनापुर के पंचकल्याणक में केशरिया झण्डे से ही ध्वजारोहण कराया था, उस समय आचार्य श्री धर्मसागर महाराज, उपाध्याय श्री विद्यानंद महाराज एवं पूज्य गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ससंघ विराजमान थे।पं. श्री नाथूलाल जी शास्त्री-इन्दौर भी केशरिया एवं पंचवर्णी दोनों प्रकार की ध्वजाओं को मान्यता प्रदान करते थे, तभी उन्होंने अपने ‘‘प्रतिष्ठा प्रदीप’’ ग्रंथ के पृ. २५ पर ‘‘प्रतिष्ठा मंडप आदि का निर्माण’’ हेडिंग के अन्दर लिखा है-मण्डप के आगे पीतवर्णी बड़े झण्डे का स्थान मण्डप से डेढ़ा या दुगुना काष्ठ का या पाइप ऊँचा लगाने को तीन कटनी ईंटों से मजबूत बनाई जावे।’’इन्होंने इसी प्रतिष्ठा प्रदीप में पृ. १२६ पर लिखा है-‘‘सित, रक्त, सित, पीत, सित, कृष्ण (नील) इस प्रकार पुनः मंदिर की दीर्घता के अनुसार रंगीन ध्वजा तैयार करावें ।’’ अर्थात् इस क्रम से छह पट्टी की रंगीन ध्वजा बनाने का प्रमाण पुष्ट होता है।पण्डित श्री शिवजीरामजी जैन पाठक-रांची द्वारा संपादित‘‘श्री प्रतिष्ठा विधान संग्रह’’ अपरनाम, ‘‘प्रतिष्ठाचंद्रिका’’ के पृ. १३७ पर बनाए गये ध्वजपट्ट का चित्र देखिये-
श्रीभट्टाकलंक रचित ‘‘प्रतिष्ठाकल्प’’ में पृ. १३० पर देखें-
एवं सुधौतसुश्लिष्ट, श्वेतनूतनवाससा।
कल्पयित्वा ध्वजं तत्र, शिल्पिना लेखयेदिति ।।३७।।
अर्थात् इस श्लोक के अनुसार श्वेत नूतन वस्त्र से निर्मित ध्वजा से ध्वजारोहण करने का विधान स्पष्ट होता है । इसी में इस श्वेत महाध्वज के मूल में (नीचे) और चारों तरफ कौसुम्भ और लाल वस्त्र की अनेक क्षुद्र ध्वजाएँ स्थापित करने संबंधी श्लोक भी उल्लिखित हैं ।इसी ग्रंथ में पृ. ७० पर है कि-प्रतिष्ठामण्डप के समीप ही या शुद्ध नदी या सरोवर के तट पर खनिस्थान नियुक्त करके उस उर्वरा जमीन में एक लाल ध्वजा गड़वा दी जाए । पृ. ८० पर है-इसके साथ ही ऊपर चढ़ाने के लिए एक त्रिकोण पताका को बांस में पहनाकर सतिलक ससूत्र करें । इसमें पृ. १०२ पर नन्दावेदी में ध्वजास्थापन का सुंदर क्रम दिया है-मध्य के कोठे के ऊपर पंचवर्णी ध्वजा को चंद्रोपक में लगा देना चाहिये- अष्टकोठी सिद्धमंडल पर सफेद रंग की, छत्तीस कोठी आचार्यमण्डल पर लाल रंग की, पच्चीस कोठी उपाध्यायमण्डल पर हरे रंग की, अट्ठाईस कोठी साधुमण्डल पर पीले रंग की, २५ कोठी जिनवाणीमण्डल पर सफेद रंग की, १६ कोठी भावनामण्डल पर लाल रंग की, १० कोठी धर्ममण्डल पर हरे रंग की और २९ कोठी रत्नत्रय मण्डल पर पीले रंग की ध्वजाएँ स्थापित करनी चाहिए। इस नव कोठी मण्डल के दक्षिण भाग में रखकर कलशों की और उत्तर भाग में रखकर ध्वजा की प्रतिष्ठा करनी चाहिये ।
श्रीr वसुविन्दु आचार्य रचित ‘‘प्रतिष्ठा पाठ’’ के पृ. ९९-१०० पर निम्न श्लोक दृष्टव्य हैं-
चीनश्लक्ष्ण मृदूत्तरीय पटलैश्छन्नं पुरा निर्मितं,
मस्तोपर्यनुयोग सूचिकलशं लंबत्पताकापटं ।
चातुर्दिश्य तिरस्करिण्यधिवृतं गोपानसीभिर्युतं,
द्वारोपांतविशोभियक्षयुगलं प्रांशुं मनोल्हादकं ।।३१९-३२१।।
अर्थात् चीन का कोमल सिचक्कण सुंदर आच्छादन वस्त्रनि करि ढक्या हुआ पूर्व निर्मापित किया ……… अरु लम्बायमान है पताका का पट जामैं……. अरु कोण में उद्भूत है छोटी ध्वजा जामै, अरु उछलती अर दृढ देदीप्यमान रज्जून करि बंधननै प्राप्त भयो……….. तीनलोकपति जिनेन्द्र का पूजन करणेवारेन के हस्तन करि नित्य स्थापन किये, ऐसैं मंंडप के अग्र ध्वजारोहण करना।।३१९-३२१।।२४. ब्र. शीतलप्रसाद जैन द्वारा रचित ‘‘प्रतिष्ठासार संग्रह’’ केपृ. १९६ पर ध्वजा का प्रमाण लिखा है-१२ अंगुल लंबी व ८ अंगुल चौड़ी हो, कपड़ा लाल या पीला हो, उसमें चंद्रमा, माला, नक्षत्र आदि के चिन्ह हों ।ध्वजा कहाँ लगाई जाती हैं ?जैन शास्त्रों में वर्णन है कि तीनों लोकों के अकृत्रिम चैत्यालयों के शिखरों पर रंग-बिरंगी ध्वजाएँ फहराती रहती हैं जो कि रत्नों की होते हुए भी कोमलवस्त्र के समान लहराती हैं। जैसे-मध्यलोक के ४५८ चैत्यालयों पर अलग-अलग चिन्ह सहित भिन्न-भिन्न रंग की ध्वजाएँ आरोपित करते हुए इन्द्रगण जो पूजा करते हैं, उसका नाम है इन्द्रध्वज पूजा ।संस्कृत के इन्द्रध्वज विधान में कहा है-
यत्र-यत्र कृता पूजा, तत्र तत्र विडौजसा ।
ध्वजा प्रस्थापिता नित्यं, तस्मादिन्द्रध्वजं स्मृतम्।।
अर्थात् इन्द्रों ने जहाँ-जहाँ पर पूजा की, वहाँ-वहाँ पर अर्थात् उन-उन चैत्यालयों पर ध्वजा आरोपित करते गए, इसलिए इस विधान का ‘‘इन्द्रध्वज’’ यह सार्थक नाम है ।
इस इन्द्रध्वज मण्डल की चार दिशा एवं चार विदिशाओं में ८ महाध्वजाएँ आरोपित की जाती हैं एवं मण्डल के ऊपर ४५८ ध्वजाएँ आरोपित की जाती हैं जिन पर निम्न प्रकार के दश चिन्ह बनाये जाते हैं-
यथा – ‘‘मालामृगेन्द्रकमलांबरवैनतेय मातंगगोपतिरथांगमयूरहंसा:’’
अर्थ-माला, सिंह, कमल, वस्त्र, गरुड़, हाथी, चकवा-चकवी, मयूर और हंस ये दश प्रकार के चिन्ह उन ध्वजाओं में बनवाये जाते हैं।
ये अलग-अलग चिन्ह वाली ध्वजाएँ किन मंदिरों पर कौन सी लगती
हैं ? इसका वर्णन इन्द्रध्वज विधान की पुस्तक में प्रस्तावना से द्रष्टव्य है ।
आदिपुराण में भगवान ऋषभदेव के समवसरण में द्वितीय कटनी पर आठ दिशाओं में आठ चिन्हों से युक्त महाध्वजाओं का बहुत ही सुन्दर वर्णन है। यथा-‘‘द्वितीय पीठ पर आठ दिशाओं में आठ बड़ी-बड़ी ध्वजाएँ सुशोभित हो रही थीं, जो बहुत ऊँची थीं और ऐसी जान पड़ती थीं मानो इन्द्रों के आठ लोकपाल ही हों। चक्र, हाथी, बैल, कमल, वस्त्र, सिंह, गरुड़ और माला चिन्ह से सहित तथा सिद्ध भगवान के आठ गुणों के समान वे ध्वजाएँ बहुत अधिक सुशोभित हो रही थीं ।’’
‘‘प्रत्येक जिनमंदिर की चारों दिशाओं में ध्वजभूमि के अन्दर सिंह, हाथी, वृषभ, गरुड़, मयूर, चंद्र, सूर्य, हंस, कमल और चक्र के चिन्हों से चिन्हित, १०८-१०८ मुख्य ध्वजाएँ हैं । सभी मिलाकर ४७०८८० ध्वजाएँ हैं। वे ध्वजाएँ प्रथम और द्वितीय कोट के अंतराल में हैं ।’’सिंह, हंस, गज, कमल, वस्त्र, वृषभ, मयूर, गरुड़, चक्र और माला के चिन्हों से सुशोभित दश प्रकार की पंचवर्णी महाध्वजाओं से उन चैत्यालयों की दशों दिशाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानों लहलहाते हुए नूतन पत्तों से ही युक्त हों१।यह तो अकृत्रिम चैत्यालयों एवं भगवान के समवसरण की ध्वजाभूमि में स्थित महाध्वजाओं का वर्णन हुआ है इसी प्रकार से इस धरती पर मनुष्यों द्वारा बनाए जाने वाले कृत्रिम मंदिरों पर शिखर बनाने, उन पर स्वर्ण कलशारोहण करने की एवं कलश से ऊँची ध्वजा आरोपित करने की प्राचीन परम्परा चली आ रही है, जिसके प्रमाण मैंने प्रतिष्ठा ग्रंथों के आधार से दिये हैं ।इसके साथ ही पंचकल्याणक महोत्सवों एवं वृहत्पूजा विधानों के प्रारंभ में जो ध्वजारोहण किया जाता है वह महोत्सव की निर्विघ्न सम्पन्नता एवं सर्वजन कल्याणकारी होता है । ऐसे ध्वजारोहण (झण्डारोहण) कार्यक्रमों में प्रायः ध्वजा फहराने के बाद उसकी उड़ती नोक की दिशा देखकर विद्वान् प्रतिष्ठाचार्यगण उसका शुभाशुभ फल बताते देखे जाते हैं । इस विषय में प्रतिष्ठासारोद्धार ग्रंथ के अध्याय-५, पृ. ११५ पर लेखक पं. आशाधरजी ने लिखा है-
मुक्ते प्राचीं गते केतौ, सर्वकामानवाप्नुयात् ।
उत्तराशां गते तस्मिन्, स्वस्यारोग्यं च संपद: ।।७१।।
यदि पश्चिमतो याति, वायव्ये वा दिशाश्रये ।
ऐशाने वा ततो वृष्टि:, कुर्यात् केतु: शुभानि सा ।।७२।।
अन्यस्मिन् दिग्विभागे तु, गते केतौ मरुद्वशात् ।
शांतिकं तत्र कर्तव्यं, दान पूजा विधानत: ।।७३।।
अर्थात् ध्वजा छोड़ने पर यदि वह पूर्वदिशा की तरफ जाए तो सब इष्ट मनोरथ सिद्ध होते हैं । पश्चिम, वायव्य व ईशान दिशा में ध्वजा की नोक जावे तो सभी के लिए कल्याणकारी होती है अथवा हवा के निमित्त से शेष अन्य दिशाओं में ध्वजा की नोक जाने से दान-पूजा-विधान से शांतिकर्म करना चाहिए।यहाँ ध्वजा के प्रकरण में साररूप में यह समझना है कि जैनशासन में श्वेत, केशरिया, पंचवर्णी आदि रंग की त्रिकोणाकार एवं आयताकार ध्वजाओं से ध्वजारोहण करने की परम्परा है तथा मंदिरों के ऊपर जो स्थाईरूप से अष्टधातु की ध्वजा या कपड़े की ध्वजा लगाई जाती हैं वे मात्र त्रिकोणाकार, द्वित्रिकोणाकार अथवा केशरिया वस्त्र की ही देखी जाती हैं ।पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में झण्डारोहण के बाद अंकुरारोपण करने की परम्परा देखी जाती है। इसमें विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि अंकुरारोपण के मंत्रों का उच्चारण उच्च स्वर से तथा माइक से न करके मन में करना चाहिए।इसके पश्चात् पंचकल्याणक महोत्सव में गर्भकल्याणक से लेकर निर्वाणकल्याणक तक के समस्त विधि-विधानों से संबंधित कतिपय प्रेरणाबिन्दु यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं, जो विद्वानों एवं प्रतिष्ठाचार्यों के लिए अनुकरणीय एवं विचारणीय हैं-
(१) पंचकल्याणक मंच पर तीर्थंकर माता का एक प्रसूतिगृह बनाया जाता है, जिसमें गर्भकल्याणक की अन्तरिम क्रियाएँ होती हैं।
(२) गर्भकल्याणक की अन्तरिम क्रिया (गर्भशोधन, जातकर्म आदि) जो प्रमुखरूप से पेटिका (मंजूषा) या मटकी में या पाषाण की माता बनाकर उसके सामने कराई जाती हैं, उसका प्रदर्शन सार्वजनिकरूप में नहीं करना चाहिए। टी.वी. पर तो इस्ो दिखाने की कोई बात ही नहीं है। गर्भशोधन क्रिया के मंत्र भी माइक पर न बोलकर मन में बोलना चाहिए। यह क्रिया पर्दे के अंदर करना चाहिए।
(३) गर्भकल्याणक की अंतरंग क्रियाओं में केवल तीर्थंकर माता की पूजन सार्वजनिक रूप में कराना एवं दिखाना चाहिए, जो कि प्रतिष्ठाग्रंथ में वर्णित है, इसमें विधिनायक तीर्थंकर प्रतिमा की माता (मरुदेवी…..आदि किसी भी माता की) पूजा विशेषरूप से संगीत के साथ करा दें एवं शेष २३ माताओं की पूजा मंत्रों से करा सकते हैं।
अंतरिम क्रिया में १६ स्वप्नों के श्लोक पढ़कर जो फल-पुष्प परिवर्तन की विधि है, वह प्रतिष्ठाचार्य को मन में मंत्र बोलकर पर्दे के अंदर बिना माइक के कराना चाहिए।
(४) गर्भकल्याणक की अन्तरिम क्रिया के समय कार्यक्रम में बनने वाले माता-पिता को मंजूषा के पास बिठाकर कुछ विद्वान् उनके ऊपर भी पूरी विधि करते हुए मंत्रों से पुष्प क्षेपण आदि करते हैं वह कदापि नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे तीर्थंकर की दो माताओं जैसा दृश्य उपस्थित हो जाता है जो कि दोषास्पद प्रतीत होता है। अन्यथा श्वेताम्बर परम्परामान्य भगवान महावीर की दो माताओं जैसी भ्रान्ति समाज में उत्पन्न हो जायेंगी।
(५) रात्रि में जब मंच पर प्रदर्शन वाली माता के स्वप्न आदि का प्रदर्शन होता है, उस समय मंजूषा में स्थापित माता पर कोई क्रिया नहीं करना चाहिए और न ही उन्हें सार्वजनिक दिखाना चाहिए। अन्तरिम क्रियाओं को अन्तरिम (गुप्त) ही रखने से उसकी महत्ता बनी रहती है, अन्यथा उनका महत्व समाप्त होता है।
(६) गर्भकल्याणक के दिन प्राय: तीर्थंकर माता बनने वाली सौभाग्यशालिनी नारीरत्न की गोदभराई की रस्म सम्पन्न होती है, जिसमें सौभाग्यवती महिलाएँ अनेक प्रकार की भेंट देकर उनकी गोद भरकर अपने सौभाग्य-सुख की मंगल कामना करती हैं। अनेक बंध्या स्त्रियाँ तीर्थंकर माता की गोद भरने से पुत्रवती होती देखी गई हैं तथा कुमारी कन्याएँ उनकी गोद भरकर शीघ्र सौभाग्यवती- विवाहिता हो गई हैं। ऐसा चमत्कार तीर्थंकर माता बनने वाली नारी के अन्दर उनके अत्यन्त शुभ परिणामों के कारण उत्पन्न हो जाता है।
(७) गर्भकल्याणक में भगवान के माता-पिता बनने वाले दम्पत्ति मंच पर होने वाले स्वप्न आदि के वार्तालाप को कभी-कभी बोलने में अक्षम होते हैं, तो प्राय: प्रतिष्ठाचार्य पीछे से पिता का पाठ बोलते हुए देखे जाते हैं और माता का पाठ कोई न कोई अन्य महिला बोलती हैं, यह सर्वथा अनुचित है। वे स्वप्नदर्शन या स्वप्नफल आदि के पाठ या तो वे ही माता-पिता दम्पत्ति जैसा भी बोल सकें, वैसा बोलें, अन्यथा किसी वक्ता दम्पत्ति से बुलवा दें। अन्यथा विद्वान् पण्डित स्वयं पति-पत्नी दोनों के पाठ बोल देवें। कोई भी पुरुष एवं कोई भी महिला के द्वारा पति-पत्नी का पाठ बुलवाने से दोष लगता है। फिल्म का खुला वातावरण प्रतिष्ठाओं में उचित नहीं है। इसमें सर्वोत्तम यही है कि माता-पिता बनने वाले स्त्री-पुरुष को अपने-अपने बोलने वाले पाठ के कागज दे दें, वे उन्हें देखकर बोलें और उनके वास्तविक शब्दों को ही जनता भी सुने, तभी ज्यादा आनंद आएगा क्योंकि धार्मिक-सामाजिक कार्यक्रमों में व्यावसायिक लोगों द्वारा प्रस्तुतीकरण वास्तविकता को भंग कर देता है।
(८) गर्भकल्याणक के दिन रात्रिकालीन दृश्यों में माता-पिता द्वारा सोलह स्वप्नों के पूछने और उनका फल बताने के कार्यक्रम के पश्चात् प्रतिष्ठाचार्य मंच से भगवान के गर्भकल्याणक की घोषणा अवश्य करें।
गर्भकल्याणक की घोषणा के पश्चात् इन्द्रों का आगमन, उनके द्वारा माता-पिता कों भेंट दिया जाना आदि दृश्य दिखाकर प्रथम दिन के कार्यक्रम का समापन करना चाहिए।
(९) गर्भकल्याणक के मंचन में सौधर्म इन्द्र की सुधर्मा सभा में अन्य सभासद इन्द्र-इन्द्राणी सौधर्म इन्द्र से प्रश्न करते समय नृत्य करते हुए नहीं आना चाहिए, क्योंकि इन्द्रसभा सौधर्म इन्द्र की गरिमा के अनुरूप पूरी तरह शालीन और सुव्यवस्थित होना चाहिए। इन्द्र-इन्द्राणियों का एक सामूहिक भक्ति नृत्य इन्द्रसभा के समापन में गर्भकल्याणक की खुशी का प्रदर्शन करते हुए प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
जनता के आकर्षण हेतु इन्द्रसभा के प्रारंभ और मध्य में देव अप्सरा के रूप में कन्याओं अथवा महिलाओं के नृत्य करा सकते हैं।
इन्द्रों के द्वारा तो खड़े होकर अच्छे-अच्छे शास्त्रीय प्रश्न ही कराना चाहिए।
(१०) प्रतिष्ठा में यदि विधिनायक ऋषभदेव भगवान हैं, तो मंच पर अयोध्या नगरी में सर्वतोभद्र महल बनाने से पूर्व भोगभूमि के समापन और कर्मभूमि के आरंभ का दृश्य भी प्रस्तुत करें।
भोगभूमि के काल में जब इस धरती पर भोगभूमि का अंत होने लगा, तब जनता राजा नाभिराय के पास समस्या का समाधान करने आती है, तो वे ऋषभदेव के पास प्रजा को भेजते हैं, उन दृश्यों में प्रजा में स्त्री-पुरुषों को जंगली मानव जैसा न दिखाकर अच्छे सुन्दर-सुडौल-सुसज्जित वस्त्राभरणों से सहित ही दिखाना चाहिए, क्योंकि भोगभूमि के मानव तो शारीरिक दृष्टि से बहुत सुन्दर दिखते हैंं। दिगम्बर जैन शास्त्रों में उन्हें वनमानुष जैसा जीवन व्यतीत करना नहीं माना है और न ही जंगली मानव से कर्मभूमि बनती है।
(११) इसके बाद अयोध्या नगरी में ८१ मंजिल का सर्वतोभद्र महल बनाकर सौधर्म इन्द्र के द्वारा उस महल की पुण्याहवाचन मंत्रों से शुद्धि करते और नाभिराय-मरुदेवी का उसमें प्रवेश दिखावें।
(१२) इन्द्रों की ड्रेस में राजाओं की शेरवानी से भिन्न सुन्दर धोती-दुपट्टा (गोटा-किनारी के काम वाले), हार, मुकुट, बाजूबंद, करधनी आदि होना चाहिए। उसमें भी सौधर्म इन्द्र की ड्रेस सबसे भिन्न अत्यधिक सुन्दर होना चाहिए।
(१३) जन्मकल्याणक में प्रात:कालीन दिखाये जाने वाले दृश्य में मंच पर पर्दे के पीछे सोती हुई तीर्थंकर माता का पलंग रखें। साथ में देवियाँ खड़ी हों। पर्दे के बाहर मंच के किनारे पर पिता को राजसी िंसहासन पर बिठा दें तथा मंच के सामने नीचे पाण्डाल में सौधर्म इन्द्र की सुधर्मा सभा लगी हुई दिखावें। इसके बाद सर्वप्रथम प्रतिष्ठाचार्य जन्मकल्याणक की क्रिया प्रसूतिगृह में करके माता के पास जिनबालक के रूप में प्रतिष्ठेय प्रतिमा को लाकर रख दें और जन्मकल्याणक का मंत्र (मन में) पढ़कर भगवान के जन्म की घोषणा करें, तुरन्त सौधर्म इन्द्र का आसन कम्पित हो और सुधर्मा सभा में लघु वार्तालाप के अनंतर इन्द्र को ऐरावत हाथी पर चढ़कर आता हुआ दिखावें।अथवा सभी इन्द्र-इन्द्राणी तीर्थंकर की नगरी, माता-पिता एवं जन्मकल्याणक की जय-जयकार करते हुए नगरी की प्रदक्षिणा के प्रतीक में पूरे पाण्डाल की तीन प्रदक्षिणा लगाकर सामने से मंच पर आते हुए दिखावें।यहाँ ध्यान देना है कि भगवान तीर्थंकर बालक का नाम अभी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि प्रतिष्ठा ग्रंथों के अनुसार जन्माभिषेक के बाद पाण्डुकशिला पर सौधर्म इन्द्र उनका नामकरण करते हैं, तब नाम का उच्चारण करके जय-जयकार की जाती है। उसके पहले निम्न प्रकार से जयकारा कर सकते हैं-
तीर्थंकर भगवान की जय
अयोध्या नगरी की जय
महाराजा नाभिराय की जय
महारानी मरुदेवी की जय
जन्मकल्याणक महोत्सव की जय
पुनश्च-
मंच पर पहुँचकर इन्द्र तीर्थंकर भगवान के पिता से जन्मकल्याणक मनाने की आज्ञा मांगें और शचि इन्द्राणी को प्रसूतिगृह में भेजें, ध्यान रखें कि उस समय शचि इन्द्राणी के हाथ में मायामयी बालक न देवें, अपितु माता को मायामयी निद्रा में सुलाने के पश्चात् स्वर्ग से विमान द्वारा मायामयी बालक आता हुआ दिखावें और वह बालक माता के पास रखा जावे और पर्दा खोल दें। वहाँ मायामयी निद्रा में माता को सुलाकर उनके पास से प्रतिमा उठाकर मायामयी बालक को रखना आदि दृश्य दिखाना और इन्द्राणी का मंच पर बालक को लाना ये सब दृश्य बड़े रोमांचक होते हैं।
इसमें विशेष बात यह चिन्तन करने योग्य है-प्राय: सभी पंचकल्याणकों में जन्मकल्याणक के इस प्रसंग में यह दृश्य दिखाया जाता है कि सौधर्म इन्द्र जिनबालक को अपने हाथों में लेने के लिए इन्द्राणी की खूब मनुहार करता है और काफी देर तक इसे आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते हुए विद्वान् एवं संगीतकार इन्द्र को इन्द्राणी के पैर पड़ते हुए भी दिखाने लगते हैं किन्तु यह अनुचित प्रतीत होता है, क्योंकि सौधर्म इन्द्र जैसे महान इन्द्रराज के लिए इन्द्राणी की इतनी मनुहार शोभास्पद नहीं है और न ही शचि इन्द्राणी का अपने पति इन्द्रराज को इतना झुकाना अच्छा लगता है।
इस दृश्य को एक सीमा तक शालीनता और गरिमा के साथ दिखावें तथा आकर्षण के लिए इन्द्र-इन्द्राणी का भक्तिविभोर होकर ताण्डव नृत्य करावें। इस अवसर पर मंच पर कुछ देर उत्सव के माहौल में अन्य इन्द्र-इन्द्राणी भी भक्तिनृत्य प्रस्तुत कर सकते हैं।
(१४) पाण्डुकशिला पर जन्माभिषेक के बाद उन्हें वस्त्राभरण से सुसज्जित करके वहीं पर प्रतिष्ठाचार्य को मंत्र बोलकर इन्द्र के मुख से तीर्थंकर बालक के नाम की घोषणा कराना चाहिए। भगवान के नाम के साथ कुमार आदि (जैसे-आदिकुमार, पार्श्वकुमार…..आदि) नहीं लगाना चाहिए, क्योंकि वे जन्म से ही नाथ होते हैं। उन्हें आदिनाथ, पार्श्वनाथ आदि ही कहना चाहिए।
आजकल सभा में भगवान के नामकरण का दृश्य प्रस्तुत किया जाता है, वह उचित नहीं है, यह विधि अन्तरंग है।
(१५) पाण्डुकशिला पर जन्माभिषेक महोत्सव मनाने के बाद पाण्डाल के मंच पर इन्द्रों के द्वारा प्रतिमा की आकारशुद्धि पूर्ण शास्त्रीय विधि अनुसार होना चाहिए। आकारशुद्धि में सभी प्रकार के पत्ते आदि का चूर्ण पहले से ही बनवाकर रखें और मिट्टी के कलशों में डालकर यथाक्रम से नम्बर डालकर कलश स्थापित करें और क्रम से ही उन कलशों से अभिषेक कराते हुए आकारशुद्धि का कार्यक्रम सम्पन्न करें।
यह आकारशुद्धि जन्माभिषेक का ही प्रतीक है किन्तु पाण्डुकशिला पर भीड़ के कारण यह क्रम बन नहीं पाता है, इसलिए अलग से इसे विधिवत् क्रियान्वित करके प्रतिमा की शुद्धि की जाती है।
(१६) जन्मकल्याणक के जुलूस में सौधर्म इन्द्र के ऐरावत हाथी को सबसे आगे रखना चाहिए। बैण्ड-बाजे वाले उसके आगे रहें, शेष सभी जनता, झाँकियाँ आदि पीछे होना चाहिए। भक्ति नृत्य करने वाले स्त्री-पुरुष ऐरावत हाथी के आगे थोड़ी दूर से नृत्य कर सकते हैं।
(१७) जन्मकल्याणक के दिन (रात्रि में) पालना झुलाने की परम्परा सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज में प्रचलित है। प्राय: पंचकल्याणक में सर्वाधिक आकर्षण जन्मकल्याणक महोत्सव का होता है अत: पालने के समय कार्यकर्ताओं से बेरीकेटिंग व्यवस्था सुन्दर और सुदृढ़ बनवाना चाहिए ताकि क्रम-क्रम से लोग पालना झुलाकर निकलते जाएँ और भीड़ की धांधलबाजी में किसी के जेवर आदि का नुकसान न होने पाये।
(१८) कहीं-कहीं पर पालने को बिजली की झालरों से इतना अधिक सजा दिया जाता है कि भगवान की प्रतिमा उसमें दिखती ही नहीं हैं, अत: सजावट के साथ-साथ भगवान के वस्त्र-अलंकार की सुन्दरता का भी ध्यान रखना चाहिए, जिससे उनका सौंदर्य अधिक दिखाई दे, ऐसी ड्रेस और आभूषण-मुकुट आदि पहनावें।
(१९) पालने के समय प्रतिष्ठाचार्य विद्वान् भगवान की आँखों में कज्जल लगाने हेतु बुआ की बोली लगवाते हैं और इस दृश्य को बहुत आकर्षकरूप में प्रस्तुत किया जाता है किन्तु प्रतिष्ठा ग्रंथों में यह विधि नहीं वर्णित है। यह तो साधारण बालकों में प्राय: चलता है अत: कज्जल लगाने का प्रदर्शन भगवान के लिए करना उपयुक्त नहीं प्रतीत होता है, क्योंकि तीर्थंकर भगवान की तो पूरी सेवा और देख-रेख स्वयं शचि-इन्द्राणी एवं स्वर्ग की देवियाँ करती हैं अत: यदि कज्जल लगवाना ही है, तो शचि इन्द्राणी से लगवाना चाहिए।
(२०) तीर्थंकर बालक की बालसभा में मित्र बालकों द्वारा प्रश्नों की प्रस्तुति में अति साधारण घरेलू जैसे प्रश्नों की बजाय छोटे-छोटे प्रश्न शास्त्रीय ही (जैसे-गतियाँ कितनी हैं, इन्द्रियाँ कितनी हैं, पाप कितने हैं ?….इत्यादि) प्रस्तुत करना चाहिए क्योंकि तीर्थंकर तो गर्भकाल से ही मति-श्रुत-अवधि ज्ञान के धारी होते हैं, उनकी साधारण बालकों के समान सामान्य चेष्टाएँ नहीं होती हैं, तभी तो वे जन्मजात अवस्था में ही बड़े-बड़े १००८ कलशों का अभिषेक अपने ऊपर झेल लेते हैं।
(२१) तीर्थंकर प्रभु के दीक्षाकल्याणक में गणधरवलय स्तोत्र पढ़ने की परम्परा भी किन्हीं-किन्हीं विद्वानों द्वारा आजकल देखी जा रही है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के अनुसार उसे उस समय नहीं पढ़ना चाहिए, क्योंकि यह पाठ साधारण मुनि दीक्षा में पढ़ने योग्य है, न कि भगवान के दीक्षाकल्याणक में। तीर्थंकर प्रभु तो केवल ‘‘नम: सिद्धं’’ का उच्चारण करके स्वयं दीक्षा ग्रहण करते हैं, उनकी दीक्षा में किसी विधि की आवश्यकता ही नहीं होती है।
(२२) भगवान की दीक्षा में पिच्छी-कमण्डलु देते समय ‘‘भो अन्तेवासिन्! पिच्छिकां गृहाण गृहाण…….’’ कभी नहीं बोलना चाहिए, क्योंकि वे किसी मुनि आदि के शिष्य नहीं होते हैं, उनकी दीक्षा तो दीक्षाकल्याणक है न कि किसी मुनि जैसी साधारण दीक्षा। अत: पिच्छी-कमण्डलु को उनके दाहिने और बाएँ हाथ की ओर केवल स्थापित कर देना चाहिए।
(२३) तीर्थंकर महामुनि के नाम के साथ सागर या नन्दि (जैसे आदिनाथ को आदिसागर या नेमिनाथ, शांतिनाथ को नेमिसागर, शांतिसागर) आदि नहीं जोड़ना चाहिए, प्रत्युत् उनका नाम ज्यों का त्यों आदिनाथ, शांतिनाथ, नेमिनाथ आदि ही रहना चाहिए। सागर आदि शब्द जोड़कर नाम बदलने की परम्परा तो वर्तमान की अति नवीन व्यवस्था साधारण मनुष्यों (मुनियों) के लिए है, तीर्थंकर भगवान की गरिमा का ध्यान रखते हुए उन्हें तो जन्म से ही भगवान कहना चाहिए अत: दीक्षा के बाद उन्हें तीर्थंकर महामुनि आदिनाथ या शान्तिनाथ आदि नाम के साथ उच्चारित करना चाहिए।
(२४) आजकल दीक्षाकल्याणक के समय कुछ प्रतिष्ठाचार्य प्रतिमा के ऊपर अंकन्यास विधि आदि कर देते हैं, जो कि केवलज्ञान कल्याणक से पूर्व होना ही नहीं चाहिए।
इस संबंध में विभिन्न प्रतिष्ठा ग्रंथों के प्रमाण यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं-
(१) प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के अनुसार-
दीक्षाकल्याणक में मात्र भगवान को शिविका (पालकी) से उतारकर तपोवन में चन्द्रकान्तशिला पर स्थापित करना, वहाँ दीक्षावृक्ष की स्थापना करके प्रतिष्ठाचार्य अथवा उपस्थित आचार्य-मुनिराज उनके वस्त्राभूषण उतारकर सामने थाल में रखकर मस्तक पर केशर लगाकर उन्हें निकालकर केशलोंच प्रक्रिया को दिखा देवें और मंत्र बोलकर पिच्छी-कमण्डलु स्थापित करें, पुन: दाहिने हाथ में बंधे कंकण को खोलने का मंत्र है और भगवान को दीक्षा लेते ही सामायिक चारित्र होने के प्रतीक में पुष्पांजलि डालना और मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाने के प्रतीक में चार बत्ती वाला दीपक जलाने का मंत्र है।
अंकन्यास का विधान केवलज्ञान कल्याणक में पृ. ५०-५१ (जम्बूद्वीप से प्रकाशित प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ में) पर है। इससे पूर्व केवलज्ञान कल्याणक में कल्याणमालारोपण क्रिया एवं संस्कारमालारोपण क्रियाएँ वर्णित हैं अर्थात् केवलज्ञानकल्याणक में इन दोनों क्रियाओं के बाद ही मंत्रन्यास-अंकन्यास विधि की जाती है।
अंकन्यास विधि का पूर्व श्लोक देखें कि उसमें क्या कहा है-
सालोकलोकत्रितयैकनित्य-ज्योति: परब्रह्ममहोदयस्य।
साक्षादभिव्यंजनमेव शब्द-ब्रह्मेति मंत्रानिह तान्न्यसामि।।१।।
अर्थात् अलोकाकाश सहित तीन लोक को प्रगट करने वाला, नित्यज्ञानरूपी-केवलज्ञान ज्योति को धारण करने वाला और परमात्मा के वैभव को स्पष्ट करने वाला यह शब्दब्रह्म है इसलिए उस शब्दब्रह्म के मंत्रों को जिनप्रतिमा के अवयवों पर मैं न्यास करता हूँ। इस प्रकार उपर्युक्त श्लोक पढ़कर-‘‘मंत्रन्यासप्रतिज्ञापनाय प्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत्।’’ इस मंत्र को पढ़कर प्रतिमाओं पर पुष्पांजलि क्षेपण करके मंत्रन्यास की प्रक्रिया प्रारंभ करने का विधान है।
(२) प्रतिष्ठासारोद्धार (पण्डितप्रवर आशाधर जी विरचित) ग्रंथ के अनुसार-पृ. १०१ से १०३ तक वर्णित दीक्षाकल्याणक विधि में केशलोंच, दीक्षाग्रहण, चार ज्ञान प्रगट हुए बतलाने हेतु चार बत्ती का दीपक जलाना और विशेष तपस्या की स्थापना हेतु प्रतिमा पर पुष्पांजलि क्षेपण करने को कहा है पुन: केवलज्ञान कल्याणक के अन्तर्गत ही पंचकल्याणक मालारोपण, संस्कारम्ाालारोपण के बाद ही अंकन्यास की प्रतिमा का श्लोक दिया है-
विश्वोद्भासि परब्रह्मव्यञ्जकं स्यात्पदांकितम्।
शब्दब्रह्मेति मंत्रालीं न्यसामीह जिनेशिन:।।१४६।।
इसके बाद मंत्र पढ़कर अंकन्यास करने की पूरी विधि वर्णित है।
(३) प्रतिष्ठाकल्प के अनुसार (श्रीभट्टाकलंक आचार्य द्वारा संग्रहीत-श्रीजिनसेन महास्वामी ग्रंथमाला करवीर से प्रकाशित)-पृष्ठ १९२-१९६ तक १७वें परिच्छेद में वर्णित परिनिष्क्रमणकल्याणविधि-दीक्षाकल्याणक विधि में उपर्युक्त चतुर्वर्तिदीपप्रज्ज्वलन आदि तक क्रिया ही कही है, उसके बाद केवलज्ञान कल्याणक में ४८ संस्कार मंत्रों के पश्चात् ही अंकन्यास का वर्णन किया है। यथा-
संस्कारानेवमारोप्य, मंत्रन्यासं करोत्वत:।
विश्वोद्भासि परब्रह्मव्यंजकं स्यात्पदान्वितम्।।३८।। (पृ. २००)
(४) प्रतिष्ठाप्रदीप (पं. नाथूलाल शास्त्री-इंदौर द्वारा लिखित) के अनुसार-पृ. १९० पर दीक्षा के अगले-दूसरे दिन आहार क्रिया को सम्पन्न करने के पश्चात् प्रतिमा पर मंत्रन्यास करने की विधि दी है।
विचारणीय विषय है!कुछ विद्वान् किन्हीं प्रतिष्ठा ग्रंथों के आधार से दीक्षाकल्याणक में यह अंकन्यास विधि सम्पन्न करते हैं, उनके लिए विचारणीय विषय है कि यह विधि करने के बाद भगवान को मुनिराज के रूप में आहारचर्या को वैâसे उठाएंगे ? तथा ४८ मंत्रों से संस्कारमालारोपण करके किये जाने वाले इस अंकन्यास के पश्चात् गंधयंत्र बनाकर उसकी आराधना एवं तिलकदान आदि विधि सम्पन्न की जाती है एवं अनेक प्रकार की नयनोन्मीलन आदि अन्य विधि भी होती है, जिसका दीक्षाकल्याणक से कोई संबंध नहीं है।पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी इस संबंध में बताती हैं-सन् १९५७ में आचार्यश्री वीरसागर महाराज (चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाचार्य) के पास जयपुर-खानिया में पण्डित शिवजी राम जी आए थे, आचार्यश्री से उन्होंने कहा कि प्रतिष्ठातिलक में दीक्षाकल्याणक संबंधी कोई खास विधि नहीं है, मंत्रन्यास नहीं है। इस संबंध में आचार्यश्री ने समाधान दिया कि -चूँकि तीर्थंकर भगवान स्वयं दीक्षा लेते हैं, कोई गुरु उनके मस्तक पर किसी प्रकार के संस्कार नहीं करते हैं इसीलिए तीर्थंकर भगवान की प्रतिमाओं पर दीक्षाकल्याणक में कोई मंत्रों का संस्कार नहीं होना चाहिए। तो उन्होंने ब्र. शीतल प्रसाद द्वारा संकलित ‘‘प्रतिष्ठा विधान संग्रह’’ के आधार से बताया कि इस ग्रंथ में दीक्षाकल्याणक के समय अंकन्यास करने को कहा है, उस समय आचार्य श्री वीरसागर जी एवं वहाँ उपस्थित आचार्यश्री महावीरकीर्ति महाराज ने उस ग्रंथ का पुरजोर विरोध करके उसे अमान्य बताया था। उन दोनों ने कहा कि इस ग्रंथ की यह विधि अपनाने से आगे यह परम्परा गलत चल जाएगी।उसी समय वसुविन्दु प्रतिष्ठापाठ की भी चर्चा आई तो पं. इन्द्रलाल जी शास्त्री ने कहा कि इसमें भी तोड़-मरोड़कर अंकन्यास की विधि दीक्षाकल्याणक में घुसाई गई है एवं इसमें गर्भकल्याणक की विधि अपूर्ण है तथा मोक्षकल्याणक की विधि ही नहीं है।
उस समय आचार्यद्वय (आचार्यश्री वीरसागर महाराज एवं आचार्यश्री महावीरकीर्ति जी) तथा पं. इन्द्रलाल शास्त्री आदि अनेक विद्वानों का यह निर्णय रहा कि प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ से ही पंचकल्याणक की सम्पूर्ण विधि कराना सर्वोत्तम है। आज भी दक्षिण भारत में सभी विद्वान् एवं भट्टारकगण इसी प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ से ही पंचकल्याणक सम्पन्न कराते हैं और आचार्यश्री की आज्ञा से ब्र. सूरजमल जी भी (वरिष्ठ प्रतिष्ठाचार्य थे) इसी ग्रंथ से सभी प्रतिष्ठाएँ कराते रहे हैं।
तिलकदान विधि-केवलज्ञान कल्याणक में तिलकदान विधि के पश्चात् भगवान के सामने सप्तधान्य स्थापित करने की एक विधि आती है। जैसे-
जिनेश्वर श्रीचरणांबुजाग्रे, सप्तोद्धधान्यानि समुच्चितानि।
अनन्तधर्मेष्वपि संभवन्तीं, अर्हन्तु दिव्यध्वनिसप्तभंगीम्।।३।।
मुखवस्त्रप्रदानपूर्वकं यवमालामारोप्य जिनपदाग्रत: सप्तधान्यान्युपाहरेत्।।
यहाँ मुखवस्त्रप्रदान का अर्थ है भगवान के आगे पर्दा डालना और पर्दे के अन्दर प्रतिमाओं को यवमाला पहनाकर उनके आगे सप्तभंगी के प्रतीक में सप्तधान्य के सात पुंज रखें। कोई-कोई विद्वान् सप्तधान्य रखकर कपड़े की पट्टी भगवान के मुख में बांध देते हैं, सो सर्वथा अनुचित है। ब्र. सूरजमल आदि पुराने विद्वान् कभी भी ऐसा नहीं करते थे।(२५) केवलज्ञानकल्याणक में तिलकदान नामक विधि में स्वर्ण सौभाग्यवती महिला (दम्पत्ति) से विधिवत् शिला पर वस्तुएँ (हल्दी, इलाइची, कंकोल, जायफल, सरसों, चंदन, कपूर आदि) पिसवा कर कल्कचूर्ण तैयार कराया जाता है। वह कल्कचूर्ण स्वर्ण शलाका से सब प्रतिमाओं की नाभि में लगाया जाता है, इसी का नाम तिलकदान विधि है। प्रतिष्ठातिलक ग्रंथ के अनुसार यही प्राणप्रतिष्ठा कहलाती है, फिर भी वर्तमान में प्राणप्रतिष्ठा का मंत्र पढ़ने एवं सूरिमंत्र देकर प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित करने की परम्परा समाज में प्रचलित है, उसे भी करते हैं। यहाँ कोई-कोई विद्वान् इस कल्कचूर्ण से अपने तिलक लगवाकर भेंट लेते भी देखे गये हैं, जो सर्वथा अनुचित एवं हास्यास्पद है। यह अर्थ का अनर्थ हो गया है।
(२६) समवसरण की रचना शास्त्रीय विधि के अनुसार समतल पर ही बनानी चाहिए। कटनी के ऊपर कटनी बनाकर समवसरण की रचना करना आगम- सम्मत नहीं है अर्थात् समतल गोलाई में सातों भूमियाँ बनाकर आठव्ाीं श्री मण्डपभूमि के मध्य तीन कटनी के ऊपर सिंहासन पर चतुर्मुखी भगवान को अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान करना चाहिए। आप इसके लिए तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ का अध्ययन अवश्य करें।
(२७) मोक्षकल्याणक की क्रिया में वैâलाशपर्वत, सम्मेदशिखर, गिरनार आदि (विधिनायक तीर्थंकर की निर्वाणस्थली के प्रतीक में) बनाकर उसके ऊपर विधिनायक प्रतिमा विराजमान करके जो पूजा कराने अथवा सज्जाति आदि मंत्रों से पुष्प चढ़ाने की प्रक्रिया है, उसे भगवान के सामने थाल रखवाकर इन्द्र-इन्द्राणी से सम्पन्न करावें या आजू-बाजू से करें, किन्तु पीछे सामग्री या पुष्प न चढ़ावें।
(२८) मोक्षगमन के समय भगवान के सामने पर्दा डालकर ही भगवान को उठाकर सिद्धशिला गमन का दृश्य दिखाना चाहिए। उस समय सभी लोगों को आँख बंद करके ध्यान या कायोत्सर्ग करने का निर्देश देवें।
(२९) मोक्षकल्याणक के पश्चात् अग्निकुमार इन्द्रों द्वारा भगवान के अंतिम शरीर का अग्निसंस्काररूप हवन पुन: पूर्णाहुति हवन करवाना चाहिए। हवनकुण्ड में बाहर तीनों या चारों तरफ १-१ स्वस्तिक ही बनावें और हवन कुण्डों के अन्दर अग्निमंडल यंत्र को लालरंग-रोली से ही बनावें।
पुन: रथयात्रा या गजरथ आदि का आयोजन भी करने की परम्परा है। उसे सम्पन्न कराकर विधिनायक तथा समस्त प्रतिमाओं अथवा जहाँ विशाल पद्मासन-खड्गासन प्रतिमा विराजमान होती हैं, उनके महामस्तकाभिषेक का कार्यक्रम अवश्य रखना चाहिए।
(३०) वेदी में भगवान विराजमान कराते समय मंत्र को मन में बोलना चाहिए, जोर से नहीं। इसी प्रकार जन्मकल्याणक का मंत्र, तिलकदान का मंत्र, नेत्रोन्मीलन का मंत्र भी माइक पर नहीं बोलना चाहिए।
परमपूज्य आचार्यश्री वीरसागर महाराज कहते थे कि मण्डल विधान या पंचकल्याणक आदि में जो मंत्र अनुष्ठान में किये जाते हैं, हवन में उनकी आहुति देते समय उन मंत्रों को मन में ही बोलना चाहिए। ‘मत्रि’ धातु से गुप्तभाषण अर्थ में मंत्री और मंत्र शब्द बने हैं अत: मंत्रों को गुप्त रखने से उनका फल अधिक प्राप्त होता है।
(३१) महामस्तकाभिषेक में जो १००८ कलश या १०८ कलश सजाये जाते हैं उनसे चतुष्कोण कलश के समय उसी मंत्र से अभिषेक करावें उसके पश्चात् ही चन्दनलेपन-पुष्पवृष्टि आदि कराना चाहिए, क्योंकि ये कलश चतुष्कोण कलश के प्रतीक में ही होते हैं।
(३२) इन समस्त कार्यक्रमों के बाद झण्डा अवतरण कराकर यजमान-याजक तथा देश-राष्ट्र-नृप-प्रजा-समाज आदि के शांति-सुभिक्ष की मंगल कामनापूर्वक प्रतिष्ठा महोत्सव को सम्पन्न करावें।
यहाँ तक पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव को सम्पन्न कराने की कुछ आवश्यक प्रक्रिया एवं संकेत बिन्दु प्रस्तुत किये गये हैं।
इसके अतिरिक्त भगवान ऋषभदेव (आदिनाथ) की विधिनायक प्रतिमा की प्रतिष्ठा हेतु अन्य किञ्चित् प्रेरणाबिन्दु भी यहाँ दृष्टव्य हैं-
(१) ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याओं को भगवान ऋषभदेव के द्वारा राज्यावस्था में लिपि एवं अंकविद्या प्रदान करते हुए दिखाना चाहिए और नारी शिक्षा अभियान का शुभारंभ युग की आदि में सर्वप्रथम ऋषभदेव ने किया, इस विषय पर प्रवचन में अच्छा प्रकाश डालना चाहिए।
(२) ब्राह्मी-सुन्दरी ने भगवान के समवसरण में जाकर कुमारी अवस्था में आर्यिका दीक्षा ग्रहण की थी, इस समय में जो दिगम्बर जैन आगम से विरुद्ध किंवदन्ती चल रही है कि हमारे पिता को हमारे पति के पैर छूने पड़ेंगे अथवा पिता को हमारे पति के समक्ष अपनी लघुता प्रदर्शित करनी पड़ेगी….. इत्यादि वार्ता-संवाद को कभी भी प्रस्तुत नहीं करना चाहिए, प्रत्युत् उन तीर्थंकर पुत्रियों के वैराग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए नारी की गरिमा को भी बतलाना चाहिए-
जो बतलाते नारी जीवन, लगता मधुरस की लाली है।
वह त्याग-तपस्या क्या जाने, कोमल फूलों की डाली है।।
जो कहते योगों में नारी, नर के समान कब होती है।
उन लोगों को ब्राह्मी-सुन्दरि का, जीवन एक चुनौती है।।
आदिपुराण में स्पष्टरूप से देखा जा सकता है कि ब्राह्मी-सुन्दरी ने अपने उत्कट वैराग्य से भगवान ऋषभदेव के समवसरण में आर्यिका दीक्षा धारण किया था तथा ब्राह्मी ने आर्यिकाओं में प्रधान गणिनी पद को प्राप्त किया था।दूसरी बात यह है कि जो तीर्थंकर भगवान जन्म से ही अपने माता-पिता को भी नमस्कार नहीं करते हैं, न वे विद्यालय में किसी गुरु से पढ़ने जाते हैं तथा वे दीक्षा भी किसी गुरु से न लेकर केवल सिद्धों की साक्षीपूर्वक ग्रहण करते हैं, अर्थात् किसी को अपने जीवन में गुरु नहीं बनाते हैं और किसी मुनि को भी उनके द्वारा नमस्कार करने का कोई उदाहरण दिगम्बर जैन शास्त्रों में नहीं मिलता है, यह उनका नियोग-उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति ही जानना चाहिए, न कि किसी के प्रति उनका अविनयभाव।ऐसे महान तीर्थंकर प्रभु को अपने दामाद के चरणों में झुकने जैसी तुच्छ बात कहकर ब्राह्मी-सुन्दरी को दीक्षा की ओर अग्रसर होने का ड्रामा कराना वास्तव में तीर्थंकर भगवान एवं उनकी दीक्षित पुत्रियों का अवर्णवाद ही मानना चाहिए।भरत चक्रवर्ती आदि चक्रवर्तियों की ९६ हजार रानियों में से क्या किन्हीं के कन्याएँ नहीं थीं ? और उन कन्याओं के विवाह में क्या चक्रवर्ती अपने दामादों को नमस्कार करेंगे ? यहाँ ध्यान रखें कि वे तो अपने ससुर को भी नमस्कार नहीं करते हैं फिर भला तीर्थंकर जैसे महापुरुष अपनी कन्याओं के पति को नमस्कार वैâसे कर लेंगे ?देखो! सगर चक्रवर्ती के ६० हजार पुत्रों का उल्लेख पुराणों में आता है, तो अगर उनके कन्याएँ नहीं होंगी, तो कन्याओं की कमी हो जावेगी और एक-एक राजाओं के अनेक रानियों की परम्परा वैâसे रहती होगी?
भगवान शांतिनाथ आदि तीन तीर्थंकर चक्रवर्ती भी हुए हैं। क्या उनके कन्याएँ नहीं हुई होंगी ?अत: तीर्थंकर ऋषभदेव के ब्राह्मी-सुन्दरी कन्याओं का जन्म हुंडावसर्पिणी का अभिशाप नहीं मानना चाहिए।जो तीर्थंकर विवाहित होते हैं, उनके पुत्र ही हों, पुत्रियाँ न हों, यह कहना संगत नहीं है।तीसरी बात यह है कि वर्तमान में भी किसी ससुर के द्वारा दामाद के चरण स्पर्श की परम्परा नहीं देखी जाती है, प्रत्युत् दामाद के द्वारा सास-ससुर के (माता-पिता मानकर) चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लेने की परम्परा अवश्य देखी जाती है अत: तीर्थंकर भगवान के लिए ऐसे अशोभनीक एवं तथ्यहीन तर्क कहाँ से आए पता नहीं ? जो भी हो, इनकी पुष्टि दिगम्बर जैन विद्वानों/प्रतिष्ठाचार्यों को कभी नहीं करना चाहिए।
कोई विद्वान् कहते हैं कि जब भगवान बाहुबली एक वर्ष तक तपस्या कर रहे थे, तो उनके शरीर पर वृक्ष की लताएँ चढ़ गई थीं, सर्पों ने बामी बना ली थी और बिच्छू-सर्प आदि अनेक जीव-जन्तु उनके शरीर पर चढ़कर क्रीड़ा करते रहते थे, तब बाहुबली की बहनें ब्राह्मी-सुन्दरी जाकर अपने हाथों से उनकी बेल उतारती थीं और उनका शरीर साफ किया करती थीं…..इत्यादि।
यह विषय भी दिगम्बर जैन ग्रंथों के अनुसार पूर्णरूपेण असत्य है। देखो! आदिपुराण ग्रंथ में आया है कि भगवान ऋषभदेव को केवलज्ञान होते ही अयोध्या के सम्राट भरत को तीन समाचार (केवलज्ञान का, पुत्र जन्म का एवं चक्ररत्न उत्पत्ति का) एक साथ मिले थे, तब भरत सर्वप्रथम भगवान के समवसरण में गये थे। वहाँ भरत के भ्राता वृषभसेन भगवान के प्रमुख गणधर बने, भरत जी प्रमुख श्रोता बने और ब्राह्मी-सुन्दरी ने आर्यिका दीक्षा लेकर प्रथम आर्यिका बनने का सौभाग्य प्राप्त किया था।
इसके पश्चात् भरत ने पुत्र जन्म का उत्सव मनाकर चक्ररत्न को आगे करके दिग्विजय के लिए अयोध्या से प्रस्थान किया और साठ हजार वर्ष तक उन्होंने छहों खण्ड पर विजय प्राप्त की पुन: चक्ररत्न के अयोध्या में प्रवेश न करने के कारण उनका बाहुबली के साथ युद्ध हुआ और युद्ध में विजय प्राप्त करके भी बाहुबली ने दीक्षा लेकर एक वर्ष का तपयोग धारण कर लिया था, उस समय लताएँ उनके शरीर पर चढ़ी थीं, तब साठ हजार वर्ष प्राचीन दीक्षित आर्यिकाएँ क्या उनकी बेल हटाने जाएँगी ? यह कथमपि संभव नहीं है अत: ऐसी आगम विरुद्ध बातें कभी भी अपने प्रवचनों में प्रतिपादित नहीं करना चाहिए।इस संबंध में आदिपुराण के अन्दर कथन आया है कि विद्याधर देवियाँ आकर बाहुबली के शरीर की बेल आदि हटा-हटाकर स्वच्छ करती थीं फिर भी वे बार-बार आकर प्रभु के शरीर का आलिंगन करती थीं। इस तप के प्रभाव से उनके अन्दर सम्पूर्ण ऋद्धियाँ प्रगट हो गई थीं। हाथी अपनी सूंड में नलिनीदल-कमल के पत्तों में जल लाकर प्रभु के चरणकमलों में चढ़ाते थे…….आदि।
‘‘भगवान बाहुबली को यह शल्य थी कि मैं भरत की भूमि पर खड़ा हूँ’’ यह बात धड़ल्ले से साधुगण एवं विद्वज्जन अपने प्रवचनों में कहते हैं और पुस्तकों एवं लेखों में लिखते भी हैं। इस विषय को भी आगम के परिप्रेक्ष्य में ही लिखना और बोलना चाहिए।देखो! शल्य तो तीन प्रकार की होती है-माया, मिथ्या, निदान। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-‘‘नि:शल्यो व्रती’’ अर्थात् सच्चा व्रती पुरुष इन तीनों शल्यों से रहित होता है, तो भला महाव्रती सच्चे भावलिंगी, जिनकल्पी महामुनि बाहुबली के मन में ऐसी मिथ्या धारणारूप शल्य वैâसे रह सकती थी ? पुन: यदि उनके मन में शल्य होती, तो उन्हें मन:पर्ययज्ञान एवं ऋद्धियाँ ही नहीं प्राप्त हो सकती थीं क्योंकि मन:पर्ययज्ञान और ऋद्धियाँ भावलिंगी मुनि को ही होती हैं।आदिपुराण (भाग-२) के अनुसार उनके मन में यह विकल्पमात्र था कि-‘‘चक्रवर्ती भ्राता को मुझसे क्लेश हुआ है।’’ बस यही विकल्प उनके केवलज्ञान में बाधक बन रहा था पुन: स्वयं निर्विकल्प होकर क्षपकश्रेणी पर चढ़ते ही ज्यों ही उन्होंने घातिया कर्मों का नाश किया, तत्क्षण ही भरत भी दिव्य सामग्री लेकर उनकी पूजा करने आ गये अत: भरत चक्री का आना और बाहुबली को केवलज्ञान प्राप्त होना एक साथ अनहोना संयोग बन गया।
यह एक विचारणीय बात है कि ऐसे मोक्षगामी महापुरुष महामुनियों में मिथ्यादृष्टियों में संभावित शल्य वैâसे मानी जा सकती है ? तथा विकल्परूप छद्मस्थ अवस्था में दशवें गुणस्थान तक विकल्प की संभावना तो रहती ही है अत: शास्त्रीय विधि का पालन करते हुए ‘‘भगवान बाहुबली के शल्य नहीं थी’’ यही प्रतिपादन अपने माध्यम से करना चाहिए।