श्री आदि देवी तुम सभी को, हम यहाँ आह्वानते।
परिवार वैभव से सहित, आवो यहाँ बैठो अबे।।
जिन धर्मवत्सल हम तुम्हारा, कर रहे आदर सतत।
प्रत्येक को हम अर्घ अर्पण, से करें संतुष्ट अब।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीप्रमुखचतुर्विंशतिदेवताः अत्र आगच्छत आगच्छत, पुष्पांजलिः।
श्री जिनवर की भक्ति, करने में तत्पर हैं।
‘श्री देवी’ है नाम, बहुवैभव संयुत हैं।।
निज परिवार समेत, आवो यज्ञ विधी में।
जल गंधादिक लेय, अर्घ समर्प्य करूँ मैं।।१।।
ॐ ह्री श्रीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ! इदं अर्घं पाद्यं जलं गंधं पुष्पं दीपं धूपं चरुं फलं बलिं स्वस्तिकं अक्षतं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा।
तीन भुवन के नाथ, भववारिधि से तारक।
घोर जिनेश्वरदेव, उनकी भक्ति करें नित।।
‘ह्रीं देवी’ जगख्यात, उनको यहाँ बुलाके।
अर्घ समर्पूं आज, जल गंधादि मिलाके।।२।।
ॐ ह्रीं ह्रीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घं…..।
सुख अनंत संपन्न, भव से रहित निरंजन।
तीर्थंकर पदपद्म, करें हृदय में धारण।।
ऐसी जो ‘धृति देवि’, उनको यहाँ बुलाऊँ।
जल गंधादिक अर्घ, अर्पण कर सुख पाऊँ।।३।।
ॐ ह्रीं धृतिदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ इदं अर्घ्यं…….।
जो अनंतदृगज्ञान, सुख औ वीर्य गुणों के।
रत्नाकर हैं मान्य, वे जिनवर गुरु सबके।।
उनके चरण सरोज, की सेवा में रत जो।
‘लक्ष्मीदेवी’ नाम, अर्घ समर्पूं उसको।।४।।
ॐ ह्रीं लक्ष्मीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…….।
सुरपति अहिपति और, नरपति से पूजित जो।
सम्यग्ज्ञान प्रदान, करते नित भविजन को।।
ऐसे जिन को नित्य, जो निज मन में धरती।
‘गौरी देवी’ सिद्ध, अर्घ देऊँ उसको भी।।५।
ॐ ह्रीं गौरीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…..।
निज कांति से व्याप्त, अति सौंदर्य सहित हैं।
ऐसे श्री जिननाथ, उनको जो अर्चत हैं।।
देवि ‘चंडिका’ नाम, सम्यक्रत्न धरे जो।
अर्घ समर्पूं आज, पूजत विघ्न हरे वो।।६।।
ॐ ह्रीं चंडिकादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…..।
कर्मशत्रु विध्वंस, करके जिनपद पायो।
अतिशय लक्षण युक्त, उनको नमत सदा जो।।
सरस्वती है नाम, उसको अर्घ समर्पूं।
पूजन में दे भाग, उसकी तुष्टी कर दूँ।।७।।
ॐ ह्रीं सरस्वतीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं….।
निर्विकार साकार, निराकार भी जो हैं।
कांक्षा आदि विहीन, तीर्थंकर जिन जो हैं।।
उनकी पूजन भक्ति, करने में तत्पर जो।
देवी ‘जया’ प्रसिद्ध, अर्घ समर्पूं उसको।।८।।
ॐ ह्रीं जयादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…..।
दिव्यध्वनी के नाथ, सबको हित उपदेशें।
किया त्रिजग को व्याप्त, ज्ञानमयी किरणों से।।
ऐसे जिनकी नित्य, सेवाभक्ति करें जो।
देवि ‘अंबिका’ नाम, अर्घ समर्पूं उसको।।९।।
ॐ ह्रीं अंबिकादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
चार घातिया कर्म, नाश किया जिनवर हैं।
तत्त्वों का उपदेश, करते श्रेयस्कर हैं।।
‘विजया’ देवी नित्य, उनकी सेवा करती।
उसको अर्घ समर्प्य, हम बनते सम्यक्त्वी।।१०।।
ॐ ह्रीं विजयादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…..।
श्री जिनधर्मपीयूष, पान करा भविजन को।
प्राप्त किया निर्वाण, धरे अनंंत गुणों को।।
उनकी पूजा भक्ति, करे सदा हर्षित हो।
‘क्लिन्ना’ देवी नाम, अर्घ समर्पण उसको।।११।।
ॐ ह्रीं क्लिन्नादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…….।
सुर असुरों से पूज्य, त्रिभुवन के गुरु माने।
उनका प्रणमन नित्य, करती श्रद्धा ठाने।।
‘अजिता’ देवी नाम, अर्घ समर्पण उसको।
जिन आगम परमाण, सम्यग्दर्शन शुचि हो।।१२।।
ॐ ह्रीं अजितादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
अमल विमल चिद्रूप, चिन्मय ज्ञानस्वरूपी।
निज में पावन रूप, गुण अनंत सुखरूपी।।
ऐसे जिनवर नाम, को जो चित में धारे।
‘नित्या’ देवी नाम, उसको अर्घ उतारे।।१३।।
ॐ ह्रीं नित्यादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
अंतक का कर अंत, अंतातीत हुए जो।
दर्शन ज्ञान अनंत, करके मोक्ष गये जो।।
उनका प्रमुदित चित्त, जो आराधन करती।
‘मदद्रवा’ है नाम, अर्घ समर्पूं मैं भी।।१४।।
ॐ ह्रीं मदद्रवादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…….।
आशापाश विदूर, आशावसन१ धरा जो।
कामदेव मद चूर, कामिनी मुक्ति वरा जो।।
ऐसे जिनकी नित्य, पूजा भक्ति करे जो।
‘कामांगा’ है नाम, अर्घ समर्पण उसको।।१५।।
ॐ ह्रीं कामांगादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
ध्यानचक्र को लेय, कर्मचक्र क्षय कीना।
धर्मचक्र को धार, भविजन का हित कीना।।
ऐसे ही जिनदेव, जो उनको नित ध्याती।
अर्घ चढ़ाऊँ आज, ‘कामवाणा’ वह देवी।।१६।।
ॐ ह्रीं कामवाणादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…..।
नित्यानंद स्वरूप, चिदानंद चिद्रूपी।
निखिलदेव से पूज्य, परमानंद स्वरूपी।।
तीर्थंकर जिननाथ, उनको मुदसे पूजे।
‘सानंदा’ वह देवि, उसको अर्घ समर्पे।।१७।।
ॐ ह्रीं सानंदादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
धर्म कल्पतरु आप, मनवाञ्छित फल देते।
चिंतामणि रत्नाभ, चिंतित फल सब लेते।।
‘नंदमालिनी’ देवि, जजती भक्ति समेता।
अर्घ समर्पण आज, उस देवी को करता।।१८।।
ॐ ह्रीं नंदमालिनीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…..।
मायादिक बहुदोष, जिनने दूर भगाये।
गुण अनंत का कोष, पूर्ण किये सुख पाये।।
ऐसे श्री जिननाथ, उनको जजें सदा जो।
‘माया’ देवी नाम, अर्घ चढ़ाऊँ उसको।।१९।।
ॐ ह्रीं मायादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……..।
नानाविध जगसौख्य, मायाजाल सदृश है।
शाश्वत नहीं विनष्ट, क्षण में हो नश्वर है।।
उनसे रहित जिनेन्द्र, उनकी भक्ति करे जो।
‘मायाविनि’ वे देवि, अर्घ समर्पूं उसको।।२०।।
ॐ ह्रीं मायाविनीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
आर्तरौद्र से दूर, धर्म शुक्ल को धरके।
किया मोह मद चूर, मुक्ति लिया निजबल से।।
ऐसे जिनको नित्य, श्रद्धा से भजती जो।
‘रौद्री’ देवी नाम, अर्घदान दूँ उसको।।२१।।
ॐ ह्रीं रौद्रीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…….।
तीनलोक तिहुँकाल, एक समय में जाने।
सकल निकल परमात्म, पद पाया कलि१ हाने।।
उनको चित्त में धार, ‘कला’ देवि गुण गावे।
उसको अर्घ चढ़ाय, कला गुणों को पावें।।२२।।
ॐ ह्रीं कलादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं……।
जन्म जरा औ मृत्यु, तीनों व्याधि नशाके।
पूर्णतया जो स्वस्थ, हुए ज्ञानतनु पाके।।
उन जिनपति की भक्त, सम्यग्दर्शन युत जो।
‘काली’ देवी नाम, अर्घ समर्पूं उसको।।२३।।
ॐ ह्रीं कालीदेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…….।
अक्षय अव्याबाध, ज्ञान सौख्य से पूरे।
ऐसे श्रीजिननाथ, सुख देते भरपूरे।।
उनको भक्ति समेत, ‘कलिप्रिया’ जजती है।
उनको अर्घ चढ़ाय, जजूँ विघ्न हरती वे।।२४।।
ॐ ह्रीं कलिप्रियादेवि! अत्र आगच्छ आगच्छ, इदं अर्घ्यं…….।
जिनवर चरण की भक्ति में, तत्पर प्रभू गुण गावती।
सम्यक्त्व से संयुक्त हैं, जिनभक्त को बहु मानती।।
श्री ह्री प्रमुख चौबीस हैं, ये देवियाँ जिनधर्म में।
अनुग्रह करें जिनभक्त पर, पूर्णार्घ मैं अर्पूं उन्हें।।२५।।
ॐ ह्रीं श्रीप्रमुखचतुर्विंशतिदेवीभ्य: पूर्णार्घ्यं समर्पयामि इति स्वाहा।