संस्थान अर्थात् आंगोपांग सुन्दर हों, कांति और लावण्य से सहित मनोहर कायोत्सर्ग मुद्राधारी दिगम्बर तथा पद्मासन, ये दो ही आसन दिगम्बर जैन प्रतिमाओं में बनाने योग्य हैं,अन्य कुक्कुटादि आसनों से सहित जिनबिम्ब दिगम्बर जैनागम के अनुसार मान्य नहीं है। प्रतिमा में वृद्धावस्था और बाल्यावस्था की झलक भी नहीं होना चाहिए। शान्त भाव की झलक तथा वैराग्य भाव को प्रदर्शित करने वाला एवं तप अवस्था से सहित मुखमण्डल होना चाहिए। प्रतिमा में ह्य्दय स्थान पर श्रीवत्स का चिन्ह, नख और केश से रहित, अनेक प्रकार के पाषाण द्वारा निर्मित समचतुरस्र संस्थानयुक्त जिनबिम्ब प्रशस्त माना जाता है।
ग्रीवाह्य्दौ च चतुरक्षिमितौ ह्य्दानु- प्रेक्षाप्रमं जठरमत्र तु नाभिमूलात् ।।१५३।।
तावत्प्रमैव मदनादि तदादि ………(भातु) जानुद्वयं करमितं च ततोऽपि गुल्पं।
तस्माच्च पादतलमत्र हि गुल्फदेशात् पिंडिर्दृढा तु पदयोः शुभलक्षणांका।।१५४।।
ऊँचाई में कायोत्सर्ग प्रतिमा में द्विप कहने से आठ, अभ्र कहने से शून्य, विधु कहने से एक अर्थात् १०८ भाग प्रमाण जिनबिम्ब हो , मुखमण्डल गोलाकार बारह भाग प्रमाण हो, ग्रीवा और ह्य्दय २४ भाग हों, ह्य्दय से जठर तक १२ भाग नाभिपर्यंत होवे, उतने ही प्रमाण १२ भाग ही नाभि से लिंग पर्यंत उससे गोड़े पर्यन्त (घुटने) एक हाथ मात्र, उससे भी एड़ी (टिकूण्यां) पर्यन्त एक हाथ मात्र, उससे पैरों के तल पर्यन्त एक हाथ मात्र होवे और एड़ी की पिंडली दृढ़ और शुभ लक्षण वाली चिन्हित हो।
चार अंगुल ललाट और नासिका का प्रमाण कहा है तथा मुखविस्तार और नासिका का विवरविस्तार चार अंगुल जानो, वहां मस्तक किंचित् नम्र करना और अष्टमी के चंद्र के समान ललाट करना।
भ्रुवोरंतरं युग्मभागप्रमाणं तथा नेत्रयोः श्वेतिमा तत्प्रमाणं।
भंवरों का अन्तर दो भाग प्रमाण, नेत्र का श्वेत स्थल भी दो भाग प्रमाण और उसके मध्य की काली कनी का एक भाग प्रमाण, उनमें नेत्र तीन भाग प्रमाण है। नासिका के मूल भाग में नेत्रों की स्थिति दो भाग प्रमाण जानो।
भंवारा चार भाग प्रमाण विस्तृत हो, मध्य में स्थूल और अन्त में कृश धनुषाकार होवे, नेत्रों की पक्ष्मणी जहां तक तीन अंगुल दृष्टि पड़े वह नदी के तट समान नीचे ऊपर होवे।
ओष्ठद्वयं चांगुलमुच्छ्रितं स्यान्मध्ये तथा विस्तृतमत्र तुर्याः।
दोनों ओंठ एक अंगुल मोटे, चार भाग चौड़े, किंचित् मिलित, दोनों पखवाड़े किंचित् प्रकाशवान् जिनका प्रमाण अभ्यन्तर उदीरित है, ओष्ठ की अंतस्थिति नामक सृक्किणी एक अंगुल हो और साढ़े तीन भाग दाढ़ी का निचला भाग चिबुक होवे, विशाल हो, दाढ़ी और मुख का अन्तर चार अंगुल और विस्तार दो अंगुल होवे।।१५८-१५९।।
कर्णौ च षड्भागयुतौ प्रलंबौ वेदांगुलव्यासयुतौ तदंतः।
कान की लम्बाई छह भाग प्रमाण, दो भाग चौड़ाई, उसके मध्य छिद्र में यवनाली के समान नाली अद्र्धांगुल चौड़ी तथा कर्ण व नेत्र इनके चार अंगुल अन्तर है। दोनों कर्ण समेत अथवा भित्ति का अर्थात् गण्डस्थल का अठारह भाग का अन्तर, पीछे की तरफ चौदह भाग है और मस्तक की परिधि तेईस भाग प्रमाण है।।१६०-१६१।।
तथोध्र्वभागे रविभागमात्रा त्र्यंशांगुलाः पंच च कूर्परस्य।
तथा ऊपर के मस्तक की परिधि तालु रंध्र तक बारह भाग और तीन अंगुल है। कपाल की पांच भाग प्रमाण की सोलह भाग परिधि है परन्तु मणिबंध में क्रम की हानि भी होती है। (यहां मणिबन्ध का अर्थ स्पष्ट नहीं हुआ)।
पंचागुलं वा त्रिकभागकोनं मध्यं प्रबाहोर्विततेस्तु तस्य।
मध्यांगुलेद्र्वादशकांतरं च मध्यांगुलिः पंचमिता करस्य।।१६४।।
और मणिबंध और पहुंचा (कलाई) का विस्तार चार अंगुल है। लम्बाई कोहनी से चौदह भाग प्रमाण है। मध्यांगुलित द्वादश भाग प्रमाण अन्तर है और मध्यांगुलि पांच अंगुल प्रमाण है।
मध्य अंगुली से अर्ध पर्व हीन अनामिका और प्रदेशनी अंगुली अपनी मध्यमा से किंचित् न्यून भाग वाली है। कनिष्ठा अंगुली एक पर्व हीन है और हाथ का मूलभाग और अधोभाग पांच अंगुल है।
और तर्जनी मध्यमा से आधा अंगुल हीन है और अंगूठे दोनों ही समान,चार अंगुल विस्तृत, एक अंगुल किंचित् अधिक मोटा है। अंगूठे में दो ही पर्व की धारणा है, ये सभी अंगुलियां तीन-तीन पर्व वाली और नखों की पुष्टि को देने वाली, अर्ध पर्व प्रमाण हस्त का तल सात अंश लम्बा, पांच अंश चौड़ा, दोनों भुजाएं उन्नत कन्धों से युक्त और दृढ होवें, संधिरहित हाथी के सूंड के आकार की होवें वह प्रशंसा योग्य है । लम्बे पैर अपने सुन्दर वीरत्व (वीरपन) से विख्यात सुन्दर लक्षण वाले (करणहारे) सुन्दर चिन्हयुक्त हों, दोनों हाथ समान हों, ना ही अत्यन्त ऊंडा (गहरा) और न ही किंचित् ऊंडा (गहरा) हों, कोमल हों, अंगुलियां छिद्ररहित, मांसल अर्थात् पुष्ट हों, रक्तवर्ण हों सो योग्य है। वक्षस्थल दो वितस्ति अर्थात् २४ अंगुल हों और श्रीवृक्ष के चिन्ह से शोभायमान, सुन्दर कुचों से संयुक्त हो।
और उन स्तनान्तर के नीचे एक विवस्ति मात्र दक्षिणावर्त नाभि होवे, उस नाभि का मुख एक अंगुल होवे, उस नाभि के नीचे आठ अंगुल अन्तर छोड़कर लिंग है, उस लिंग का अग्रभाग गुप्त हो और दोनों के बीच अर्थात् नाभि और लिंग के पाश्र्व में कटि (कमर) हो जो अठारह अंगुल प्रमाण हो, उस कटि की परिधि दो हाथ प्रमाण हो, पेडू लिंग के ऊपर है वह आठ अंगुल हो उसमें तीन रेखा का चिन्ह हो, उस लिंग का विस्तार किंचित् अधिक दो अंगुल हो, मूल अथवा मध्य में एक अंगुल मोटा और अन्त में किंचित् अधिक एक अंगुल हो, विस्तार से परिधि तीन गुणी हो और पोता का आकार आम की गुठली के समान हो।
कुकुंदराकार अर्थात् बालू के टीवा (?)के आकार का नितम्ब हो जो पुष्ट मांस और गांठ से संयुक्त हो। कंधे के प्रदेश से अपान के प्रदेश का छत्तीस अंगुल अन्तर पृष्ठ की तरफ से जानना चाहिए। उरु (जंघा) दोनों ओर वितस्ति प्रमाण लम्बे, विस्तीर्ण ग्यारह अंगुल से नीचे, पैर की तरफ से मूल और मध्य में नौ अंगुल हो जिसकी परिधि तिगुनी हो, दोनों जंघाओं का वृत्त गोलाकार और लम्बाई दो ताल है, चौबीस अंगुल है, जिसका मध्यभाग सुन्दर है ऐसी उसकी पीडी छह अंगुल हो, टिकूण्या (टिहुनी)-? दिखाई देती हुई चार अंगुल हो और चरण चौदह अंगुल हों। वे चरण गूढ़ हैं जिनकी टिकूण्या (ऐड़ी) सुन्दर चिन्हयुक्त हो और वे सुन्दर उंगलियों की योजना में निपुण हों, उसका तलभाग किंचित् नीचा, गहरा और तीन अंगुल प्रमाण उंगलियों से शोभायमान हो। ऐसे सरल सीधा कायोत्सर्ग प्रतिमा का यह मार्ग कहा है। पद्मासन मूर्ति में कुछ भेद है, इसकी उंचाई से मोटाई अर्ध प्रमाण हो, दोनों हाथ और चरण ऊपर नीचे पर्यंकासन में जैसे अवस्थित हैं वैसे हों। इसी पर्यंकासन में दोनों भुजाओं के अपने पखवाड़े का अन्तर चार अंगुल प्रमाण कहा है। अन्य आचार्यों का ऐसा मत है कि हाथ की कलाई से कुहनियों की वृद्धि तक दो अंगुल का अन्तर होवे।
इस प्रकार श्री अर्हंत का बिम्ब समीचीन लक्षण से संयुक्त, शांत भाव को दर्शाने वाला, संपूर्ण आंगोपांग से शुद्ध, दिगम्बर स्वरूप, अष्ट प्रातिहार्य से संयुक्त और अपने-अपने चिन्ह से शोभायमान कराना योग्य है।
सिद्ध परमेष्ठी का प्रतिबिम्ब भी प्रातिहार्य के बिना स्थापना के योग्य है और शुभ भाव की वृद्धि के लिए आचार्य परमेष्ठी, उपाध्याय, साधु और सिद्धक्षेत्र आदि की प्रतिमा योग्य है।
इस प्रकार अपनी नासाग्रदृष्टि और व्रूरतादि दोषों से रहित जिनबिम्ब पूजने योग्य है। अगर अंग हीन अथवा अधिक है तो कर्ता के अर्थात् पूजक के नाश के लिए कारण है, इसलिए प्रतिमानिर्माण में यत्न ही परिपूर्ण श्रेष्ठ है।
न मृत्तिकाकाष्ठविलेपनादिजातं जिनेंद्रैः प्रतिपूज्यमुक्तं।।१८३।।
इस आंगोपांग के रेखाचिन्ह आदि को विस्तार से जानने के इच्छुक को श्रावकाचार मूल अंग से विचार करना योग्य है। मिट्टी , काष्ठ, चित्राम (विलेपन आदि) आदि के जिनबिम्ब को पूज्य नहीं कहा है। ।अथ प्रतिमानिर्माणमुहूर्तः। अब प्रतिमा के निर्माण का मुहूर्त कहते हैं-
उत्तराणां त्रये पुष्ये रोहिण्यां श्रवणे तथा।
वारुणे वा धनिष्ठायामाद्र्रायां बिंबनिर्मितिः।।१८४।।
उत्तरा तीन, पुष्य, रोहिणी, चित्रा, धनिष्ठा , आद्र्रा, सोम, गुरु, शुक्र में बिम्ब बनाना श्रेष्ठ है।।१८४।।
ऐसा है कि-पूजक सर्वप्रथम प्रसन्न मन होकर पुष्प, वस्त्र , पान, दक्षिणा आदि से कर्ता सिलावट (शिल्पी) को संतुष्ट कर अपने नेत्र व ह्य्दय को प्रिय ऐसा बिम्ब बनववे तथा गुरु पुष्य योग तथा हस्ताक योग में जिस भगवान का बिम्ब बनाना हो उन भगवान के गर्भकल्याणक दिन में शुभसूचक निमित्त देखकर प्रतिमा निर्माण योग्य होता है।।१८५-१८६।।
पांच प्रकार की तिथि,वार, नक्षत्र योग कर्णरूप दिनशुद्धि है, उसमें भी लग्न शुद्धि को मुख्य करके, निमित्तज्ञानियों द्वारा निकाले गए दिन में, पुराण पुरुषों के द्वारा कथित दिन में प्रतिष्ठा की विधि से पहले विधान करे। मंगलवार और शनिवार को छोड़कर सारे ही वार (दिन) संस्थापन में प्रशंस्य हैं। अमृतसिद्धि योग में योजना करके अमावस्या को त्यागकर कर्ता सुख भाव को प्राप्त करता है। रिक्ता तिथि में भी योगविशेष की शुद्धि हो तो कार्य शुभ होता है, पूर्णिमा को वर्जित करे और सिद्ध योग भी हो परंतु एकादशी हो तो वर्जित है तथा मासांत तिथि के बिना भी इष्ट कहते हैं। जिस जिनेन्द्र का जिस तिथि में जो कल्याण हुआ हो उस तिथि में वह कल्याणक इष्ट है। उत्तरा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण इनमें और रेवती , रोहिणी, अश्विनी में शुभ योग हो तो ग्राह्य है। चित्रा, मघा,स्वाति, भरणी, मूला को भी कदाचित् आवश्यक कार्य में अंगीकार किया है और अन्य भी शुभ योगयुक्त नक्षत्र ज्योतिषी के वाक्य से ग्रहण करना चाहिए।।१८७-१९१।।
विष्कंभमूले शरनाडिका षट् गंडातिगंडे नव वज्रघाते।
व्यत्यादिपातं परिघं च सर्वं विवर्जयेद् मुक्तिसुखाभिलाषी।।१९२।।
विष्कम्भ और मूल में प्रथम पांच घड़ी वर्जित है, गंड-अतिगंड में छह घड़ी , वङ्का और घात में नौ घड़ी वर्जित है और मुक्तिसुख की वांछा करने वालों को व्यतिपात और परिघ सबको ही वर्जित करना योग्य है। धरती का कम्पन (भूकम्प), दिशादाह, राजा का मरण आदि उत्पात के उद्दंश में तीन दिन इस प्रतिष्ठा को करना वर्जित है। पूज्य पुरूष इस कार्य की स्थापना में चार नक्षत्र और विष्टि योग में होने पर सर्वथा वर्जित कहते हैं।।१९२-१९३।।
सूर्येण वा चंद्रमसा कुजेनाष्टम्यंकशल्यानि शुभावहानि।
बुधेन च द्वादशिका द्वितीया गुरुस्पृशो दिक्शरपूर्णिमाश्च।।१९४।।
सूर्यवारा अष्टमी , सोमवारा नवमी, मंगलवारा तृतीया शुभ होती है। बुद्धवार द्वादशी तथा द्वितीया और गुरुवारयुक्त दशमी, पंचमी, पूर्णिमा होवे वह श्रेष्ठ है।
शुव्रेण षष्ठी प्रतिपत्प्रशस्ता चतुर्थिका वा नवमी शनिस्था।
सिद्धिं तथा चामृतयोगमुच्चैः प्रशस्तमाहुर्मुनयो निमित्तात्।।१९५।।
तथा शुक्रवार षष्ठी एवं प्रतिपदा शुभ है, शनिवार चतुर्थी एवं नवमी श्रेष्ठ है , उनमें सिद्धि योग अमृतसिद्धि होता है जिसको मुनीश्वर निमित्तज्ञान से अतिप्रशस्त कहते हैं।
सूर्यादितो वा भरणीं च चित्रां तथोत्तराषाढधनिष्ठभं च।
सदुत्तरां फाल्गुणिकां च ज्येष्ठामन्त्यं तथा जन्मभमेव मोच्यं।।१९६।।
सूर्यवार में सात बार में अनुक्रम से भरणी, चित्रा, उत्तराषाढ़ा, धनिष्ठा, उत्तराफाल्गुनी, ज्येष्ठा, रेवती त्याज्य है तथा जन्म नक्षत्र भी त्याज्य है।
लग्न के तीसरे स्थान , षट्कस्थान, ग्यारहवें स्थान तथा भौम, राहु एवं शनिवार होवे तो शुभ है। दशवें में सूर्य श्रेष्ठ है परन्तु चन्द्रमा आठवें तथा बारहवें में नहीं हो तो शुभ के अर्थी हैं। (देने वाले हैं)।।१९९।।
चन्द्रमा तीसरे, दूसरे और ग्यारहवें में श्रेष्ठ होता है। जो हीन बली तथा अस्त नहीं होता है अथवा तारा बल ही इस विधि में विधान करना, वह तीसरी, पंचमी , सप्तमी से अन्य होवे तो शुभ होता है।
कृष्णे च ताराबलमत्र शुक्ले सुधांशुवीर्यं नियतं मुनींद्रैः।
कृष्णपक्ष में ताराबल प्रशस्त है, शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा का बल श्रेष्ठ है और मुनीन्द्र ने ऐसा कहा है कि अन्य ग्रह निर्बल भी होवें तथापि वृहस्पति, चंद्र, गुरु, सूर्य का बल प्रधान निश्चित किया है।