शुद्ध मुहूर्त देखकर सर्वप्रथम वास्तुशान्ति विधान कर काल का दोष दूर कर जहां तक सीमा है वहां तक खोदें, उसके द्वार के समीप सुन्दर पत्र में यन्त्र का निवेशन करें – स्थापित करें।
स्थानं परीक्षां च दिशां च साधनं वस्त्वर्चनं मंडललेखनार्च ने।
(१) स्थान की परीक्षा (२) दिग्साधन (३) वास्तु शुद्धि (४) मंडल शुद्धि (५) मंडल शान्ति, (६) पाषाण स्थापन (७) गृहलक्षण (८) शिलानयन, इस प्रकार आठ प्रकार का वास्तकर्म है।
यहां प्रतिष्ठा कर्म में पृथ्वी, जलाशय- कूप (कुंआ), वापिका, तड़ाग, नदी आदि, बगीचा, वृक्षसमूह इन सभी से शोभित और बल्मीक (वामीr) जंतु कीटकादि के संनिवेश से शून्य, श्मसान शूली आदि के स्थानों से रहित अथवा दग्ध पाषाणों से रहित पृथ्वी जिनेन्द्रभवन के योग्य प्रशंसनीय होती है।
तत्राध्वरं गर्तमधः खनित्वा तद्दोषवज्र्यं यदि तेन पांशुना।
प्रपूरयेन्न्यूनसमाधिकेषु भंगं समं लाभ इति प्रशस्यते।।१२९।।
उस स्थान पर एक हाथ प्रमाण गड्ढा खोदें जो ऊपर लिखे हुए दोषों से रहित हो उसमें यंत्रादि पूजन विधि करके फिर उसी मिट्टी से उसे भर दें, यदि वह गड्ढा कुछ कम भरे तो कार्य में उपद्रव आएगा ऐसा समझना चाहिए। यदि मिट्टी भरकर कुछ न बचे-बराबर हो जावे वो कार्य समान (मध्यम) समझें और यदि गड्ढा भरने पर भी मिट्टी बची रहे तो लाभ की प्राप्ति समझना चाहिए।
जब नींव खोदें तब सर्वप्रथम शुभ मुहूर्त में घृत का दीपक पद्धति के मंत्रों से प्रज्वलित करें फिर उसको तांबे के कलश में स्थापन करके आच्छादित कर दें और उसके अधोभाग में सुवर्ण का यंत्र स्थापित करें।
उस दीपक को ऐसे स्थापित करें कि दीपक बुझने न पाए, पाषाण के साथ दीवार में ऊपर की ओर स्थापित करें और मन्दिरकर्ता स्वामी व्रत,नियमपूर्वक मन्दिर निर्माण को प्रारम्भ करें तथा अपने सहयोगियों की साक्षीपूर्वक सज्जनों से प्रार्थना करें।
उस स्थान में बसने वाले समस्त देवादि को संतुष्ट कर अर्थात् आज्ञा लेकर पंचपरमेष्ठी का मण्डल बनाकर पूजा करके दीन-गरीब प्राणियों को करुणापूर्वक वे महापुरुष सम्मान करें।
मन्दिर के नींव की पहले चैत्र के महीने में अर्थात् रात्रि दिन की तुल्यता में मध्य रेखा का साधन करे अर्थात् सूर्यछाया के मध्यभाग में दिशा के तिरछेपने की संगति मिटाकर-दोष मिटाकर मन्दिर का मुख पूर्व, उत्तर और कदाचित् पश्चिम में भी रखे। अब मन्दिर की रचना का सन्निवेश करते हैं कि –
मन्दिर बनवाने योग्य चौकोर क्षेत्र का पच्चीस अंश परिमित विभाग कर मध्य के नव अंश में मध्यभाग में तो अरहंत की स्थापना करें और पाश्र्ववर्ती दोनों कोष्ठ में सिद्धों के बिम्ब, उपाध्याय के प्रतिबिम्ब और ऊध्र्व भाग के कोष्ठ में आचार्य परमेष्ठी का बिम्ब एवं अन्य गृह में आगम,निर्वाण क्षेत्र, साधु परमेष्ठी, मण्डल विधान का स्थान और सामग्री संपादन स्थान ऐसे नव कोष्ठक कराना।
पूर्वोत्तरं दक्षिणमस्य कार्यं द्वारं तथा पूर्वदिशासु नृत्य- गीतालयं
चोत्तरमर्थशास्त्रसद्वाचनागेहमतः प्रशस्तं।।१३५।।
उसका द्वार पूर्वोत्तर अथवा दक्षिण में हो तथा पूर्व दिशा में नृत्य संगीत का स्थान और उत्तर में शास्त्र स्वाध्याय का स्थान प्रशस्त कहा है।
यह तो प्रथम विधिरूप मंदिर कहा गया, अब दूसरी विधि इस प्रकार है कि- पूर्व उत्तर में बड़ा द्वार हो, दक्षिण में छोटा द्वार हो, बीच में देवच्छंद हो, वेदी में एक सौ आठ गर्भगृह, जिनबिम्ब, चारों ओर की प्रदक्षिणा और अग्रभाग में प्रेक्षागृह हो उसके पश्चात् माहेन्द्र नामक आस्थानमण्डप हो, उसके पीछे पुष्करिणी वापिका हो ऐसी अकृत्रिम जिनभवन रूप रचना, यह दूसरा विधान है।। यह द्वितीय विधि है।।
पूर्वोत्तरं चोत्तरदिग्मुखं वा पाश्र्वे सभायां श्रुतसंनिवेशः।
मध्ये चतुष्कं सुविधानकारि तत्पूर्वमग्रे जिनसंस्थितिः स्यात्।।१३८।।
पूर्वोत्तर या उत्तर एक ही द्वार और पाश्र्व में सभा में शास्त्रोपदेश, मध्य में चौक, जहां महाशांतिकादि मण्डल के आगे जिनबिम्ब की स्थिति , वहां अलग स्थानसूचक वेदी, तीन कटनी और उसके ऊपर अण्डाकार शिखर में ध्वजाकिंकिणी का सन्निवेश होता है। उपरिम शिखर में जिनेन्द्रबिम्ब आदि शोभा और प्रदक्षिणा होती है और सरस्वती भण्डार यथावकाश शोभायमान होता है, यह तीसरा विधान है।।१३८-१४०।।
आगे कहते हैं- यह मन्दिर दो खन, तीन खन या चार खन आदि का होता है, शिखर ध्वजा ऊपर खन में होती है, ऐसे वास्तुविधि का उल्लंघन करने से उसके अनर्थ का योग होता है अतएव वास्तुशास्त्र के विपरीत नहीं करना योग्य है।
अथ मन्दिरमुहूर्तम्-
अब मन्दिर बनाने का मुहूर्त कहते हैं । जहां जो वस्तु अतिआवश्यक वर्जनीय है अथवा करने योग्य है सो कहते हैं।
प्रथम नींव के रोपण में राहु चक्र को वर्जित कर राजाज्ञा लेकर सीमा को देने वाले तथा पाश्र्ववर्तियों को प्रसन्नतापूर्वक सम्मानित करें। ज्योतिषी और कारीगर का संयोजन करके उत्तम खनि करें पुनः खात करके नींव भरें।
राहु चक्र के मुख के निवारणार्थ परिभ्रमण राहु को कहते हैं- मीन, मेष और वृष राशिगत सूर्य होने से ईशान कोण में राहु मुख है। मिथुन, सिंह, कर्कट राशिगत सूर्य में वायु दिशा में, कन्या, वृश्चिक, तुला में नैऋत्य दिशा में और धनु,मकर,कुंभ के सूर्य में अग्निकोण में राहुमुख है। इस नय में प्रवीण पुरुष इस मुख को छोड़कर पृष्ठ भाग में खनन करें।।१४३-१४४।।
नक्षत्रों में अधोमुखसंज्ञक नक्षत्र में अर्थात् मूल अश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, बुध, पूर्वाभाद्र, पूर्वा फाल्गुनी, भरणी, मघा, भौमवार इस अधोमुख नक्षत्र में खनन करें और ऊध्र्वमुखसंज्ञक अर्थात् आद्र्रा, पुष्या, धनिष्ठा, शतभिषा, उत्तरात्रय, रोहिणी, सूर्यवार इनमें शिलास्थापन और पट्टीन गिराना करें तथा तिर्यग्मुख अर्थात् अनुराधा, हस्त, स्वाति, पुनर्वसू, ज्येष्ठा, अश्विनी इनमें द्वार के कपाटदान करना और मृदु और ध्रुव नक्षत्रों में अर्थात्
पुष्य, उत्तरात्रय, मृगशिर, श्रवण, अश्विनी, चित्रा, पुनर्वसु, विशाखा, आद्र्रा, हस्त इनमें और वृहस्पति, बुध, शुक्रवार में जिनमंदिर प्रारम्भ करना योग्य है।
वृहस्पतिवार में मृगशिर, अनुराधा, अश्लेषा, पूर्वाषाढ़ और ध्रुवसंज्ञक प्रशस्त है और पुष्य भी प्रशस्त है, चित्रा, धनिष्टा, विशाखा, अश्विनी, आद्र्रा, शतभिषा शुक्रवार में श्रेष्ठ है और बुद्धवार में अश्विनी, उत्तरा, हस्त, रोहिणी श्रेष्ठ है।
मीन लग्न में शुक्र हो अथवा चौथ हो, कर्क को वृहस्पति हो और ग्यारस में तुला को शनि हो, बलाधिक्य और सुन्दर तारा का योग हो और लग्न व ग्यारस में, दश में शुक्र, सूर्य, वृहस्पति होवे अथवा केन्द्र में वृहस्पति होवे, छट्ठे में सूर्य हो, सातवें में बुध हो, त्रिकोण में शनि हो, इनमें से एक भी योग होवे तो जिनेन्द्रालय प्रशस्त कहते हैं।
और सूर्य के आश्रित नक्षत्रों में चार नक्षत्र और ऊपर के आठ नक्षत्र कोण स्थित, उनमें अग्रिम आठ नक्षत्र पार्श्व में होवें, उनके अग्रिम तीन नक्षत्र देहली में होवें, उनके अग्रिम चार नक्षत्र चक्र में होवें तो इस योग में लक्ष्मी की प्राप्ति हो, शून्य हो, सुखकारी हो, मृत्यु हो और कल्याण हो, यह पांच योग का पांच फल अनुक्रम से जानना ।।१५०।।