धर्म द्रव्य की तरह ही अधर्मद्रव्य है। परन्तु अन्तर यह है कि यह स्थिति रूप क्रिया से युक्त जीवों और पुद्गलों की स्थिति में पृथ्वी की तरह निमित्त बनता है।
ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, स्थित: च स्थापयति परम्।
श्रुतानि च अधीत्य, रत: श्रुतसमाधौ।।
—समणसुत्त : १७४
अध्ययन के द्वारा व्यक्ति को ज्ञान और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। वह स्वयं धर्म में स्थित होता है और दूसरों को भी स्थिर करता है तथा अनेक प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर वह श्रुतसमाधि में रत हो जाता है।