सरोगाः प्रापुरारोग्यं, शोकिनो वीतशोकताम्।
धर्मिष्ठतां च पापिष्ठाश्चित्रमीशसमुद्भवे।।२६।।
उस समय अगर कोई रोगी है तो वे स्वस्थ हो जाते हैं, आरोग्यता प्राप्त कर लेते हैं और जिन्हें किसी प्रकार से शोक हो रहा है, जो खिन्नता को प्राप्त हैं वह शोकरहित हो जाते हैं। तीर्थंकर भगवान के जन्म लेते ही पापिष्ठजन धर्मिष्ठ बन जाते हैं, यह विशेषता उनके जन्म लेते ही स्वभाव से प्रगट हो जाती है।
यह क्या है? जो उन्होंने पूर्व में पुण्य संचित किया, उन्होंने जो कई जन्मों तक तपस्या की, कई जन्मों तक जो अपायविचय धर्मध्यान की भावना की, जीवों के उद्धार की भावना से अपने परिणामों को ओत-प्रोत रखा, उसी का ये सर्वोच्च प्रतिफल है।
हमारी व आप सब की आत्मा भी भगवान आत्मा है। यहां तक कि जो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति यह पांचों एकेन्द्रिय जीव हैं, इनकी आत्मा भी शक्तिरूप में भगवान आत्मा है। अपनी आत्मा में शक्ति रूप में स्थित भगवान आत्मा को व्यक्त अथवा प्रकट वो करते हैं, जो कर्मों का नाश कर सिद्धालय में विराजमान हो चुके हैं, बाकी सब शक्तिरूप में भगवान हैं परन्तु पुरुषार्थ की कमी से संसारी बन रहे हैं। शक्तिरूप में भगवान आत्मा को प्रकट करना, यह एक पुरुषार्थ है। पुरुषार्थ केचार भेद हैं-धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष।
सही अर्थों में पुरुषार्थ वही है जो कि आत्मा को परमात्मा बना दे। गृहस्थाश्रम में रहकर आप लोग अर्थ पुरुषार्थ भी करते हैं। आचार्य श्री शान्तिसागर जी महाराज एवं आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहते थे कि जिस गृहस्थ के पास कौड़ी नहीं वह कौड़ी का और जिस साधु के पास कौड़ी है वह कौड़ी का, क्योंकि गृहस्थ धन कमाएगा, अपने परिवार का पालन करेगा एवं धर्म का पालन करेगा। साथ ही गुरुओं की वैयावृत्ति, संघ का संचालन, तीर्थयात्रा, तीर्थों के विकास, तीर्थों के जीर्णोद्धार, चतुर्विध संघ की सेवा आदिक जितने भी कार्य हैं वे सब गृहस्थों पर ही निर्भर हैं।
यह अनादि परम्परा है कि मंदिरों व मूर्तियों का निर्माण, इनकी पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं आदि आयोजन, बड़े-बड़े अनुष्ठान, विधानादि सब गृहस्थ करते हैं और पैसे से करते हैं तो जिस गृहस्थ के पास कौड़ी नहीं है, वह कौड़ी का और जिस साधु के पास कौड़ी है वह कौड़ी का, क्योंकि साधुओं के परिणाम निर्मल होते हैं और सम्पूर्ण आरंभ तथा परिग्रह को छोड़ देने पर ही निर्मलता आ सकती है। जब वह अपने शरीर से निर्मम हैं, मोह छोड़ चुके हैं तो उनके परिणाम निर्मल हो सकते हैं। परिणामों में कलुषता तो तब आएगी जब उन्हें किसी के प्रति राग होगा या द्वेष होगा। राग-द्वेष, क्रोध, मान, माया तथा लोभादि कषायें आत्मघाती हैं।
छत्रचूड़ामणि में आचार्य श्री वादीभसूरि ने कहा है-
कषाय जब उत्पन्न होती है तो सर्वप्रथम वह आत्मा तथा उसके शान्त परिणामों का घात कर देती है, उसकी पवित्रता नष्ट कर देती है फिर दूसरे का घात हो अथवा न भी हो। इन्हें ‘‘अंगारवत् कषायाश्च’’ अर्थात् अंगारे के समान बताया है जैसे किसी ने अंगारा लिया और किसी के ऊपर फेंकने का उपक्रम किया, यह तो सामने वाले का पाप-पुण्य है कि वह जल जाये अथवा बच जाये पर उस अंगारे ने फेंकने वाले का हाथ तो पहले जला ही दिया। जैसे दुर्योधन ने पाण्डवों को जलाने के लिए लाक्षागृह में आग लगा दी, उनका पुण्य था कि वे बच गए लेकिन दुर्योधन को पापबंध हुआ, अपयश मिला और वह नरक भी गया।
इसलिए मैं कई बार कहती हूँ कि ये कषायें आत्मघाती बम हैं इनसे आत्मा की पवित्रता, शुद्धता, उसका सहज स्वभाव व शान्ति नष्ट होती है। गृहस्थाश्रम में रहकर भी आप इससे स्वयं को बचा सकते हैं। वैâसे? आत्मा की भावना, अध्यात्म की भावना के बल पर आप स्वयं में शान्त रह सकते हैं, परिणामों को निर्मल बना सकते हैं, उन्हें पवित्र बना सकते हैं।
अगर विचार करके देखें तो यह अध्यात्म भारतवर्ष के सिवाय आपको किसी भी देश में नहीं मिलेगा, वहाँ आपको अिंहसा, अस्तेय, अपरिग्रह आदि का पालन करने वाले तो मिल सकते हैं किन्तु अध्यात्म हमारे भारत की देन है और यहाँ भी जितना अध्यात्म जिनागम में मिलेगा उतना अध्यात्म आपको कहीं नहीं मिलेगा जहाँ आत्मा को परमात्मा कहा हो। सब तो कहते हैं कि आत्मा परमात्मा का अंश है, भक्ति करो, खूब भक्ति करो, उसमें विलीन हो जाओगे तो सब सुख मिल जाएंगे लेकिन तुम्हारी आत्मा परमात्मा बन जाएगी, तुम सबअपनी आत्मा को परमात्मा बना सकते हो, तुम्हारे जैसे ही भव्यात्माओं ने अपनी आत्मा को परमात्मा बनाया है, ऋषभदेव आदि सभी तीर्थंकरों ने इसका ही पालन किया है, इस प्रकार आत्मा के अस्तित्व को दिखलाने वाला, आत्मा के स्वभाव का भान कराने वाला, परम शान्ति को प्रदान करने वाला जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहा हुआ सर्वोपरि जैन धर्म है। हम पढ़ते हैं-
‘‘केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि’’ अर्थात् जो केवली भगवान द्वारा प्रणीत धर्म है, मैं उसकी शरण लेता हूँ । यह जैन धर्म कितना महान है जो आज इस पंचमकाल में मोक्षमार्ग को साकार कर रहा है और पंचमकाल के अंत तक मोक्षमार्ग को साकार करेगा। चतुर्थ काल में तो मोक्ष है और चतुर्थकाल में जन्म लेने वाले महापुरुष पंचमकाल में मोक्ष गए हैं परन्तु पंचमकाल में जन्म लेकर कोई भी मोक्ष नहीं गया है। बहुत से लोगों का यह कहना रहता है कि माताजी! जब पंचमकाल में मोक्ष नहीं है तो इतनी कठिन तपश्चर्या क्यों? दीक्षा लेना, एक बार खाना, पदविहार करना, ऐसा क्यों? यह सब शरीर को कष्ट देने वाले जो अनेक कार्य हैं इनको करने से क्या लाभ? लेकिन आचार्यों ने कहा है कि आज मोक्ष नहीं है पर मोक्षमार्ग है, आप मार्ग में लगे हैं तो अतिशीघ्र अपनी आत्मा को परमात्मा बना सकते हैं। एक उदाहरण द्वारा मैं आपको यह बात समझाती हूँ-
राजगृही नगरी में जम्बूस्वामी हुए, जिनके पिता श्री अर्हदास सेठ एवं माता जिनदासी थीं। जब जम्बूस्वामी युवा हो गए तो माता-पिता ने जम्बूस्वामी के बहुत मना करने पर भी उसी शहर की चार सुन्दर कन्याओं से उनकी शादी कर दी जबकि जम्बूस्वामी ने यह नियम कर लिया था कि मैं प्रातः होते ही जैनेश्वरी दीक्षा ले लूंगा, पर माता-पिता नहीं माने और बोले कि कोई बात नहीं तुम एक दिन के लिए ही विवाह कर लो।
उनको यह विश्वास था कि शादी होने के बाद यह भूल जाएगा कि दीक्षा लेना है और राग में फंस जाएगा किन्तु विरक्तमना जम्बूस्वामी की चारों पत्नियों के साथ रात भर राग-विराग की चर्चा चलती रही। इधर उसकी माँ परेशान हो इधर-उधर घूम रही थी तभी विद्युत्चोर नामक चोरों का सरदार चोरी के इरादे से वहाँ आ गया। जब उसने जम्बूस्वामी की माँ को विक्षिप्त देखा तो पूछा कि बहन क्या कारण है? तू इतनी विक्षिप्त क्यों है? आधी रात हो गयी तू अभी तक क्यों जाग रही है? तब वह बोली कि मेरा बेटा प्रातःहोते ही दीक्षा ले लेगा। मैंने चार-चार सुन्दर कन्याओं से उसका विवाह कर उसे राग में फंसाना चाहा लेकिन वह लगातार वैराग्य की ही चर्चाएं कर रहा है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं? सारी बात सुनकर विद्युत्चोर ने कहा कि बहन! तू निश्चिन्त हो जा, मेरे ऊपर विश्वास रख, मैं अभी इसको राग में फंसाए देता हूँ। इतना कहकर चोर दरवाजा खुलवाकर वहीं बैठ गया और अपनी सुनाने लगा परन्तु कोई फायदा नहीं निकला।
वास्तव में जो अध्यात्म से ओत-प्रोत हैं, जिन्हें अपनी आत्मा गुणों का पुंज दिख रही है, जिन्हें यह अनुभव आ रहा है कि मेरी आत्मा भगवान आत्मा है, इस भव में मैं अपनी आत्मा को भगवान आत्मा बनाकर उस अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करूंगा जिस सुख के बाद दुःख ही नहीं है, जिस ज्ञान के बाद अज्ञान ही नहीं है, जिस गति के बाद आगति नहीं है, राग-द्वेष नहीं है, मत्सर नहीं है, मान नहीं है कुछ भी नहीं है ऐसी स्वाभिमानपूर्ण अपनी आत्मा को प्रगट करना है, उन जम्बूस्वामी को कौन डिगा सकता था? वे सब अलग चिंतामग्न थे कि वैâसे जम्बूस्वामी को सरागी बना दें और जम्बूस्वामी अपनी आत्मा को वीतरागी बनाने के लिए उद्यम कर रहे थे उनमें ऐसी शक्ति कहाँ से आई?
पूर्व भव में जब वह चक्रवर्ती के पुत्र शिवकुमार थे तब उन्होंने माता-पिता के अतीव आग्रह से घर नहीं छोड़ा किन्तु घर में रहकर १२ वर्षों तक वैराग्य भावना का चिन्तन करते हुए तीन हजार स्त्रियों के बीच असिधारा व्रत पाला था ऐसा उत्तरपुराण में वर्णन आया है। उसमें लिखा है कि वे कठोर उपवास करते हुए असिधाराव्रत का पालन करते थे तो उस समय आत्मा में प्रकट हुए वह संस्कार अगले भव में भी काम आ गए।
आज मंत्रों के, अक्षत के, लौंग के व पुष्पों के संस्कार से आप मूर्ति को संस्कारित कर पत्थर को भगवान बना देते हैं फिर जो भगवान की वाणी रूप मंत्र हैं उन मंत्रों के संस्कार से अगर आप आत्मा को संस्कारित करेंगे तो निश्चित ही संस्कार अमिट बन जाएंगे जोकि आगे जाकर भी नहीं छूटेंगे, यहाँ तक कि मोक्ष प्राप्त कराने तक भी नहीं छूटेंगे। आप पूजा के अंत में पढ़ते हैं-
तव पादौ मम हृदये मम हृदयं तव पदद्वये लीनम्।
तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद्यावन्निर्वाण संप्राप्तिः।।
हे भगवन् ! आपके चरण युगल मेरे हृदय में विराजमान होंवे और मेरा हृदय आपके चरणकमल में स्थित हो जाए कब तक? जब तक निर्वाण न मिले, तब तक।
अगर बार-बार यह चिन्तनधारा चलती रहे चाहे आप जो भी कार्य कर रहे हों, हर कार्य करते हुए भी हर क्षण अगर उपयोग अपनी तरफ है तो आत्मा संस्कारित हो रही है ऐसा समझना चाहिए। यही गृहस्थाश्रम में रहते हुए गृहस्थ की विशेषता है कि उपयोग को बार-बार अपनी ओर खींचकर लावें। विधान, अनुष्ठान, तीर्थयात्रा, गुरुओं के समागम तथा पूजा आदि के द्वारा बार-बार अपनी आत्मा पर इसीलिए संस्कार डाले जाते हैं। कि हमारी आत्मा अध्यात्म से ओत-प्रोत हो जाए और इतनी संस्कारित हो जाए कि कोई संस्कार उस पर काम न कर सके। जैसे-गुड़ अधिक मीठा होता है अगर उसे खुले में रख दिया जाये और गीला हो तो धूल के जो कुछ कण उस पर गये वह भी मीठे हो गए । बात यह है कि अगर धर्म के ज्यादा संस्कार हैं तो अशुभ कर्म को भी पछाड़ देते हैं, उसे दूर कर देते हैं। यह अध्यात्म भावना है कि मैं भिन्न हूँ, शरीर भिन्न है यही जम्बूस्वामी चिन्तन कर रहे थे कि शरीर भिन्न है, आत्मा भिन्न है। जब मेरा शरीर ही अपना नहीं है तो यह माता-पिता, धन-वैभव, चारों पत्नियाँ आदि किसके? इस प्रकार वह अपनी अध्यात्म भावना के बल पर सबका हृदय जीत लेते हैं।
उसी रात्रि में उस विद्युत्चोर को भी वैराग्य हो गया, उसने सोचा कि छोड़ो चोरी करना। यहाँ तक कि अपने ५०० चोरों को भी वैराग्य का उपदेश दिया जिससे वे चोर भी दीक्षा हेतु उद्यत हो गये। जम्बूस्वामी के माता-पिता, चारों पत्नियाँ सभी के भाव बदल गए और सभी दीक्षा लेने को तैयार हो गए। सुबह उठते ही यह घटना राजा को पता लगी। महामंगलीक बेला में राजा ने उनका स्वागत कर महाभिषेक किया और पुनः सभी ने जम्बूस्वामी के साथ दीक्षा ले ली तो देखा जाए यह अध्यात्म भावना की जीवन्त मिशाल है।
अध्यात्म भावना, वैराग्य भावना, धर्म भावना में ही शांति व निराकुलता है, यह विचार करने का विषय है। आज गृहस्थ छोटी-छोटी बातों में आकुलता करता है और उन बातों को महत्व देता है तो घर नर्क बन जाता है और अगर उदारता व सहनशीलता है, छोटी-छोटी बातों में उलझते नहीं है तो घर स्वर्ग बन जाता है और महिलाओं में खास यह बात देखी जाती है, बहुत दिनों तक वह परिवार संयुक्त रहता है अन्यथा बिखर जाता है। यह बात चाहे धर्मनीति हो, राजनीति हो, हर क्षेत्र में लागू होती है।
अपने देश में भी जब तक सामञ्जस्य बिठाने की क्षमता है तब तक देश चल रहा है अन्यथा टूट जाता है, बिखर जाता है, दूसरे हावी हो जाते हैं। अंंग्रेज हमारे देश की शक्ति कमजोर देखकर ही तो हावी हुए थे, तो बात यही है कि चाहे देश हो, राष्ट्र हो, संस्था हो या परिवार हो सर्वत्र यही बात लागू होती है। जहाँ आध्यात्मिकता व विवेक है वहीं शान्ति है, देखा जाए तो आत्म-चिन्तन हर क्षण में, हर स्थिति में सुखदायी है।
किसी स्थिति में आप क्योंं न हों, सहसा परिवार में वैâसा भी दुख का समय आ गया हो, अशांति का प्रसंग आ गया हो तो अगर अध्यात्म भावना है कि जब शरीर ही अपना नहीं है तो कौन किसका? मेरी आत्मा तो भगवान आत्मा है। तो आत्मा के गुणों को पहचानते ही, आत्मा पर दृष्टि पड़ते ही मन प्रसन्न व प्रफुल्ल हो जाता है, अपने गुणों का भान होता है कि मैं कितना शक्तिशाली हूँ।
आचार्य कहते हैं कि जैसे लोहे से लोहे का पात्र बनता है, स्वर्ण से स्वर्णाभूषण बनता है तथा चाँदी से चाँदी के आभूषण बनते हैं वैसे ही जैसी हमारी चिन्तनधारा होगी वैसी ही हमारी आत्मा परिणत होगी और आगे शुद्धोपयोग की ओर बढ़ेगी। शुद्धोपयोग तो गृहस्थाश्रम में होगा नहीं किन्तु जो शुद्धापयोग की भावना कर रहे हैं
उन मुनियों के प्रति आदरभाव रहे तथा कब हमारी आत्मा शुद्धोपयोग को प्राप्त हो ऐसा बार-बार चिन्तवन करते रहे तो पुनः-पुनः भाई गयी भावना एक न एक दिन सफल हो जाती है। कभी जम्बूस्वामी ने पूर्व भव में जो भावना भायी थी, असिधारा व्रत पाला था तो चारों पत्नियों में आसक्त न होकर जैनेश्वरी दीक्षा ले ली और तपश्चरण करने लगे। वैâसी होगी उनकी विचारधारा, वैâसे होंगे उनके भाव? अगर ऐसे महापुरुषों का चिन्तन बार-बार किया जाये तो निश्चित सफलता मिलेगी।
आज लोग अध्यात्म के लिए समयसार पढ़ने की शिक्षा देते हैं परन्तु आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहा करते थे कि चारों अनुयोगों का अध्ययन करो, ये चारों अनुयोग आपको अध्यात्म की राह दिखाने वाले हैं। आध्यात्मिक पुरुषों का चिन्तवन करने से आपकी अध्यात्म भावना वृद्धिंगत होगी।
और यह भी अवश्य ध्यान रखना है कि अध्यात्म की भावना जीवन भर करो लेकिन अगर कोई रोग, कोई क्लेश या कोई संकट आदि आ जाए तो भगवान की भक्ति भी करो, वह आपकी आध्यात्मिक भावना को दृढ़ कर देगी अन्यथा अगर कोरा तोतारटन्त अध्यात्म है कि बहेलिया आएगा, जाल बिछाएगा, दाना डालेगा, लेकिन उसमें फंसना नहीं, कहते-कहते फंस जाते हंैं वैसा ही हाल होगा।अध्यात्म के साथ-साथ भगवान की भक्ति , अपने कर्तव्य का भाव, समय पर देव-धर्म व गुरुओं की शरण लेना तथा आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है इस प्रकार चिन्तवन करते हुए आत्मा को शरीर से पृथक करना है। आत्मा व शरीर को सहसा पृथक् नही किया जा सकता, केवल विवेक तथा समीचीन ज्ञान से धीरे-धीरे पृथक करके उसे परमात्मा रूप बनाना है इसमें एक-दो नहीं आठ-दस भव लग सकते हैं तो आपका यह पुरुषार्थ अतिशीघ्र फलित हो और सब प्रकार के मनोरथों को सफल करके, आत्मिक शक्ति को पहचानकर प्रसन्नमना होते हुए आप सब भगवान की भक्ति करते रहें जिससे आपकी आत्मा शीघ्र भगवान आत्मा बन सके।