भरतक्षेत्र के अंगदेश की चम्पापुरी के राजा वसुवर्धन की रानी का नाम लक्ष्मीमती था। यहीं पर एक सेठ प्रियदत्त थे। उनकी पत्नी अंगवती थी। अंगवती के सुंदर कन्या हुई। उसका नाम अनंतमती रक्खा गया। यह पुत्री सर्वगुणों की खान थी। जब वह ८-९ वर्ष की थी, आष्टान्हिक पर्व में सेठ प्रियदत्त अपनी रानी और पुत्री के साथ जिनमंदिर गये। भगवान के दर्शन करके मुनिराज के पास जाकर आठ दिन के लिए पत्नी के साथ ब्रह्मचर्यव्रत ले लिया।
पुत्री ने भी व्रत लेना चाहा तब पिता ने उसे भी दिला दिया। जब वह विवाह योग्य हुई तब पिता ने उसके विवाह की चर्चा की। तब अनंतमती ने कहा—पिताजी मैंने तो आपसे आज्ञा लेकर ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। पिता ने कहा—बेटी! वह तो विनोद में दिलाया गया था और फिर आठ दिन की बात थी। अनंतमती ने कहा—उस समय आठ दिन की मेरे लिए बात नहीं थी। जो भी हो, अनंतमती दृढ़ थी अत: माता-पिता ने विवाह की बात खतम कर दी।
एक दिन अनंतमती अपने बगीचे में झूला झूल रही थी। उसी समय एक विद्याधर उसे हरण कर ले गया। पुन: अपनी पत्नी के डर से उसे वन में छोड़ दिया। वन में अनंतमती अकेली रो रही थी। इसी बीच वहाँ एक भीलो का राजा आया। उसने अपने महल में ले जाकर पत्नी बनाना चाहा तब कन्या की दृढ़ता के प्रभाव से वन देवी ने उसकी रक्षा की।
तब उस भील ने उस कन्या को एक पुष्पक नाम के सेठ के हाथों सौंप दी। सेठ ने भी उसे अपने अधीन करना चाहा किन्तु अनंतमती के शील की दृढ़ता से वह डर गया। अनंतर उसने एक वेश्या के पास उसे छोड़ दिया। कामसेना वेश्या ने भी अनंतमती को वेश्या बनाना चाहा किन्तु असफल रही। तब उसने उसे सिंहराज नाम के राजा को सौंप दिया। सिंहराज ने भी अनंतमती से बलात्कार करना चाहा तब वनदेवी ने आकर उसकी रक्षा की।
तब सिंहराज ने उसे जंगल में छुड़वा दिया। वहाँ पर निर्जन वन में अनंतमती मंत्र का स्मरण करते हुए आगे बढ़ी और चलती ही गई। कई एक दिनों में वह अयोध्या पहुँच गई। वहाँ पद्मश्री आर्यिका के दर्शन किये और उनसे अपना सारा हाल सुना दिया। आर्यिका पद्मश्री अनंतमती की छोटी उम्र में उसने इतने कष्ट झेले हैं देखकर बहुत ही दु:खी हुर्इं और करुणा से हृदय आद्र्र हो गया।
उन्होंने अनंतमती को अपने पास रखा, सान्त्वना दी तथा संसार की स्थिति का उपदेश देते हुए उसके वैराग्य को और भी दृढ़ कर दिया। वह अनंतमती तब से उन आर्यिका के पास ही रहती थी और सतत धर्मध्यान में अपना समय बिता रही थी। अनंतमती के पिता प्रियदत्त पुत्री के हरण हो जाने के बाद सर्वत्र खोजकराकर थक चुके थे और उसके वियोग के दु:ख से बहुत ही व्याकुल रहते थे। वे मन की शांति देने हेतु तीर्थयात्रा को निकले हुए थे।
अयोध्या में आ गये और अपने साले जिनदत्त के यहाँ ठहर गये। उनसे अपनी पुत्री के हरे जाने का समाचार सुनाया जिससे ये लोग भी दु:खी हुए। दूसरे दिन जिनदत्त की भार्या ने घर में चौका बनाया था। उसने आर्यिका पद्मश्री के पास में स्थित बालिका को अपने घर बुला लिया। उसे भोजन का निमंत्रण दे दिया तथा घर के आँगन में चौक पूरने को कहा। कन्या ने रत्नचूर्ण की रांगोली से बहुत ही सुंदर चौक बनाया।
कुछ देर बाद सेठ प्रियदत्त उस चौक की सुंदरता को देखकर अपनी पुत्री को याद कर रो पड़ा और पूछने लगा—यह चौक किसने पूरा है उसे मुझे दिखा दो। कन्या को देखते ही उसने उसे अपने हृदय से लगा लिया। पिता पुत्री के इस मिलन को देखकर सभी को आश्चर्य हुआ और महान हर्ष भी।
अनंतर पिता ने पुत्री से घर चलने को कहा किन्तु अनंतमती पूर्ण विरक्त हो चुकी थी। अत: उसने पिता से प्रार्थना की कि आप मुझे अब दीक्षा दिला दीजिए। बहुत कुछ समझाने के पश्चात् भी अनंतमती ने घर जाने से इंकार कर दिया और वहीं आर्यिका पद्मश्री से दीक्षा लेकर आर्यिका बन गर्इं।
इन्होंने दीक्षित अवस्था में महीने-महीने के उपवास करके बहुत ही तपश्चरण किया है। उसकी इतनी छोटी उम्र, ऐसा कोमल शरीर और ऐसा महान तप देखकर लोग आश्चर्यचकित हो जाते थे। देखो, अनंतमती कन्या ने अबोध अवस्था में विनोद से दिलाये गये ब्रह्मचर्यव्रत को भी महान समझा, उसका संकट काल में भी निर्वाह किया और युवावस्था में ही आर्यिका बनकर घोर तपश्चरण किया है। अनंतर अंत में सल्लेखना विधि से मरणकर स्त्रीपर्याय को छेदकर बारहवें स्वर्ग में देव हो गई हैं।