श्री अनंतजिन स्तुति
हे नाथ! अनंत गुणाकर तुम, साकेत पुरी में जन्म लिया।
जयश्यामा माँ सिंहसेन पिता ने, कीर्ति ध्वजा को लहराया।।
कार्तिक वदि एकम गर्भ बसे, वदि ज्येष्ठ दुवादशि जन्मे थे।
इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, तप तपते वन वन घूमे थे।।१।।
चैत्री मावस में ज्ञानोत्सव, इस ही तिथि में प्रभु सिद्ध हुए।
दो सौ कर देह कनक कांति, प्रभु तीस लाख वत्सर थिति है।।
सेही लांछनयुत अंतकहर! हे देव अनंत! तुम्हें प्रणमूँ।
यह सब व्यवहार स्तुति भगवन्! निश्चय से गुण-गण को हि नमूँ।।२।।
यद्यपि ये कर्म अनादि से, मेरे संग बँधते आये हैं।
फिर भी अणुमात्र नहीं मुझमें, परिवर्तन करने पाये हैं।।
मैं सब प्रदेश में ज्ञानमयी, जड़कर्मों से क्या नाता है?
मैं हूँ चैतन्य अनंत गुणी, जड़ ही जड़ के निर्माता हैं।।३।।
यह निश्चय नय जब निश्चय से, ध्यानस्थ अवस्था पाता है।
तब कर्मों का कर्त्ता भोक्ता, नहिं होता बंध नशाता है।।
भगवन् ! तव चरण कमल सेवा, करते-करते यह फल पाऊँ।
अनुपम अनंत गुण के सागर, निज आत्मा में ही रम जाऊँ।।४।।
(अथ विधियज्ञप्रतिज्ञापनाय पुष्पांजलिं क्षिपेत्)