अनन्तव्रते तु एकादश्यामुपवास: द्वादश्यामेकभत्तंत्रयोदश्यां काञ्जिकं चतुर्दश्यामुपवासस्तदभावेयथा शक्तिस्तथा कार्यम्। दिनहानिवृद्धौ स एव क्रम:
स्मरत्वयः।
अर्थ-अनन्त व्रत में भाद्रपद शुक्ला एकादशी कोउपवास, द्वादशी को एकाशन, त्रयोदशी को कांजी-छाछअथवा छाछ में जौ, बाजरा के आटे को मिलाकर महेरी-एकप्रकार की कढ़ी बनाकर लेना और चतुर्दशी को उपवासकरना चाहिए। यदि इस विधि के अनुसार व्रत पालन करने
की शक्ति न हो तो शक्ति के अनुसार व्रत करना चाहिए।
तिथि-हानि या तिथि-वृद्धि होने पर पूर्वोक्त क्रम ही अवगतकरना चाहिए अर्थात् तिथि-हानि में एक दिन पहले सेऔर तिथि- वृद्धि में एक दिन अधिक व्रत करना होता है।
विवेचन-अनन्तव्रत भादों सुदी एकादशी से आरंभकिया जाता है। प्रथम एकादशी को उपवास कर द्वादशीको एकाशन करे अर्थात् मौन सहित स्वाद रहित प्रासुकभोजन ग्रहण करे, सात प्रकार के गृहस्थों के अन्तराय कापालन करे। त्रयोदशी को जिनाभिषेक, पूजन-पाठ के
पश्चात् छाछ या छाछ में जौ, बाजरा के आटे से बनाई गई महेरी—एक प्रकार की कढ़ी का आहार ले। चतुर्दशी केदिन प्रोषध करे तथा सोना, चाँदी या रेशम-सूत काअनन्त बनाये, जिसमें चौदह गाँँठ लगाए।प्रथम गाठ पर ऋषभनाथ से लेकर अनन्तनाथ तक चौदह
तीर्थंकरों के नामों का उच्चारण, दूसरी गाँँठ परसिद्धपरमेष्ठी के चौदह१ गुणों का चिन्तन, तीसरी पर उनचौदह मुनियों का नामोच्चारण जो मति-श्रुत-अवधिज्ञान के धारी हुए हैं, चौथी पर अर्हन्त भगवान केचौदह देवकृत अतिशयों का चिन्तन, पाँचवीं परजिनवाणी के चौदह पूर्वों का चिन्तन, छठवीं पर चौदहगुणस्थानों का चिन्तन, सातवीं पर चौदह मार्गणाओंका स्वरूप, आठवीं पर चौदह जीवसमासों का स्वरूप,नौवीं पर गंगादि चौदह नदियों का उच्चारण, दसवीं परचौदह राजू प्रमाण ऊँचे लोक का स्वरूप, ग्यारहवीं परचक्रवर्ती के चौदह रत्नों का, बारहवीं पर चौदह स्वरों का,तेरहवीं पर चौदह तिथियों का एवं चौदहवीं गाँँठ परआभ्यन्तर चौदह प्रकार के परिग्रह से रहित मुनियों काचिन्तन करना चाहिए। इस प्रकार अनन्त का निर्मा;ण करनाचाहिए।
पूजा करने की विधि यह है कि शुद्ध कोरा घड़ा लेकरउसका प्रक्षाल करना चाहिए। पश्चात् उस घड़े पर चंदन, केशरआदि सुगंधित वस्तुओं का लेप करना तथा उसके भीतरसोना, चाँदी या ताँबे के सिक्के रखकर सफे वस्त्रसे ढक देना चाहिए। घड़े पर पुष्प डालकर उसके ऊपर पढ़कर प्रक्षाल करके रख देनी चाहिए। थाली में अनन्त व्रतका माड़ना और यंत्र लिखना, पश्चात् चौबीसी एवंपूर्वोक्त विधि से गाँँठ दिया हुआ अनन्त विराजमान करनाहोता है। अनन्त का अभिषेक कर चंदनकेशर का लेपकिया जाता है। पश्चात् आदिनाथ से लेकर अनन्तनाथ तक पढ़कर भगवानों की स्थापना यंत्र पर की जाती है। अष्टद्रव्य से पूजा करने के उपरांत ‘ॐ ह्रीं अर्हनम:अनन्तकेवलिने नम:’ इस मंत्र को १०८ बार पढ़कर अथवा पुष्पों से जाप करना चाहिए। पश्चात्‘ॐ झीं क्ष्वीं हं स: अमृतवाहिने नम:’, अनेन मंत्रेण सुरभिमुद्रां धृत्वा उत्तमगन्धोदकप्रोक्षणं कुर्यात्’अर्थात् ‘ॐ झीं क्ष्वीं हं स अमृतवाहिने नम:’ इस मंत्र कोतीन बार पढ़कर सुरभि मुद्रा द्वारा सुगंधित जल से अनन्त का सिंचन करना चाहिए। अनन्तर चौदहों भगवानों की पूजाकरनी चाहिए।
‘ॐ ह्रीं अनन्ततीर्थंकराय ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: असि आ उसानम: सर्वशांतिं तुष्टिं सौभाग्यमायुरारोग्यैश्वर्यमष्ट-सिद्धिं कुरु कुरु सर्वविघ्नविनाशनं कुरु कुरु स्वाहा’
इस मंत्र से प्रत्येक भगवान की पूजा के अनन्तर अर्घ्यचढ़ाना चाहिए। ‘ॐ ह्रीं हं स अनन्तकेवलीभगवान्धर्मबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिं कुरु कुरु स्वाहा’
इस मंत्र को पढ़कर अनन्त पर चढ़ाये हुए पुष्पोंकीआशिका एवं ‘ॐ ह्रीं अर्हन्नम:सर्वकर्मबंधनविमुक्ताय नम: स्वाहा’ इस मंत्र को पढ़कर शांति जल की आशिका लेनी चाहिए। इस व्रत में‘ॐ ह्रीं अर्हं हं स अनन्तकेवलिने नम:’ मंत्र का जाप करनाचाहिए। पूर्णिमा को पूजन के पश्चात् अनन्त को गले या भुजा में धारण करे।
इसी जम्बूद्वीप के आर्यखण्डों में कौशल देशहै। उसमें अयोध्या नगरी के पास पद्मखण्ड नाम का ग्रामथा। उस ग्राम में सोमशर्मा नाम का एक अति दरिद्र ब्राह्मणअपनी सोमा नाम की स्त्री और बहुत सी पुत्रियोंसहित रहता था। वह (ब्राह्मण) विद्याहीन और दरिद्र होने के
कारण भिक्षा मांगकर उदर पोषण करता था, तो भी भरपेटखाने को नहीं पाता था।तब एक दिन अपनी स्त्री की सम्मति से उसनेसहकुटुम्ब प्रस्थान किया तो चलते समय मार्ग में शुभशकुन हुए अर्थात् सौभाग्यवती स्त्रियाँ सन्मुखमिलीं। कुछ और आगे चला तो क्या देखता है कि हजारोंनर-नारी किसी स्थान को जा रहे हैं, पूछने से विदित हुआकि वे सब अनन्तनाथ भगवान के समवसरण में वंदनाके लिए जा रहे हैं।यह जानकर यह ब्राह्मण भी उनके पीछे हो लिया औरसमवसरण में गया। वहाँ प्रभु की वंदना कर तीनप्रदक्षिणा दी और नर -कोठे में यथास्थान जा बैठा जहाँसमवसरण में दिव्यध्वनि सुनकर उसेसम्यग्दर्शन कीप्राप्ति हुई|पश्चात् चारित्र का कथन सुनकर उसने जुआ, माँस,मद्य, वेश्यासेवन, शिकार, चोरी और परस्त्रीसेवन येसात व्यसन त्याग किये। पंच उदुम्बर और तीन मकार त्यागये अष्ट मूलगुण भी धारण किये। हिंसा, झूठ, चोरी,कुशील और अतिशय लाभ इन पंच पापों का एकदेशत्यागरूप अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत भी ग्रहणकिये। इस प्रकार सम्यक्त्व सहित बारह व्रत लिए। पश्चात् कहने लगा-हे नाथ! मेरी दरिद्रता किस प्रकार से मिटे सो कृपाकरके कहिए।
तब भगवान ने उसे अनन्त चौदस का व्रत करने कोकहा। इस व्रत की विधि इस प्रकार है कि भादों सुदी ११का उपवास कर १२ और १३ को एकाशन करे अर्थात् एकाशन से मौन सहित स्वादरहित प्रासुक भोजन करे,सात प्रकार गृहस्थों के अन्तराय पाले, पश्चात् चतुर्दशी
के दिन उपवास करे तथा चारों दिन ब्रह्मचर्य रखे, भूमिपर शयन करे, व्यापार आदि गृहारंभ न करे। मोहादि रागद्र्वेषतथा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्यादिक कषायों कोछोड़े, सोना, चाँदी या रेशम, सूत आदि का अनन्त बनाकर,इसमें प्रत्येक गाँँठ पर १४ गुणों का चिन्तवन करके १४ गाँँठ लगाना।
प्रथम गाँँठ पर ऋषभनाथ भगवान से अनन्तनाथ भगवानतक १४ तीर्थंकरों के नाम उच्चारण करे।दूसरी गाँँठ पर सिद्ध परमेष्ठी के १४ गुण चिन्तवन करे।तीसरी पर १४ मुनि जो मति, श्रुत, अवधिज्ञान युक्त होगये हैं उनके नाम उच्चारण करे।
चौथी पर केवली भगवान के १४ अतिशय केवलज्ञानकृत स्मरण करे। पाँचवी पर जिनवाणी में जो १४ पूर्व; हैंउनका चिन्तवन करे।छठवीं पर चौदह गुणस्थानों का विचार करे। सातवीं परचौदह मार्गणाओं का स्वरूप विचारे।आठवीं पर १४ जीवसमासों का विचार करे, नवमीं परगंगादि १४ नदियों का नामोच्चारण करे। दशवीं पर तीनलोक जो १४ राजू प्रमाण ऊँचा है उसका विचार करे।ग्यारहवीं पर चक्रवर्ती के चौदह रत्नों का चिन्तवन करे।
बारहवीं पर १४ स्वर (अक्षर) का चिन्तवन करे। तेरहवीं पर चौदहतिथियों का विचार करे। चौदहवीं गाँँठ पर मुनि केमुख्य १४ दोष टालकर जो आहार लेते हैं, उनका विचार करे।इस प्रकार १४ गाँँठ लगाकर मेरु के ऊपर स्थापित प्रतिमा केसन्मुख इस अनन्त को रखकर अभिषेक करे। अनन्त प्रभुकी पूजन करे फिर नीचे लिखा मंत्र १०८ बार जपे-
मंत्र-(१) ॐ ह्रीं अर्हं हं स अनन्तकेवलिने नम:।
मंत्र-(२) ॐ नमोऽर्हते भगवते अणंताणंतसिज्झधम्मेभगवदो महाविज्जा-महाविज्जा अणंताणंतकेवलिएअणंतकेवलणाणे अणंतकेवलदंसणेअणुपुज्जवासणे अणंते अणंतागमकेवली स्वाहा।
इस प्रकार चारों दिन अभिषेक , जप और जागरण, भजन,पूजनादि करे। फिर पूनम के दिन उस अनन्त को दाहिनीभुजा पर या गले में बांधे।पश्चात् उत्तम, मध्यम या जघन्य पात्रों में से जो समयपर मिल सके उन्हें आहार आदि दान देकर आप पारणा करे।
इस प्रकार १४ वर्ष तक करे। पश्चात् उद्यापन करे, तब १४प्रकार के उपकरण मंदिर में देवे जैसे-शास्त्र, चमर, छत्र,चौकी आदि। चार प्रकार संघों को आमंत्रण करकेधर्म की प्रभावना करे। यदि उद्यापन की शक्ति न होवेतो दूना व्रत करे।इस प्रकार श्रीमुख से व्रत की विधि और उत्तम फलसुनकर उन ब्राह्मण ने स्त्री सहित यह व्रत लिया तथा औरभी बहुत लोगों ने यह व्रत लिया।पश्चात् नमस्कार करके वह ब्राह्मण अपने ग्राम में आयाऔर भाव सहित १४ व्रत को विधियुक्त पालन करकेउद्यापन किया। इससे दिनोंदिन उसकी बढ़ती होनेलगी। इसके साथ रहने से और भी बहुत लोग धर्ममार्गमें लग गये क्योंकि लोग जब उसकी इस प्रकार बढ़तीदेखकर उससे इसका कारण पूछते तो वह अनन्त व्रत आदिव्रतों की महिमा और जिनभाषित धर्म के स्वरूप काकथन कह सुनाता। इससे बहुत लोगों की श्रद्धा उस पर होजाती और वे उसे गुरु मानने लगते।
इस प्रकार वह ब्राह्मण भले प्रकार सांसारिक सुखोंको भोगकर अन्त में सन्यास मरण कर स्वर्ग में देव हुआ।उसकी स्त्री भी समाधि से मरकर उसी स्वर्ग में उसकीदेवी हुई। वहाँ अपनी पूर्वपर्याय का अवधि सेविचारकर धर्मध्यान सेवन करके वहाँ से चये, सो वहब्राह्मण का जीव अनन्तवीर्य नाम का राजा हुआ औरब्राह्मणी उसकी पट्टरानी हुई।ये दोनों दीक्षा लेकर अनन्तवीर्य तो इसी भव सेमोक्ष को प्राप्त हुए और श्रीमती स्त्रीलिंग छेदकर अच्युतस्वर्ग में देव हुई। वहाँ से चयकर मध्यलोक में मनुुुुष्य भव धारण कर संयम ले मोक्ष जावेगी।
इस प्रकार एक दरिद्र ब्राह्मणी अनन्त व्रत पालकर सद्गतिको पाकर उत्तमोत्तम गति को प्राप्त हुई। यदि अन्य भव्यजीव यह व्रत पालेंगे तो वे भी सद्गति पावेंगे |