मासे मासे तु यो बाल:, कुशाग्रेण तु भुङ्क्ते।
न स स्वाख्यातधर्मस्य, कलामर्घति षोडशीम्।।
—समणसुत्त : २७३
जो बाल (परमार्थशून्य अज्ञानी) महीने—महीने के तप करता है और (पारणे में) कुश के अग्रभाग जितना (नाममात्र का) भोजन करता है, वह सुआख्यात धर्म की सोलहवीं कला को भी नहीं पा सकता।
सो नाम अणसण तवो, जेव मणो मंगुलं न चिन्तेइ।
जेण न इंदियहाणी, जेण य जोगा न हायंति।।
—मरण—समाधि : १३४
वही अनशन तप श्रेष्ठ है जिससे कि मन अमंगल न सोचे, इन्द्रियों की हानि न हो और नित्य—प्रति की योग—धर्म क्रियाओं में विघ्न न आए।