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अयोध्या
अनावृतयक्ष पूजा
June 21, 2020
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अनावृतयक्ष पूजा
मेरोरीशानभागे कुरुषु मणिमयस्योत्तरेषु स्थितस्य।
श्रीजंबूभूरुहस्य स्थितिजुषमनिशं पूर्वशाखास्थसौधे।।
शंखं चक्रं च कुंडिं दधतमुरुकरैररक्षमालां च कृष्णंष्ट्वं।
पक्षीन्द्रारुढमस्या भवदिशि विधिनानावृतेन्द्रं यजामि।।
ओं दशदिशाधिनाथं त्रैलोक्यदंडनायकं जंबूद्वीपाधिपतिं गरुडपृष्ठमारूढं स्निग्धभृंगांजनाभमक्षसूत्रकमंडलुव्यग्रहस्तं चतुर्भुजं शंखचक्रविधृतभुजादंडं यक्षिणीसहितं सपरिजन-सपरिवारमनावृतं देवमाव्हानयामहे स्वाहा।।
हे अनावृत यक्ष! आगच्छ २ संवौषट्०।।पुष्पांजलिं।। अनावृताय स्वाहा।। अनावृतपरिजनाय स्वाहा। अनावृतानुचराय स्वाहा।। अनावृतमहतराय स्वाहा।। अग्नये स्वाहा।। अनिलाय स्वाहा।। वरुणाय स्वाहा।। प्रजापतये स्वाहा।। ॐ स्वाहा।। भूः स्वाहा।। भुवः स्वाहा।। स्वः स्वाहा।। ओं भूर्भुवः स्वः स्वाहा स्वधा।।
अनावृताय स्वगणपरिवृताय इदमर्घ्यं पाद्यं गंधं अक्षतान् पुष्पं दीपं धूपं फलं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां-२ स्वाहा।।
अनावृत यक्ष अर्घ्य
(भाषा)
मेरू के उत्तर दिश में है उत्तरकुरु भोग भूमि उत्तम।
उसमें मणिमय जंबूतरु की पूरब शाखा पर देवभवन।।
उस पर रहता है यक्ष अनावृत देव निजी परिवार सहित।
जंबूद्वीपाधिपति दशदिश का स्वामी यह बहुशक्ति सहित।।
दोहा
कृष्ण वर्ण चउभुज धरे, गरुड़ासन सुखकार।
शंख चक्र कुन्डी तथा, अक्षमाल कर धार।।
ॐ ह्रीं जंबूद्वीप रक्षक अनावृत यक्ष देव! अत्र आगच्छ २, पुष्पांजलिः। इदं अर्घ्यं पाद्यं गंधं अक्षतान् पुष्पं दीपं धूपं चरुं फलं बलिं स्वस्तिकं यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यतां २ इति स्वाहा।
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