अब आचार्य अनित्य पञ्चाशतनामक अधिकार का वर्णन करते हुए प्रथम मंगलाचरण करते हैं।
-आर्या छंद-
जयति जिनो धृतिधनुषामिषुमाला भवति योगियोधानाम्।
यद्वाकरुणामय्यपि मोहरिपुप्रहतये तीक्ष्णा।।१।।
अर्थ—दयामयी भी जिस जिनेन्द्र की वाणी धैर्यरूपी धनुष को धारण करने वाले योगीरूपी योधाओं के मोहरूपी बैरी के नाश करने के लिये पैनी बाणों की पंक्ति के समान है वह जिनेन्द्र इस संसार में सदा जयवन्त हैं।
भावार्थ—जो दयामय होता है वह किसी का नाश नहीं कर सकता किन्तु भगवान की वाणी में यह विचित्रता है कि दयामयी होने पर भी वह योगियों के मोह को पल भर में नाश कर देती है इसलिये ऐसी आश्चर्यकारी वाणी के धारी जिनेन्द्र सदा इस संसार में जयवन्त हैं।।१।।
अब आचार्य मनुष्य देह का अनित्यपना दिखाते हैं।
-शार्दूलविक्रीडित-
यद्यकत्रे दिने न भुक्तिरथवा निद्रा न रात्रौ भवेत् विद्रात्यम्बुजपत्रवद्दहनतोभ्याशस्थिताद्यद्ध्रुवम्।
अस्त्रव्याधिजलादितोऽपिसहसा यच्च क्षयं गच्छति भ्रात: कात्रशरीरके स्थितिमतिर्नाशेऽस्यकोविस्मय:।।२।।
अर्थ—यदि एक दिन खाया न जाय अथवा रात्रि में सोया न जाय तो यह शरीर पास में रही हुई अग्नि से जिस प्रकार कमल का पत्र मुरझा जाता है उसी प्रकार मुरझा जाता है तथा हथियार,रोग,जल, अग्नि आदि से भी यह पलभर में नष्ट हो जाता है इसलिए आचार्य कहते हैं कि हे भाई! ऐसा शरीर कब तक रहेगा ऐसा कोई निश्चय नहीं है अथवा यह जल्दी नष्ट होगा इसमें भी कोई आश्चर्य नहीं अत: इस शरीर में किसी प्रकार की ममता न रखकर अपना आत्मकल्याण करो।।२।।
-शार्दूलविक्रीडित-
दुर्गन्धाशुचिधातुभित्तिकलितं सञ्छादितं चर्मणा विण्मूत्रादिभृतं क्षुधादिविलसद्दु:खाखुभिश्छिद्रितम् ।
क्लिष्टं कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्तं जरावन्हिना चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढ़ो जनो मन्यते।।३।।
अर्थ—जिस देहरूपी झोपड़े की भीतें दुर्गन्ध और अपवित्र ऐसी मल, मूत्र आदि धातुओं की बनी हुई हैं तथा जो ऊपर से चाम से ढका हुवा है और विष्टा-मूत्र आदि से भरा हुवा है तथा भूख-प्यास आदिक जो दु:ख वे ही हुवे मूंसे उन्होंने जिसमें बिलें बना रक्खे हैं अर्थात् जो दु:खों का भण्डार है और वृद्धावस्थारूपी अग्नि जिसके चारों ओर मौजूद है ऐसे शरीररूपी झोपड़े को भी मूढ़प्राणी अविनाशी तथा पवित्र मानते हैं यह बड़े आश्चर्य की बात है।।३।।
अम्भोवुद्वुदसन्निभा तनुरियं श्रीरिन्द्रजालोपमा दुर्वाताहतवारिवाहसदृशा: कान्तार्थपुत्रादय:।
सौख्यं वैषयिकं सदेव तरलं मत्ताङ्गनापांगवत्तस्मादेतदुपप्लवाप्तिविषये शोकेन किं किं मुदा।।४।।
अर्थ—शरीर तो जल के बबूलों के समान है और लक्ष्मी इन्द्रजाल के समान है तथा स्त्री, धन, पुत्र, मित्र आदिक खोटेपन से नष्ट हुवे मेघों के समान पलभर में विनाशीक हैं और युवती स्त्री के कटाक्ष के समान चंचल यह विषयसंबंधी सुख है इसलिये आचार्य कहते हैं कि इनके नाश होने पर विद्वानों को न तो शोक करना चाहिये तथा मिलने पर हर्ष भी नहीं मानना चाहिये।
भावार्थ—यह बात आबाल-गोपाल प्रसिद्ध है कि जो पैदा हुवा है वह अवश्य ही नष्ट होगा फिर मनुष्य, लक्ष्मी आदि की उत्पत्ति में हर्ष मानते हैं तथा उसके नाश होने पर शोक मानते हैं ऐसा उनको नहीं मानना चाहिये तथा जिस प्रकार बने उस प्रकार अपनी आत्मा का ही कल्याण करना चाहिये।।४।।
दु:खे वा समुपस्थितेऽथ मरणे शोको न कार्यो बुधै: संबंधो यदि विग्रहेण यदयं सम्भूतिधात्र्येतयो:।
तत्तस्मात्परिचिंतनीयमनिशं संसारदु:खप्रदो येनास्य प्रभव: पुर: पुनरपि प्रायो न सम्भाव्यते।।५।।
अर्थ—देह के संबंध से यद्यपि संसार में दु:ख तथा शोक आकर उपस्थित होते हैं तो भी विद्वानों को किसी पदार्थ के लिये दु:ख तथा शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि यह देह दु:ख तथा शोक ही पैदा करने वाली भूमि है इसलिये विद्वानों को निरन्तर उस आत्मस्वरूप का चिंतवन करना चाहिये जिससे भविष्यत् में नाना प्रकार के संसार के दु:खों को देने वाली इस शरीर की उत्पत्ति फिर से न होवे।।५।।
-शार्दूलविक्रीडित-
दुर्वारार्जितकर्मकारणवशादिष्टे प्रनष्टे नरे य: शोकं कुरुते यदत्र नितरामुन्मत्तलीलायितम्।
यस्मात्तत्र कृते न सिध्यति किमप्येतत्परं जायते नश्यन्त्येव नरस्य मूढमनसो धर्मार्थकामादय:।।६।।
अर्थ—जिसका निवारण नहीं हो सकता तथा पूर्व भव में संचित, ऐसे कर्मरूपी कारण के वश से जो मनुष्य अपने प्रिय स्त्री, पुत्र आदि के नष्ट होने पर उन्मादी मनुष्य की लीला के समान इस संसार में बिना प्रयोजन का अत्यन्त शोक करता है उस मूर्ख मनुष्य को उस प्रकार के व्यर्थ शोक करने से कुछ भी नहीं मिलता तथा उस मूढ़ मनुष्य के धर्म-अर्थ-काम आदि का भी नाश हो जाता है इसलिये विद्वानों को इस प्रकार का शोक कदापि नहीं करना चाहिये।।६।।
-उपेंद्रवङ्काा-
उदेति पाताय रविर्यथा तथा शरीरमेतन्ननु सर्वदेहिनाम्।
स्वकालमासाद्य निजेऽपि संस्थिते करोति क: शोकमत: प्रबुद्धधी: ।।७।।
अर्थ—जिस प्रकार सूर्य, अस्त होने के लिये उदय होता है उस ही प्रकार यह शरीर भी निश्चय से नाश होने के लिये ही उत्पन्न होता है इसलिये स्वकाल के अनुसार अपने प्रिय स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर भी हिताहित के जानने वाले मनुष्य कदापि शोक नहीं करते।
भावार्थ—जो पैदा होता है वह नियम से नष्ट होता है जब स्त्री-पुत्र आदि का शरीर पैदा हुवा है तो अवश्य ही नष्ट होगा। आत्मा का नाश हो ही नहीं सकता, ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुष स्त्री-पुत्र आदि के लिये किञ्चित् भी शोक नहीं करते।।७।।
और भी आचार्य शोक दूर करने का उपाय बताते हैं-
भवन्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पत्राणि पुष्पाणि फलानि यद्वत्।
कुलेषु तद्वत्पुरुषा: किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम्।।८।।
अर्थ—जिस प्रकार वृक्षों पर अपने—अपने काल के अनुसार नाना जाति के पत्ते-फूल-फल उत्पन्न होते हैं तथा अपने—अपने काल के अनुसार ही वे नष्ट भी होते हैं उस ही प्रकार अपने—अपने कर्मों के अनुसार मनुष्य उच्च नीच आदि कुलों में जन्म लेते हैं तथा नष्ट भी होते हैं इसलिये ऐसा भलीभांति समझकर बुद्धिमानों को उनकी उत्पत्ति में हर्ष तथा नाश में शोक कदापि नहीं करना चाहिये।।८।।
-शार्दूलविक्रीडित-
दुर्लंघ्याद्भवितव्यताव्यतिकरान्नष्टे प्रिये मानुषे यच्छोक: क्रियते तदत्र तमसि प्रारभ्यते नर्तनम्।
सर्वं नश्वरमेव वस्तु भुवने मत्त्वा महत्या धिया निर्धूताखिलदु:खसन्ततिरहो धर्म: सदा सेव्यताम्।।९।।
अर्थ—जिसका दु:ख से भी उल्लंघन नहीं हो सकता ऐसी जो भवितव्यता (दैव) उसके व्यापार से अपने प्रिय स्त्री, पुत्र, आदि के नष्ट होने पर जो मनुष्य शोक करता है वह अंधकार में नृत्य को आरंभ करता है ऐसा जान पड़ता है (अर्थात् अंधकार में किये हुवे नृत्य को कोई देख नहीं सकता इसलिये जिस प्रकार अंधकार में नृत्य का आरम्भ व्यर्थ होता है उस ही प्रकार स्त्री-पुत्र आदि के लिये मनुष्य का शोक करना भी व्यर्थ है) अत: आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीवों! अपने ज्ञान से संसार में सब चीजों को विनाशीक समझकर समस्त दु:खों की संतान को जड़ से उड़ाने वाले धर्म का ही सदा तुम सेवन करो।।९।।
और भी आचार्य उपदेश देते हैं-
पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसानं यदा तज्जायेत तदैव तस्य भविनो ज्ञात्वा तदेतद्ध्रुवम्।
शोकं मुञ्च मृते प्रियेऽपि सुखदं धर्मं कुरुष्वादरात् सर्पे दूरमुपागते किमिति भोस्तद्घृष्टिराहन्यते।।१०।।
अर्थ—पूर्व भव में संचित कर्म के द्वारा जिस प्राणी का अन्त जिस काल में लिख दिया गया है उस प्राणी का अंत उसी काल में होता है ऐसा भलीभांति निश्चय करके हे भव्यजीवों! तुम अपने प्रिय भी स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर शोक छोड़ दो तथा बड़े आदर से धर्म का आराधन करो क्योंकि सर्प के दूर चले जाने पर उसकी रेखा का पीटना व्यर्थ है।
भावार्थ—जिस प्रकार सर्प के चले जाने पर उसकी रेखा का पीटना व्यर्थ है, उस ही प्रकार स्त्री-पुत्र आदि के मर जाने पर उनके लिये शोक करना भी बिना प्रयोजन का है इसलिए विद्वानों को उनके लिये कदापि शोक नहीं करना चाहिये।।१०।।
ये मूर्खा भुवि तेऽपि दु:खहतये व्यापारमातन्वते सा माभूदथवा स्वकर्मवशतस्तस्मान्न ते तादृशा:।
मूर्खान्मूर्खशिरोमणीन्ननु वयं तानेव मन्यामहे ये ‘‘कुर्वन्ति’’ शुचं मृते सति निजे पापाय दु:खाय च।।११।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि अपने कर्म के वश से, चाहे दु:खों की निवृत्ति हो अथवा न हो, तो भी जो दु:ख की निवृत्ति के लिये व्यापार करते हैं यद्यपि वे भी संसार में मूर्ख हैं तो भी हम उनको अतिमूर्ख नहीं मानते किन्तु जो अपने प्रिय स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर पाप के लिए अथवा दु:खों की उत्पत्ति के लिये शोक करते हैं उन्हीं को निश्चय से हम मूर्खशिरोमणि अर्थात् वङ्कामूर्ख मानते हैं इसलिये विद्वानों को स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर कदापि शोक नहीं करना चाहिये।।११।।
और भी आचार्य शिक्षा देते हैं-
-शार्दूलविक्रीडित-
किं जानासि न किं शृणोषि न न किं प्रत्यक्षमेवेक्षसे निश्शेषं जगदिन्द्रजालसदृशं रम्भेव सारोझितम्।
किं शोकं कुरुषेऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे तत्किञ्चित् कुरु येन नित्यपरमानन्दास्पदं गच्छसि।।१२।।
अर्थ—हे मूढ़ मनुष्य ! यह समस्त जगत इन्द्रजाल के समान अनित्य है तथा केला के स्तम्भ के समान निस्सार है इस बात को क्या तू नहीं जानता है अथवा सुनता नहीं है वा प्रत्यक्ष देखता नहीं है जो कि स्त्री-पुत्र आदि के दूसरे लोक में रहने पर भी तू उनके लिये इस संसार में व्यर्थ शोक करता है कोई ऐसा काम कर जिससे तुझे अविनाशी तथा उत्तम सुख के देने वाले स्थान की प्राप्ति होवे।
भावार्थ—संसार मेंं यदि एक भी चीज नित्य अथवा सारभूत होती, तब तो शोक करना व्यर्थ न होता किन्तु संसार में तो समस्त वस्तु इन्द्रजाल और केला के खम्भे के समान विनाशीक तथा निस्सार है फिर शोक करना सर्वथा व्यर्थ है इसलिये हे भव्यों! उस प्रसिद्ध रत्नत्रय का आराधन करो जिससे तुमको मोक्ष आदि सुख की प्राप्ति बिना कष्ट किये हुये ही होवे।।१२।।
-वसन्ततिलका-
जातो जनो म्रियत एव दिने च मृत्यो: प्राप्ते पुनस्त्रिभुवनेऽपि न रक्षकोऽस्ति।
तद्यो मृते सति निजेऽपि शुचं करोति पूतकृत्य रोदिति वने विजने स मूढ:।।१३।।
अर्थ—जो मनुष्य पैदा हुवा है वह मरण के दिन अवश्य ही मरता है तथा मरते समय तीनों लोक में उसकी कोई भी रक्षा नहीं कर सकता है इसलिये आचार्य कहते हैं कि जो मनुष्य अपने प्रिय स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर शोक करता है वह मनुष्य जहाँ पर कोई जन नहीं, ऐसे वन में जाकर फुक्का मार-मारकर रोता है, ऐसा जान पड़ता है।
भावार्थ— जहाँ पर कोई मनुष्य नहीं, ऐसे स्थान में रोना जिस प्रकार व्यर्थ होता है उसी प्रकार (मरने पर किसी की कोई भी रक्षा नहीं कर सकता इस बात को भलीभांति जानता हुवा भी) स्त्री-पुत्र आदि के लिये जो शोक करता है, उसका उस प्रकार का शोक करन्ाा भी वृथा है इसलिये विद्वानों को कदापि ऐसा शोक नहीं करना चाहिये।।१३।।
इष्टक्षयो यदिह ते यदनिष्टयोग: पापेन तद्भवति जीव पुराकृतेन।
शोकं करोषि किमु तस्य कुरु प्रणाशं पापस्य तौ न भवत: पुरतोऽपि येन।।१४।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि हे जीव! यह जो तेरे इष्ट स्त्री-पुत्र आदि का नाश तथा अनिष्ट सर्प आदि का संबंध होता है वह पूर्व काल में सञ्चय किये हुवे तेरे पाप के उदय से ही होता है इसलिये तू शोक क्यों करता है! उस पाप का सर्वथा नाश कर, जिससे फिर तेरे भविष्यत् में इष्टवियोग तथा अनिष्टसंयोग का उदय न होवे।।१४।।
-शार्दूलविक्रीडित-
नष्टे वस्तुनि शोभनेऽपि हितदा शोक: समारभ्यते तल्लाभोऽथ यशोऽथ सौख्यमथवा धर्मोऽथवा स्याद्यदि!
यद्येकोऽपि न जायते कथमपि स्फारै: प्रयत्नैरपि प्रायस्तत्र सुधीर्मुधा भवति क: शोकोग्ररक्षोवश:।।१५।।
अर्थ—प्रिय भी वस्तु के नाश होने पर शोक तब करना चाहिये जबकि उसकी प्राप्ति हो जावे अथवा शोक करने से कीर्ति पैâले अथवा सुख वा धर्म हो किन्तु अनेक बड़े से बड़े प्रयत्नों के करने पर भी उपर्युक्त वस्तुओं में से किसी भी वस्तु की प्राप्ति नहीं दीख पड़ती इसीलिये विद्वान पुरुष इष्ट वस्तु के नाश होने पर भी प्राय: कुछ भी व्यर्थ शोक नहीं करते।
भावार्थ— शोक करने पर यदि गई हुई वस्तु फिर से आ जावे अथवा कीर्ति हो अथवा सुख तथा धर्म हो, तब तो उस वस्तु के लिये शोक करना उचित है परन्तु उनमें से तो एक भी बात नहीं होती फिर विद्वानों को क्यों शोक करना चाहिये।।१५।।
–वसन्ततिलका-
एकद्रुमे निशि वसन्ति यथा शकुन्ता: प्रात: प्रयान्ति सहसा सकलासु दिक्षु।
स्थित्वा कुले बत तथान्यकुलानि मृत्वा लोका: श्रयन्ति विदुषा खलु शोच्यते क:।।१६।।
अर्थ— रात्रि के समय जिस प्रकार एक ही वृक्ष पर नाना देशों से आकर पक्षी निवास करते हैं तथा सवेरा होते ही शीघ्र वे जुदी—जुदी दिशाओं में जुदे-जुदे होकर उड़ जाते हैं उसी प्रकार बहुत से मनुष्य एक कुल में जन्म लेकर पुन: अपने कर्म के अनुसार मरकर नाना कुलों में जन्म लेते हैं ऐसी संसार की स्थिति को जानकर विद्वान लोग कदापि शोक नहीं करते।।१६।।
-शार्दूलविक्रीडित-
दु:खव्यालसमाकुलं भववनं जाड्यान्धकाराश्रितं तस्मिन्दुर्गतिपल्लिपातिकुपथै: भ्राम्यन्ति सर्वाङ्गिन:।
तन्मध्ये गुरुवाक्यदीपममलज्ञानप्रभाभासुरं प्राप्यालोक्य च सत्पथं सुखपदं याति प्रबुद्धो धु्रवम्।।१७।।
अर्थ— नाना प्रकार के दु:खरूपी सर्प और हस्तियों कर व्याप्त तथा अज्ञानरूपी अन्धकार से युक्त और नरक आदि गतिरूपी भीलों के भयंकर मार्गों कर सहित, इस संसाररूपी वन में समस्त प्राणी भटकते फिरते हैं किंंतु उन प्राणियों में चतुर मनुष्य निर्मलज्ञानरूपी प्रभा से देदीप्यमान ऐसे गुरुओं के वचनरूपी दीपक को पाकर तथा उस वचनरूपी दीपक के द्वारा उत्तममार्ग को देखकर मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
भावार्थ— दु:ख तथा अज्ञान और खोटी गतियोंं कर सहित इस संसार में भटकते हुवे प्राणियों को सन्मार्ग के प्रकाश करने वाले गुरुओं के वचन ही हैं इसलिये जो मनुष्य सच्चे मार्ग को जानकर उत्तम मोक्षपद को प्राप्त करना चाहते हैं उनको गुरुओं के वचनों पर अवश्य विश्वास करना चाहिये।।१७।।
-वसन्ततिलका-
यैव स्वकर्मकृतकालकलात्र जन्तुस्तत्रैव याति मरणं न पुरो न पश्चात् ।
मूढास्तथापि हि मृते स्वजने विधाय शोकं परं प्रचुरदु:खभुजो भवन्ति।।१८।।
अर्थ—पूर्वोपार्जित अपने कर्मों के द्वारा जो मरण का समय निश्चित हो गया है उसी के अनुसार प्राणी मरता है आगे-पीछे नहीं मरता ऐसा जानकर भी आत्मीय मनुष्य के मरने पर अज्ञानीजन शोक करते हैं तथा नाना प्रकार के दु:खों को भोगते हैं।।१८।।
–शार्दूलविक्रीडित-
वृक्षाद्वृक्षमिवाण्डजा मधुलिह: पुष्पाच्च पुष्पं यथा जीवा यान्ति भवाद्भवान्तरमिहाश्रान्तं तथा संसृतौ।
तज्जातेऽथ मृतेऽथ वा न हि मुदं शोकं न कस्मिन्नपि प्राय: प्रारभतेऽधिगम्य मतिमानस्थैर्यमित्यङ्गिनाम्।।१९।।
अर्थ—जिस प्रकार पक्षी एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर चले जाते हैं तथा जिस प्रकार भौंरा एक फूल से दूसरे फूल पर उड़कर चले जाते हैं उस ही प्रकार इस संसार में अपने-अपने कर्म के वश से जीव निरंतर एक गति से दूसरी गति में जाते हैं इस प्रकार प्राणियों की अनित्यता को समझकर विद्वान् न तो प्राय: प्राणियों की उत्पत्ति में हर्ष ही मानता है और न उनके मरने पर शोक ही करता है।।१९।।
भ्राम्यत्कालमनन्तमत्रजनने प्राप्नोति जीवो न वा मानुष्यं यदि दुष्कुले तदघत: प्राप्तं पुनर्नश्यति।
सज्जातावथ तत्र याति विलयं गर्भेऽपि जन्मन्यपि द्राग्बाल्येऽपि ततोऽपि नो वृष इति प्राप्ते प्रयत्नो वर:।।२०।।
अर्थ—अनन्तकालपर्यन्त इस संसार में भ्रमण करते हुवे इस जीव को मनुष्यपने की प्राप्ति होवे ही होते ऐसा कोई निश्चय नहीं (नहीं भी होती है) दैवयोग से यदि हो भी जावे तो खोटे कुल में जन्म लेने पर फिर भी वह पाया हुवा मनुष्यपना, उस खोटे कुल में किये हुवे पापों से नष्ट हो जाता है यदि श्रेष्ठजाति में भी जन्म हो जावे तो प्रथम तो गर्भ में ही मर जाता है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि धर्म के लिये ही प्रयत्न करना उत्तम है क्योंकि धर्म में ही यह शक्ति है कि वह प्राणियों को जन्म- जरा आदि से छुटाता है तथा जहाँ पर किसी प्रकार का दु:ख नहीं, ऐसे मोक्षपद में ले जाकर जीवों को धरता है।।२०।।
स्थिरं सदपि सर्वदा भृशमुदेत्यवस्थान्तरै: प्रतिक्षणमिदं जगज्जलदकूटवन्नश्यति।
तदत्र भवमाश्रिते मृतिमुपागते वा जने प्रियेऽपि किमहो मुदा किमु शुचा प्रबुद्धात्मन:।।२१।।
अर्थ—यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा यह लोक सदा विद्यमान है तो भी पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा मेघों के समूह के समान यह क्षण-क्षण में विनाशीक है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि हे बुद्धिमान पुरुषों! इस संसार में अपने प्रियमनुष्य के उत्पन्न होने पर क्या तो हर्ष करने में रक्खा है ? तथा प्रिय मनुष्य के मर जाने पर क्या शोक करने में रक्खा है ? अर्थात् तुम्हारा हर्ष तथा शोक करना बिना प्रयोजन का है।।२१।।
लंघ्यन्ते जलराशय: शिखरिणो देशास्तटिन्यो जनै: सा वेला तु मृतेर्न पक्ष्मचलनस्तोकापि देवैरपि।
तत्कस्मिन्नपि संस्थिते सुखकरं श्रेयो विहाय ध्रुवं क: सर्वत्र दुरन्तदु:खजनकं शोकं विदध्यात्सुधी:।।२२।।
अर्थ— मनुष्य बड़े-बड़े समुद्रों को पार कर जाते हैं तथा बड़े—बड़े पर्वतों का तथा देशों का उल्लंघन कर जाते हैं और विस्तृत नfिदयों को भी तिर जाते हैं परन्तु मरण के समय को मनुष्यों की क्या बात, देव भी निमेष मात्र के लिये भी नहीं टाल सकते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि ऐसा कौन बुद्धिमान पुरुष होगा ? जो किसी अपने प्रियमनुष्य के मर जाने पर समस्त प्रकार के कल्याण को देने वाले उत्तम धर्म को न करके नाना प्रकार के नरकादिदु:खों को देने वाले शोक को करेगा।
भावार्थ— बुद्धिमान पुरुष अपने प्रिय किसी स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर धर्म का ही आराधन करते हैं क्योंकि वे समझते हैं कि धर्म ही दु:खों से छुटाने वाला है किन्तु नाना प्रकार के दु:खों के देने वाले शोक की और झांक करके भी नहीं देखते।।२२।।
आक्रन्दं कुरुते यदत्र जनता नष्टे निजे मानुषे जाते यच्च मुदं तदुन्नतधियो जल्पन्ति वातूलताम्।
यज्जाड्यात्कृतदुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रबन्धोदयान्मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयमिदं सर्वं जगत्सर्वदा।।२३।।
अर्थ—जो मनुष्य अपने प्रिय मनुष्य के मरने पर तो चीख मार-मार कर रोते हैं तथा उत्पन्न होने पर हर्ष मानते हैं उनकी उस प्रकार की चेष्टा को बुद्धिमान पुरुष वावलापन कहते हैं क्योंकि यह समस्त जगत् तो अज्ञान से की हुई जो खोटी-खोटी क्रिया उनसे उत्पन्न हुवा जो कर्मों का बंधन, उसके उदय से सदा मरण तथा जन्मों की परंपरास्वरूप ही है।
भावार्थ— खोटी—खोटी चेष्टाओं से उत्पन्न हुवे कर्म के वश से निरन्तर बहुत से प्राणी इस संसार में मरते हैं तथा जन्मते भी हैं इसलिये यह संसार तो जन्ममरण, स्वरूप ही है किन्तु ऐसे संसार के स्वरूप को जानकर भी यदि मनुष्य अपने प्रिय के मरने पर शोक उत्पन्न होने पर हर्ष माने तो सर्वथा उनका वावलापन है, ऐसा समझना चाहिये।।२३।।
गुर्वी भ्रान्तिरियं जडत्वमथवा लोकस्य यस्माद्वसन् संसारे बहुदु:खजालजटिले शोकीभवत्यापदि।
भूतप्रेतपिशाचफेरवचितापूर्णे श्मशाने गृहं क: कृत्वा भयदादमङ्गलकृताद्भावाद् भवेच्छज्र्ति:।।२४।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि यह लोक का एक बड़ा भारी भ्रम है अथवा उसकी मूर्खता कहनी चाहिये कि अनेक दु:खों से व्याप्त इस संसार में रहता हुवा भी आपत्ति के आने पर शोक करता है क्योंकि जो श्मशान, भूत-प्रेत-पिशाच तथा फेंकार शब्द और चिता आदि से व्याप्त है ऐसे श्मशान में घर बनाकर तथा रहकर ऐसा कौन पुरुष होगा जो मंगलस्वरूप तथा नाना प्रकार के भय को करने वाले पदार्थों से भय करेगा।
भावार्थ— जिस प्रकार श्मशान आदिक भय के स्थानों में रहकर भय करना मूर्खता है क्योंकि वहाँ पर नियम से भय होगा ही होगा उस ही प्रकार शोक आदि के स्थानस्वरूप इस संसार में शोक करना भी व्यर्थ है इसलिये मनुष्यों को शोक आदि के ‘स्थानस्वरूप’ इस संसार में कदापि शोक नहीं करना चाहिये।।२४।।
-मालवीवृत-
भ्रमति नभसि चन्द्र: संसृतौ शश्वदङ्गी लभत उदयमस्तं पूर्णता हीनताञ्च।
कलुषितहृदय: सन् याति राशिं च राशेस्तनुमिह तनुतस्तत्कोत्र मोदश्च शोक:।।२५।।
अर्थ—जिस प्रकार चन्द्रमा सदा आकाश में भ्रमण करता रहता है उस ही प्रकार यह प्राणी भी निरंतर संसार में एक गति से दूसरी गति में भ्रमण करता रहता है तथा जिस प्रकार चन्द्रमा उदित होता है तथा अस्त होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी जन्मता तथा मरता है तथा जिस प्रकार चन्द्रमा बढ़ता और घटता है उसी प्रकार यह प्राणी भी बालपने को तथा युवापने को और वृद्धपने को प्राप्त होता है तथा जिस प्रकार चंद्रमा कलंकित होकर मीन आदि राशि से कर्क आदि राशि को प्राप्त होता है उसी प्रकार यह प्राणी भी कलुषित चित्त होकर एक शरीर से दूसरे शरीर को धारण करता है इसलिये भव्य जीवों को संसार की ऐसी वास्तविक ‘स्थिति को ’ भली भांति जानकर जन्ममरण में कदापि हर्ष तथा शोक नहीं मानना चाहिये।।२५।।
तडिदिव चलमेतत्पुत्रदारादिसर्वं किमिति तदभिधाते खिद्यते बुद्धिमद्भि:।
स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवाऽनलस्य व्यभिचरति कदाचित्सर्वभावेषु नूनम्।।२६।।
अर्थ—संसार में पुत्र-स्त्री आदिक समस्त पदार्थ बिजली के समान चंचल तथा विनाशीक हैं इसलिये स्त्री-पुत्र आदि के नाश होने पर बुद्धिमानों को कदापि शोक नहीं करना चाहिये क्योंकि जिस प्रकार अग्नि में उष्णपना सर्वदा रहता है उसी प्रकार समस्त पदार्थों में उत्पाद-विनाश तथा ध्रौव्य ये तीनों धर्म सदा रहते हैं।
भावार्थ— यद्यपि द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सर्व वस्तु नित्य हैं किन्तु पर्यायर्थिक नय की अपेक्षा तो सब पैदा भी होती हैं तथा नष्ट भी होती हैं इसलिये पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा जब सर्व पदार्थों वâा उत्पन्न होना तथा नष्ट होना धर्म ही ठहरा, तब विद्वानों को स्त्री-पुत्र-मित्र आदि के नाश होने पर, जिससे किसी प्रकार के हित की आशा नहीं, ऐसा खेद कदापि नहीं करना चाहिये।।२६।।
प्रियजनमृतिशोक: सेव्यमानोऽतिमात्रं जनयति तदसातं कर्म यच्चाग्रतोऽपि।
प्रसरति शतशाखं देहिनि क्षेत्र उप्तं वट इव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयत्नात्।।२७।।
अर्थ—क्षेत्र में बोया हुआ छोटा भी वट वृक्ष का बीज जिस प्रकार शाखा-प्रशाखा स्वरूप में परिणत होकर पैâल जाता है उसी प्रकार अपने प्रिय स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर जो अत्यन्त शोक किया जाता है वह शोक उस असाता कर्म को पैदा करता है कि जो असाताकर्म उत्तरोत्तर शाखा-प्रशाखारूप में परिणत होकर पैâलता चला जाता है अर्थात् उस असाता कर्म के उदय से नरक-तिर्यञ्च आदि अनेक योनियों में भ्रमण करने से नानाप्रकार के दु:ख सहने पड़ते हैं इसलिये आचार्य कहते हैं कि विद्वानों को ऐसा शोक जैसे छूटे वैसे छोड़ देना चाहिये।।२७।।
-आर्या छंद-
आयु : क्षति: प्रतिक्षणमेतन्मुखमन्तकस्य तत्र गता।
सर्वे जना: किमेक: शोचत्यन्यं मृतं मूढ़:।।२८।।
अर्थ—प्रतिसमय आयु का नाश होता है तथा यह आयु का नाश ही यमराज का मुख है और उसमें अनेक जीव प्रविष्ट हो चुके हैं फिर भी यह अकेला अज्ञानी जीव अपने प्रिय के मरने पर मालूम नहीं क्यों शोक करता है ?
भावार्थ— यदि आयु कर्म का अंत न होता अथवा अनेक प्राणी न मरते, तब तो इस जीव का शोक करना उचित होता किन्तु समय—समय में आयु कर्म का नाश होता चला जा रहा है तथा अनेक प्राणी मर चुके और स्वयं भी मरने के लिये तैयार है इस बात को जानता हुवा भी यह अज्ञानी जीव शोक करता है यह बड़े आश्चर्य की बात है।।२८।।
-अनुष्टुप्-
यो नात्र गोचरं मृत्योर्गतो याति न यास्यति।
स हि शोकं मृते कुर्वन् शोभते नेतर: पुमान्।।२९।।
अर्थ—जो प्राणी न तो मरा है तथा न मर रहा है और न मरेगा, यदि वह अपने प्रिय के मरने पर शोक करे तो उसका शोक तो शोभा को प्राप्त हो सकता है किन्तु जो अनन्तों समय तो मर चुका तथा मर रहा है और अनन्तों ही समय मरेगा यदि वह शोक करे तो उसका शोक करना सर्वथा व्यर्थ है इसलिये विद्वानों को अपने प्रिय स्त्री-पुत्र आदि के मरने पर कदापि शोक नहीं करना चाहिये।।२९।।
-मालिनी-
प्रथममुदयमुच्चैर्दूरमारोहलक्ष्मी-मनुभवति च पातं सोऽपि देवो दिनेश:।
यदि किल दिनमध्ये तत्र केषां नराणां, वसति हृदि विषाद: सत्स्ववस्थान्तरेषु।।३०।।
अर्थ—सूर्यदेव भी एक ही दिन में प्रथम तो प्रात:काल में उदित होकर ऊंचा चढ़ता हुवा अत्यंत शोभा को धारण करता है तथा पश्चात् सायंकाल में अस्त हो जाता है उसी प्रकार समस्त पदार्थों की एक अवस्था से दूसरी अवस्था होती है उन अवस्थाओं को देखकर ऐसे कौन बुद्धिमान मनुष्य होंगे जो अपने मन में विषाद करेंगे ? अर्थात् ऐसी स्वाभाविक स्थिति पर बुद्धिमान कदापि खेद नहीं कर सकते ।।३०।।
-वसन्ततिलका-
आकाश एव शशिसूर्यमरुत्खगाद्या: भूपृष्ट एव शकटप्रमुखाश्चरन्ति।
मीनादयश्च जल एव यमस्तु याति सर्वत्र कुत्र भविनां भवति प्रयत्न:।।३१।।
अर्थ—चन्द्र, सूर्य, पवन, पक्षी आदिक तो आकाश में ही चलते हैं तथा गा़ड़ी, सिंह, व्याघ्र आदिक जमीन पर ही चलते हैं और मछली, मगर आदिक जल में ही चलते हैं परन्तु यह काल (यम) सब जगह पर चलता है अर्थात् यह काल प्राणियों को पृथ्वी, जल, आकाश, अग्नि आदि किसी स्थान पर नहीं छोड़ता फिर इससे बचने का प्रयत्न किया जावे तो कहाँ किया जावे?।।३१।
-शार्दूलविक्रीडित-
किं देव:किमु देवता किमगदो विद्यास्ति किं किं मणि: किं मन्त्र : किमुताश्रय:किमुसुहृत्किंवा सुगन्धोऽस्ति स:।
अन्ये वा किमु भूपतिप्रभृतय: सन्त्यत्र लोकत्रये यै: सर्वैरपि देहिन: स्वसमये कर्मोदितं वार्यते।।३२।।
अर्थ—तीनों लोक में भी देव, देवी, वैद्य, विद्या, मणि, मंत्र, भृत्य, मित्र, सुगन्ध तथा राजा आदिक एक-एक की तो क्या बात, सब मिलकर भी अपने समय में उदय आये हुवे प्राणियों के कर्म को नहीं रोक सकते।
भावार्थ— जो कर्म पूर्वकाल में बांधा है वह अपने समय पर नियम से उदय में आता है तथा बलवान् से बलवान भी देव आदिक कोई भी उसका निवारण नहीं कर सकता ऐसा भलीभांति समझकर विद्वान कदापि शुभ-अशुभकर्म के उदय होने पर हर्ष-विषाद नहीं करते।।३२।।
गीर्वाणा अणिमादिसुस्थमनस: शक्ता:किमत्रोच्यते-ध्वस्तास्तेऽपि परम्परेण स परस्तेभ्य: कियान्राक्षस:।
रामाख्येन च मानुषेण निहित: प्रोल्लंघ्य सोप्यम्बुधिं, रामोप्यन्तकगोचर: समभवत्कोऽन्यो वलीयान्विधे:।।३३।।
अर्थ—विशेष कहाँ तक कहा जाय क्योंकि जो देव अणिमा महिमा आदि ऋद्धि के धारी थे तथा सब प्रकार से समर्थ थे उनको भी उस रावण नामक राक्षस ने विध्वंस कर दिया जो कि रावण उन देवों के सामने कुछ भी चीज न था तथा उस रावण को भी समुद्र को पार कर राम नामक मनुष्य ने मार दिया तथा वह राम भी कालबली का ग्रास बन गया इसलिये आचार्य कहते हैं कि समय से बलवान् संसार में कोई भी नहीं।।३३।।
सर्वत्रोद्गतशोकदावदहनव्याप्तं जगत्काननं मुग्धास्तत्र वधूमृगीगतधियस्तिष्ठन्ति लोवैâणका:।
कालव्याध इमान्निहन्ति पुरत: प्राप्तान्सदा निर्दयस्तस्माज्जीवति नो शिशुर्न च युवा वृद्धोऽपि नो कश्चन।।३४।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि यह संसाररूपी वन तो, सब जगह उठा हुवा जो शोकरूपीदावानल, उससे व्याप्त हो रहा है तथा इस संसाररूपी वन में लोकरूपी जो मृग हैं वे स्त्रीरूपी मृगी के वश होकर पड़े हुवे हैं और यह कालरूपी व्याध आगे आये हुवे उन लोकरूपी दीन मृगों को सदाकाल मारता है जिससे न तो इस संसार में कोई बालक सदा जीता है तथा न कोई युवा सदा जीता है और न कोई वृद्ध ही सदा जीता है।।३४।।
संपच्चारुलत:प्रियापरिलसद्वल्लीभिरालिङ्गित: पुत्रादिप्रियपल्लवो रतिसुखप्रायै: फलैराश्रित:।
जात: संसृतिकानने जनतरु: कालोग्रदावानलव्याप्तश्चेन्न भवेत्तदा वत बुधैरन्यत्किमालोक्यते।।३५।।
अर्थ— संपदारूपी मनोहर लताओं से युक्त तथा स्त्रीरूपी जो मनोहर वेल उससे आलिंगन किया हुवा और पुत्र आदिक उत्तम पल्लवों का धारी तथा रति से उत्पन्न हुवे जो सुख, वे ही हुवे फल, उन कर सहित, ऐसा यह संसाररूपी वन में पैदा हुवा मनुष्यरूपी वृक्ष है यह मनुष्यरूपी वृक्ष कालरूपी जो भयंकरदावाग्नि, उससे भस्म न हो जावे, इसके लिये बुद्धिमानों को अवश्य उसके सार्थक होने के लिये प्रयत्न करना चाहिये।
भावार्थ— बड़ी कठिनता से इस मनुष्य भव की प्राप्ति हुई है और इस मनुष्य जन्म के सिवाय निर्वाण का कारण और कोई उत्तम पदार्थ भी नहीं है इसलिये जप-तप आदि कर इस मनुष्य जन्म को विद्वानों को सार्थक बनाना चाहिये अन्यथा यह व्यर्थ नष्ट हो जावेगा।।३५।।
वाञ्छत्येव सुखं तदत्र विधिना दत्तं परं प्राप्यते नूनं मृत्युमुपाश्रयन्ति मनुजास्तत्राप्यतो विभ्यति।
इत्थं कामभयप्रसक्तहृदया: मोहान्मुधैवा ध्रुवं दु:खोर्मिप्रचुरे पतन्ति कुधिय: संसारघोरार्णवे।।३६।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि संसार में समस्त प्राणी इन्द्रियों से पैदा हुवे सुख की अभिलाषा सदा करते रहते हैं किन्तु वह सुख कर्मानुसार मिलता है इच्छानुसार नहीं मिलता तथा सर्वजीव निश्चय से मरते हैं तो भी उस मृत्यु से डरते रहते हैं इस प्रकार मोह से कामातुर तथा भयातुर होकर ये ‘‘मूढ़बुद्धि प्राणी’’ व्यर्थ ही नाना प्रकार के दु:खरूपी तरङ्गों से व्याप्त इस संसाररूपी समुद्र में डूबते हैं।।३६।।
-मालिनी-
स्वसुखपयसि दीव्यन् मृत्युवैâवर्तहस्त-प्रसृतघनजरोरुप्रोल्लसज्जालमध्ये।
निकटमपि न पश्यत्यापदां चक्रमुग्रं भवसरसि वराको लोकमीनौघ एष:।।३७।।
अर्थ—और भी आचार्य उपदेश देते हैं कि जिस प्रकार मल्लाह कर के बिछाये हुवे जाल में मछलियों का समूह खेलता रहता है किन्तु समीप में रही हुई मरणरूपी भयंकर आपत्ति के ऊपर कुछ भी ध्यान नहीं देता उसी प्रकार यह दीन लोकरूपी मछलियों का समूह, अपने सुखरूपी जल में कालरूपी मल्लाह के हाथ से पैâलाये हुवे जरारूपी विस्तीर्णजाल में क्रीड़ा करता रहता है किन्तु (व्यर्थ में हमारा जीवन चला जावेगा) इस प्रकार की पास में रही हुई भी आपत्ति के ऊपर कुछ भी ध्यान नहीं देता।।३७।।
-शार्दूलविक्रीडित-
शृण्वन्नन्तकगोचरं गतवत: पश्यन् बहून् गच्छतो मोहादेव जनस्तथापि मनुते स्थैर्यं परं ह्यात्मन:।
सम्प्राप्तेऽपि च बार्धके स्पृहयति प्रायो न धर्माय यत्तब्दध्नात्यधिकाधिकं स्वमसकृत् पुत्रादिभिर्बन्धनै:।।३८।।
अर्थ—यह लोक, बहुत से जीव मर गये इस बात को सुनता हुवा भी तथा बहुतों को मरते हुवे स्वयं देखता हुवा भी मोह से आत्मा को निश्चल ही मानता है तथा वृद्धावस्था के आने पर भी धर्म की ओर कुछ भी लक्ष्य नहीं देता किन्तु उस अवस्था में भी पुत्र-स्त्री आदि के ‘बंधन से’ निरन्तर अपने को और भी ज्यादा बाँधता है।।३८।।
दुश्चेष्टाकृतकर्मशिल्पिरचितं दु:सन्धि दुर्बन्धनं सापायस्थितिदोषधातुमलवत्सर्वत्र यन्नश्वरम्।
‘आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतयो’ यच्चात्र चित्रं न तत्तच्चित्रं स्थिरता बुधैरपि वपुष्यत्रापि यन्मृग्यते।।३९।।
अर्थ—जो देह, बुरी-बुरी जो क्रिया उन करके किया गया जो कर्म, वही हुवा एक प्रकार का कारीगर, उस करके बनाया हुवा है तथा खोटी सन्धि और खोटे बंधन कर सहित है और जिसकी स्थिति नाशकर सहित है तथा जो नाना प्रकार के दोष तथा मल-मूत्र-वीर्य आदि सात कुधातुओं कर संयुक्त है ऐसे देह में यदि आधि, व्याधि, जरा, मरण आदिक होते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है किन्तु आश्चर्य इस बात का है कि विद्वान मनुष्य भी ऐसे शरीर को सर्वथा स्थिर मानते हैं।।३९।।
लब्धा श्रीरिह वाञ्छिता वसुमती भुक्ता समुद्रावधि: प्राप्तास्ते विषया मनोहरतरा: स्वर्गेऽपि ये दुर्लभा:।
पश्चाच्चेन्मृतिरागमिष्यति ततस्तत्सर्वमेतद्विषाऽश्लिष्टं भोज्यमिवातिरम्यमपि धिङ्मुक्ति: परं मृग्यताम्।।४०।।
अर्थ—इस संसार में वांछितलक्ष्मी भी प्राप्त कर ली तथा सागरान्त पृथ्वी का राज्य भी भोग लिया और जो विषय स्वर्ग में भी नहीं प्राप्त हो सकते ऐसे अत्यन्त मनोहर विषयों को भी पा लिया किन्तु जिस समय मृत्यु पास में आ जावेगी उस समय अत्यन्त मनोहर भी ये सब बातें विषसंयुक्त भोजन के समान दु:ख की देने वाली हो जावेगी इसलिये इनके लिये धिक्कार हो ऐसा विचारकर हे भव्यजीवों! जहाँ पर किसी प्रकार के दु:ख नहीं, ऐसी मुक्ति का ही आश्रय करो।।४०।।
युद्धे तावदलं रथेभतुरगा वीराश्च दृप्ता भृशं मन्त्र: शौर्यमसिश्च तावदतुल: कार्यस्य संसाधक:।
राज्ञोऽपि क्षुधितोऽपि निर्दयमना यावज्जिघित्सुर्यम: क्रुद्धो धावति नैव सन्मुखमितो यत्नोविधियोबुधै:।।४१।।
अर्थ—जब तक भूखा तथा निर्दयी और समस्त जीवों का विध्वंस करने वाला तथा क्रोधी यमराज सामने नहीं आता तभी तक लड़ाई में राजा के रथ, हस्ती, घोड़ा तथा अत्यन्त गर्व करने वाले सुभट तथा मन्त्र, वीरता और अनुपम तलवार आदि काम में आते हैं किन्तु जब यमराज सामने पड़ जाता है अर्थात् मर जाते हैं उस समय उपर्युक्त कोई भी चीज काम में नहीं आती इसलिये बुद्धिमान पुरुषों को जिस प्रकार बने, उस प्रकार से इस काल के सर्वथा नाश के लिये ही यत्न करना चाहिये।।४१।।
राजापि क्षणमात्रतो विधिवशाद्रज्रयते निश्चितं सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुणोऽप्याशु क्षयं गच्छति।
अन्यै: िंक किल सारतामुपगते श्रीजीविते द्वे तयो: संसारे स्थितिरीदृशीति विदुषा क्वान्यत्र कार्यो मद:।।४२।।
अर्थ—अपने पूर्वोपार्जित कर्म के वश से राजा भी क्षण भर में निश्चय से निर्धन हो जाता है तथा समस्त रोगों से रहित भी जवान मनुष्य देखते-देखते नष्ट हो जाता है इसलिये समस्त पदार्थों में सारभूत जीवन तथा धन की जब संसार में ऐसी स्थिति है तब और पदार्थों की क्या बात ? अर्थात् वे तो अवश्य ही विनाशीक हैं अत: विद्वानों को किसी पदार्थ में अहंकार नहीं करना चाहिये।।४२।।
हन्ति व्योम स मुष्टिनात्र सरितं शुष्कां तरत्याकुलस्तृष्णातोऽथ मरीचिका: पिबति च प्राय: प्रमत्तो भवन्।
प्रोत्तुङ्गाचलचूलिकागतमरुत्प्रेङ्खत्प्रदीपोपमैर्यत्सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिभि: कुर्यान्मदं मानव:।।४३।।
अर्थ—जो मनुष्य अत्यंत ऊँची जो पहाड़ की चोटी, उस पर चलती हुई जो पवन, उससे झकोरे खाते हुवे दीपक के समान चंचल ऐसी संपदा तथा पुत्र-स्त्री आदिक में अभिमान करता है वह मनुष्य उन्मादी होकर आकाश को मुट्ठी से मारता है तथा अत्यंत आकुल होकर सूखी नदी को तिरता है और प्यास से अत्यंत आकुल होकर मरीचिका को पीता है ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ— जिस प्रकार आकाश को मुट्ठी से मारना, सूखी नदी को तिरना और मरीचिका का पीना बिना प्रयोजन का है उसी प्रकार अत्यन्त चंचल तथा विनाशीक संपदा, पुत्र, स्त्री आदि में अहंकार करना भी व्यर्थ है इसलिये विद्वानों को इनमें कदापि अभिमान नहीं करना चाहिये।।४३।।
लक्ष्मी व्याधमृगीमतीवचपलामाश्रित्य भूपा मृगा: पुत्रादीनपरान्मृगानतिरुषा निघ्नन्ति सेर्ष्यं किल।
सज्जीभूतघनापदुन्नतधनु: संलग्नसंहृच्छरं नो पश्यन्ति समीपमागतमपि क्रुद्धं यमं लुब्धकम्।।४४।।
अर्थ—आचार्य उपदेश देते हैं कि राजारूपी जो नृप हैं वे अत्यंतचंचल तथा शिकारी की हिरणी के समान इस संपदा को पाकर पुत्र-भाई आदिक जो दूसरे मृग हैं उनको अत्यंत क्रोध तथा ईर्ष्या से मारते हैं किन्तु बड़ी भारी आपत्तिरूप धनुष का धारी तथा संहाररूपी बाण को हाथ में लिये हुवे और पास में आये हुवे क्रोधी यमराजरूपी हिंसक की ओर कुछ भी लक्ष्य नहीं देते, यह आश्चर्य की बात है।
भावार्थ— जिस समय कोई शिकारी हिरणों के मारने के लोभ से अपनी पाली हुई मृगी को वन में छोड़ देता है तथा स्वयं हाथ से धनुष लेकर पास में बैठ जाता है उस समय जिस प्रकार कामी मृग उस मृगी के लिये परस्पर में लड़ते हैं और एक-दूसरे को मारते हैं तथा आई हुई आपत्ति पर कुछ भी ध्यान न देकर व्यर्थ में मारे जाते हैं उसी प्रकार ये राजा भी शिकारी की मृगी के समान इस लक्ष्मी को पाकर परस्पर में लड़ते हैं तथा उस लक्ष्मी के लिये अपने प्रिय पुत्र आदिकों को भी मारते हैं किन्तु इस बात पर कुछ भी लक्ष्य नहीं देते कि हमको आगे क्या-क्या आपत्ति भोगनी होगी तथा हमारा कितने काल तक जीवन रहेगा क्योंकि काल हमारे शिर पर छा रहा है इसलिये विद्वानों को चाहिये कि इस प्रकार दोनों लोक के बिगाड़ने वाली लक्ष्मी के फंदे में न पड़ें और उसको अपने हित की करने वाली भी न समझें।।४४।।
मृत्योर्गोचरमागते निजजने मोहेन य: शोककृन्नो गन्धोऽपि गुणस्य तस्य वहवो दोषा पुनर्निश्चितम्।
दु:खं बर्धत एव नश्यति चतुर्वर्गो मतेर्विर्भ्रम: पापं रुक्च मृतिश्च दुर्गतिरथस्थाद्दीर्घसंसारिता।।४५।।
अर्थ—जो मनुष्य अपने प्रियजन के मर जाने पर मोह के वश होकर शोक करता है उसको किसी प्रकार गुण की प्राप्ति तो होती नहीं किन्तु निश्चय से उल्टे दोष ही उत्पन्न हो जाते हैं तथा दु:ख पड़ता चला जाता है और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ये चारों पुरुषार्थ नष्ट हो जाते हैं तथा बावला हो जाता है और उसके पाप तथा रोगों की उत्पत्ति भी हो जाती है और अंत में मर भी जाता है पीछे दुर्गतिरूपीरथ में बैठकर चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता रहता है इसलिये विद्वानों को कदापि शोक नहीं करना चाहिये।।४५।।
-आर्या-
आपन्मयसंसारे क्रियते विदुषा किमापदि विषाद:।
कस्त्रस्यति लङ्घनत: प्रविधाय चतुष्पथे सदनम्।।४६।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि यह संसार तो आपत्तिस्वरूप है फिर भी नहीं मालूम बुद्धिमान पुरुष आपत्ति के आने पर क्यों खेद करते हैं क्योंकि जो चौरास्ते पर मकान बनाता है, वह क्या उसके उल्लंघन होने पर दु:खित होता है ? कदापि नहीं।
भावार्थ-जो मनुष्य चौरास्ते पर मकान बनावेगा उसको तो दूसरे पथिक उल्लंघन करके अवश्य ही जायेंगे। यदि मकान का मालिक उल्लंघन करने पर खेद करे तो उसका खेद करना व्यर्थ ही है उसी प्रकार जो मनुष्य इस आपत्तिरूप संसार में रहेगा तो उसको अवश्य ही दु:ख भोगने होंगे यदि वह दु:ख भोगते समय खेद माने तो उसका भी खेद मानना सर्वथा व्यर्थ है इसलिये जो मनुष्य खेद करना नहीं चाहता उसको ऐसा काम करना चाहिये कि वह फिर संसार में न आवे।।४६।।
-वसन्ततिलका-
वातूल एष किमु किं ग्रहसंगृहीतो भ्रान्तोऽथवा किमु जन: किमथ प्रमत्त:।
जानाति पश्यति शृणोति च जीवितादि विद्युच्चलं तदपि नो कुरुते स्वकार्यम्।।४७।।
अर्थ—आचार्य कहते हैं कि क्या इस मनुष्य को वाय आ गई है अथवा किसी भूत-पिशाच ने पकड़ लिया है वा वावला हो गया है अथवा उन्मादी हो गया है जो कि समस्त जीवन धन,स्त्री, पुत्र आदि को बिजली के समान चंचल तथा विनाशीक जानता है देखता है, सुनता है, तो भी अपने हित के करने वाले कार्य को अंशमात्र भी नहीं करता।।४७।।
-शार्दूलविक्रीडित-
दत्तं चौषधमस्य नैव कथित: कस्याप्ययं मन्त्रिणो नोकुर्याच्छुचमेवमुन्नतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे।
यत्ना यान्ति यतोङ्गिन: शिथिलतां सर्वे मृते: सन्निधौ बन्धाश्चर्मविनिर्मितापरिलसद्वर्षाम्बुसिक्ता इव।।४८।।
अर्थ—अपने प्रिय मनुष्य के मर जाने पर बुद्धिमानों को ऐसा शोक कदापि नहीं करना चाहिये कि मैंंने इसको दवा नहीं दी अथवा किसी वैद्य अथवा मंत्रवादी को बुलाकर नहीं दिखाया क्योंकि जिस प्रकार चाम के बंध वर्षाकाल में पानी पड़ने से ढ़ीले हो जाते हैं उसी प्रकार मनुष्य की मृत्यु के समीप रहने पर किये हुवे भी प्रयत्न नहीं किये हुवे से हो जाते हैं।।४८।।
-शिखरिणी-
स्वकर्मव्याघ्रेण स्फुरितनिजकालादिमहसा समाघ्रात: साक्षाच्छरणरहिते संसृतिवने।
प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि मे मे गृहमिदं वदन्नेवं मे, मे, पशुरिव जनो याति भरणम्।।४९।।
अर्थ—जिसमें कोई शरण नहीं है ऐसे वन में बलवान व्याघ्र से पकड़ा हुवा दीन पशु जिस प्रकार मे, मे, करके मर जाता है उसी प्रकार शरणरहित इस संसाररूपी वन में अपने काल आदि बलसंयुक्त कर्मरूपी व्याघ्र से पकड़ा हुवा यह जन स्त्री मेरी है, पुत्र मेरे हैं, धन मेरा है, यह घर मेरा है इस प्रकार मे, मे करता-करता व्यर्थ मर जाता है इसलिये विद्वानों को कदापि किसी पदार्थ में ममत्व बुद्धि नहीं रखनी चाहिये।।४९।।
-वसन्ततिलका-
दिवानि खण्डानि गुरूणि मृत्युना विहन्यमानस्य निजायुषोभृशम्।
पतन्ति पश्यन्नपि नित्यमग्रत: स्थिरत्वमात्मन्यभिमन्यते जड:।।५०।।
अर्थ— मृत्यु से नष्ट किये हुवे अपने आयु के बड़े—बड़े टुकड़े स्वरूप ये दिन सदा आगे आकर पड़ते हैं अर्थात् आयु के दिन-प्रतिदिन क्षीण होते चले जाते हैं इस बात को देखता हुवा भी यह अज्ञानी जीव अपने को निश्चल अविनाशी मानता है यह बड़ा आश्चर्य है।।५०।।
-शार्दूलविक्रीडित-
कालेन प्रलयं व्रजन्ति नियतं तेऽपीन्द्रचन्द्रादय: का वार्तान्यजनस्य कीटसदृशोऽशक्तेरदीर्घायुष:।
तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोहं मुधा मा कृथा: काल: क्रीडति नात्र येन सहसा तत्किञ्चिदन्विष्यताम्।।५१।।
अर्थ—जब बड़ी-बड़ी ऋद्धी के धारी इन्द्र-चन्द्र-सूर्य आदिक भी अपने काल के आने पर मर जाते हैं तब कीट के समान निर्बल तथा थोड़ी आयु वाले अन्यजन की क्या बात? अर्थात् वह तो अवश्य ही मरेगा इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि अपने प्रिय स्त्री, पुत्र आदि के मरने पर शोक न करके कोई ऐसा काम करो जिससे तुमको फिर न मरना पड़े।।५१।।
संयोगो यदि विप्रयोगविधिना चेज्जन्म तन्मृत्युना सम्पच्चेद्विपदा सुखं यदि तदा दु:खेन भाव्यं ध्रुवम्।
संसारेऽत्र मुहुर्मुहुर्बविधावस्थान्तरप्रोल्लसद्वेषान्यत्वनटीकृताङ्गिनि सत: शोको न हर्ष: क्वचित्।।५२।।
अर्थ—जिस संसार में यह जीव बार—बार नाना प्रकार की जो दूसरी-दूसरी अवस्था, उनमें नारकी, पशु, देव नाना वेषों को धारण कर नट के समान स्थित है उस संसार में यदि संयोग-वियोग के साथ लगा हुवा है तथा जन्म-मरण के साथ और संपत्ति-विपत्ति के साथ लगी हुआ है और सुख-दु:ख के साथ लगा हुवा है, तब विद्वानों को न तो किसी पदार्थ में शोक करना चाहिये न हर्ष ही करना चाहिये।।५२।।
भावार्थ—इस संसार में अपने कर्म के अनुसार जीव एक गति से दूसरी गति में जाकर नाना प्रकार के देव, मनुष्य, पशु, आदिक वेषों को भी धारण करते हैं और जिन-जिन पदार्थों का संयोग है उनका वियोग भी अवश्य होता है तथा जो उत्पन्न होता है वह अवश्य मरता भी है और जो धनी है वह निर्धन भी अवश्य होता है तथा जो सुखी है वह दु:खी भी अवश्य होता है, इसलिए आचार्य उपदेश देते हैं कि जो मनुष्य इस प्रकार के संसार के चरित्र को जानते हैं उनको संयोग सम्पत्ति सुख आदि के होने पर न तो हर्ष मानना चाहिए तथा वियोग विपत्ति दु:ख आदि के होने पर शोक भी नहीं करना चाहिए।।५२।।
लोकाश्चेतसि चिन्तयन्त्यनुदिनं कल्याणमेवात्मन: कुर्यात्मा भवितव्यता गतवती तत्तत्र यद्रोचते।
मोहोल्लासवशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पान्वहून्-रागद्वेषविषोज्भितैरिति सदा सद्भि:सुखंस्थीयताम्।।५३।।
अर्थ— मनुष्य सदा इस प्रकार का विचार करते रहते हैं कि सदा हमको कल्याण की प्राप्ति होवे किन्तु देवयोग से जैसा होना होता है, होता वैसा ही है अपना किया हुवा कुछ भी नहीं होता इसलिये सज्जनों को चाहिये कि वे मोह के वश से पैâले हुवे जो ‘‘सुख आदि की वाञ्छारूप’’ नाना प्रकार के खोटे विकल्प, उनको नाश करके राग, द्वेष, रूपी विष से रहित होकर अपने साम्यभावरूपी सुख में स्थित रहे, तभी उनको कल्याण की प्राप्ति हो सकती है दूसरे प्रकार से उनको कल्याण की प्राप्ति कदापि नहीं हो सकती।।५३।।
-वसन्ततिलका-
लोका ‘गृहप्रियतमासुखजीवितादि’ वाताहतध्वजपटाग्रचलं समस्तम् ।
व्यामोहमत्र परिहृत्य धनादिमित्रे धर्मे मतिं कुरुत किं बहुभिर्वचोभि:।।५४।।
अर्थ—और भी आचार्य उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीवों! ये घर, स्त्री, पुत्र, जीवन आदिक समस्त पदार्थ पवन से वँâपाये हुवे ध्वजा के कपड़े के अग्रभाग के समान चंचल हैं इसलिये अधिक कहाँ तक कहा जावे ? धन, स्त्री, मित्र आदिक में पैâले हुवे मोह को सर्वथा नाश कर धर्म में ही अपनी बुद्धि को लगाओ।।५४।।
‘पुत्रादिशोकशिखिशान्तिकरी’ यतीन्दु-श्रीपद्मनन्दिवदनाम्बुधरप्रसूति:।
‘सद्बोधसस्यजननी, जयतादनित्य-पञ्चाशदुन्नतधियाममृतैकवृष्टि:।।५५।।
अर्थ—पुत्र आदि में पैâली हुई शोक रूपी अग्नि को शान्त करने वाली तथा यतियो में उत्तम ऐसे जो पद्मनन्दीनामकयति उनका मुखरूपी जो मेघ, उससे पैदा हुई तथा श्रेष्ठबोधरूपीधान्य को पैदा करने वाली ऐसी यह अनित्यपञ्चाशत्रूपी जल की वृष्टि सज्जनों के हृदय में सदा जयवन्त रहे।
भावार्थ— जिस प्रकार जलवृष्टि जलती हुई अग्नि को बुझा देती है तथा मेघ से पैदा होती है और धान्यों को पैदा करती है उसी प्रकार ‘‘ अनित्यपञ्चाशत् ’’ भी शोक को नाश करने वाली है अर्थात् इसके पढ़ने से उत्तम मनुष्य को किसी प्रिय से प्रिय पदार्थ के नाश होने पर भी शोक नहीं होता तथा मुनीन्द्र श्रीपद्मनन्दी ने इसका प्रतिपादन किया है और यह श्रेष्ठज्ञान को देने वाली है इसलिये भव्यजीवों को इसका मनन अवश्य करना चाहिये ।।५५।।
इस प्रकार श्रीपद्मनन्दी आचार्य द्वारा रचित श्री पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका में
अनित्यपञ्चाशत् नामक अधिकार समाप्त हुआ।