तीर्थंकर भगवान के चौंतीस अतिशयों में एक। अष्टकर्म के जेता, छियालीस गुण रहित और अङ्गारह दोष सहित अर्हन्त भगवान के चौतीस अतिशयों में से केवलज्ञान के दस अतिशयों में से यह एक है। जब तीर्थंकर भगवान को केवलज्ञान प्रगट हो जाता है तब उनमें यह दस अतिशय आ जाता है-
योजन शत इक में सुभिख, गमन गमन मुख चार।
नहिं अदया, उपसर्ग नहिं, नाहीं कवलाहार।।
सब विद्या ईश्वरपनो, नाहिं बढ़े नख- केश।
अनिमिष दृग छायारहित, दस केवल के वेश ।।
अर्थात् भगवान के चारों ओर सौ-२ योजन तक सुभिक्षता, आकाश में गमन, एक मुख होकर भी चार मुख दिखना, हिंसा न होना, उपसर्ग नहीं होना, ग्रास वाला आहार नहीं लेना, समस्त विद्याओं का स्वामीपना, नख-केश नहीं बढ़ना, नेत्रों की पलवेंâ नहीं लगना (अनिमेष दृष्टि) और शरीर की परछाई नहीं पड़ना, केवलज्ञान होने पर यह दस अतिशय होते हैं