—गीता छंद—
तीर्थंकरों के तीर्थ में, अनुबद्ध केवलि जिन हुये।
बहुतेक यतिगण शिव गये, बहुतेक अनुत्तर गये।।
बहुतेक मुनि सौधर्म आदिक, ग्रैवेयक तक भी गये।
उन सर्व यति की वंदना, करते यहाँ सब सुख भये।।१।।
—शंभु छंद—
जिस दिन तीर्थंकर मुक्ति गये, उस दिन हो केवलज्ञान जिन्हें।
फिर उनके मुक्ती जाते ही, जो मुनि उस दिन केवली बनें।।
इस तरह श्रृंखला नहिं टूटे, अनुबद्ध केवली होते हैं।
उनके चरणों का वंदन कर, हम कर्म कालिमा धोते हैं।।२।।
—चामर छंद—
आदिनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
स्वात्म सौख्य दे सके इन्हों कि भक्ति एकली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१।।
आनुबद्ध केवली चुरासि अजितेश के।
मुक्ति वल्लभा वरी सुजात रूप धार के।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२।।
संभवेश के चुरासि केवली अनुक्रमे।
देव इंद्र खेचरादि आप पाद में रमें।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।३।।
नाथ अभीनंदनेश के चुरासि केवली।
एक बाद एक आनुबद्ध पात्रता भली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।४।।
नाथ सुमति के चुरासि आनुबद्ध केवली।
पाद धारते जहाँ पे पूज्य हो वही थली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।५।।
पद्मनाथ के चुरासि केवली अनुक्रमे।
पादपद्म मैं नमूँ निजात्म सौख्य पावने।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।६।।
श्री सुपार्श्व के चुरासि आनुपूर्व्य१ केवली।
वंदते अनंत जन्म की सभी व्यथा टली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।७।।
चंद्रनाथ के चुरासि आनुबद्ध केवली।
वंदते निजात्म तत्त्व की कली कली खिली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।८।।
पुष्पदंत के चुरासि आनुपूर्व्य केवली।
पादपद्म के नमें समस्त आपदा टली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।९।।
शीतलेश के चुरासी आनुबद्ध केवली।
नाम मात्र लेवते निजात्म संपदा मिली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१०।।
श्री श्रेयांस के नुबद्ध केवली बहत्तरा।
घाति घात के अघाति घातते जिनेश्वरा।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।११।।
वासुपूज्य के चवालिसों-नुबद्ध केवली।
घाति घातते उन्हें अनंत सम्पदा मिली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१२।।
नाथ विमल के सु चालिसों नुबद्ध केवली।
तीन रत्न पावते हि सिद्धि वल्लभा मिली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१३।।
श्री अनंत के नुबद्ध केवली छतीस हैं।
सर्वकर्म नाश राजते त्रिलोक शीश हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१४।।
धर्मनाथ के नुबद्ध केवली बतीस हैं।
धर्म प्राण भव्य जीव से हि पूजनीक हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१५।।
शांतिनाथ के नुबद्ध केवली अठाइसे।
नाम लेत ही अपूर्व सौख्य शांति हो वशे।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१६।।
कुंथु के नुबद्ध केवली सु चार बीस हैं।
मृत्यु मल्ल मार के बसें त्रिलोक शीश हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१७।।
नाथ अरह के नुबद्ध केवली सु बीस हैं।
देव इंद्र चक्रवर्ति वंद्य सर्व ईश हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१८।।
मल्लिनाथ के सु सोलहों नुबद्ध केवली।
धर्म अर्थ काम मोक्ष साध के हुये बली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।१९।।
सुव्रतेश के हि बारहों नुबद्ध केवली।
संयमादि धार के अनंत वीर्य से बली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२०।।
आनुबद्ध केवली नमीश के सु आठ हैं।
भव्य वृन्द के सदैव सर्व ठाठ बाट हैं।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२१।।
नेमिनाथ के सु चार आनुबद्ध केवली।
मैं नमूँ उन्हें सदैव स्वात्म ज्योति हो भली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२२।।
पार्श्वनाथ के नुबद्ध केवली सु तीन ही।
वंदते उन्हें निजात्म भेद ज्ञान हो सही।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२३।।
वीरनाथ के सु तीन आनुबद्ध केवली।
गौतमो सुधर्मसूरि जंबुस्वामि केवली।।
इष्ट का वियोग ना अनिष्ट का संयोग ना।
वंदते इन्हें सदैव सर्व सौख्य हो घना।।२४।।
—दोहा—
ग्यारह सौ व्यासी कहे, अनुक्रम केवलि ईश।
या १तेरह सौ सत्तरे, नमूूँ नमूँ नत शीश।।२५।।
अनुक्रम केवलि मुक्तिपद, प्राप्त स्वात्म पद प्राप्त।
‘ज्ञानमती’ कैवल्य हित, नमूं मिटे भवताप।।२६।।