अनुरक्ति
अनुरक्ति शब्द अनुराग से बना है जिसका अर्थ प्रेम होता है। यद्यपि समाज में प्रेम के अनेक रूप है, परंतु अनुरक्ति उन सबसे अलग है। कभी- कभी हम अज्ञानवश आसक्ति को अनुरक्ति समझ लेते हैं, जो सर्वथा अनुचित है। गुण धर्म के आधार पर इनमें बहुत अंतर होता है। बाहरी आकर्षण का विषय होने से आसक्ति में आंतरिक प्रेम नहीं होता, जबकि अनुरक्ति निश्छल आंतरिक प्रेम की पराकाष्ठा है। मोह जनित होने से आसक्ति में भोग और वासना का अतिरेक होता है। इसलिए यह अच्छी या बुरी किसी भी वस्तु के प्रति हो सकती है और दुख का कारण बनती है। इसीलिए आसक्ति प्रेम की विकृति है, जबकि अनुरक्ति प्रेम का समुज्वल रूप है। इसलिए अनुरक्ति हर किसी के साथ नहीं हो सकती। आसक्ति अहंकार का परिणाम होने से सांसारिक विषयों में आबद्ध करती है। जबकि सत्वगुण का परिणाम होने से अनुरक्ति सांसारिक प्रपंचों से विरक्ति को जन्म देती है।
आसक्ति से पूर्ण निवृत्ति का नाम ही अनुरक्ति है। प्रेम का विशुद्ध रूप होने से इसका आधार वासना न होकर साधना है, जिसमें समत्व बुद्धियुक्त प्रेमी साधक रूप में स्वयं को भगवद्भक्ति में समर्पित करता है। अतः भक्त का भगवान के प्रति समर्पण अनुरक्ति कहलाता है। इसीलिए आसक्ति बंधन का और अनुरक्ति मोक्ष का कारपा है। सत्वगुण प्रधान होने से अनुरक्ति प्रकाश स्वरूप है, जबकि तमोगुण की प्रधानता से आसक्ति अंधकार रूप । आसक्ति में स्वार्थ, लोभ और मोह का समावेश होता है। इसीलिए गीता में आसक्ति को मनुष्य के नाश का सबसे बड़ा कारण बताया गया है। दूसरी ओर, अनुरक्ति प्रेम का ऐसा विलक्षण रूप है जो मानव मन को निर्मल बनाती है। अनुरक्ति भगवत्प्राप्ति का एक बड़ा साधन है। श्रीमद्भागवत में जड़भरत इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं, जिनके अंतस में जब * ईश्वर के प्रति अनुरक्ति जागृत हुई तो वह स्वतः संसार से विरक्त होकर परमतत्व को प्राप्त हुए। इसीलिए, अनुरक्ति को भक्ति भी कहा जाता है।