आचार्य श्री प्रभाचन्द्र ने अनेकान्त की स्तुति में कहा है—
योऽनेकान्तपदं प्रवृद्धमतुलं स्वेष्टार्थसिद्धिप्रदम्।
प्राप्तोऽनन्तगुणोदयं निखिलवन्नि: शेषतो निर्मलम्।।
स श्रीमानखिलप्रमाणविषयो जीयाज्जनानन्दन:।
मिथ्यैकान्तमहान्धकाररहित: श्रीवर्द्धमानोदित:।
(प्रमेयकमलमाार्तण्ड पृ. ५१३ द्वि. भाग)
अर्थात् जो अनेकान्त पद को प्राप्त है, ऐसा अखिल प्रमाण का विषय जयशील हो। वह अनेकान्त पद प्रवृद्धशाली एवं अतुल है तथा अपने इष्ट अर्थ की सिद्धि को देने वाला है, उसमें अनन्त गुणों का उदय है, वह पूर्ण रूप से निर्मल, जीवों को आनन्दित करने वाला, मिथ्या एकान्त रूप महान अन्धकार से रहित तथा श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित है।
१. अनेकान्त का स्वरूप—किसी भी वस्तु को उसके अनेक पहलुओं से देखना, जाँचना अथवा उस तरह देखने की वृत्ति रखकर वैसा प्रयत्न करना ही अनेकान्तदृष्टि है। अन्त कहते हैं अंश अथवा धर्म को। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक अथवा अनेकधर्म वाली है। न वह सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही है, न वह सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनित्य ही है, किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से असत् है, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है। अत: सर्वथा सत् , सर्वथा असत् , सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथंचित् सत् , कथंचित् असत् , कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि रूप होना अनेकान्त है।
आचार्य अमृतचन्द्र ने ‘समयसार’ की आत्मख्याति नामक टीका में लिखा है कि ‘जो वस्तु तत्स्वरूप है, वही अतत्स्वरूप भी है। जो वस्तु एक है, वही अनेक भी है, जो वस्तु सत् है, वही असत् भी है तथा जो वस्तु नित्य है, वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त का कार्य है।
२. एक ही वस्तु में एक साथ परस्पर विरोधी दो धर्म कैसे रह सकते हैं ?—जिस प्रकार एक ही पुरुष एक ही समय में एक ही साथ भिन्न–भिन्न अपेक्षाओं से छोटा, बड़ा, बच्चा, बूढ़ा, जवान, पुत्र, पिता, गुरु, शिष्य आदि परस्पर विरुद्ध रूपों को धारण करता है, उसी तरह सत्त्व, असत्त्व, नित्यत्व, अनित्यत्व आदि धर्म भिन्न—भिन्न अपेक्षाओं से वस्तु में एक ही साथ पाए जाते हैं। जिस समय देवदत्त अपने लड़के का पिता है, उसी समय वह अपने पिता का पुत्र भी है, अपने शिष्य का यदि गुरु है तो अपने गुरु का शिष्य भी तो है। तात्पर्य यह है कि एक ही साथ भिन्न—भिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक विरोधी धर्म रहते हैं। इसलिए पदार्थों में सर्वथा अत्यन्तविरोध तो नहीं कहा जा सकता। कथंचित् थोड़ा बहुत विरोध तो सभी पदार्थों में पाया जाता है। जो एक वस्तु में धर्म है, वह दूसरी में नहीं है। वस्तुओं में कथंचित् विरोध हुए बिना भेद ही नहीं हो सकता। वस्तुओं में कथंचित् विरोध तो प्रयत्न करने पर भी नहीं हटाया जा सकता, इसलिए वह अपरिहार्य—अवश्यंभावी होने से दूषणरूप नहीं है।
प्रश्न—अनेकान्तवाद में प्रमाण भी अप्रमाण, सर्वज्ञ भी असर्वज्ञ तथा सिद्ध भी संसारी हो जायेगा।
उत्तर—यह कथन निरर्थक है; क्योंकि स्याद्वादी प्रमाण को भी अपने विषय में ही प्रमाणरूप मानते हैं, पर विषय में तो वह अप्रमाणरूप ही है। घटज्ञान घटविषय में प्रमाण है तथा पटादिविषयों में अप्रमाण। अत: एक ही ज्ञान विषयभेद से प्रमाण भी है तथा अप्रमाण भी। सर्वज्ञ भी अपने केवलज्ञान की अपेक्षा सर्वज्ञ है तथा संसारी जीवों के अल्पज्ञान की अपेक्षा असर्वज्ञ। यदि संसारियों के ज्ञान की अपेक्षा भी वह सर्वज्ञ हो जाय तो इसका अर्थ यह हुआ कि संसार के समस्त प्राणी सर्वज्ञ है। सर्वज्ञ अपने ज्ञान के द्वारा ही सबको जानता है। यदि वह हम लोगों के ज्ञान के द्वारा भी पदार्थों का ज्ञान कर सके तो फिर उसकी आत्मा और हमारी आत्मा में कोई अन्तर ही नहीं रहेगा। जिस तरह हम अपने ज्ञान से जानते हैं, उसी तरह सर्वज्ञ भी हमारे ही ज्ञान से जानता है। अत: सर्वज्ञ और हमारी आत्मा में अभेद होने से या तो सर्वज्ञ की तरह हम लोग सर्वज्ञाता हो जायेंगे या हमारी तरह सर्वज्ञ भी अल्पज्ञ ही हो जायेगा। सिद्ध मुक्त जीव भी अपने साथ लगे हुए कर्मपरमाणुओं से छूटकर सिद्ध हुए हैं, अत: वे स्वसंयोगी कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा मुक्त हुए है, न कि अन्य आत्माओं से संयुक्त कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा। यदि वे अन्य आत्माओं से संयुक्त कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा भी सिद्ध माने जाँय तो इसका अर्थ यह हुआ कि अन्य आत्माओं के धर्म भी सिद्धजीव के स्वपर्याय हैं, तभी तो वह अन्य आत्माओं से संयुक्त कर्मपरमाणुओं की अपेक्षा भी सिद्ध माना जाता है। इस तरह अन्य संसारी आत्माओं तथा सिद्ध आत्माओं में सीधा स्वपर्याय का सम्बन्ध होने से अभेदरूपता हो जायेगी और इससे या तो समस्त संसारी जीव सिद्ध हो जायेंगे या फिर सिद्ध संसारी हो जायेंगे। अभेद पक्ष में एकरूपता ही हो सकती है या तो सब संसारी बने रहें या फिर सब मुक्त हो जाँय। इसी तरह अनेकान्तवाद में कहा हुआ भी वचन कथंचित् नहीं कहा हुआ, किया हुआ कार्य कथंचित् न किया हुआ, खाया हुआ भी भोजन कथंचित् नहीं खाया हुआ होना चाहिए, इत्यादि दूषण भी असत्य हैं; क्योंकि एक ही वस्तु में भिन्न—भिन्न अपेक्षाओं से विरोधी धर्म मानना प्रमाण िसद्ध है। जो कार्य किया गया है, उसकी ही अपेक्षा कृत, जो बात कही गयी है, उसकी ही अपेक्षा उक्त तथा जो भोजन खाया गया है, उसकी ही अपेक्षा भुक्त व्यवहार हो सकता है, न कि अन्य वस्तुओं की अपेक्षा। अत: अन्य वस्तुओं की अपेक्षा ‘अकृत, अनुक्त या अभुक्त व्यवहार होने में कोई बाधा नहीं आती।
सिद्धों के कर्मक्षय में अनेकान्तरूपता—
प्रश्न—आपके सिद्ध मुक्त जीवों ने कर्मों का एकान्त से सर्वथा क्षय किया है या कथंचित् ? यदि सर्वथा क्षय किया है तो अनेकान्तवाद कहाँ रहा ? जहाँ कोई भी बात ‘सर्वथा ऐसा ही है’ मानी, वहीं एकान्तवाद का प्रसंग हो जाता है। यदि सिद्धों ने कर्मों का क्षय कथंचित् किया है तो इसका यह अर्थ हुआ कि आपके सिद्ध सर्वथा कर्मरहित नहीं है, उनमें भी कथंचित् कर्म का सद्भाव है, जैसे कि संसारी जीवों में। इस तरह अनेकान्तवाद बड़ी अव्यवस्था उत्पन्न कर देता है।
उत्तर—सिद्ध जीवों ने भी कर्मपरमाणुओं की स्थिति, फल देने की शक्ति तथा अपने प्रति कर्मत्वरूप से परिणमन करने का नाश किया है, न कि कर्मपरमाणुमात्र का समूलनाश। उन्होंने उन परमाणुओं का अपनी आत्मा में कर्मरूप से सम्बन्ध नहीं रहने दिया। परमाणुरूप पुद्गल द्रव्य तो नष्ट नहीं किया जा सकता। कोई अनन्तशक्तिशाली भी किसी द्रव्य का समूलनाश नहीं कर सकता। यदि इस तरह परमाणुओं का नाश होने लगे तो फिर मुद्गर आदि के परमाणुओं तक समूलनाश होने से एक न एक दिन संसार से परमाणुओं का नामोनिशाँ मिट जायेगा। उनका सर्वापहारी लोप हो जाने से संसार से परमाणुओं को नामोनिशाँ मिट जायेगा। उनका सर्वापहारी लोप हो जाने से संसार के समस्त पदार्थों का अभाव हो जायेगा। अत: जिस तरह मुद्गर की चोट घड़े की पर्याय का नाश करती है और परमाणुओं को पड़े रहने देती है, उसी तरह सिद्ध भी कर्मपरमाणुओं की कर्मत्वपर्याय का नाश करते हैं, न कि परमाणुओं का। वे परमाणु जली रस्सी की तरह सिद्ध की आत्मा के ऊपर भी पड़े रहते हैं तब भी बन्धन में कारण नहीं हो सकते। अत: सिद्धों के कर्मक्षय में भी अनेकान्तरूपता है। इस तरह प्रत्यक्ष एवं अनुमानादि प्रमाणों से सर्वथा अबाधित अनेकान्त शासन की सिद्धि हो जाती है।
आचार्य हरिभद्र ने षड्दर्शन—समुच्चय में वस्तु की अनेकान्तात्मकता को अनुभवगम्य सिद्ध किया है। उनके अनुसार सभी प्रमाण या प्रमेय रूप वस्तु में स्व—पर द्रव्य की अपेक्षा क्रम और युगपत् रूप से अनेक धर्मों की सत्ता पायी जाती है।
उदाहरणार्थ—सोने के घड़े को लिया जा सकता है। विवक्षित घड़ा अपने द्रव्य में है, अपने क्षेत्र में है तथा अपने काल में है एवं अपनी पर्याय में है, दूसरे पदार्थों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से नहीं है। घड़ा, घड़ा रूप ही है, कपड़ा या चटाई रूप नहीं है, वह अपनी जगह है कपड़े और चटाई की जगह नहीं है, वह अपने समय में है, दूसरे के समय या अतीत, अनागत समय में नहीं है; वह अपनी घट पर्याय में है, कपड़ा, चटाई आदि की हालत में नहीं है। जिस समय उसी घड़े के सत्व, ज्ञेयत्व या प्रमेयत्व आदि सामान्य धर्मों की अपेक्षा विचार करते हैं, तब वे सत्व आदि सामान्य धर्म घड़े के स्वपर्याय रूप ही हो जाते हैं, उस समय कोई भी पर पर्याय नहीं रहती; क्योंकि सत्, ज्ञेय या प्रमेय कहने से सभी वस्तुओं का ग्रहण हो जाता है। सत् की दृष्टि से तो घट, पट आदि अचेतन तथा मनुष्य, पशु आदि चेतन में कोई भेद नहीं है। सभी सत् की दृष्टि से सजातीय है, कोई विजातीय नहीं है, जिससे व्यावृत्ति की जाये। अत: घड़े का सत् ज्ञेय, प्रमेय आदि सामान्यदृष्टि से विचार करने पर सभी सत् रूप से घड़े के स्वपर्याय रूप फलित होते हैं, सभी सजातीय हैं, उस समय घड़े की किससे व्यावृत्ति की जाये ? व्यावृत्ति तो विजातीय से होती है। सत् , ज्ञेय आदि की दृष्टि से तो घड़े का विजातीय कोई है ही नहीं। जब पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से विचार करते हैं तो घड़ा पुद्गल द्रव्य की दृष्टि से सत् है, धर्म, अधर्म, आकाशादि द्रव्यों की अपेक्षा असत् है। पौद्गालिक घड़े का पौद्गलिकत्व ही स्वपर्याय है तथा जिनधर्म अधर्म, आकाश और अनन्त जीव द्रव्यों से घड़ा व्यावृत्त होता है, वे सब अनन्त ही परपदार्थ परपर्याय है। घड़ा पौद्गालिक है, धर्माधर्मादि द्रव्यरूप नहीं है। घड़ा पुद्गल होकर भी पार्थिव पृथ्वी का बना है। जल, आग या हवा आदि से नहीं बना है। अत: पार्थिवत्व घड़े की स्वपर्याय है तथा जल आदि अनन्त परपर्याय है, जिनसे कि घड़ा व्यावृत्त रहता है। इस तरह आगे भी जिस रूप से घड़े की सत्ता हो, उसे स्व—पर्याय तथा जिससे घड़ा व्यावृत्त होता हो, उन्हें परपर्याय समझ लेना चाहिए।
१. क्षेत्र की दृष्टि से वस्तु की अनेकान्तात्मकता—क्षेत्र की दृष्टि से जब घड़े पर त्रिलोक में रहने वाले रूप से व्यापक क्षेत्रदृष्टि से विचार करते हैं तो वह किसी से व्यावृत्त नहीं होता, अत: त्रिलोरूप व्यापक क्षेत्र की दृष्टि से स्वपर्याय तो बन सकती है, परपर्याय नहीं। यद्यपि अलोकाकाश में घड़ा नहीं रहता, अत: अलोकाकाश को परपर्याय कह सकते हैं, परन्तु चाहने पर भी अलोक में घड़ा कभी भी नहीं रह सकता, वह सर्वदा लोक में ही रहता है, अत: उस रूप से परपर्याय की विवक्षा नहीं की है। यदि विवक्षा की जाय तो फिर घड़ा आकाश में रहता है, इस रूप में जब आकाश स्वपर्याय होगी तब परपर्याय कुछ भी नहीं होगी। त्रिलोकवर्ती घड़ा भी मध्यलोक में रहता है, स्वर्ग या नरक में नहीं, अत: मध्यलोक की दृष्टि से सत् है तथा ऊर्ध्व और अधोलोक की दृष्टि से असत् । मध्यलोकवर्ती होकर भी घड़ा जम्बूद्वीप में रहता है, अत: जम्बूद्वीप की दृष्टि से सत् तथा अन्य द्वीपों की दृष्टि से असत् है। जम्बूद्वीप में भी वह भरतक्षेत्र में रहता है, विदेह आदि क्षेत्रों में नहीं, अत: भरतक्षेत्र की दृष्टि से सत् है तथा विदेह आदि की दृष्टि से असत् आदि—आदि। जिनकी अपेक्षा अस्तित्व का विचार किया जाता है, वे स्वपर्यायें थोड़ी हैं तथा जिनकी अपेक्षा नास्तित्व का विचार होता है, वे परपर्यायें तो असंख्य हैं; क्योंकि लोक के प्रदेश असंख्य होते हैं।
२. भाव की दृष्टि से वस्तु की अनेकान्तात्मकता—भाव की दृष्टि से घड़ा पीला है, अत: पीले रंग की अपेक्षा सत् है तथा अन्य नीले लाल आदि रंगों से असत्। घड़े का वह पीलापन किसी पीले द्रव्य से दुगुना पीला है, किसी से तिगुना, किसी से चौगुना, इस तरह किसी से अत्यन्त कम पीले द्रव्य से अनन्तगुना पीला भी होगा। इसी तरह घड़े का वह पीलापन किसी से एक गुना कम पीला है, किसी से दो गुना कम पीला है, किसी से तीन गुना कम। इस तरह किसी परिपूर्ण पीले द्रव्य से अनन्तगुना कम पीला भी तो है। तात्पर्य यह है कि तरतम रूप से पीलेपन के ही अनन्त भेद हो सकते हैं, वे सब उसकी स्वपर्यायें हैं तथा पीलेपन की ही तरह नीले और लाल आदि रंग भी रूप से अनन्त प्रकार के होते हैं, उन सब अनन्त नीलादि रंगों से इस घड़े का पीलापन पृथक््â है, अत: परपर्यायें भी अनन्त ही हैं। इसी तरह उस घड़े का अपना जो मीठा आदि रस होगा, उसके भी रूप की ही तरह तरतम रूप से अनन्त भेद होंगे। ये सभी उसकी स्वपर्यायें हैं तथा नील आदि पररूपों की तरह खारे आदि पर रस भी रूप से अनन्त हैं, उन सबसे इसका रस व्यावृत्त होता है, अत: परपर्यायें भी अनन्त है। इसी तरह उसकी सुगंध के तरतम रू से अनन्त ही भेद होंगे जो कि उसकी स्वपर्यायें कहे जायेंगे तथा जो गंध उसमें नहीं पाई जाती, उसके अनन्तभेद परपर्याय होंगे। इसी तरह भारी, हल्का, कोमल, खुरदरा, ठंडा, गरम, चिकना और रूखा इन आठ स्पर्शों के भी प्रत्येक के तरतम रूप से अनन्त भेद होते हैं। इनमें जो स्पर्श जिस रूप से उसमें पाये जाते हैं, उनकी अपेक्षा अनन्त स्वपर्यायें तथा जो स्पर्श नहीं पाए जाते, उसकी अपेक्षा अनन्त ही परपर्यायें समझ लेनी चाहिए। सिद्धान्त में स्पष्ट कहा है कि—एक अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध में भारी आदि आठों ही स्पर्श पाए जाते हैं, अत: इस घड़े में भी आठों ही स्पर्श का कथन किया गया है।
३. शब्द की दृष्टि से वस्तु की अनेकान्तात्मकता—शब्द की दृष्टि से घड़ा नाना देश की अपेक्षा घटादि अनेक शब्दों के द्वारा वाच्य होने से अनेक ही स्वधर्म होंगे तथा जिन पटादि अनन्त पदार्थों में घट के वाचक शब्दों का प्रयोग नहीं होता, उन सबसे घड़ा व्यावृत्त होता है, अत: अनन्त ही परधर्म होते हैं अथवा घड़े के जितने स्वधर्म कहे हैं तथा कहे जायेंगे, उनके वाचक जितने भी शब्द हैं, उतने ही घड़े के स्वधर्म हैं तथा अन्य पदार्थों के वाचक जितने शब्द हैं, उतने ही परधर्म हैं। संख्या की अपेक्षा भी घड़े में स्वधर्म और परधर्म होते हैं। भिन्न—भिन्न द्रव्यों की अपेक्षा घड़े में पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, अनन्त संख्या तक के व्यवहार हो सकते हैं। ये सभी स्वधर्म हैं तथा इन संख्याओं के अविषयभूत पदार्थों से व्यावृत होने के कारण वे सब परधर्म हैं अथवा घड़े के परमाणुओं की जितनी संख्या तथा उसके वजन के रत्तियों की जितनी संख्या है, वह संख्या स्वधर्म है और वह संख्या जिन अनन्त पदार्थों में नहीं पायी जाती, वे सब परधर्म हैं। अनन्तकाल से उसे घड़े का सभी द्रव्यों के साथ संयोग तथा विभाग होता रहा है, अत: वे संयोग और विभाग स्वधर्म हैं तथा जिनमें वे संयोग और विभाग नहीं पाए जाते, उन अनन्त पदार्थों से घड़े की व्यावृत्ति होती है, अत: वे परधर्म हैं।
परिमाण माप की अपेक्षा भी घड़े में स्वधर्म और परधर्म होते हैं। घड़ा किन्हीं बड़े मकान आदि परद्रव्यों की अपेक्षा छोटा, छोटे लोटा आदि की अपेक्षा बड़ा, लम्बा, ठिगना आदि अनन्त प्रकार के माप वाला कहा जा सकता है, ये सब स्वधर्म हैं तथा अन्य परधर्म। घड़ा जिन समस्त परपदार्थों से पृथक््â है, वे सब परपर्याय हैं तथा जिनसे पृथक््â नहीं है, वे स्वपर्याय हैं।
४. काल की अपेक्षा वस्तु की अनेकान्तात्मकता—काल की अपेक्षा वही घड़ा किसी से एक क्षण पुराना है तो किसी से दो क्षण, किसी से एक घड़ी, दो घड़ी, एक दिन, माह, वर्ष, युगादि पुराना है तो वही घड़ा किसी से एक, दो, चार क्षण नया अथवा किसी से एक दिन, माह, वर्ष या युगभर नया होता है। तात्पर्य यह कि घड़ा अन्य पदार्थों की अपेक्षा एक क्षण से लेकर अनन्त वर्ष तक का नया या पुराना होता है, अत: ये सब उसके स्वधर्म हैं।
५. ज्ञान की अपेक्षा वस्तु की अनेकान्तात्मकता—ज्ञान की अपेक्षा वही घड़ा संसार के अनन्त जीवों के अनन्त ही प्रकार के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, विभंगादि अवधिज्ञान आदि का स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से विषय होता है। ग्राहक ज्ञान में भेद होने से उसकी अपेक्षा ग्राह्य विषयभूत पदार्थ में भी भेद होता ही है। यदि पदार्थ एक रूप ही रहे तो उसको जानने वाले ज्ञानों में भी स्वभाव भेद नहीं होगा, वे सर्वथा एक रूप ही हो जायेंगे। इस तरह घड़े को जानने वाले अनन्त ज्ञानों की अपेक्षा घड़े में भी अनन्त ही स्वभाव भेद हैं और ये सब उसके स्वधर्म हैं।
६. स्वपर्याय एवं परपर्याय की अपेक्षा वस्तु की अनेकान्तात्मकता—पहले जितने प्रकार के स्वधर्म या परधर्म कहे गए हैं, उन सबमें प्रकृत घड़ा अन्य घड़ों से एक, दो, तीन अनन्त धर्मों से समानता रखता है, घड़ों से ही क्या, अन्य पदार्थों से भी घड़े की एक, दो आदि सैकड़ों धर्मों से समानता पायी जाती है। अत: सादृश्य रूपी सामान्य की दृष्टि से घड़े के अनन्त ही सदृशपरिणमन रूप स्वभाव हो सकते हैं। इस प्रकार सामान्य की अपेक्षा घड़े में स्वपर्याय तथा उससे भिन्न धर्मों की अपेक्षा परपर्यायों का विचार करना चाहिए।
इसी तरह यह घड़ा अन्य अनन्त ही द्रव्यों से एक, दो, तीन आदि अनन्त ही धर्मों की अपेक्षा विलक्षण है, उनसे व्यावृत्त होता है, अत: उसमें अन्य पदार्थों से विलक्षणता कराने वाले अनन्त ही धर्म विद्यमान है और इसीलिए वह विशेष विलक्षणता की दृष्टि से भी अनन्त स्वभाव वाला है। अनन्त ही द्रव्यों की अपेक्षा इस घड़े में किसी की अपेक्षा मोटापन तो किसी की अपेक्षा पतलापन, किसी की अपेक्षा समानता, असमानता, सूक्ष्मता, तीव्रता, सुन्दरता, चौड़ापन, सकरापन, नीचता, उच्चता, विशालमुखपना आदि अनन्त ही प्रकार के धर्म पाए जाते हैं। इस तरह इन सूक्ष्मता आदि धर्मों की अपेक्षा भी घड़े में अनन्त स्वधर्म हैं।
इसी तरह घड़े की जिन-जिन स्व—पर पर्यायों का कथन किया है, उनके उत्पाद, विनाश तथा स्थिति रूप धर्म अनादिकाल से बराबर प्रतिक्षण होते आ रहे हैं, पहले भी होते थे तथा आगे भी होते जायेंगे। इन त्रैकालिक उत्पाद, विनाश तथा स्थिति रूप त्रिपदी से भी घड़े में अनन्त धर्म सिद्ध होते हैं।
जब ऊपर कहे गए स्वद्रव्य, क्षेत्र आदि तथा परद्रव्य क्षेत्र आदि की अपेक्षा घट को एक ही शब्द से एक ही साथ कहने की इच्छा होती है तो घड़ा अवक्तव्य हो जाता है; क्योंकि संसार में कोई ऐसा शब्द ही नहीं है, जिससे घड़े के स्वधर्मों का युगपत् प्रधान भाव से कथन किया जा सके। शब्द के द्वारा वे दोनों धर्म क्रम से ही कहे जा सकते हैं, एक साथ प्रधान रूप से नहीं। इस तरह प्रत्येक स्वधर्म और परधर्म की एक साथ कहने की इच्छा होने पर घड़े में अवक्तव्य धर्म भी पाया जाता है। यह अवक्तव्य धर्म स्वपर्याय है। यह अवक्तव्य धर्म अन्य अनन्त वक्तव्य धर्मों से तथा अन्य पदार्थों से व्यावृत्त है, अत: इसकी अपेक्षा अनन्त ही परपर्याय होते हैं।
जिस तरह घड़े में अनन्त धर्मों की योजना की गई है, उसी तरह समस्त आत्मा आदि पदार्थों में अनन्त धर्मों का सद्भाव समझ लेना चाहिए।
अनेकान्त सम्पूर्ण नयों के समूह को कहते हैं। जिस प्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत में पिरो देने से हार बन जाता है उसी प्रकार भिन्न—भिन्न पड़े हुए नयरूप मोतियों को स्याद्वाद रूपी एक सूत में पिरो देने से उसकी ‘श्रुतप्रमाण’ संज्ञा हो जाती है।
प्रश्न—यदि प्रत्येक नय भिन्न—भिन्न रहने पर विरोधी हैं, तो सबको मिला देने पर विरोध वैâसे मिट सकता है ?
उत्तर—जिस प्रकार परस्पर विवाद करते हुए वादियों को यदि कोई मध्यस्थ युक्तिपूर्वक निर्णय करने वाला मिल जाता है तो वे विवाद छोड़कर शान्त हो जाते हैं, उसी प्रकार नय भी परस्पर में शत्रुता धारण करते हैं, परन्तु जब सर्वज्ञदेव का शासन पाकर ‘स्यात्’ शब्द के मिल जाने से आपस के विरोधभाव छोड़कर शान्त हो जाते हैं, तब वे ही नय परस्पर में अत्यन्त मैत्री धारण करके ठहर जाते हैं। इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् का दर्शन सर्वनयस्वरूप होने से अविरुद्ध है; क्योंकि एक—एक नयस्वरूप ही सब दर्शन हैं।
प्रश्न—यदि भगवान् का दर्शन सम्पूर्ण दर्शन स्वरूप है तो वह सम्पूर्ण भिन्न—भिन्न दर्शनों में क्यों नहीं दिखाई देता है ?
उत्तर—सम्पूर्ण नदियों का समूह ही समुद्र है, परन्तु भिन्न—भिन्न बहती हुई नदियों में वह नहीं दीखता है। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने कहा है—
उदधाविव सर्वसिन्धव: समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टय:।
न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरित्स्विवोदधि:।।
‘‘जिस प्रकार सम्पूर्ण नदियाँ समुद्र में मिलती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्णदर्शन आपके दर्शन में तो मिलते हैं, परन्तु फिर भी जिस प्रकार भिन्न—भिन्न रहने वाली नदियों में समुद्र नहीं दिखता, उसी प्रकार आपका दर्शन भी उन भिन्न—भिन्न दर्शनों में नहीं दीखता।’’
१. अनेकान्तवाद और स्याद्वाद—अनेकांत ‘अनेक’ और ‘अन्त’ शब्दों योग से बना है जिसका अर्थ होता है ‘अनेक धर्मात्मक’। इस कारण यह दृष्टि वस्तु में अनेक धर्मों (Aूूrग्ंल्ूो) को अंगीकार करती है। जो—जो पदार्थ हमारे ज्ञानगोचर होता है वह सब अनेक धर्म समुदायात्मक है—अनेकान्त दृष्टि एक धर्म को प्रधान कर देती है और अन्य सब को गौण। जैसे ग्वालिन दही—मथन करते समय रस्सी को एक ओर से खेंचती है और दूसरी ओर से ढीला कर देती है।
‘स्याद्वाद’ शब्द के अन्तर्गत दो शब्द हैं—स्यात् और वाद। स्यात् का अर्थ अपेक्षा—सहित (दृष्टिकोण सहित) तथा वाद शब्द का अर्थ सिद्धान्त या मत होता है। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ ‘सापेक्ष सिद्धान्त’ समझना चाहिये। अपने व दूसरे के विचारों, वचनों व कार्यों में अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान रखना ही स्याद्वाद है।
स्याद्वाद शब्द एकान्त या सर्वथापन का निषेधक और अनेकता का सूचक है। स्याद्वाद का अर्थ होता है—पदार्थ का भिन्न—भिन्न दृष्टियों से (अपेक्षाओं से) परीक्षण कर निर्णय करना। क्योंकि सर्वथा एक ही दृष्टि से पदार्थ का सर्वांग निर्णय नहीं हो सकता। इसीलिए जैनाचार्यों ने सब से प्रथम ‘सिद्धिकरनेकान्तात्’ अर्थात् ‘वस्तु तत्त्व की ाfसद्धि अनेकान्त स्याद्वाद से ही हो सकती है अन्यथा नहीं’ की घोषणा की। अनेकान्तवाद, अपेक्षावाद, कथंचित्वाद और स्याद्वाद—ये सब एकार्थाची शब्द हैं।
गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार करते हुए आचार्य सिद्धसेन ने ठीक ही लिखा है—
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडई।
तस्स भुवणेक्कगुरूणो णमोऽणेगंतवायस्स।।
सन्मतिप्रकरण ३/७०
२, प्रमाणों का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु—
न्यायवतार में कहा गया है—
अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचर: सर्वसंविदाम्।
एकदेशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मत:।।
—न्यायावतार—२९
‘‘सब ज्ञानों का विषय अनेकान्तात्मक वस्तु है और नय का विषय एकदेश से विशिष्ट वस्तु है एवं अनेकान्तात्मक वस्तु के सर्वदंश को साधने वाला प्रमाण है।
३. अनेकान्त दृष्टि की व्यापकता—अनेकान्त दृष्टि जब अपने विषय में प्रवृत्त होती है तब अपने स्वरूप के विषय में वह सूचित करती है कि वह अनेक दृष्टियों का समुच्चय होने से अनेकान्त तो है ही परन्तु वह एक स्वतन्त्र दृष्टि होने से उस रूप में एकान्तदृष्टि भी है। इसी तरह अनेकान्त दूसरा कुछ नहीं है, वह तो भिन्न—भिन्न दृष्टि रूप इकाइयों का सच्चा जोड़ है। ऐसा होने से वह अनेकान्त होने पर भी एकान्त भी है ही। इसमें इतनी विशेषता है कि यह एकान्त यथार्थता का विरोधी नहीं होना चाहिए। सारांश यह कि अनेकान्त में सापेक्ष एकान्तों को स्थान है ही। जैसे अनेकान्त दृष्टि एकान्तदृष्टि के आधार पर प्रवर्तित मतान्तरों के अभिनिवेश से बचने की शिक्षा देती है, वैसे ही अनेकान्तदृष्टि के नाम से जन्मने वाले एकान्ताग्रहों से बचने की भी शिक्षा देती है, वैसे ही अनेकान्तदृष्टि के नाम से जन्मने वाले एकान्ताग्रहों से बचने की भी शिक्षा देती है। जैन प्रवचन अनेकान्तरूप है, ऐसा मानने वाला भी यदि उसमें आए हुए विचारों को एकान्तरूप से ग्रहण करें, तो वह स्थूल दृष्टि से अनेकान्तसेवी होने पर भी तात्त्विक दृष्टि से एकान्ती ही बन जाता है। इससे वह सम्यग्दृष्टि नहीं रहता। उदाहरणार्थ ज्ञान और आचार की कुछ मुख्य बातों को ले सकते हैं—
जैन आगमों में संसारी जीव के छ: निकाय (जातियाँ) बताये गये हैं और आचार के बारे में कहा गया है कि िंहसा अर्थात् जीवघात अधर्म का कारण है। इन दोनों विचारों को एकान्त रूप से ग्रहण करने में यथार्थता का लोप होने से अनेकान्त दृष्टि ही नहीं रहती। जीव की छ: ही जातियाँ हैं, ऐसा मानने पर चैतन्य रूप से जीवतत्त्व का एकत्व भुला दिया जाता है और दृष्टि से मात्र भेद ही आता है। अत: पृथ्वीकाय आदि छ: विभागों को एकान्तरूप से ग्रहण न करके उनमें चैतन्य के रूप में जीवतत्व का एकत्व भी माना जाय तो वह यथार्थ ही है। इसी तरह ‘आत्मा एक है तथा अनेक है’, इस प्रकार के भिन्न—भिन्न शास्त्रीय वाक्यों का समन्वय होता है।
जो वस्तु अनेकान्त रूप है, वही नियम से कार्यकारी है; क्योंकि लोक में अनेक धर्मयुक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है। एकान्त रूप द्रव्य लेशमात्र भी कार्य नहीं करता और जो कार्य नहीं करता, उसको द्रव्य वैâसे कहा जाय ?
प्रयोजन निष्पत्ति को अर्थक्रिया कहते हैं। जैसे ज्ञान का प्रयोजन जानना है, अत: ज्ञान का परिच्छित्ति रूप जो परिणमन है, वही ज्ञान की अर्थक्रिया है। अपने स्वरूप को न छोड़कर परिणमन करना द्रव्य का प्रयोजन है; क्योंकि उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से ही द्रव्य की सत्ता है। अत: द्रव्य में जो परिणमन रूप क्रिया होती है, वह द्रव्य की अर्थक्रिया है।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने कहा है—
कुतोऽन्तरर्थो बहिरर्थनिह्नवे विनान्तरर्थादूहिरर्थ एव न।
प्रमेयशून्यस्य नहि प्रमाणता प्रमाणशून्यस्य न हि प्रमेयता।।
लघुतत्त्वस्फोट ५-९
बाह्य पदार्थों का अभाव मानने पर अन्तर्वर्ती पदार्थ वैâसे हो सकता है और अन्तर्ज्ञेय के बिना बाह्य अर्थ नहीं हो सकता। निश्चय से प्रमेय—बाह्य पदार्थ से रहित ज्ञान में प्रमाणता नहीं हो सकती और प्रमाण से रहित वस्तु में प्रमेयता नहीं रह सकती।
शून्याद्वैतवादी जैसे कुछ दर्शनकार बाह्य पदार्थ का सर्वथा अभाव मानकर एक ज्ञान का ही अद्वैत सिद्ध करते हैं और चार्वाक् जैसे कुछ दर्शनाकार ज्ञान—दर्शन के आधारभूत आत्मतत्त्व के अस्तित्व को अस्वीकृत कर ज्ञान दर्शन का भी अस्तित्व नहीं मानते हैं। उन दर्शनकारों की मान्यता का प्रतिषेध करते हुए आचार्य ने कहा है कि यदि बाह्य पदार्थों का निह्नव किया जाता है—या उनके अस्तित्व को अस्वीकृत किया जाता है तो अन्तर्ज्ञेय का अस्तित्व वैâसे सिद्ध हो सकता है ? इसी प्रकार अन्तर्ज्ञेय के बिना बाह्य अर्थ का अस्तित्व वैâसे माना जा सकता है ? क्योंकि प्रमाण और प्रमेय का व्यवहार परस्पर सापेक्ष है। प्रमाण के बिना पदार्थ में प्रमेय का व्यवहार नहीं हो सकता है और प्रमेय के बिना प्रमाण में प्रमाण का व्यवहार नहीं हो सकता।
उपर्युक्त श्लोक में आचार्य श्री ने अन्तर्ज्ञेय और बहिर्ज्ञेय की चर्चा की है। बाह्य पदार्थों का ज्ञान में जो विकल्प आता है, वह अन्तर्ज्ञेय कहलाता है और उस विकल्प में कारणभूत जो पदार्थ है, वह बहिर्ज्ञेय कहलाता है। जैन सिद्धान्त दोनों ज्ञेयों को स्वीकृत करता है; क्योंकि बहिर्ज्ञेय के बिना अन्तर्ज्ञेय की और अन्तर्ज्ञेय के बिना बहिर्ज्ञेय की सत्ता नहीं सिद्ध होती है। दोनों परस्पर सापेक्ष है।
१. एकत्व और अनेकत्वभाव परस्पर सापेक्ष हैं—लघुतत्त्वस्फोट में कहा गया है—
एको भावस्तावक एष प्रतिभाति व्यक्तानेकव्यक्तिमहिम्न्येकनिषण्ण:।
यो नानेकव्यक्तिषु निष्णातमति: स्यादेकोभावस्तस्य तवैषो विषय: स्यात्।।१८/२।
हे भगवन् ! आपका यह एक भाव प्रकट हुई अनेक पर्यायों की महिमा में एक पर निर्भर अर्थात् सामान्यग्राही होने से अनेकों में एकत्व को स्थापित करने वाला प्रतिभासित होता है। जो पुरुष अनेक पदार्थों में निपुणमति है—पदार्थों के अनेकत्व को स्वीकृत करता है, उसी का एक भाव है—एकत्व का अनेकत्व के साथ अविनाभाव स्वीकृत होना और यही एकानेकात्मक भाव आपका ज्ञेय है।
यहाँ एक और अनेक दो विरोधी धर्मों की चर्चा करते हुए कहा गया है कि हे भगवन् ! आपका यह एक भाव अनेक पदार्थों में व्यापक रहने से उनके साथ अविनाभावी है और अनेक, एक के साथ अविनाभावी है। यह एकानेकात्मक भाव आपका ज्ञेय है—आपके ज्ञान का विषय है, तात्पर्य यह है कि यह एकत्व और अनेकत्वभाव परस्पर सापेक्ष है, अत: पदार्थ के एकत्व को वही ग्रहण कर सकता है, जो अनेकत्व को ग्रहण करने में कुशल है और अनेकत्व को भी वही ग्रहण कर सकता है, जो एकत्व को ग्रहण करने में निपुण है।
२. कारण-कार्य के विषय में अनेकान्त—आचार्य श्री अमृतचन्द्र ने कहा है—
जातं जातं कारणभावेन गृहीत्वा जन्यं जन्यं कार्यतया स्वं परिणामम्।
सर्वेऽपि त्वं कारणमेवास्यसि कार्यं शुद्धो भाव: कारणकार्याविषयोऽपि।।
लघुतत्त्वस्फोट १८/१७
कार्य रूप से उत्पन्न हुआ, उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ कारण रूप से अपने ही परिणाम को ग्रहण कर उत्पन्न हुआ है, अत: आप सम्पूर्ण रूप से कारण ही हैं और कार्य ही हैं, जब कि शुद्धभाव कारण और कार्य का विषय नहीं है।
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय से न कोई उत्पन्न होता है और न कोई विनाश को प्राप्त होता है, इसलिए उसमें कारण—कार्यभाव की चर्चा नहीं है। इसी अभिप्राय से यहाँ कहा गया है कि शुद्धभाव कारण कार्य का विषय नहीं है, परन्तु पर्यायार्थिक नय से पदार्थ उत्पन्न होता है और विनाश को प्राप्त होता है, अत: उसमें कारण कार्यभाव की चर्चा आती है। जो पदार्थ उत्पन्न होता है, वह कार्य कहलाता है और उसमें जो निमित्त पड़ता है, वह कारण कहलाता है। यहाँ कारण के लिए उपादान की दृष्टि से कर्त्ता भी कहा जाता है। परमार्थ से जो परिणमन करता है, वह कर्ता कहलाता है और जो परिणमन है, वह कर्म कहलाता है ‘य: परिणमति स कर्ता य: परिणामो भवेत्तु तत्कर्म’ ऐसा समयसार कलश में भी कहा है। उत्पन्न होने वाला प्रत्येक कार्य अपने परिणमन को ही कारणरूप से स्वीकृत करता है, अन्य पदार्थ को नहीं, जैसे मिट्टी से घट बनता है। यहाँ घट कार्य है और मिट्टी उसका कारण अथवा कर्ता है। अध्यात्म की दृष्टि में कर्तृकर्मभाव अथवा कारण कार्यभाव एक ही द्रव्य में बनता है, दो द्रव्यों में नहीं। दो द्रव्यों में निमित्त नैमित्तिक भाव बनता है, इसलिए जो द्रव्यकार्य है, वही द्रव्य उसका कारण होता है, मात्र पूर्व और उत्तरक्षण की अपेक्षा उसमें कारण और कार्य का भेद होता है। पूर्वक्षणवर्ती पर्याय कारण है और उत्तरक्षणवर्ती पर्याय कार्य है।
३. कर्ता और कर्म के विषय में अनेकान्त—व्यवहारनय के आश्रय से कहा जाता है कि कर्ता अन्य होता है और कर्म अन्य होता है, परन्तु निश्चयनय की मान्यता है कि जो कर्ता होता है, वही कर्म होता है; क्योंकि परमार्थ से कर्ता, क्रिया और कर्म ये तीनों पृथक्—पृथक् नहीं हैं।
व्यवहारनय दो भिन्न पदार्थों में आधाराधेयभाव को मानता है, परन्तु निश्चयनय एक ही पदार्थ में आधाराधेयभाव को स्वीकृत करता है।
१. पूर्णता और रिक्तता के विषय में अनेकान्त—लघुतत्त्वस्फोट में कहा गया है—
पूर्ण: पूर्णो भवति नियतं रिक्त एवास्ति रिक्तो
रिक्त: पूर्णस्त्वमसि भगवन् पूर्ण एवासि रिक्त:।
यल्लोकानां प्रकटमिह ते तत्त्वघातोद्यतं तद्
यत्ते तत्त्वं किमपि न हि तल्लोकदृष्ट प्रमार्ष्टि।।२२/१२।।
हे भगवन् ! जो पूर्ण होता है, वह नियम से पूर्ण ही होता है और जो रिक्त है, वह रिक्त ही रहता है, परन्तु आप रिक्त होकर भी पूर्ण हैं और पूर्ण होकर भी रिक्त हैं। इस जगत् में लोगों के मध्य जो प्रकट है कि पूर्ण पूर्ण ही रहता है और रिक्त रिक्त ही रहता है, वह आपके तत्त्व का घात करने वाला है, परन्तु आपका जो कोई अनिर्वचनीय महिमा से युक्त तत्त्व है, वह निश्चय से लोक में देखे गए तत्त्व को नष्ट नहीं करता है अर्थात् लोकसिद्ध तत्त्व का प्रतिपादन करता है।
भगवान् रिक्त होकर भी पूर्ण हैं; क्योंकि कर्मोदयजन्य विकारी भावों से रहित होकर भी स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों से पूर्ण हैं और स्वाभाविक गुणों से पूर्ण होकर भी उपाधिजन्य विकारी भावों तथा द्रव्यकर्म और नोकर्म से रहित हैं।
२. भेदाभेदात्मक तत्त्व—गुण और गुणी में, सामान्य और सामान्यवान् में, अवयव और अवयवी में, कारण और कार्य में सर्वथा भेद मानने से गुण—गुणी भाव आदि नहीं बन सकते। सर्वथा अभेद मानने पर गुण—गुणी व्यवहार नहीं हो सकता। गुण यदि गुणी से सर्वथा भिन्न है तो अमुक गुण का अमुक गुणी से ही सम्बन्ध वैâसे नियत किया जा सकता है ? अवयवी यदि अवयवों से सर्वथा भिन्न है तो एक अवयवी अपने अवयवों में सर्वात्मना रहेगा या एकदेश से ? पूर्ण रूप से तो जितने अवयव हैं, उतने ही अवयवी मानने होंगे। यदि एकदेश से; तो जितने अवयव हैं उतने प्रदेश उस अवयवी के स्वीकार करने होंगे। इस तरह अनेक दूषण सर्वथा भेद और अभेद पक्ष में आते हैं, अत: तत्त्व को कथंचित् भेदाभेदात्मक मानना चाहिए। जो द्रव्य है, वही अभेद है और जो गुण और पर्याय हैं, वही भेद है। दो पृथक््â सिद्ध द्रव्यों में जिस प्रकार अभेद काल्पनिक है, उसी तरह एक द्रव्य का अपने गुण और पर्यायों से भेद मानना भी सिर्फ समझने और समझाने के लिए है। गुण और पर्याय को छोड़कर द्रव्य का कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है, जो इनमें रहता हो।
३. अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं है—सामान्य अंश के प्रत्यक्ष, विशेष अंश के अप्रत्यक्ष और विशेष की स्मृति होने से संशय होता है, जैसे—स्थाणु तथा पुरुष की स्थिति के योग्य देश में और न अति प्रकाश, न अति अन्धकार सहित बेला ऊर्ध्वतासामान्य के देखने वाले और स्थाणु में रहने वाले वक्रकोटर तथा पक्षियों के घोंसले आदि विशेषों को तथा पुरुषनिष्ठ वस्रधारण तथा हस्तपाद आदि विशेषों को न देखने वाले मनुष्य को स्थाणु पुरुष के विशेषों के स्मरण से यह स्थाणु है या पुरुष है ऐसा संशयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है। अनेकान्तवाद में तो विशेष धर्मों की उपलब्धि निर्बाध ही है; क्योंकि स्वरूप, पररूप विशेषों की उपलब्धि प्रत्येक पदार्थ में है इसलिए विशेष की उपलब्धि से अनेकान्तवाद संशय का हेतु नहीं है।
४. सम्यक््â अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त—प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम प्रमाण से अविरुद्ध एक वस्तु में अनेक धर्मों के निरूपण करने में जो तत्पर है, वह सम्यक् अनेकान्त है तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध जो एक वस्तु में अनेक धर्मों की कल्पना करता है, वह मिथ्या अनेकान्त है। सम्यक््â अनेकान्त प्रमाण और मिथ्या अनेकान्त प्रमाणाभास है।
५. सह अनेकान्त और क्रम अनेकान्त—आचार्य श्री गृद्धपिच्छ ने द्रव्य का लक्षण गुण और पर्याय युक्त प्रतिपादित किया है। यही लक्षण आचार्य कुन्दकुन्द ने दिया है। इस पर शंका की गई कि गुण संज्ञा तो इतर दार्शनिकों (वैशेषिकों) की है, जैनों की नहीं। उनके यहाँ तो द्रव्य और पर्याय रूप ही वस्तु वर्णित है और इसी से उनके ग्राहक द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक इन दो नयों का उपदेश है। यदि गुण भी उनके यहाँ मान्य हो तो उसको ग्रहण करने के लिए एक और तीसरे गुणार्थिक नय की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इस शंका का समाधान आचार्य सिद्धसेन, अकलंक और विद्यानन्द तीनों तार्किकों ने किया है। सिद्धसेन ने बतलाया कि गुण पर्याय से भिन्न नहीं—पर्याय में ही गुण संज्ञा जैनागम में स्वीकृत है और इसलिए गुण तथा पर्याय एकार्थक होने से पर्यायार्थिक नय द्वारा ही गुण का ग्रहण होने से गुणार्थिक नय पृथक््â उपदिष्ट नहीं है। अकलंकदेव कहते हैं कि द्रव्य का स्वरूप सामान्य और विशेष दोनों रूप है तथा सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये सब उसके पर्यायवाची शब्द हैं तथा विशेष, भेद, पर्याय ये तीनों विशेष के पर्यायवाची हैं। अत: सामान्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय है। अतएव गुण का ग्राहक द्रव्यार्थिक नय ही है; उससे भिन्न गुणार्थिक नय प्रतिपादित नहीं हुआ अथवा गुण और पर्याय अलग अलग नहीं है—पर्याय का ही नाम गुण है।
आचार्य सिद्धसेन और अकलंक के इन समाधानों के बाद भी शंका उठायी गयी कि यदि गुण द्रव्य या पर्याय से अतिरिक्त नहीं है तो द्रव्य लक्षण में गुण और पर्याय दोनों का निवेश क्यों किया ? ‘गुणवद् द्रव्यम्’ या ‘पर्यायवद् द्रव्यम्’ इतना ही लक्षण पर्याप्त था ? इसका उत्तर आचार्य विद्यानन्द ने जो दिया वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं सूक्ष्म प्रज्ञा से भरा हुआ है। वे कहते हैं कि वस्तु दो तरह के अनेकान्तों का रूप (पिण्ड) है—१. सहानेकान्त और २. क्रमानेकान्त। सहानेकान्त का ज्ञान कराने के लिए गुणयुक्त को और क्रमानेकान्त का निश्चय कराने के लिए पर्याययुक्त को द्रव्य कहा है। अत: द्रव्य लक्षण में गुण तथा पर्याय दोनों पदों का निवेश युक्तियुक्त तथा सार्थक है।
१. द्रव्य का लक्षण—द्रव्य का लक्षण सत् है। जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों पाए जाँय उसे सत् कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जो उत्पन्न होता है, जो विलीन होता है तथा जो ध्रुव—सदा स्थिर है, उसको सत् कहते हैं, यही सत् का लक्षण है। इस स्वभाव से जो रहित है, उसको असत् समझना चाहिए। एक बार गौतम गणधर ने भगवान् महावीर से पूछा—किंक तच्च ? तत्त्व क्या है ?
भगवान ने कहा—उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा अर्थात् उत्पन्न होना, विनष्ट होना और ध्रुव रहना तत्त्व है। जैसे—एक मनुष्य सुवर्ण के घड़े को चाहता है, दूसरा मनुष्य सुवर्ण के मुकुट को चाहता है और तीसरा मनुष्य केवल सुवर्ण को चाहता है। स्वर्णकार ने स्वर्ण घट को तोड़कर मुकुट बनाया। उस समय सुवर्ण घट के नष्ट हो जाने पर सुवर्णघट के चाहने वाले पुरुष को शोक होता है। शोक का कारण है, वस्तु का नाश। तोड़े गए घट के सुवर्ण का मुकुट बन जाने पर मुकुट के चाहने वाले पुरुष को हर्ष होता है। हर्ष का कारण है—वस्तु का उत्पाद। केवल सुवर्ण के चाहने वाले पुरुष को घट के नष्ट हो जाने पर न तो शोक होता है और न मुकुट के उत्पन्न होने पर हर्ष होता है, वह तो दोनों अवस्थाओं में मध्यस्थ रहता है। मध्यस्थ रहने का कारण है वस्तु का ध्रौव्यत्व। यदि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पृथक््â–पृथक््â न होते तो सोना एक पुरुष को शोक का कारण, दूसरे पुरुष को हर्ष का कारण और तीसरे पुरुष को माध्यस्थ भाव का कारण वैâसे होता ? हर्ष, विषाद आदि निर्हेतुक नहीं हो सकते हैं, उनका कोई न कोई हेतु तो होना ही चाहिए। अत: घट पर्याय का विनाश शोक का हेतु है, मुकुट पर्याय की उत्पत्ति हर्ष का हेतु है और सुवर्ण द्रव्य का ध्रौव्यत्व मध्यस्थ भाव का हेतु है। जो सुवर्ण मात्र को चाहता है, उसको घट के टूटने और मुकुट के उत्पन्न होने से कोई प्रयोजन नहीं है। घट के बने रहने पर उसका काम चल सकता है, मुकुट के बने रहने पर उसका काम चल सकता है, और घट के टूट जाने के बाद मुकुट के बन जाने पर भी उसका काम चल सकता है। इस प्रकार वस्तु में निर्बाध रूप से उत्पाद, व्यय आदि तीन की प्रतीति होती है और वह प्रतीति वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप सिद्ध करती है।
आचार्य समन्तभद्र ने तत्त्व की त्रयात्मकता सिद्ध करने हेतु एक दूसरा उदाहरण भी दिया है। वे कहते हैं—जिसको दूध खाने का व्रत है, वह दही नहीं खाता है, जिसको दही खाने का व्रत है, वह दूध नहीं खाता है और जिसको गोरस नहीं खाने का व्रत है, वह दोनों नहीं खाता है। इसलिए तत्त्व तीन रूप है।
२. वस्तु की त्रयात्मकता का अनन्तात्मकता से कोई विरोध नहीं है—वस्तु के त्रयात्मक होने पर भी अनन्तात्मक होने में कोई विरोध नहीं है। उत्पाद आदि तीन धर्मों में से प्रत्येक धर्म भी अनन्त रूप है। एक वस्तु का उत्पाद उत्पन्न होने वाली अनन्त वस्तुओं के उत्पाद से भिन्न होने के कारण अनन्त रूप है। एक वस्तु का विनाश होने वाली अनन्त वस्तुओं के नाश से भिन्न होने के कारण अनन्त रूप है तथा एक वस्तु का ध्रौव्यत्व अनन्त वस्तुओं के ध्रौव्यत्व से भिन्न होने के कारण अनन्त रूप है।
३. अनन्तधर्मात्मकता का उत्पाद—व्यय-ध्रौव्यात्मकता से अविनाभाव—समस्त वस्तुयें अनन्तधर्म वाली हैं; क्योंकि उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पाए जाते हैं। जो अनन्तधर्म वाले नहीं है, उनमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य भी नहीं पाए जाते, जैसे कि आकाश—कमल में। यह केवल व्यतिरेकी अनुमान वस्तु को निर्विवाद रूप से अनन्तधर्म वाली सिद्ध कर देता है।
उत्पाद आदि के लक्षण भिन्न—भिन्न हैं अत: इनमें कथंचित् भेद है। ये कभी भी वस्तु से भिन्न या परस्पर भिन्न उपलब्ध नहीं होते, एक वस्तु के उत्पाद आदि को दूसरी वस्तु में नहीं ले जा सकते, अत: ये अभिन्न हैं। उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य परस्पर भिन्न हैं; क्योंकि इनके लक्षण ही भिन्न–भिन्न हैं, जैसे रूप, रस आदि के लक्षण भिन्न–भिन्न होने से उनमें परस्पर भेद है, उसी तरह लक्षण भेद से उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य में भी भेद है। उत्पाद, विनाश आदि का लक्षणभेद असिद्ध नहीं है; क्योंकि उनके भिन्न—भिन्न लक्षण हैं। जो पदार्थ पहले नहीं है, असत् है उसके स्वरूप लाभ हो जाने को उत्पाद कहते हैं। विद्यमान पदार्थ की सत्ता का च्युत हो जाना, उसकी सत्ता का वियोग होना विनाश है। इन उत्पाद और विनाश के होते हुए भी द्रव्य रूप से अन्वय रहना ध्रौव्य है। इस तरह उत्पादादि के असाधारण लक्षण सभी के अनुभव में आते हैं। ये उत्पादादि लक्षणभेद से कथंचित् भिन्न होकर भी परस्पर सापेक्ष हैं, एक दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। ये परस्पर निरपेक्ष होकर अत्यन्त भिन्न नहीं हैं। यदि ये परस्पर निरपेक्ष तथा अत्यन्त भिन्न हो जायेंगे तो इनका गधे के सींग की तरह अभाव हो जायेगा। जैसे—अकेला उत्पाद सत् नहीं है; क्योंकि वह स्थिति और विनाश से रहित है, जैसे के कछवे के रोम। अकेला विनाश सत् नहीं कहा ता सकता; क्योंकि वह उत्पत्ति और स्थिति से रहित है, जैसे कि कछवे के रोम। स्थिति अकेली सत् नहीं है; क्योंकि वह उत्पाद और विनाश से रहित है, जैसे कि कछवे के रोम। इस तरह परस्पर सापेक्ष ही उत्पादादि सत् हो सकते हैं तथा वस्तु में भी इनकी परस्पर सापेक्ष सत्ता है।
१. द्रव्य से उत्पाद और व्यय का भिन्नाभिन्नत्व—द्रव्य से व्यय और उत्पाद सर्वथा अभिन्न नहीं है। यदि अभिन्न माना जाय तो ध्रौव्य का लोप हो जायेगा। कथंचित् व्यय और उत्पाद के समय भी द्रव्य स्थिर रहता है अत: दोनों में भेद है और द्रव्यजाति का परित्याग दोनों नहीं करते, उसी द्रव्य के ये होते हैं, अत: अभेद है। यदि सर्वथा भेद होता तो द्रव्य को छोड़कर उत्पाद और व्यय पृथक््â मिलते और सर्वथा अभेद पक्ष में एक लक्षण होने से एक का अभाव होने पर शेष के अभाव का भी प्रसंग आता।
२. तत्त्व कथंचित् तद्रूप और कथंचित् अतद्रूप है—आचार्य श्री समन्तभद्र ने सुविधि जिन की स्तुति में कहा है कि हे सुविधि जिन! आपका वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप (सदू्रप) है और कथंचित् तद्रूप नहीं (अतद्रूप) है; क्योंकि स्वरूप—पररूप की अपेक्षा उसके द्वारा वैसी ही सत् असत् रूप की प्रतीति होती है। स्वरूपादि चतुष्टय रूप विधि और परूपादि चतुष्टय रूप निषेध में अत्यन्त (सर्वथा) भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है; क्योंकि सर्वथा भिन्नता या अभिन्नता मानने पर शून्य दोष आता है।
प्रत्येक तत्त्व स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा से सत् है और परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा से असत् है। जिस प्रकार तत्त्व स्वरूप आदि की अपेक्षा सत् है, उसी प्रकार पर रूप आदि की अपेक्षा से भी सत् हो तो चेतन और अचेतन में कोई भेद ही नहीं रहेगा। यदि तत्त्व परद्रव्य आदि की अपेक्षा की तरह स्वद्रव्य आदि की अपेक्षा से भी असत् हो तो सब तत्त्व शून्य हो जायेंगे।
पदार्थ को कथंचित् सदसदात्मक सिद्ध करने में अन्य युक्तियाँ भी दी जा सकती है। पदार्थ कथंचित् सदसदात्मक हैं; क्योंकि सब पदार्थ सब पदार्थों के कार्य को नहीं वâर सकते।
शीत से रक्षा करना, शरीर का आच्छादन करना आदि पट का कार्य है और कूप से पानी निकालना, पानी भरना आदि घट का कार्य है। पट का जो कार्य है, उसको घट नहीं कर सकता है; क्योंकि घट घटरूप से सत् है, पटरूप से नहीं। यदि घट पटरूप से भी सत् होता हो तो उसे पट का काम करना चाहिए था। यही बात सब पदार्थों के विषय में है। सब पदार्थ अपना—अपना कार्य करते हैं, दूसरों का नहीं। इससे सिद्ध होता है कि सब पदार्थ स्वरूप की अपेक्षा से सत् हैं और पररूप की अपेक्षा से असत् हैं। यदि स्वरूप की अपेक्षा भी असत् होते तो जिस प्रकार वे दूसरों का कार्य नहीं करते, उसी प्रकार अपना भी कार्य नहीं करते, किन्तु देखा यही जाता है कि प्रत्येक पदार्थ अपना ही कार्य करता है और कोई भी पदार्थ दूसरे पदार्थ का कार्य कभी नहीं करता। इससे सिद्ध होता है कि पदार्थ कथंचित् सत् और कथंचित् असत् है।
शंका—एक साथ एक वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व सम्भव नहीं है; क्योंकि वे विधि और प्रतिषेध रूप हैं। जो विधि और प्रतिषेध रूप होते हैं, वे एक जगह वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते, जैसे—शीतता और उष्णता, विधि—प्रतिषेध रूप अस्तित्व और नास्तित्व है। इस कारण वे एक जगह वस्तु में एक साथ नहीं रह सकते।
समाधान—आपका यह कथन युक्तियुक्त नहीं है; क्योंकि एक जगह एक साथ रहने वाले अभिधेयपने और अनभिधेयपने के साथ आपका हेतु व्यभिचारी है। किसी एक वस्तु के अपने अभिधायक शब्द की अपेक्षा अभिधेयपना और अन्य वस्तु के अभिधायक शब्द की अपेक्षा अनभिधेयपना दोनों एक साथ स्पष्टतया पाए जाते हैं इसलिए वह एक जगह अभिधेयपने और अनभिधेयपने की एक साथ सम्भवता को साधता है, इस तरह जब यह स्वीकार किया जाता है तो एक स्वरूपादि की अपेक्षा से अस्तित्व पररूपादि की अपेक्षा से नास्तित्व, जो कि निर्बाधरूप से अनुभव में आ रहे हैं, एक जगह वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व की एक साथ सम्भवता को क्यों नहीं साधेंगे ? क्योंकि विधि—प्रतिषेधरूपपना समान है और इसलिए जिनकी एक जगह एक साथ कथंचित् उपलब्धि होती है, उनमें विरोध नहीं आता है। हाँ, यदि जिस रूप से अस्तित्व माना जाता है, उसी रूप से नास्तित्व कहा जाता तो उन सर्वथा एकान्तरूप अस्तित्व नास्तित्व धर्मों के ही एक साथ एक जगह रहने में विरोध होता है—कथंचित् में नहीं।
अनादि अनन्त द्रव्य में अपनी—अपनी पर्यायें प्रतिक्षण उत्पन्न होती रहती है और विनशती रहती हैं, जैसे जल में लहरें उत्पन्न होती रहती हैं और विनशती रहती हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य और कालद्रव्य इन चारों द्रव्यों में अर्थपर्याय ही होती है किन्तु इनसे भिन्न जीव और पुद्गल इन दोनों द्रव्यों में व्यंजन पर्यायें भी होती है।
जीव परिणाम युक्त है; क्योंकि उसका स्वर्ग, नरक आदि गतियों में नि:सन्देह गमन पाया जाता है। इसी प्रकार पाषाण, मिट्टी आदि स्थूल पर्यायों के परिणमन देखे जाने से पुद्गल को परिणामी जानना चाहिए। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश द्रव्य, कालद्रव्य ये चारों द्रव्य व्यंजन पर्याय के अभाव से यद्यपि अपरिणामी कहलाते हैं तथापि अर्थपर्याय की अपेक्षा ये द्रव्य परिणामी हैं; क्योंकि अर्थपर्याय सभी द्रव्यों में होती है।
पदार्थ में रहने वाले प्रदेशत्व गुण के अतिरिक्त अन्य गुणों में प्रतिसमय जो सूक्ष्म परिणमन होता है, उसे अर्थपर्याय कहते हैं। यह परिवर्तन अत्यन्त सूक्ष्म होता है एवं हमारी दृष्टि में नहीं आता है।
पदार्थ के आकार में जो परिणमन होता है, उसे व्यंजन पर्याय कहते हैं। चूूंकि किसी भी पदार्थ का आकार उसमें रहने वाले प्रदेशत्व गुण के कारण होता है; क्योंकि प्रदेशत्व गुण वह है, जिसके कारण वस्तु किसी न किसी आकार में ही रहे। अत: हम कह सकते हैं कि प्रदेशत्व गुण के कार्य (परिवर्तन) को व्यंजन पर्याय कहते हैं।
१. वस्तु का समत्वभाव—आचार्य श्री हेमचन्द्र ने कहा है—‘‘दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त अर्थात् समस्त पदार्थ समान स्वभाव के धारक है; क्योंकि सब पदार्थ स्याद्वाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते हैं, तथापि उनमें दीपक आदि कितने ही पदार्थ सर्वथा अनित्य है और आकाश आदि कितने ही पदार्थ सर्वथा नित्य है। इस प्रकार आपकी आज्ञा से द्वेष रखने वालों के प्रलाप है।
वैशेषिक ने कहा है कि आकाशादि कुछ पदार्थ नित्य ही है और प्रदीप आदि पदार्थ अनित्य ही हैं, उनका खण्डन करने के लिए आचार्य ने कहा है कि सब पदार्थ समान स्वभाव के धारक हैं; क्योंकि सभी पदार्थ द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से नित्य हैं और पर्यायर्थिक नय की अपेक्षा अनित्य हैं।
इसी प्रकार उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य (स्थिरता) स्वरूप होने से आकाश भी नित्य और अनित्य इन दोनों ही धर्मों का धारक है। आकाश अवकाश को देने वाला है। उसमें रहने वाले जीव तथा पुद्गल किसी दूसरे की प्रेरणा से अथवा अपने स्वभाव से आकाश के प्रदेश से दूसरे आकाश के प्रदेश में गमन करते हैं, तब उस आकाश का उनमें रहने वाले जीव और पुद्गलों के साथ एक प्रदेश में तो विभाग होता है और दूसरे प्रदेश में संयोग होता है। संयोग तथा विभाग ये दोनों परस्पर विरोध रखने वाले धर्म हैं अर्थात् जहाँ संयोग रहता है, वहाँ विभाग नहीं रह सकता है। इसलिए जब संयोग और विभाग में भेद हुआ अर्थात् संयोग जुदा और विभाग जुदा रहा तो धर्मी जो आकाश है, उसके भी अवश्य ही भेद हुए। जैसे घट और पट में यही भेद है कि घट तो जल लाने आदि रूप धर्मों का धारण करता है और पट शीत से बचाने आदि रूप धर्मों को धारण करता है। यही इन दोनों भेद का कारण है। घट तो मिट्टी के पिण्ड आदि रूप कारणों से उत्पन्न होता है और पट तन्तु आदि कारणों से उत्पन्न होता है। जब धर्मों के भेद से धर्मी में भेद हुआ तो वह आकाश पूर्व पदार्थ का जो संयोग था उस संयोग से विनाश रूप परिणाम को धारण करने से नष्ट हुआ और दूसरे प्रदेश में जो पुद्गल का संयोग हुआ, इस कारण उस संयोग के उत्पाद (उत्पत्ति) नामक परिणाम को अनुभवन (धारण) करने से वह आकाश उत्पन्न हुआ और आकाश द्रव्य उन दोनों विनाश और उत्पाद रूप अवस्थाओं में द्रव्य रूप से अनुगत चला आ रहा है अर्थात् विद्यमान है, उसका नाश नहीं हुआ है, इसलिए उत्पाद और व्यय इन दोनों का एक आकाश ही अधिकरण अर्थात् रहने का स्थान है। इस प्रकार आकाश में नित्य तथा अनित्य ये दोनों धर्म सिद्ध हुए।
२. पर्याय की नित्यानित्यता—द्रव्य पर्याय से तन्मय रहता है अत: जब पर्याय को गौणकर द्रव्य को प्रधान बनाया जाता है तब अनित्य तत्त्व नित्यत्व को प्राप्त होता है और जब द्रव्य को गौणकर पर्याय को प्रधानता दी जाती है तब नित्य तत्त्व अनित्यत्व को प्राप्त होता है।
३. पदार्थ सामान्य विशेषात्मक है—आचार्य श्री मणिक्यनन्दि ने परीक्षामुख में कहा है—सामान्य विशेषात्मा तदर्थो विषय अर्थात् सामान्य और विशेष धर्मों से युक्त ऐसा जो पदार्थ है, वही प्रमाण का विषय है अर्थात् प्रमाण के द्वारा जानने योग्य पदार्थ है। पदार्थों में अनुवृत्त-व्यावृत्त प्रत्यय होते हैं एवं पूर्व आकार का त्याग और उत्तर आकार की प्राप्ति एवं अन्वयी द्रव्य रूप से ध्रुवत्व देखा जाता है। इस तरह की परिणाम स्वरूप अर्थक्रिया देखी जाती है। इस प्रकार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से होने वाली परिणाम स्वरूप अर्थक्रिया का सद्भाव पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करता है। पदार्थों में सादृश्य को बतलाने वाला अनुवृत्त प्रत्यय है, जैसे—यह गौ है, यह भी गौ है, इत्यादि अनेक पदार्थों में समानता का ज्ञान होने से तथा पृथकपना बतलाने वाला व्यावृत्त प्रत्यय अर्थात् यह गौ श्याम है, धवल नहीं है, इत्यादि व्यावृत्त प्रतिभास होने से पदार्थों में सामान्य और विशेषात्मकमकपना सिद्ध होता है, जो जिस आकार से प्रतिभासित होता है, वह उसी रूप देखा जाता है, जैसे नीलाकार से प्रतिभासित होने के कारण नील स्वभाव वाला पदार्थ है, ऐसा माना जाता है। सामान्य आकार का उल्लेखी अनुवृत्त प्रत्यय और विशेष आकार का उल्लेखी व्यावृत्त प्रत्यय सम्पूर्ण बाह्य अचेतन पदार्थ एवं आभ्यन्तर चेतन पदार्थों में प्रतीत होता ही है, अत: वे चेतन—अचेतन पदार्थ सामान्य विशेषात्मक सिद्ध होते हैं। पदार्थों को सामान्य विशेषात्मक सिद्ध करने के लिए अकेला अनुवृत्त व्यावृत्त प्रत्यय ही नहीं है, अपितु पूर्व आकार का त्याग रूप व्यय, उत्तर आकार की प्राप्ति रूप उत्पाद और दोनों अवस्थाओं में अन्वय रूप से रहने वाला ध्रौव्य पदार्थों में पाया जाता है, इस तरह की परिणामस्वरूप अर्थक्रिया का सद्भाव भी उनमें पाया जाता है, इन हेतुओं से पदार्थ की सामान्य—विशेषात्मकता सिद्ध होती है।
४. एक ही द्रव्य अनेक वैâसे बनता है—आचार्य श्री सिद्धसेन ने कहा है—
एगदवियम्मि जे अत्थपज्जया वयणपज्जया वा वि।
तीयाणागयभूया तावइयं तं हवइ दव्वं।।
सन्मति प्रकरण—३१
अर्थात् एक द्रव्य के भीतर जो अतीत, वर्तमान और अनागत अर्थपर्याय तथा शब्द अर्थात् व्यंजनपर्याय होते हैं, वह द्रव्य उतना होता है।
कोई भी परमाणु जीव आदि मूल द्रव्य वस्तुत: अखण्ड होने से व्यक्ति के रूप में भले ही एक हो, परन्तु उसमें तीनों कालों के शब्द पर्याय और अर्थपर्याय अनन्त होते हैं। इसलिए वह एक द्रव्य भी प्रतिपर्याय अर्थात् पर्यायभेद से भिन्न—भिन्न होते हुए भी समान होने से और भिन्न—भिन्न माना जाने से पर्यायों की संख्या के अनुसार अनन्त बनता है अर्थात् अमुक एक पर्याय सहित उस द्रव्य की अपेक्षा दूसरे विवक्षित पर्याय सहित वह द्रव्य उसकी अपेक्षा तीसरे विवक्षित पर्याय सहित वह द्रव्य भिन्न है। इस तरह विशेष्यभूत द्रव्य के एक होने पर भी विशेषणभूत पर्यायों के भेद के कारण उसे भिन्न—भिन्न मानने पर वह जितने पर्याय होते हैं, उतनी संख्या वाला बनता है।
पञ्चाध्यायीकार के अनुसार यद्यपि सत् एक है, तथापि वह सर्वथा एक नहीं है, किन्तु वह अनेक भी है; क्योंकि प्रमाणानुसार वह सप्रतिपक्ष है। दूसरे सत् के अनेक होने में यह युक्ति है कि द्रव्यादि की अपेक्षा अखण्डित होने पर भी सत् इसलिए अनेक है, क्योंकि व्यतिरेक के बिना अन्वय पक्ष अपने पक्ष की रक्षा नहीं कर सकता। गुण का लक्षण भिन्न है और पर्याय का भिन्न। अपने—अपने लक्षण के अनुसार गुण भी है और पर्याय भी है। अत: गुण और पर्याय नियम से अनेक है, तो द्रव्य की अपेक्षा सत् अनेक वैâसे नहीं होगा। जो सत् एक देश में है, वह उसी देश में है, दूसरे देशों में नहीं है। इसी प्रकार दूसरे देश में जो सत् है, वह उसी देश में है, अन्य देश में नहीं है। अत: ऐसा कौन पुरुष है जो क्षेत्र की अपेक्षा सत् को अनेक नहीं मानेगा। जो सत् एक काल में है, वह उसी काल में है, उससे भिन्न दूसरे काल में नहीं। इसी प्रकार जो सत् अन्य काल में है, वह उसी काल में है, उससे भिन्न काल में नहीं है। अत: काल की अपेक्षा भी सत् नियम से अनेक है। सत्मात्र होने से जो एक भाव है, वह अन्य भाव रूप नहीं हो सकता है। इस्ाी प्रकार जो अन्य भाव है, वह उसी रूप ही है, अन्य रूप नहीं हो सकता, अत: भाव की अपेक्षा सत् नियम से अनेक है।
सभी पदार्थ विधि और निषेध रूप भाव से युक्त है। यदि इन दोनों में से किसी एक का लोप माना जाता है तो उससे भिन्न दूसरे भाव को भी लुप्त होने की आपत्ति आती है। विधि और निषेध में से किसी एक के नहीं मानने पर शेष दूसरे के अभाव का प्रसंग आता है। यदि वस्तु केवल अन्वय रूप है ऐसी प्रतीति मानी जाय तो वह व्यतिरेक के अभाव में अन्वय की साधक वैâसे हो सकती है ?
सत् द्वैत रूप होकर भी कथंचित् अद्वैत रूप ही है, इसलिए जब विधि की विवक्षा होती है, तब वह विधिमात्र प्राप्त होता है और जब निषेध की विवक्षा होती है, तब वह निषेधमात्र प्राप्त होता है। ऐसा नहीं है कि कुछ भाग विधिरूप है और उससे बचा हुआ कुछ भाग निषेध रूप है; क्योंकि ऐसे सत् की सिद्धि में साधन का मिलना तो दूर रहा, उसमें द्वैत की कल्पना भी नहीं की जा सकती है; क्योंकि वह अशेष विशेषों से रहित माना गया है।
१. वस्तु में मुख्य—गौण की विवक्षा—आचार्य श्री समन्तभद्र ने कहा है—
विवक्षितो मुख्य इतीष्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते।
तथा ऽरिमित्रा ऽनुभयादिशक्ति द्वयाऽवधे: कार्यकरं हि वस्तु।।
स्वयम्भूस्तोत्र ११/३
अर्थात् हे श्रेयांस जिन ! आपके मत में जो विवक्षित होता है—कहने के लिए इष्ट होता है वह मुख्य (प्रधान कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता है, जिसका कहना इष्ट नहीं होता, वह गौण कहलाता है और जो अविवक्षित होता है वह निरात्मक (अभावरूप) नहीं होता—उसकी सत्ता अवश्य होती है। इस प्रकार मुख्यगौण की व्यवस्था से एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और अनुभयादि शक्तियों को लिए रहती है—एक ही व्यक्ति एक का मित्र है (उपकार करने से), दूसरे का शत्रु है (अपकार करने से), तीसरे का शत्रु—मित्र दोनों है (उपकार—अपकार करने से) और चौथे का न शत्रु है और न मित्र (उसकी ओर उपेक्षा धारण करने से), और इस तरह उसमें शत्रु, मित्र दोनों के गुण युगपत् रहते हैं। यथार्थ में वस्तु दो अवधियों (मर्यादाओं) से कार्यकारी होती है—विधि निषेध रूप, सामान्य—विशेष रूप अथवा द्रव्य पर्याय रूप दो—दो सापेक्ष धर्मों का आश्रय लेकर ही अर्थक्रिया करने में प्रवृत्त होती है और अपने यथार्थ स्वरूप की प्रतिष्ठापक बनती है।
जब मिट्टी का पिण्ड ‘रूपी द्रव्य’ के रूप में अर्पित (प्रधान) विवक्षित होता है, तब वह नित्य है और कभी भी वह रूपित्व या द्रव्यत्व को नहीं छोड़ता। जब वही अनेकधर्मात्मक पदार्थ रूपित्व और द्रव्यत्व को गौणकर केवल ‘मृत्पिण्ड’ रूप पर्याय से विवक्षित होता है तो वह अनित्य है; क्योंकि पिण्ड पर्याय अनित्य है। यदि केवल द्रव्यार्थिक नय की विषयभूत वस्तु ही मानी जाय तो व्यवहार का लोप हो जायेगा; क्योंकि पर्याय से शून्य केवल द्रव्यरूप वस्तु नहीं है और न केवल पर्यायार्थिक नय की विषयभूत ही वस्तु है, वैसी वस्तु से लोकयात्रा नहीं चल सकती; क्योंकि द्रव्य से शून्य पर्याय नहीं होती। अत: वस्तु को उभयात्मक मानना ही उचित है।
१. जीव चेतन भी है, अचेतन भी है—भट्ट अकलंकदेव ने कहा है—
प्रमेयत्वादिभिर्धर्मैरचिदात्मा चिदात्मक:।
ज्ञानदर्शनतरत्तस्याच्चेतनचेतनात्मक:।।३।।
प्रमेय आदि धर्मों की अपेक्षा आत्मा अचित् है और ज्ञान, दर्शन की अपेक्षा आत्मा चिदात्मक है, अतएव आत्मा चेतनात्मक और अचेतनात्मक भी है।
जीव अनादि काल से कर्मों से बँधा हुआ है। उन कर्मों ने जीव के चेतनगुण का घात कर रखा है, कहा भी है—
का वि अउव्वा दीसदि पुग्गलदव्वस्स एरिसी सत्ती।
केवल—णाण—सहावो विणासिदो जाइ जीवस्स।।
(स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा २११)
पुद्गल द्रव्य की कोई ऐसी अपूर्वशक्ति है, जिससे जीव का केवलज्ञान स्वभाव भी नष्ट हो जाता है।
इस प्रकार जितने अंशों में चेतनगुण का घात हो रहा है, उतने अंशों में अचेतनभाव है। जीव के पाँच स्वतत्त्व भावों में से एक औदयिक भाव है, जिसके इक्कीस भेदों में से एक अज्ञान भी भेद है। कहा भी है—
‘औपशमिकक्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिक—पारिणामिकौ च।।१।।
गति कषाय िंलगमिथ्यादर्शनाऽज्ञानाऽसंयताऽसिद्धलेश्याश्चतु श्चतुश्चतुस्र्येकैकैकैषडभेदा:।।६।।
तत्त्वार्थसूत्र २/६
इस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र में भी अज्ञान (अचेतन) को भी जीव का स्वतत्त्व कहा गया है; क्योंकि जीव का यह अचेतन भाव द्रव्यकर्मों के सम्बन्ध से होता है और पौद्गालिक कर्म जीव से भिन्न द्रव्य है, इसलिये असद्भूत व्यवहारनय की अपेक्षा से जीव में अचेतन भाव है।
आलापपद्धति में कहा है—
जीवस्याप्यसद्भूतव्यवहारेणाचेतनस्वभाव:।।१६२।।
विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय की अपेक्षा जीव का भी अचेतन स्वभाव है।
२. आत्मा में सत, असत् आदि अनेक विकल्पों का समूह है—आत्मा को जो ज्ञायक स्वभाव है, वह स्वत: स्वभाव से समुत्पन्न है; क्योंकि पदार्थ का स्वभाव परनिरपेक्ष होता है, मात्र उसका विभाव परसापेक्ष रहता है, जैसे जीव का ज्ञानस्वभाव किसी अन्य पदार्थों के निमित्त से उत्पन्न नहीं है, परन्तु उसका रागादिक विभाव चारित्रमोह कर्म के उदय से समुत्पन्न है। इस प्रकार सहज स्वभाव से समुत्पन्न जीव का ज्ञायक स्वभाव विधि और निषेध रूप है—सामान्य विशेष की अपेक्षा नित्यानित्यात्मक, एकानेक तथा स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा तद्तद्रूप है। जब सहज स्वभाव्ा ही इस प्रकार का है, तब उसमें जो सत् , असत् , एक, अनेक, नित्य, अनित्य, तथा तद् , अतद् आदि के विकल्प उछल रहे हैं, उसमें आश्चर्य ही किस बात का है ?
३. आत्मा एक और अनेक है—व्यवहारनय से अनन्त ज्ञेयों को जानने की अपेक्षा जो केवलज्ञान अनन्तरूपता को प्राप्त हो रहा था, निश्चयनय से वही केवलज्ञान एक आत्मा को जानने के कारण एकरूपता को प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार व्यवहारनय से जो अनन्त वीर्य अनन्त गुणों का धारक होने से अनन्तरूपता को प्राप्त हो रहा था, वही एक अखण्ड आत्मा के आश्रित होने से एकरूपता को प्राप्त हो जाता है, इस प्रकार व्यवहारनय से यह आत्मा यद्यपि अनेक रूप है, तथापि निश्चयनय से एक अखण्ड द्रव्य है। हे भगवान् ! आपने अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन का लक्ष्य इसी एक अखण्ड आत्मा को बनाया है।
४. एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक है—पञ्चास्तिकाय में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है—
ण वियघदि णाणादो णाणी णाणाणि होंति णेगाणि।
तम्हा दु विस्स रूवं भणियं दवियं त्ति णाणीिंह।।४३।।
ज्ञान से ज्ञानी का भेद नहीं किया जाता, तथापि ज्ञान अनेक हैं, इसलिए तो ज्ञानियों ने द्रव्य को विश्वरूप कहा है। ज्ञानी, ज्ञान से पृथक््â नहीं है; क्योंकि दोनों एक अस्तित्व से रचित होने से दोनों को एकद्रव्यपना है, दोनों के अभिन्न प्रदेश होने से दोनों को एक क्षेत्रपना है, दोनों एक समय में रचे जाने से दोनों को एक कालपना है, दोनों का एक स्वभाव होने से दोनों का एक भावपना है, किन्तु ऐसा कहा जाने पर भी एक आत्मा में अभिनिबोधिक आदि अनेक ज्ञान विरोध नहीं पाते; क्योंकि द्रव्य विश्वरूप है। द्रव्य वास्तव में सहवर्ती और क्रमवर्ती ऐसे अनन्त गुणों तथा पर्यायों का आधार होने के कारण अनन्त रूपवाला होने से, एक होने पर भी विश्वरूप कहा जाता है।
५. जीव अनादि अनन्त, सादि सान्त और सादि अनन्त हैं—जीव वास्तव में सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से अनादि, अनन्त हैं। वे ही औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावों से सादि सान्त हैं। वे ही क्षायिक भाव से सादि—अनन्त हैं।
‘क्षायिक भाव आदि होने से वह सान्त होगा’—ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है। (कारण इस प्रकार है—) वह वास्तव में उपाधि की निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ, सिद्धभाव की भाँति जीव का सद्भाव ही है अर्थात् कर्मोपाधि के क्षयरूप से प्रवर्तता है, इसलिए क्षायिकभाव जीव का सद्भाव ही है और सद्भाव से तो जीव अनन्त ही स्वीकार किये जाते हैं। (इसलिए क्षायिक भाव से जीव अनन्त अर्थात् विनाशरहित ही हैं।)
पुनश्च, ‘अनादि—अनन्त सहज चैतन्य लक्षण एक भाव वाले उन्हें सादि सांत और सादि—अनंत भावान्तर घटित नहीं होते अर्थात् जीवों को एक पारिणामिक भाव के अतिरिक्त अन्य भाव घटित नहीं होते’ ऐसा कहना योग्य नहीं है; (क्योंकि) वे वास्तव में अनादि कर्म से मलिन वर्तते हुए कीचड़ से संपृक्त जल की भाँति तदाकार रूप परिणित होने के कारण, पाँच प्रधान गुणों से प्रधानता वाले ही अनुभव में आते हैं।
६. जीव कर्ता है, नहीं भी है—किसी एक नय से आत्मा (पुण्य—पापादि परिणामों का) कर्ता है और किसी एक नय से (निश्चय नय से) आत्मा इन परिणामों का कर्ता नहीं है, इस प्रकार जो जानता है, वह ज्ञानी होता है। ज्ञानी जीव अपने अनेक प्रकार के होने वाले परिणामों को जानता हुआ भी निश्चय से परद्रव्य की अवस्थारूप न परिणमन करता है, न उसको ग्रहण करता है, न उस रूप उत्पन्न ही होता है (इसलिए निश्चय से उसके साथ कर्ता कर्मभाव नहीं है)। व्यवहार नय की अपेक्षा से आत्मा अनेक प्रकार के पुद्गल कर्मों का है और उन्हीं अनेक प्रकार के कर्मों को भोगता भी है।
जैसे देखने में आता है कि घड़े का उपादान कारण मिट्टी का पिण्ड है, उसी का घड़ा बनता है, तथापि घड़े को बनाने वाला कुम्हार है और जल धारण करना, उसका मूल्य लेना आदि फल का भोक्ता भी वही कुम्हार है, यह अनादिकाल से लोगों का व्यवहार चला आया है। वैसे ही उपादान रूप से कर्मों का पैदा करने वाला भी कार्मणवर्गणा योग्य पुद्गल द्रव्य है, जो अनेक प्रकार के मूल उत्तर प्रकृति भेद लिए हुए नाना प्रकार ज्ञानावरणादि पुद्गलकर्म हैं, उसका करने वाला व्यवहानय से आत्मा है, ऐसा समझा जाता है।
७. जीव के अध्यवसानादि भाव निश्चयनय से नहीं है, व्यवहारनय से है—आत्मा को नहीं जानने वाले मूढ़ पुरुष परद्रव्य को ही आत्मा मानते हैं, उनमें से कितने ही अध्यवसान (रागादि) को, कुछ कर्म को ही जीव कहते हैं तथा कुछ अध्यवसानों में भी तीव्रता, मन्दता को लिए हुए जो अनुभाग होता है,उसे जीव मानते हैं। अन्य कोई नोकर्म को ही जीव मानते हैं। कोई कर्म के उदय को जीव मानते हैं। कोई कर्म के फल को जो तीव्र, मन्द रूप गुणों से भेद को प्राप्त होता है, वह जीव है ऐसा इष्ट करते हैं। कोई जीव और कर्म दोनों मिले हुए को जीव मानते हैं। अन्य कोई लोग कर्मों के परस्पर संयोग से पैदा हुआ जीव को मानते हैं। इस प्रकार और भी आत्मा के विषय में अज्ञानी लोग भिन्न—भिन्न कल्पनायें करते हैं, वे वस्तुस्थिति को जानने वाले नहीं है। उपर्युक्त सभी अवस्थायें पौद्गालिक द्रव्य कर्म के सम्बन्ध से होने वाली हैं, इसलिए वे सब जीव नहीं कही जा सकती।
ये रागादि अध्यवसानमयी भाव जीव है, ऐसा जिनेन्द्र भगवान् ने जो उपदेश दिया है, वह व्यवहार नय का मत है।
८. आत्मा अनेकान्तमय है, फिर भी उसका ज्ञानमात्र से कथन क्यों ?—लक्षण की प्रसिद्धि के द्वारा लक्ष्य की प्रसिद्धि करने के लिए आत्मा का ज्ञानमात्ररूप से व्यपदेश किया जाता है। आत्मा का ज्ञान लक्षण है; क्योंकि ज्ञान आत्मा का असाधारण गुण है इसलिए ज्ञान की प्रसिद्धि के द्वारा उसके लक्ष्य—आत्मा की प्रसिद्धि होती है।
९. वस्तु एक, रूप अनेक—दृष्टान्त—एक सुन्दर स्त्री का शव किसी वन में पड़ा हुआ था। उसे देखकर एक कामी व्यक्ति के मन में उसके प्रति राग उत्पन्न हुआ। उसी शव को जब एक साधु ने देखा तो संसार और शरीर के स्वरूप का विचार कर उसकी वैराग्य भावना बढ़ी। उस स्त्री के पति ने जब उस शव को देखा तो उसके मन में उसके प्रति और अधिक मोह उत्पन्न हुआ। एक कुत्ता जब उधर से गुजरा तो उस शव को उसने अपना भक्ष्य समझा। एक चोर ने जब उसे देखा तो उसकी दृष्टि उसके पहने हुए आभूषणों पर गई। उसने सोचा, क्या ही अच्छा होता, यदि ये आभूषण मुझे प्राप्त हो जाते। चिकित्सा की शिक्षा ग्रहण करने वाले एक छात्र ने उसे देखा तो उसके मन में यह कल्पना हुई कि यह शव मुझे प्राप्त हो जाता तो मैं इसके अंगों को चीड़—फाड़ कर इसकी शारीरिक रचना का अध्ययन करता। एक पुलिस वाला उधर से गुजरा तो उसके मन में यह इच्छा हुई कि इस स्त्री की मौत किन परिस्थितियों में हुई, इसकी जाँच करनी चाहिए। कहीं इसकी किसी ने हत्या तो नहीं कर दी। एक वस्त्र को बुनने वाले ने जब उस स्त्री को देखा तो सोचा, इसने कितनी सुन्दर साड़ी पहन रखी है। इसका बनाने वाला कितना दक्ष रहा होगा, जिसने इतनी सुन्दर साड़ी और महीन साड़ी का निर्माण किया। इस प्रकार एक ही स्त्री के शव के विषय में भिन्न—भिन्न पहलुओं की अपेक्षा विचार करने पर विभिन्नता रही।
जिसके जीवन में अनेकान्त दृष्टि होती है, उसके जीवन में समता का भाव आ जाता है। महाकवि कालिदास ने कहा है—
कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दु:खमेकान्ततो वा।
नीचैर्गच्छत्युपरि च दशा चक्रनेमिक्रमेण।।
अर्थात् (संसारावस्था में) एकान्त रूप से किसे सुख की प्राप्ति हुई अथवा ऐकान्तिक रूप से किसे दु:ख की प्राप्ति हुई है ? सुख और दु:ख की अवस्था चक्र के आरे के समान नीचे—ऊपर होती रहती है।
तात्पर्य यह कि सुख और दु:ख दोनों सापेक्ष हैं। जो इनकी सापेक्षता को समझ लेता है, वह सुख की स्थिति आने पर उसमें अत्यधिक मगन नहीं होता है और दु:ख की स्थिति में अत्यधिक घबड़ाता नहीं है। उसके जीवन में समता आ जाती है।
जैन परम्परा का साम्य दृष्टि पर इतना अधिक भार है कि उसने साम्य दृष्टि को ही ब्राह्मण परम्परा में लब्धप्रतिष्ठ ब्रह्म कहकर साम्यदृष्टि पोषक सारे आचार—विचार को ‘ब्रह्मचर्य’ बम्भचेराई’ कहा है, जैसा कि बौद्ध परम्परा ने मैत्री आदि भावनाओं को ब्रह्मविहार कहा है। इतना ही नहीं पर धम्मपद और शान्तिपर्व की तरह जैनग्रंथ में भी ‘समत्व धारण करने वाले श्रमण को ही ब्राह्मण कहकर श्रमण और ब्राह्मण के बीच का अन्तर मिटाने का प्रयत्न किया है। विचार में साम्यदृष्टि की भावना पर जो भार दिया गया है, उसी में से अनेकान्तदृष्टि या विभज्यवाद का जन्म हुआ है। केवल अपनी दृष्टि या विचारसरणी को ही पूर्व अन्तिम सत्य मानकर उस पर आग्रह रखना साम्यदृष्टि के लिए घातक है। इसलिए कहा गया है कि दूसरों की दृष्टि का भी उतना ही आदर करना, जितना अपनी दृष्टि का, यही साम्यदृष्टि अनेकान्तवाद की भूमिका है। इस भूमिका में से ही भाषा प्रधान स्याद्वाद और विचार प्रधान नयवाद का क्रमश: विकास हुआ है।
१. अनेकान्तवादी : सत्य का प्रयोक्ता—अनेकान्तवादी सत्य का प्रयोक्ता होता है। आधुनिक युग में इसके सबसे बड़े दृष्टान्त महात्मा गाँधी हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य का प्रयोग कहा है। उनका कहना था—‘‘अपने प्रयोगों के सम्बन्ध में मैं किसी तरह की सम्पूर्णता का दावा नहीं करता। जैसे विज्ञान—शास्त्री अपने प्रयोग अत्यन्त नियम, विचार—सहित और सूक्ष्मता पूर्वक करता है, फिर भी उससे उत्पन्न हुए परिणामों को वह अन्तिम नहीं कहता, अथवा यह नहीं कहता कि यही सच्चे परिणाम हैं, इस सम्बन्ध में यह संशय नहीं तटस्थ रहता है, वैसे ही अपने प्रयोगों के विषय में मेरा भी मानना है। मैंने खूब आत्म—निरीक्षण किया है, प्रत्येक भाव को जाँचा है, उसका विश्लेषण किया है, पर उससे पैदा हुए परिणाम सबके लिए अन्तिम ही हैं, अथवा यही सही है, ऐसा दावा मैं कभी करना नहीं चाहता। हाँ, एक दावा जरूर करता हूँ कि मेरी नजरों में ये सही हैं और इस समय तो आखिरी से लगते हैं। यदि ऐसा न लगे तो मुझे इनकी बुनियाद पर कोई इमारत खड़ी नहीं करनी चाहिए। मैं तो हर पद पर जिन वस्तुओं को देखता हूँ, उनके त्याज्य और ग्राह्य दो हिस्से कर लेता हूँ और ग्राह्य के अनुसार अपना आचरण बनाता हूँ और इस प्रकार बनाया हुआ आचरण मुझे अर्थात् मेरी बुद्धि को और आत्मा को जब तक सन्तोष दे, तब तक मुझे उसके शुभ परिणामों के विषय में अटूट विश्वास रखना ही चाहिए।
जब गाँधी जी ‘‘भारत छोड़ो’’ आन्दोलन की योजना बना रहे थे, तब सुप्रसिद्ध अमरीकी पत्रकार श्री लुई फिशर ने उनसे पूछा कि ‘‘आपके इस कार्य से युद्ध में बाधा पड़ेगी और अमेरिकी जनता को आपका यह आन्दोलन पसन्द नहीं आएगा। आश्चर्य नहीं कि लोग आपको मित्रराष्ट्रों का शत्रु समझने लगे। गाँधीजी यह सुनते ही घबरा उठे। उन्होंने कहा—‘‘फिशर, तुम अपने राष्ट्रपति से कहो कि वे मुझे आन्दोलन छेड़ने से रोक दें। मैं तो मुख्यत: समझौतावादी मनुष्य हूँ, क्योंकि मुझे कभी भी यह नहीं लगता कि मैं ठीक राह पर हूँ।’’
चूँकि अनेकान्तवाद से परस्पर विरोधी बातों के बीच सामंजस्य आता है तथा विरोधियों के प्रति भी आदर की बुद्धि होती है, इसलिए गाँधी जी को यह बात अत्यन्त प्रिय थी। उन्होंने लिखा है ‘मेरा अनुभव है कि अपनी दृष्टि से मैं सदा सत्य ही होता हूँ, किन्तु मेरे ईमानदार आलोचक तब भी मुझमें गलती देखते हैं। पहले मैं अपने को ही सही और उन्हें अज्ञानी मान लेता था, किन्तु अब मैं मानता हूँ कि अपनी—अपनी जगह हम दोनों ठीक हैं। कई अन्धों ने हाथी को अलग—अलग टटोल कर उसका जो वर्णन किया था, वह दृष्टान्त अनेकान्तवाद का सबसे अच्छा उदाहरण है। इसी सिद्धान्त ने मुझे यह बतलाया है कि मुसलमान की जाँच मुस्लिम दृष्टिकोण से तथा ईसाई की परीक्षा ईसाई दृष्टिकोण से की जानी चाहिए। पहले मैं मानता था कि मेरे विरोधी अज्ञान में है। आज मैं विरोधियों की दृष्टि से भी देख सकता हूँ। मेरा अनेकान्तवाद सत्य और अिंहसा इन युगल सिद्धान्तों का ही परिणाम है।’’
सत्य के किसी एक पक्ष पर अड़ जाना तथा वाद विवाद में आँखे लाल करके बोलने लगना, ये लक्षण छोटे लोगों के ही होते हैं, जो कदाचित् सत्य की राह पर अभी आए ही नहीं हैं। सत्य के मार्ग पर आया हुआ मनुष्य हठी नहीं होता, बल्कि स्याद्वादी होता है। जब तक विश्व के विचारक और शासक स्याद्वादी भाषा का प्रयोग नहीं सीखते, तब तक न तो संसार के धर्मों में एकता होगी, न विश्व के विचार और मतवादी ही एक हो पायेंगे।
अनेकान्तवाद : सर्वधर्मसमभाव—
अनेकान्तवादी दूसरे धर्मों के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता है। वह सब धर्मों में भिन्न—भिन्न अपेक्षाओं से आंशिक सत्य देखता है। मैक्समूलर ने कहा है—‘‘मेरा मत है कि संसार के महान धर्मों में से प्रत्येक में एक दैवीय तत्त्व विद्यमान है। मैं समझता हूँ कि उनको शैतान की कारस्तानी बताना, जबकि वे सब ईश्वर के बनाए हुए हैं, ईश्वर की निन्दा करना है, और मेरा मत है कि ऐसी कोई जगह नहीं है, जहाँ परमात्मा में विश्वास उस दैवीय स्फुरण के बिना हो गया हो, जो मनुष्य में कार्य कर रही दैवीय आत्मा का प्रभाव है। यदि मैं इससे भिन्न विश्वास करूँ, यदि मैं अपनी गम्भीरतम सहजवृत्ति के विरुद्ध अपने आपको यह मानने के लिए विवश करूं कि केवल ईसाइयों की प्रार्थनायें ही ऐसी हैं, जिन्हें कि परमात्मा समझ सकता है, तो मैं अपने आपको ईसाई नहीं कह सकता। सब धर्म केवल हकलाने (अस्फुट भाषण) जैसे हैं, हमारा अपना धर्म भी उतना ही ऐसा है, जितना कि ब्राह्मणों का धर्म। उन सबका अर्थ समझना होगा; और मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि उनमें चाहे जो भी त्रुटियाँ क्यों न हों, उनका अर्थ समझा ही जायेगा।
जैन दार्शनिकों ने दार्शनिक एकान्तवादों का समन्वय करने का प्रयत्न किया, ताकि सबकी कथंचित् सत्यता का भी भान हो सके। इस दृष्टिकोण से उन्होंने भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, कालवाद, स्वभाववाद, आत्मवाद, पुरुषार्थवाद आदि विभिन्न वादों का स्याद्वाद पद्धति से समन्वय किया है। जैन दर्शन के सभी ग्रंथ इसी स्याद्वाद शैली से गुम्फित हैं।
३. अनेकान्त और प्रेम—प्रेम का अर्थ है व्यक्ति द्वारा अपनेपन का और अपने प्रभावों का परित्याग। प्रेम दूसरे मनुष्य की आँखों से देखना, दूसरे मनुष्य के हृदय से अनुभव करना और दूसरे मनुष्य के मन के अनुसार समझना है। मनुष्य को सदा प्रेमपूर्वक रहना चाहिए और जिन्होंने हमें कष्ट दिया है, उन पर भी निर्दय होकर अत्याचार नहीं करना चाहिए। जब हम प्रेम करते हैं, तब हमें घृणा का अधिकार नहीं होता, भले ही प्रेमपात्र कितना ही पतित क्यों न हो गया हो।
४. अनेकान्तवाद : दूसरे की सम्मतियों का सम्मान—प्रकलिन ने एक बार कहा था—‘‘मैंने यह नियम बना लिया कि दूसरों के विचारों का प्रत्यक्ष प्रतिवाद और अपने विचारों का निश्चित समर्थन नहीं करूंगा। मैंने प्रत्येक ऐसे शब्द और वाक्य का उपयोग छोड़ दिया, जिससे ध्रुव सम्मति टपकती हो, जैसा कि ‘निश्चय से, ‘निस्सन्देह’, इत्यादि और उनके स्थान में, मैं समझता हूँ, या ‘मेरी धारणा है’ कि अमुक बात ऐसी है, या मुझे ऐसा प्रतीत होता है। जब कोई दूसरा मनुष्य कोई ऐसी बात कहता, जिसे मैं समझता कि गलत है, तो मैं अपने को इसका एकदम खण्डन करने और उसके कथन में तत्काल कोई बेहूदगी दिखलाने से रोकता; और उत्तर देते समय मैं आरम्भ में ही कह देता कि विशेष अवस्थाओं या स्थितियों में उसका मत ठीक होगा, परन्तु वर्तमान दशा में मुझे कुछ अन्तर प्रतीत होता या जान पड़ता है, इत्यादि। अपने ढंग से इस परिवर्तन का लाभ मुझे शीघ्र ही दिखाई पड़ा, जिन वार्तालापों में मैं भाग लेता वे अधिक आनन्ददायक होने लगे। जिसे नम्र भाव से मैं अपनी बात कहता, उसे लोग बहुत उत्सुकता से सुनते और प्रतिवाद कम होता, अपने को गलती पर पाने की अवस्था में मुझे पहले की अपेक्षा कम लज्जित होना पड़ता, और जब मेरी बात ठीक होती तो दूसरों को अपनी गलतियाँ छोड़कर मेरे साथ मिल जाने के लिए प्रेरणा करना मेरे लिए सरल होता। अत: अनेकान्तवाद दूसरे की सम्मतियों का सम्मान करना सिखाता है।
कोई समय था, जब छात्रों को प्राय: एक जैसी ही शिक्षा दी जाती थी। आज मनुष्य के सोचने समझने का ढंग बदल गया है। एक ही वातावरण और गुरु के विद्यमान रहते हुए आवश्यक नहीं कि प्रत्येक छात्र की रुचि एक जैसी ही हो। शिक्षा मनोविज्ञान में प्रत्येक छात्र की रुचि को ध्यान में रखते हुए उसे कौन सी शिक्षा दी जाय और वैâसे दी जाय, इस विषय पर ऊहापोह किया जाता है, अर्थात् अनेकान्तिक दृष्टि से दूसरे के दृष्टिकोण समझने और अपना दृष्टिकोण समझाने का ध्यान रखा जाता है। संस्कृति को समझने के लिए शिक्षकों द्वारा छात्रों को समझने की आवश्यकता है उन्हें छात्रों के पथप्रदर्शकों के रूप में अपने को समझने की आवश्यकता है। एतदर्थ शिक्षकों को अपने शिक्षण में उन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग करने के लिए तैयार रहना चाहिए जो सफल शिक्षण और प्रभावशाली अधिगम के लिए अनिवार्य है। शिक्षा मनोविज्ञान में अनेकान्तिक दृष्टि के प्रयोग से अध्यापक अपने स्वभाव, बुद्धि, स्तर, व्यवहार, योग्यता आदि का ज्ञान प्राप्त करता है। यह ज्ञान उसे अपने शिक्षण कार्य में सफल बनाने में योग देता है। इससे वह बालकों की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक आदि विशेषताओं से परिचित हो जाता है। वह इन विशेषताओं को ध्यान में रखकर विभिन्न अवस्थाओं के बालकों के लिए पाठ्य विषयों और क्रियाओं का चुनाव करने में सफलता प्राप्त करता है। इससे बालकों का चरित्र निर्माण होता है। अध्यापक अनेकान्तिक दृष्टि के प्रयोग से प्रत्येक छात्र की आवश्यकताओं के बारे में बहुत कुछ सीख सकता है।
मनोविज्ञान के खोजों ने यह सिद्ध कर दिया है कि बालकों की रुचियों, योग्यताओं तथा क्षमताओं आदि में अन्तर होता है। अत: ऐसा कठिन रुख अपनाने से काम नहीं चलता। शिक्षा का एक मुख्य उद्देश्य बालकों के चरित्र का निर्माण करना, उनके व्यक्तित्व का विकास करना है जो शिक्षक अपने छात्रों की रुचि के अनुसार शिक्षा देते हैं उनके सामने अनुशासन की कठिनाइयाँ बहुत कम आती है। मनोवैज्ञानिक शिक्षा पद्धति की मुख्य विशेषताएँ हैं—विश्वसनीयता, यथार्थता, विशुद्धता, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता। इससे अध्ययन की अनेक विधियों का विकास हुआ है जो इस प्रकार है—
१. (अ) आत्मनिष्ठ विधियाँ—१. आत्मनिरीक्षण विधि, २. गाथा वर्णनविधि
२. (ब) वस्तुनिष्ठ विधियाँ—१. प्रयोगात्मक विधि, २. निरीक्षण विधि, ३. जीवन—इतिहास विधि, ४. उपचारात्मक विधि, ५. विकासात्मक विधि, ६. मनोविश्लेषण विधि, ७. तुलनात्मक विधि, ८. सांख्यिकी विधि, ९. परीक्षण विधि, १०. साक्षात्कार विधि, ११. प्रश्नावली विधि, १२. विभेदात्मक विधि, १३. मनोभौतिकी विधि
३. मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के प्रतिपादन में अनेकान्त के दर्शन—इस प्रकार की और भी विधियों का आविष्कार आगे हो सकता है। मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के प्रतिपादन में हमें अनेकान्त के दर्शन होते हैं। उदाहरणार्थ—वंशानुक्रम के सिद्धान्त के विषय में लोगों की अलग—अलग राय है। सोरेनसन ने लिखा है कि बुद्धिमान माता—पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता—पिता के बच्चे साधारण और मन्दबुद्धि माता—पिता के बच्चे मन्दबुद्धि होते हैं। इसी प्रकार शारीरिक रचना की दृष्टि से भी बच्चे माता—पिता के समान होते हैं। विभिन्नता के नियम के प्रतिपादकों का कहना है कि बालक माता—पिता के बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते हैं। प्रत्यागमन का नियम यह कहता है कि बहुत प्रतिभाशाली माता—पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति तथा बहुत निम्नकोटि के माता—पिता के बच्चों में कम निम्नकोटि होती है। इस नियम के अनुसार बालक अपने माता—पिता के विशिष्ट गुणों का त्याग करके सामान्य गुणों को ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि महान् व्यक्तियों के पुत्र साधारणतया उनके समान महान् नहीं होते हैं।
वातावरण का प्रभाव मानने वालों का कहना है कि बालक के ऊपर मात्र वंशानुक्रम का ही प्रभाव नहीं होता, अपितु वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। जैसे जो जापानी और यहूदी अमेरिका में अनेक पीढ़ियों से रह रहे हैं, उनकी लम्बाई भौगोलिक वातावरण के कारण बढ़ गयी है। उचित सामाजिक और सांस्कृतिक वातावरण न मिलने पर मानसिक विकास की गति अन्य बच्चों की अपेक्षा धीमी पायी गयी। जिन बच्चों को पर्याप्त सुविधायें प्राप्त नहीं हो पाती हैं, वे बौद्धिकता में पिछड़ जाते हैं। उदाहरणार्थ—नीग्रो प्रजाति की बुद्धि का स्तर इसलिए निम्न है; क्योंकि उनको अमेरिका की श्वेत प्रजाति के समान शैक्षिक, सांस्कृतिक और सामाजिक वातावरण उपलब्ध नहीं है।
जिन बालकों को निम्न वातावरण से हटाकर उत्तम वातावरण में रखा जाता है, उन सबकी बुद्धि लब्धि में वृद्धि हो जाती है। समाज कल्याण केन्द्रों में अनाथ और परावलम्बी बच्चे आते हैै। वे साधारण निम्न परिवारों के होते हैं, पर केन्द्रों में उनका अच्छी तरह से पालन किया जाता है, अत: वे अपने माता—पिता से अच्छे सिद्ध होते हैं। न्यूमैन, प्रâीमैन और होलिंजगर ने २० जोड़े जुड़वाँ बच्चों को अलग—अलग वातावरण में रखकर उनका अध्ययन किया। उन्होंने एक जोड़े के एक बच्चे को गाँव के फार्म पर और दूसरे को नगर में रखा। बड़े होने पर दोनों बच्चों में पर्याप्त अन्तर आ गया। फार्म का बच्चा अशिष्ट, चिन्ताग्रस्त और कम बुद्धिमान था। उसके विपरीत नगर का बच्चा शिष्ट, चिन्तामुक्त और अधिक बुद्धिमान था।
वंशानुक्रम को ही महत्त्व देने वाला वातावरण को नकारने की चेष्टा करता है और वातावरण को ही महत्त्व देने वाला एकान्ती वंशानुक्रम को नकारने की चेष्टा करता है। अनेकान्ती की दृष्टि में वातावरण महत्त्वपूर्ण है या वंशानुक्रम, यह प्रश्न ही बेतुका है। यह प्रश्न पूछना यह पूछने के समान है कि मोटरकार के लिए इंजन अधिक महत्त्वपूर्ण है या पेट्रोल। जिस प्रकार मोटरकार के लिए इंजन और पेट्रोल का समान महत्त्व है, उसी प्रकार बालक के विकास में वंशानुक्रम और वातावरण का समान महत्त्व है; क्योंकि बालक को जो मूल प्रवृत्तियाँ वंशानुक्रम से प्राप्त होती हैं, उनका विकास वातावरण में होता है।
४. मूल प्रवृत्तियाँ एक ही प्रकार से सहायक न होकर अनेक प्रकार से सहायक होती हैं।
जैसे—१. प्रेरणा देने में सहायता, २. रुचि व समझ जानने में सहायता, ३. ज्ञान प्राप्ति में सहायता, ४. रचनात्मक कार्यों में सहायता, ५. व्यवहार परिवर्तन में सहायता, ६. चरित्र निर्माण में सहायता, ७. अनुशासन में सहायता, ८. पाठ्यनिर्माण में सहायता
५. मूल प्रवृत्तियाँ—मेक्डूगल ने १४ मूल प्रवृत्तियाँ मानी हैं। मरसेल का मत है कि मूल प्रवृत्तियों की संख्या अपरिमित और अनिश्चित है। बर्नाड ने १४० विभिन्न मूल प्रवृत्तियों का पता लगाया है। इन मूल प्रवृत्तियों का विश्लेषण जैनधर्म के कर्मसिद्धान्त से किया जा सकता है। कर्म व्यक्ति के संवेगों को भी प्रभावित करते हैं। अत: संवेगों का भी अध्ययन आवश्यक है। शिक्षक बालकों के संवेगों को परिष्कृत कर उनको समाज के अनुकूल व्यवहार करने की क्षमता प्रदान कर सकता है। इसके फलस्वरूप उनमें कला, साहित्य और अन्य सुन्दर वस्तुओं के प्रति प्रेम अथवा वैराग्य उत्पन्न हो सकता है।
व्यक्ति के जीवन में सुझावों का भी महत्त्व होता है। उदाहरणार्थ—भाव चालक सुझाव हमारे अचेतन मस्तिष्क में जन्म लेता है और हमें प्रभावित करता है। उदाहरणार्थ—नृत्य देखते समय हमारे पैर अपने आप थिरकने लगते हैं। प्रतिष्ठा सुझाव का आधार व्यक्ति की प्रतिष्ठा होती है। उदाहरणार्थ—जवाहरलाल नेहरू के सुझावों का देश के कोने—कोने में स्वागत किया जाता था। व्यक्ति स्वयं को भी सुझाव देता है। जैसे—यदि रोगी अपने को यह सुझाव देता रहता है कि वह अच्छा हो रहा है तो वह शीघ्र अच्छा हो जाता है। हड़ताल के समय छात्र सामूहिक सुझाव के कारण अनुशासनहीनता के कार्य करने लगते हैं। इस प्रकार सुझाव नाना प्रकार से सहायता करता है, जैसे—१. नये विचार प्रदान करने में सहायता, २. साहित्य शिक्षण में सहायता, ३. विभिन्न विषयों के शिक्षण में सहायता, ४. वातावरण निर्माण में सहायता, ५. रुचियों के विकास में सहायता, ६. मानसिक विकास में सहायता, ७. चरित्र निर्माण में सहायता, ८. व्यक्ति निर्माण में सहायता, ९. अनुशासन में सहायता, १०. गुरु शिष्य सम्बन्ध में सहायता
६. सामाजिक सुझाव की एक जाति-अनुकरण—सामाजिक सुझाव की एक जाति अनुकरण है। जैसे—एक बच्चे को पढ़ते हुए देखकर दूसरे का पढ़ना, बड़े को सिगरेट पीते हुए देखकर छोटे बच्चे का सिगरेट पीना। अनुकरण का शिक्षा में महत्त्व इस प्रकार है—१. कुशलता की प्राप्ति, २. नैतिकता की शिक्षा, ३. अच्छे आदर्शों की शिक्षा, ४. सामाजिक व्यवहार की शिक्षा, ५. मानसिक विकास का साधन, ६. स्पर्द्धा उत्पन्न करने का साधन, ७. आत्म अभिव्यक्ति का साधन, ८. व्यक्ति निर्माण का साधन
शिक्षा में सहानुभूति का भी महत्त्व है। शिक्षक बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करके उनके विचारों और भावनाओं को जान सकता है। रॉस का परामर्श है कि जो व्यक्ति सहानुभूति के गुण से वंचित है, उसे शिक्षक नहीं बनना चाहिए।
बालक के प्रत्येक अंग को प्रभावित करने में खेल की भी उपयोगिता है। इसका शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, वैयक्तिक, नैतिक, शैक्षिक एवं चिकित्सकीय महत्त्व है। इस प्रकार खेल बालक के व्यक्तित्व के सभी अंगों को प्रभावित करता है। अत: बालक के विकास में वंशानुक्रम, वातावरण, मूल प्रवृत्तियाँ, सुझाव, अनुकरण, सहानुभूति और खेल आदि अनेक घटक कार्य करते हैं, यह बात शिक्षा के प्रति अनैकान्तिक दृष्टि अपनाकर ही सीखी जा सकती है।
प्राचीन काल में अपराध के लिए व्यक्ति को उत्तरदायी माना जाता था। आधुनिक युग में अनैकान्तिक चिन्तन के फलस्वरूप अपराध के विषय में मनोवैज्ञानिक पद्धति से विचार करना आरम्भ हुआ। गैब्रिल टार्डे के अनुसार अपराध सामाजिक अनुकरण का परिणाम है। रेक्लेस का कथन है कि अपराध व्यक्ति व समाज की अन्त:क्रिया का प्रतिफल है। टैफ्ट के अनुसार अपराध सांस्कृतिक विघटन का परिणाम है। मार्क्स के अनुसार वर्ग संघर्ष की दशायें अपराध को जन्म देती हैं। बोन्जर का कथन है कि अपराध सामाजिक परिस्थितियों की देन है। मावरर के मत से आर्थिक दशाएँ अपराध के लिए मुख्य भूमिका तैयार करती हैं। तुराती के अनुसार आर्थिक असमानता व अन्याय के कारण अपराध होते हैं। लेमर्ट का कथन है कि अपराध का मुख्य कारण परिस्थिति का दबाव है। गैरों फेलों का कथन है कि दया, ईमानदारी की भावना का दोषपूर्ण होना ही व्यक्ति को अपराधी बनाता है। गोडार्ड अपराध को मानसिक दुर्बलता का परिणाम स्वीकार करता है। एडलर का कथन है कि अपराधी मन से होता है। फ़्रांयड के अनुसार अपराध दमन की अभिव्यक्तियाँ हैं।
गुमैचर मनोचिकित्सकीय अनुसंधान के आधार पर अपराधी व्यक्ति को पाँच वर्गों (१) सामाजिक अपराधी, (२) दुर्घटनावश या अवसरवादी अपराधी (३) सावयवी या रचनात्मक रूप से पूर्वनिर्मित अपराधी (४) मनोविकृत या समाजविकृत अपराधी तथा। (५) मनोविक्षिप्त अपराधी में विभाजित करता है। प्रमुख अमेरिकी समाज वैज्ञानिकों का मानना है कि अपराध के लिए व्यक्तित्व की कुछ विशेषताएँ या गुण ही प्राथमिक रूप से उत्तरदायी हैं।
डेविड ड्रेसलर ने अपराध और बाल अपराध के कारणों की निम्नलिखित तालिका प्रस्तुत की है—
१. बाल्यावस्था में अभिभावकों का अत्यधिक लाड़—प्यार।
२. बाल्यावस्था में अभिभावकों का अपर्याप्त स्नेह।
३. घर में अत्यधिक शारीरिक दण्ड।
४. घर में अपर्याप्त शारीरिक दण्ड।
५. घर में असंगत शारीरिक दण्ड।
६. विपन्न बाल्यकाल।
७. अत्यधिक सम्पन्न बाल्यकाल।
८. अत्यधिक शिक्षा।
९. अपर्याप्त शिक्षा।
१०. धार्मिक प्रशिक्षण का अभाव।
११. अतिदबावमूलक धार्मिक प्रशिक्षण।
१२. भग्न परिवार या घर।
१३. विवाह विच्छेद या पारिवारिक गहन विच्छिन्नता।
१४. निर्धनता
१५. धनाढ्यता।
१६. पुलिस की कड़ी व्यवस्था।
१७. अत्यधिक दमनकारी पुलिस व्यवस्था।
१८. मन्दबुद्धिता।
१९. बौद्धिक कुशाग्रता।
२०. जासूसी एवं अपराध साहित्य।
२१. चलचित्रों से िंहसा का बढ़ता हुआ प्रदर्शन।
१. भारत सरकार के अनुसार बाल अपराध के कारकों की उद्भवन सूची इस प्रकार है—
१. जैवकीय कारक—१. शारीरिक विकार (२) बुरा स्वास्थ्य (३) वैकासिक दोष (४) विकास की अधिकता।
२. मनोवैज्ञानिक कारक—(अ) व्यक्तित्व सम्बन्धी कारक—(१) हीनता की भावना (२) मानसिक अन्तर्द्वन्द्व (३) अवरुद्ध या दमित इच्छायें (४) अहम् भावना।
(ब) मानसिक विकास सम्बन्धी—(१) मानसिक रोग, (२) मन्दबुद्धिता (३) मानसिक अस्थिरता।
(३) पारिवारिक परिवेश—(अ) निर्धनता—(१) परिवार में सदस्यों की अधिकता, (२) बेकारी (३) माता—पिता का घर से अधिकांशत: बाहर रहना
(ब) कुसमायोजित—१. माता—पिता में लड़ाई (२) सौतेले माता—पिता (३) पक्षपातपूर्ण व्यवहार (४) भाई—बहन में स्पर्द्धा तथा द्वेष (५) अवांछित बच्चा (६) अत्यधिक देखरेख (७) अत्यधिक उदासीनता।
(स) अनुशासन—(१) अत्यधिक पारिवारिक नियन्त्रण (२) पारिवारिक नियन्त्रण का अभाव
(द) विघटित परिवार—(१) मृत्यु (२) तलाक (३) पिता का जेल में होना (४) पिता या माता की अन्य कार्यों में बहुव्यस्तता
(य) अनैतिक परिवार—(१) यौन दुराचार (२) अत्याचारपूर्ण व्यवहार (३) भौतिक परिवेश—(१) बुरा पड़ोस (२) अपराधी दल (३) मनोरंजन की कमी तथा दूषित मनोरंजन (४) शिक्षालय की कमी व अव्यवस्था।
२. अपराध संबंधी सांख्यिकी—अपराध सम्बन्धी सांख्यिकी से ज्ञात होता है कि निम्न वर्ग के लोगों द्वारा उच्च वर्गों की अपेक्षा अधिक अपराध किए जाते हैं। यह सांख्यिकी पुलिस एवं न्यायलय की रिपोर्टों पर अधिक निर्भर करती है। इस प्रकार की सांख्यिकी में हत्या, लूटमार, डवैâती, यौन अपराध, चोरी, यातायात नियमों के उल्लंघन जैसे अपराधों की ही अधिकता होती है। समरलैंड का कहना है कि इस प्रकार के अपराधी व्यवहार के सिद्धान्त अपूर्ण एवं भ्रामक हैं, क्योंकि इनके उदाहरणों का चयन ही पक्षपातपूर्ण है। इस प्रकार के उदाहरणों में व्यावसायिक लोगों द्वारा किए गए अपराधों के विवरणों की अवहेलना की जाती है। यह अपराधिकता वित्तीय विवरण गलत बनाने, व्यापारिक घूसखोरी, स्टाक एक्सचेंज में बदलाव, ठेका पाने के लिए अफसरों को प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रलोभन, झूठे विज्ञापन देना, धन का गवन एवं संचित निधि का दुरुपयोग, कम तौलना या गलत मापों का उपयोग, करों की चोरी, बैंकों के साथ धोखा धड़ी इत्यादि रूपों में व्यक्त होती है। चिकित्सा व्यवसाय भी इस अपराधिता से युक्त है। अलकोहल तथा मादक दवाओं का अवैधानिक विक्रय, गर्भपात, कानून से भागे हुए अपराधियों की चिकित्सा, दुर्घटना के मामले में भ्रामक स्वास्थ्य रिपोर्ट या प्रमाणपत्र झूठी डिग्री लिखना या बिना यथार्थ प्रमाण के विशेषज्ञता का प्रचार, झूठा चिकित्सालय का बिल देना जैसे अनेक अपराध चिकित्सा व्यवसाय के क्षेत्र में होते हैं। यह सब श्वेतवसन अपराध की श्रेणी में आते हैं।
इस प्रकार अपराध अनेक रूपों में बढ़ रहे हैं। उनके कारणों की अनेक खोजें हो रही हैं तथा अपराध रोकने के अनेक उपाय भिन्न—भिन्न अपराधियों को घर में रखते हुए किए जा रहे हैं और यह धारणा बलवती होती जा रही है कि अधिकांश अपराधियों को सुधारा जा सकता है। यह सब अनैकान्तिक दृष्टि के प्रयोग के बिना सम्भव नहीं है। अपराधियों के विषय में आए चिन्तन के परिवर्तन से कारागार व्यवस्था में प्रमुख रूप से निम्नलिखित सुधार हुए हैं—
१. कारागारों में भोजन, शयन एवं कार्य की दशाओं में सुधार।
२. कारागारों में चिकित्सालयों की स्थापना।
३. जघन्य अपराधियों के लिए निर्जन वास की व्यवस्था।
४. अपराधियों का अपराधों की प्रकृति के अनुसार वर्गीकरण।
५. कारागार अधीक्षक एवं निरीक्षकों के रूप में प्रशिक्षित व्यक्तियों की नियुक्ति।
६. आकस्मिक एवं आदतन अपराधी के रूप में वर्गीकरण।
७. बन्दियों को निरीक्षकों की भूमिका कम से कम प्रदान करना।
८. अपराधी परिश्रम का उद्देश्य यातना नहीं, वरन् पुनर्निमाण एवं सुधार होना चाहिए।
९. अपराधी को अपने सम्बन्धियों से कारागार में मिलने की छूट होना चाहिए।
१०. कारागार में पुस्तकालयों की स्थापना।
११. पच्चीस वर्ष से कम के अपराधी को शिक्षा जारी रखने की सुविधा।
१२. पेरोल पर छोड़ने की व्यवस्था।
१३. रिहा होने पर अपराधियों के पुनर्व्यवस्थापन में सहायता प्रदान करना।
१४. अपराधियों को कोड़े लगाने जैसे अमानवीय दण्ड न देना।
१५. मृत्युदण्ड के औचित्य, अनौचित्य का चिन्तन।
१६. अपराधी जीवन के लिए समाज ही उत्तरदायी है अत: उसके साथ सहानभूतिपूर्ण व्यवहार।