जैन दर्शन में अनेकान्त पद्धति को बहुत ऊँचा स्थान दिया गया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने उसे ‘परमागमस्य जीवम्’ परमागम का प्राण प्रतिपादन करके उसके महत्त्व को चरम सीमा तक पहुँचा दिया है। इस सिद्धान्त की ओर यद्यपि प्राचीन जैनेतर भारतीय विद्वानों का ध्यान जैसा चाहिए वैसा नहीं गया और न उन लोगों ने इसके प्रति समुचित सन्मान का भाव प्रदर्शित किया, किन्तु अर्वाचीन पंडित इसके महत्त्व को समझने लगे हैं। कई विख्यात विद्वान् तो यहाँ तक कहने लगे हैं कि अनेकान्तवाद जैनधर्म की विश्व के लिए सबसे बड़ी देन (ण्दहूrग्ंल्ूग्दह) है। फिर भी सर्वसाधारण के हृदय में इस सिद्धान्त के प्रति उपेक्षा का भाव विद्यमान है। अतएव इस विषय पर प्रकाश डालना अतीव आवश्यक है।
अनेकान्तवाद एक मनोहर, सरल एवं कल्याणकारी शैली है, जिससे एकान्तरूप से कहे गये सिद्धान्तों में पाया जाने वाला विरोध दूर होकर उनमें अभूतपूर्व मैत्री का प्रादुर्भाव होता है। अनेकांत ‘अनेक’ और ‘अन्त’ शब्दों के योग से बना है जिसका अर्थ होता है ‘अनेक धर्मात्मक’। इस कारण यह दृष्टि वस्तु में अनेक धर्मों (Aूूrग्ंल्ूो) को अंगीकार करती है। जो—जो पदार्थ हमारे ज्ञानगोचर होता है वह सब अनेक धर्म समुदायात्मक है—अनेकान्त दृष्टि एक धर्म को प्रधान कर देती है और अन्य सब को गौण। जैसे ग्वालिन दही—मथन करते समय रस्सी को एक ओर से खेंचती है और दूसरी ओर से ढीला कर देती है। जैसा कि पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है—
एकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी।।२२५।।
अर्थात् जैसे ग्वालिन मथन करने की रस्सी को कभी एक तरफ और कभी दूसरी तरफ खैंचती है ऐसे ही जिनेन्द्र की अनेकांत पद्धति भी कभी वस्तु के एक धर्म को मुख्य बताती है और कभी दूसरे को; ऐसी स्याद्वाद पद्धति जयवंत हो।
एकान्त दृष्टि एक धर्म को ग्रहण कर अन्य धर्म का परित्याग करती है इस कारण पारस्परिक विरोध भी दृढ़ हो जाता है। उदाहरणार्थ एक वस्त्र को लीजिये, बौद्ध सिद्धान्त ‘सर्वक्षणिकं सत्वात्’ के व्यापक नियमानुसार उस वस्त्र को ‘सर्वथा क्षणिक’ कह देगा। सांख्य दर्शन उसी वस्त्र को बौद्ध दर्शन से ठीक विपरीत प्रतिपादन करेगा कि वह ‘सर्वथा अविनाशी तथा नित्य’ है। उपरोक्त दृष्टि—बिन्दुओं में जब पारस्परिक विरोध है तब तत्त्व का क्या स्वरूप होना चाहिए ? अनेकान्त का दिव्य आलोक ही इस विषय को प्रकाशित करने में समर्थ हो सकता है तथा ऐसी व्यवस्था देता है जो दोनों सिद्धान्तों की घातक नहीं होती। अनेकान्तवाद दो दृष्टियों से तत्त्व—व्यवस्था करता है। उसमें से द्रव्य—दृष्टि (एल्ेूंaहूग्aत् ज्दग्हू दf न्गै) द्रव्य अर्थात् (ेल्ेूंaहम) को लक्ष्य बिन्दु में रखकर वस्तु को नित्य बताती है, कारण द्रव्य का कभी नाश नहीं होता। पर्याय दृष्टि (श्द्aत् ज्दग्हू दf न्गै) पर्यायों—अवस्थाओं (स्द्ग्fग्म्aूग्दहे) को ध्यान में रखते हुए उसे अनित्य बताती है। जब हम पर्यायार्थिक नय से, पर्याय दृष्टि से वस्त्र पर विचार करते हैं तो वह हमें नश्वर प्रतीत होने लगता है, कारण—वह वस्त्र जो कुछ समय पूर्व नवीन कहलाता था वही जीर्ण—शीर्ण अवस्था को प्राप्त होकर पुरातन कहलाने लगता है। वस्तु क्षण—क्षण में नवीन से पुरातन होती जाती है। जब तक यह परिवर्तन सूक्ष्म रहता है तब तक यह हमारी समझ में नहीं आता, किन्तु जब यह स्थूल हो जाता है तब हमारी चर्मेन्द्रियों का विषय भी हो जाता है। अतएव पर्याय दृष्टि की मुख्यता से विचारने पर बौद्ध दर्शन द्वारा मान्य ‘क्षणिकत्व’ वस्तु का अंग सिद्ध होता है।
अब हम यदि उस वस्त्र पर द्रव्य दृष्टि से विचारते हैं तो उसे विनाश रहित पाते हैं; कारण—जिस द्रव्य (एल्ेूंaहम) से अथवा जिन परमाणुओं (Aूदस्े) से वह बना है वे नश्वर नहीं हैं, उनके आकार (fदrस्) में परिवर्तन भले ही हो, किन्तु द्रव्य का नाश कभी भी नहीं होता। क्योंकि सत् का नाश और असत् का उत्पाद नहीं होता, इस कारण जो वस्त्र पर्याय दृष्टि की मुख्यता से अनित्य है वही द्रव्य दृष्टि की प्रधानता से नित्य एवं स्थायी है। ये दोनों धर्म—नित्य और अनित्य—वस्तु के अंश हैं। पूर्ण वस्तु नित्य—अनित्यात्मक है।
कोई महाशय यह कह उठते हैं कि ‘नैकस्मिन् संभवात्’ इस सूत्र द्वारा शंकराचार्य ने अनेकान्तवाद को सदोष बताया है, क्योंकि नित्यत्व और अनित्यत्व तो परस्पर विरुद्ध धर्म हैं। ‘शीतोष्ण’ की भाँति वे दोनों एक जगह नहीं पाए जा सकते। इस आक्षेप के प्रतिवाद में एक अर्वाचीन वैदिक विद्वान् ने लिखा है कि यदि श्री शंकराचार्य ने अनेकांतवाद को ठीक—ठीक समझा होता तो उन्हें उस पर आक्षेप करने का मौका ही न आता। विरुद्ध धर्मों का एक जगह पाया जाना कोई नवीन बात नहीं है। यह तो प्रतिदिन सब के अनुभव में आती है। कौन नहीं जानता है कि एक ही मनुष्य में अपने पिता की अपेक्षा ‘पुत्रपना’ और अपने पुत्र की अपेक्षा ‘पितापना’ जैसे विरुद्ध धर्म एक साथ, एक ही समय पाए जाते हैं। हाँ ! विरोध की शंका तब उचित हो सकती थी जब कि एक ही दृष्टि से परस्पर विरुद्ध धर्मों का निरूपण किया जाता। यहाँ अनेकांत दृष्टि में द्रव्यार्थिक नय से वस्तु को नित्य कहा जाता है और पर्यायार्थिक नय से उसे अनित्य कहते हैं।
वह तो विरोध का परम शत्रु है। इसीलिये अनेकांतप्रधानी श्री अमृतचन्द्रसूरि ने (पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में) कहा है कि—
सकलनयविलसितानां विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम्।।२।।
अर्थात् नयों के विलास के विरोध का नाश करने वाले अनेकान्त को मैं नमस्कार करता हूँ।
वस्तु को अनेकांतात्मक न मानकर यदि सर्वथा नित्य स्वीकार किया जाय तो क्या बाधा आयेगी, इस पर समंतभद्र आचार्य (आप्तमीमांसा में) कहते हैं—
नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते।
प्रागेव कारकाभाव: क्व प्रमाणं क्व तत्फलम्।।३७।।
अर्थात् सर्वथा नित्यत्व पक्ष को मानने पर पदार्थों में हलन—चलन आदि रूप विक्रिया होना असंगत होगा, पहले ही कारण का अभाव हो जायेगा, इससे प्रमाण और उसका फल कहाँ रहेंगे ?
पुण्य—पाप क्रिया न स्यात् प्रेत्यभाव: फलं कुत:।
बंधमोक्षौ च तेषां न येषां त्वं नासि नायक:।।४०।।
अर्थात्—भगवन ! जिनके आप स्वामी नहीं हैं उनके यहाँ पुण्य और पापरूप क्रिया नहीं होगी। जन्मान्तर में उत्पत्ति नहीं होगी; इससे सुख—दु:खादि का अनुभव नहीं बन सकेगा तथा बंध और मुक्ति की व्यवस्था भी न बन सकेगी।
सर्वथा अनित्य पक्ष अङ्गीकार करने पर क्या बाधा आती है, इस पर हेमचन्द्राचार्य कहते हैं—
कृतप्रणाशाकृतकर्मभोगभवप्रमोक्षस्मृति—भङ्गदोषान्।
उपेक्ष्य साक्षात् क्षणभंगमिच्छन्नहो महासाहसिक: परस्ते।।
अर्थात्—पूर्वकृत कर्मों का फल—भोग हुए बिना नाश हो जाना, स्वयं न किए गए कर्मों का फल भोगना, संसार का अभाव, मोक्ष का अभाव तथा स्मरण का नाश, इन अनुभवसिद्ध दोषों की उपेक्षा करके क्षणिकत्व को अङ्गीकार करने वाला दार्शनिक हे भगवन् , बहुत अधिक साहसी है।
आचार्य समन्तभद्र तो कहते हैं कि क्षणक्षयैकान्त पक्ष को स्वीकार करने पर बड़ी ही उपहासपूर्ण स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। क्योंकि—
हिनस्त्यनभिसंधातृ न हिनस्त्यभिसंधिमत्।
बध्यते तद्द्वयापेतं चित्तं बद्धं न मुच्यते।।५१।।
अर्थात्—(क्षणिक पक्ष अङ्गीकार करने पर) िंहसा का अभिप्राय न रखने वाला तो िंहसा करेगा; और िंहसा का संकल्प करने वाला िंहसा न कर सकेगा। िंहसा का संकल्प करने वाला तथा िंहसा करनेवाला न बंधकर अन्य ही बंधन को प्राप्त होगा; जो बद्ध है उसकी मुक्ति न होकर अन्य की ही मुक्ति होगी।
इस प्रकार आचार्य का अभिप्राय है कि क्षणिवैâकान्त सिद्धान्तानुसार बड़ी विचित्र हास्यास्पद दशा हो जायेगी।
इस तरह तथा और भी अनेक युक्तियों के आधार पर मनन करने से भलीभाँति निश्चय हो जाता है कि अनेकान्त का आश्रय लिए बिना तत्त्व व्यवस्था नहीं हो सकती।
कोई दार्शनिक वैशेषिक की तरह मानते हैं कि दीपक—सदृश कुछ पदार्थ क्षणिक हैं और कुछ पदार्थ आकाश के तुल्य नित्य हैं। इस धारणा का निराकरण करते हुए स्याद्वादमञ्जरी में लिखा है कि—
आदीपमाव्योम समस्वभावं स्याद्वादमुद्रानतिभेदि वस्तु।
तन्नित्येमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापा:।।
अर्थात्—दीपक से लेकर आकाश पर्यन्त समस्त पदार्थ समान स्वभाव धारण करने वाले हैं। कारण सब ही स्याद्वाद की मर्यादा का उलघंन नहीं करते हैं, तथापि उनमें दीपक आदि अनित्य ही हैं और आकाश आदि कुछ पदार्थ नित्य ही हैं—इस प्रकार का प्रलाप भगवन् ! आपकी आज्ञा से विद्वेष रखनेवालों का है। इस कारण एक ही पदार्थ में नित्य—अनित्य दोनों धर्मों को मानना श्रेयस्कर है। उपर्युक्त दोनों धर्मों का यदि हम एक साथ वर्णन करना चाहें तो यह असंभव है। जिस समय हम नित्य धर्म का उच्चारण करेंगे उसी समय अनित्य का उच्चारण नहीं हो सकेगा; अथवा अनित्य धर्म को कहते समय नित्यधर्म को नहीं कह सकेंगे। अतएव ‘सहवक्तुमशक्ते:’—एक साथ उभय धर्मों का प्रतिपादन करना शब्दों की सामर्थ्य के बाहर है, इस कारण ‘अवक्तव्य’ नाम का एक भेद और निकल आता है। इस आपेक्षिक अर्थात् कथंचित् अवक्तव्यत्व के द्वारा ‘तत्त्वमनिर्वचनीयं’ का सिद्धान्त भी युक्तियुक्त सिद्ध किया जा सकता है। उपर्युक्त तीन भेदों के पारस्परिक संयोग से गणित शास्त्र के (थ्aै दf झ्ीस्ल्ूaूग्दह aह् ण्दस्ंग्हaूग्दह) के अनुसार सात भंग भेद—उत्पन्न होते हैं, जैसे—नमक, मिर्च, खटाई इन तीन मूल पदार्थों के संयोग से निम्नलिखित सात स्वाद उत्पन्न होंगे—१. नमक, २. मिर्च, ३. खटाई, ४. नमक ± मिर्च, ५. नमक ± खटाई, ६. मिर्च ± खटाई तथा ७. नमक ± मिर्च ± खटाई। उसी प्रकार नित्य, अनित्य और अवक्तव्य इन तीन के संयोग से निम्न सात ही भंग/भेद बनते हैं—(१) नित्य, (२) अनित्य, (३) अवक्तव्य, (४) नित्य—अनित्य, (५) नित्य अवक्तव्य, (६) अनित्य अवक्तव्य और (७) नित्य—अनित्य अवक्तव्य। इन सात भेदों में प्रत्येक भेद के साथ स्यात् अथवा कथंचित् शब्द जोड़ दिया जाता है, जिसका अर्थ होता है—एक दृष्टि से, न कि सर्वथा। जैसे ‘स्यात् नित्य’ का अर्थ है कि वस्तु द्रव्य—दृष्टि से नित्य है। इस ‘स्यात्’ शब्द से यह द्योतित होता है कि यहाँ वस्तु के शेष अन्य धर्म गौण कर दिये गये हैं।
जैन ग्रंथों में यह ‘सप्तभंगी न्याय’ के नाम से कहा जाता है। इस संबंध में यह बात स्मरण रखने योग्य है कि उपर्युक्त सप्तभंगी ‘नित्य धर्म’ को लेकर निरूपण की गई है। इसी प्रकार एक, अनेक, सत् , असत् आदि धर्मों की अपेक्षा से पृथक्—पृथक् सप्तभंगी होती हैं। इसी भाँति अनन्त धर्मों की अपेक्षा से उतने ही सप्तभंगी होंगे।
इस अनेकान्त सिद्धान्त पर सयुक्तिक विषद विवेचन ‘अष्टसहस्री’ आदि महान ग्रंथों में किया गया है। यहाँ संक्षेप में प्रकृत विषय पर प्रकाश्ा डालने की चेष्टा की गई है।
इस सिद्धान्त के सम्बन्ध में कोई विद्वान यह शिकायत करते हैं कि जब यह प्रणाली सब एकान्तों के विरोध को दूर कर उन में भ्रातृभाव उत्पन्न करती है तो जैन ग्रंथों में जैनेतर सिद्धान्तों का खण्डन क्यों किया गया है ? इस शंका का उत्तर सीधा है, अनेकांत एकांतरूप से माने गए धर्म की कमजोरी को बताता है कि सत्य के अंश को पूर्ण सत्य मान लेना सत्यता की सीमा के बाहर है। इस कारण सत्य—प्रकाश सिद्धान्त के लिए यह आवश्यक है कि वह विकृत सत्य को दूर कर यथार्थता को प्रगट करे। जैसे—सर्वथा नित्य तत्त्व को मानना युक्ति तथा अनुभव के विपरीत है, इस कारण अनेकान्त शैली को नित्य एकान्त का निरसन कर यह बताना पड़ता है कि नित्य धर्म मानने वालों की कुशल अनित्य धर्म अंगीकार किए बिना नहीं हो सकती।
धर्म के नाम पर जो महान विषमता की दीवार एक-दूसरे के बीच में खड़ी हो गई है वह इस विज्ञान के द्वारा दूर हो जाती है। यदि हम दूसरों के दृष्टि बिन्दुओं को समझने की चेष्टा करें तो दार्शनिक एकता के साथ—साथ लौकिक जीवन में भी एकता उत्पन्न हो सकती है। यह एकता ऐसी नहीं होगी जिसमें प्रत्येक का व्यक्तित्व (घ्ह्ग्न्ग््ल्aत्ग्ूब्) नष्ट हो जावे। यह व्यक्तित्व के रक्षण के साथ—साथ समष्टि के भाव को उत्पन्न कर (ळहग्ूब् ग्ह Dग्न्ीेग्ूब्) अर्थात् विविधता में एकता के सिद्धान्त को चरितार्थ करेगी।
प्रत्येक विचारशील का कर्त्तव्य है कि अनेकान्त के माहात्म्य को समझे, अन्य को समझावे तथा तदनुकूल आचरण करे। इसी में निखिल विश्व का कल्याण है।
‘स्याद्वाद’ शब्द के अन्तर्गत दो शब्द हैं—स्यात् और वाद। स्यात् का अर्थ अपेक्षा—सहित (दृष्टिकोण सहित) तथा वाद शब्द का अर्थ सिद्धान्त या मत होता है। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ ‘सापेक्ष सिद्धान्त’ समझना चाहिये।
स्याद्वाद की परिभाषा—
अपने व दूसरे के विचारों, वचनों व कार्यों में अपेक्षा या दृष्टिकोण का ध्यान रखना ही स्याद्वाद की परिभाषा है।
मनुष्य के जितने विचार, वचन व कार्य हैं उनका कोई न कोई दृष्टिकोण अवश्य होना चाहिये ; उसी के आधार पर उनकी उपयोगिता या अनुपयोगिता समझी जा सकती है। हम अपने विचारों—वचनों व कार्यों को दृष्टिकोण के अनुकूल बनाएंगे तो वे लाभप्रद होंगे, दृष्टिकोण के प्रतिकूल बनायेंगे या उनका कोई दृष्टिकोण नहीं रखेंगे तो वे लाभप्रद तो होंगे ही नहीं, बल्कि कभी—कभी हानिप्रद हो सकते हैं। इसी प्रकार दूसरों के विचारों, वचनों व कार्यों को उनके दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर देखेंगे तो हम उनकी सत्यता (उपादेयता) या असत्यता (अनुपादेयता) का ज्ञान कर सकेंगे। यदि दूसरे के विचारों–वचनों व कार्यों को उनके प्रतिकूल दृष्टिकोण से देखेंगे या बिना दृष्टिकोण के देखेंगे तो हम उनकी सत्यता या असत्यता का ज्ञान नहीं कर सकेंगे। इसलिये हमें स्याद्वाद या सापेक्ष सिद्धान्त के अपनाने की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि जीवन की स्थिरता के लिए भोजन की।
यों तो वस्तुयें तथा उनके विचारक अनादि हैं तो स्याद्वाद भी अनादि ही कहा जायेगा, लेकिन आवश्यकता के आधार पर ही किसी भी वस्तु का विचार किया जाता है।
इसी स्याद्वाद ही को लें—विचार करने पर मालूम पड़ता है कि जितना भी लोक व्यवहार है उसका आधार स्याद्वाद ही है, पर जनसाधारण तो स्याद्वाद का नाम तक नहीं जानते, और ऐसे मनुष्यों की भी कमी नहीं है जो स्याद्वाद को जानकर भी अपनाना नहीं चाहते, इतने पर भी उनका व्यवहार अव्यवस्थित या बन्द नहीं हो जाता। इसका आशय यही है कि जब किस वस्तु की आवश्यकता बढ़ जाती है उसके जाने बिना हमारा कार्य नहीं चलता है तब लोगों के हृदय में उसके जानने की भावना पैदा होती है और तभी से उसका विकास माना जाता है। स्याद्वाद के विकास का विचार इसी आधार पर किया जाता है।
प्राय: सभी मतों के अनुसार पौराणिक दृष्टि से सृष्टि के आदि भाग में जीवन सुख और शान्ति के साम्राज्य से परिपूर्ण था। शनै:—शनै: सुख और शान्ति में विकृति पैदा हुई अर्थात् लोगों के हृदयों में अनुचित पाप—वासनाओं का अंकुर जन्मा, वहीं से धर्मतत्त्व प्रकाश में आया। तात्पर्य यह कि अनुचित पाप—वासनाओं से लोगों की अनुचित पापों में प्रवृत्ति होने लगी, उसको हटाने के लिए तात्कालिक महापुरुषों ने पापप्रवृत्ति के त्यागरूप व्यवस्था बनाई, उसी को धर्म का रूप दिया गया।
सुख और शान्ति के सहायक नियम या धार्मिक नियम वैसे—वैसे ही बढ़ते गये जैसे—जैसे उनके प्रतिबन्धक निमित्तों का प्रादुर्भाव होता गया। इसके अतिरिक्त विविध लोगों की विवेक–बुद्धि ने भी काम किया जिससे देश—काल के अनुसार नाना प्रकार के धार्मिक नियम बने, और उनकी उपादेयता के लिए भिन्न—भिन्न प्रकार से उनका महत्त्व दर्शाया गया। तात्पर्य यह कि धीरे—धीरे धर्मों में विविधता पैदा हुई। इस धर्म–विविधता के कारण भिन्न—भिन्न समष्टियों की रचना हुई। उन समष्टियों में काल—क्रम से अपने को सत्यमार्गानुगामी और दूसरों को असत्यमार्गानुगामी ठहराने की कुत्सित ऐकान्तिक भावनायें जाग्रत हुईं। यहीं से दर्शन शास्त्र का कलेवर पुष्ट हुआ, जिसके बल पर लोगों ने स्वपक्ष—पुष्टि और परपक्ष—खण्डन में काल यापन करना प्रारम्भ किया, जिससे विरोधरूपी अन्धकार से लोक व्याप्त हो गया। उसका अन्त करने के लिए स्याद्वादरूपी सूर्य का उदय हुआ।
स्याद्वाद की जैनधर्माङ्गता—स्याद्वाद तत्त्व का विकास उन महापुरुषों की तर्कणा शक्ति का फल है जिन्होंने समय और परिस्थिति के अनुसार निर्मित धार्मिक नियमों के परस्पर समन्वय करने की कोशिश की थी, तथा इसमें उनको आश्चर्यजनक सफलता भी मिली थी। परलोक हित भावना में स्वार्थवासना का समावेश हो जाने से उसकी धारा एक देश में ही रह गई। वे महापुरुष जैन थे, इसलिये कालान्तर में स्याद्वाद जैनधर्म का मूल बन गया, अन्य कई विद्वान स्याद्वाद की विचारधारा और महत्त्व को पूर्णत: समझ नहीं पाये।
इसके विषय में अमृतचन्द्र सूरि ने हिंसा के विषय में स्याद्वाद का जो भावपूर्ण चित्रण किया है वही पर्याप्त होगा। वे कहते हैं
‘‘कोई मनुष्य हिंसा नहीं करके अर्थात् प्राणियों को नहीं मार करके भी हिंसा के फल को पाता है, जबकि दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसा के फल को नहीं पाता। एक मनुष्य को अल्प हिंसा अधिक फल देती है जबकि दूसरे मनुष्य को अधिक हिंसा भी अल्प फल देती है। समान हिंसा करने वाले दो पुरुषों में से एक को वह हिंसा तीव्र फल देती है और दूसरे को वही हिंसा मंद फल देती है। किसी को हिंसा करने के पहिले ही हिंसा का फल मिल जाता है और किसी को िंहसा करने के बाद हिंसा का फल मिलता है। किसी ने हिंसा करना प्रारम्भ किया, लेकिन बाद में बन्द कर दिया तो भी हिंसा करने के भाव हो जाने से हिंसा का फल मिलता है। किसी समय हिंसा एक करता है, उसका फल अनेक भोगते हैं। किसी समय हिंसक अनेक होते हैं और फल एक को भोगना पड़ता है। किसी की हिंसा हिंसा का अल्प फल देती है, किसी की वही हिंसा अहिंसा का अधिक फल देती है। किसी की अहिंसा हिंसा का फल देती है, किसी की हिंसा अहिंसा के फल को देती है।’’
इस प्रकार विविध प्रकार के भङ्गों से दुस्तर िंहसा आदि के स्वरूप को समझाने के लिए स्याद्वाद तत्त्व के वेत्ता ही समर्थ होते हैं।
राजनैतिक दण्ड—व्यवस्था भी इसी आधार पर बनी हुई है जिससे िंहसा आदि के विषय में स्याद्वाद का स्वरूप अच्छी तरह समझ में आ सकता है।
समय—समय पर जैन संस्कृति में बहुत—से परिवर्तन हुए होंगे, परन्तु भगवान् महावीर से लेकर आजतक जितने परिवर्तन हुए वे ऐतिहासिक कहे जा सकते हैं।
जैनों के बाह्याचार पर भगवान् महावीर के बाद से विक्रम की १५वीं—१६वीं शताब्दी तक उत्तरोत्तर अधिक प्रभाव पड़ता गया। इसका कारण यह है कि यद्यपि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध ने प्रचलित क्रियाकाण्ड पर प्रहार किया था, पर इस तरह की भावनायें कुछ लोगों के हृदय में बनी रही थीं जिनके आधार पर पुन: क्रियाकांड की समर्थक संस्कृति का उत्थान हुआ। इधर जैनधर्म और बौद्ध धर्म की बागडोरें ढीली पड़ीं, जिससे क्रियाकांड समर्थक संस्कृति को बढ़ने का अच्छा मौका मिल गया और उसका धीरे—धीरे व्यापक रूप बन गया। यही कारण है कि जैनधर्म उससे अछूता न रह सका।
उस समय क्रियाकाण्ड समर्थक संस्कृति का इतना अधिक प्रभाव था कि सभी लोगों का झुकाव उस तरफ हो गया था। इसलिये जैनाचार्यों को लिखना पड़ा कि—‘जिस लोकाचार से सम्यक्त्व की हानि या व्रत दूषित नहीं होते हैं वह लोकाचार जैनधर्म—बाह्य नहीं कहा जा सकता।’ इस प्रकार उस समय जो जैनधर्म से विमुख हो रहे थे उनकी स्थिरता करते हुए जैनाचार्यों ने जैनधर्म की सत्ता कायम रखी थी जिसका फल यह है कि आज भी भारतवर्ष में जैन लोग विद्यमान हैं।
किसी भी सिद्धांत का साधक है तर्क, स्याद्वाद सहायक है और विश्वास उसका आधार है। इन तीनों का आश्रय लेकर जिन लोगों ने वस्तु—व्यवस्था के सिद्धान्त स्थिर किये थे या जो आज करते हैं उनका ऐसा करना असंगत नहीं कहा जायेगा। बल्कि जिसका हृदय तर्क, स्याद्वाद और विश्वास से व्याप्त होगा उसके द्वारा की गई वस्तु—व्यवस्था आदरणीय समझी जायेगी। जैन सिद्धान्त की सत्यता या उपादेयता इसलिये नहीं है कि वह सर्वज्ञभाषित है, किन्तु इसलिये है कि उसका मूल तर्क, स्याद्वाद और विश्वास है। सर्वज्ञ तो सिद्धान्त की अविरोधता से सिद्ध किया जाता है। हेतु का साध्य उसी हेतु का हेतु नहीं माना जाता।
इसलिये जो लोग पूर्व पुरुषों के किसी भी सिद्धान्त को तर्क, स्याद्वाद और विश्वास के बिना मिथ्या सिद्ध करने की कोशिश करते हैं वे स्वयं भूल करते हैं और जो किसी सिद्धान्त की तर्क, स्याद्वाद और विश्वास के आधार पर परीक्षा करना पाप समझते हैं वे भी भूल करते हैं। दोनों ही स्याद्वाद के रहस्य से अनभिज्ञ हैं।
इसी प्रकार जो आचरण या व्यवहार आज संक्लेशवर्धक, लोकानुपयोगी, लोकनिन्दनीय हों वे भले ही किसी समय शान्तिवर्धक, लोकोपयोगी व लोकप्रशंसित रहे हों, आज उनको मिथ्या या अनुपादेय समझा जायेगा। इससे विपरीत जो आचार या व्यवहार आज शान्तिवर्धक, लोकोपयोगी व लोकप्रशंसित हों वे भले ही किसी समय संक्लशेवर्धक, लोकानुपयोगी व लोकनिन्दनीय रहे हों, आज उनको सत्य या उपादेय ही समझा जायेगा। इसलिये जो लोग परिस्थिति का अध्ययन व्िाâये बिना कर्मकाण्ड समर्थक संस्कृति के अपनाने में तात्कालीन जैनाचार्यों की भूल बतलाते हैं, वे स्वयं भूल करते हैं। और जो आज की परिस्थिति का अध्ययन किये बिना उस जमाने की संस्कृति को आज की संस्कृति बनाना चाहते हैं वे भी भूल करते हैं—दोनों ही स्याद्वाद के रहस्य से अनभिज्ञ हैं। इतना ही नहीं, स्याद्वाद के रहस्य को हम लोग इतना भूल गये कि ‘मुण्डे—मुण्डे मतिर्भिन्ना’ की लोकोक्ति जैनों के अन्दर ही अन्दर चरितार्थ हो रही है। प्रत्येक जैन इच्छानुकूल अपनी समझ के अनुसार अपने आचार व व्यवहार को ही धर्म समझने लगा है। उसके सामने दूसरों के उपदेशों का कुछ महत्त्व नहीं, जब तक कि वे उसकी इच्छा के अनुकूल न हों।
जहाँ जैनधर्म में स्याद्वाद का अधिक से अधिक उपयोग किया गया है वहीं उसके उपयोग में कमी भी रह गई है। स्याद्वाद का उद्देश्य संपूर्ण धर्मों का समन्वय करके मनुष्य समाज में शान्ति स्थापित करना था, लेकिन दूसरी धार्मिक समष्टियाँ स्वार्थवासना की पूर्ति के लिए स्वधर्मप्रेमी होती हुई भी परमधर्म—असहिष्णु व हठग्राही बन गई थीं, इसलिये उस उद्देश्य की पूर्ति में तो स्याद्वादी असफल ही रहे। इसके अतिरिक्त जैनों में भी स्वार्थवासना आने लगी थी जिससे जैन भी स्वधर्मप्रियता के साथ—साथ परधर्मअसहिष्णुता व हठग्राहिता के शिकार हो गये, जिससे धीरे–धीरे स्याद्वादी जैन भी सम्प्रदायवादी बने। स्याद्वाद का महत्त्व एक साम्प्रदायिक पुष्टि से अधिक न रह सका। दूसरों की दृष्टि में जैनधर्म एक सम्प्रदाय समझा जाने लगा। इधर जैनों ने भी पक्षपुष्टि में अपनी शक्ति का उपयोग करना प्रारम्भ किया, जिससे जैनाचार्य जैसा कि ऊपर स्याद्वाद का उपयोग बतला आये हैं उसके अनुसार सम्प्रदाय रूप से ही जैनधर्म को कायम रख सके। उसका परिणाम यह हुआ कि आज जब साम्प्रदायिकता मनुष्य—समाज का रक्त शोषण कर रही है उसमें जैन भी कम भाग नहीं ले रहे हैं। तात्पर्य यह कि स्याद्वादी होकर के भी जैनों ने स्याद्वाद का क्रियात्मक उपयोग करना नहीं सीखा, जिससे स्याद्वाद के द्वारा मनुष्य—समाज का जो कुछ हित हो सकता था वह न तो हुआ और न हो रहा है।
इस भयानक किन्तु विचारशील युग में हमारा कर्त्तव्य है कि अपने जीवन को लोकोपयोगी बनावें। यदि हम अपने जीवन को लोकोपयोगी नहीं बना सकते तो विश्वास रखना चाहिये कि हम परलोक के लिए भी कुछ नहीं कर रहे हैं। स्याद्वाद सिद्धान्त के अधिकारी रहने मात्र से हम स्याद्वाद का असर दूसरों पर नहीं डाल सकते। कार्यों का ही दूसरों पर असर हुआ करता है। हम अपने लोकोपयोगी कर्त्तव्य को स्याद्वाद के द्वारा निर्धारित कर उसी के लिए जीवन समर्पित कर दें; उसके द्वारा हमारे जीवन को शान्ति ही न होगी बल्कि जैनधर्म की लोकोयोगिता मनुष्य समाज में क्रियात्मक चमत्कार दिखला देगी।
जैनेतर दर्शनों में तद्विषयक विद्वानों ने स्याद्वाद को कहाँ तक और किस रूप में अपनाया है—इस बात को बताने के पूर्व ‘स्याद्वाद’ शब्द का लक्षण समझ लेना आवश्यक है। क्योंकि उसी लक्षण के सहारे ही हम अजैन दर्शनों में स्याद्वाद का अन्वेषण कर सकेंगे।
स्याद्वाद का स्वरूप—स्याद्वाद शब्द एकान्त या सर्वथापन का निषेधक और अनेकता का सूचक है। स्याद्वाद का अर्थ होता है—पदार्थ का भिन्न—भिन्न दृष्टियों से (अपेक्षाओं से) परीक्षण कर निर्णय करना। क्योंकि सर्वथा एक ही दृष्टि से पदार्थ का सर्वाङ्ग निर्णय नहीं हो सकता। इसीलिए जैनाचार्यों ने सब से प्रथम ‘सिद्धिरनेकान्तात्’ अर्थात् ‘वस्तु तत्त्व की सिद्धि अनेकान्त स्याद्वाद से ही हो सकती है अन्यथा नहीं’ की घोषणा की।
अनेकान्तवाद, अपेक्षावाद, कथंचित्वाद और स्याद्वाद—ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ ‘कथंचित्—किसी अपेक्षा से’ होता है। संस्कृत भाषा के अनुसार ‘स्यात्’ अव्यय है और अनेकान्त का द्योतक एवं सर्वथापन का निषेधक है। जैसा कि विद्यानन्द स्वामी ने कहा है—
‘‘स्यादिति शब्दोऽनेकान्तद्योती प्रतिपत्तव्यो, न पुनर्विधिविचार प्रश्नादिद्योती तथाविवक्षा पायात्।’’
—अष्टसहस्री
अकलज्र्देव ने भी (अष्टशती में) स्याद्वाद का पर्यायवाचक अनेकान्त का लक्षण इस प्रकार किया है—
‘‘सदसन्नित्यादि सर्वथैकान्त प्रतिक्षेप लक्षणोऽनेकान्त:’’।
पंचास्तिकाय की (गाथा—१५ की) टीका में अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है—
‘‘सर्वथात्वनिषेधकोऽनेकान्तिको द्योतक: कथंचिदर्थे स्याच्छब्दो निपात:’।
स्वामी समन्तभद्राचार्य ने अपने सुप्रसिद्ध ‘देवागम स्तोत्र’ में स्याद्वाद का बहुत सुन्दर लक्षण किया है—
स्याद्वाद: सर्वथैकान्त—त्यागात् किंवृत्तचिद्विधि:।
सप्तभंगनयापेक्षो, हेयादेयविशेषक:।।१०४।।
स्याद्वाद सर्वथा एकान्त का त्याग—निषेध करके कथंचित् अपेक्षा—भेद से वस्तुतत्त्व का निर्णय करता है। और वह ही सप्तभंगी—रूप नयों की अपेक्षा से, स्वभाव और परभाव द्वारा वस्तु में सत्—असत्, नित्य—अनित्य, एक—अनेक और सामान्य—विशेष की व्यवस्था का प्रतिपादन करता है।
स्याद्वाद की उपयोगिता—वस्तु के यथार्थ स्वरूप—निर्णय के लिए स्याद्वाद का उपयोग सर्वप्रथम है। बिना इसके वस्तु का निर्णय नहीं हो सकता। यदि हम किसी वस्तु को उसके किसी एक धर्म की मुख्यता से एक ही रूप मान लें, और उसके शेष समस्त धर्मों का अपलाप कर दें तो संसार का व्यवहार तक नहीं चल सकता; वस्तु का निर्णय तो बहुत दूर की बात है। उदाहरणार्थ—यदि हम किसी मनुष्य को ‘मामा’ कहते हैं, तो क्या वह संसार के सभी मनुष्यों का मामा है ? उत्तर में कहना पड़ेगा कि ‘नहीं’। क्योंकि किसी की अपेक्षा से वह ‘चाचा’ भी है, किसी की अपेक्षा से ‘भाई’ भी है, आदि। इसी प्रकार अखण्ड अनन्त धर्मरूप वस्तु को भी किसी एक धर्म की मुख्यता से उस एकरूप कहना अयुक्त है, अपितु भिन्न—भिन्न अपेक्षाओं से उसे नाना—रूप ही मानना सर्वथा न्यायसंगत है। अब भिन्न—भिन्न दर्शनों के ग्रंथों का अवतरण देकर यह दिखाने का यत्न किया गया है कि भारतीय प्रसिद्ध जैनेतर विद्वानों ने भी ‘स्याद्वाद’ का अपने यहाँ कहाँ तक उपयोग किया है।
नित्य—अनित्य विचार—
जैन दर्शन की दृष्टि से प्रत्येक वस्तु द्रव्य—अपेक्षा नित्य एवं पर्याय—अपेक्षा अनित्य है। पर्याय—उत्पाद और व्यय स्वभाव वाली होती है जो कि वस्तु में अनित्यता सिद्ध करती है, साथ ही उत्पाद—व्यय से वस्तु में हमें उसकी स्थिति का, धु्रवता का भी प्रत्यक्ष अनुभव होता है। यही स्थिरता—धु्रवता वस्तु में नित्य धर्म का अस्तित्व सिद्ध करती है। इस प्रकार संक्षेप में वस्तु उत्पाद, व्यय और धौव्ययुक्त हुआ करती है, जैसा कि आचार्य उमास्वामि ने तत्वार्थसूत्र में कहा है—
‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्’।।५/३०।।
पतञ्जलि महाभाष्य—
महर्षि पतञ्जलि ने महाभाष्य के पशपशाह्निक में जैन दर्शन के उक्त सिद्धान्त का निम्नलिखित शब्दों में कितना अच्छा विवेचन किया है—
द्रव्यं नित्यमाकृतिरनित्या, सुवर्णं कयाचिदाकृत्या युक्तं िंपडो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचका: क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटका: क्रियन्ते, कटकाकृतिमुपमृद्य स्वस्तिका: क्रियन्ते, पुनरावृत्त: स्वर्णपिण्ड: पुनरपरयाऽऽकृत्या युक्त: खदिरांगार सदृशे कुण्डलेभवत:। आकृतिरन्या चान्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते।
मीमांसा श्लोकवार्तिक—
मीमांसा दर्शन के उद्भट विद्वान् कुमारिल भट्ट ने भी पदार्थों के इस उत्पाद—व्यय—ध्रौव्यरूप को स्वीकार किया है, देखिए—
वर्द्धमानकभंगे च, रुचक: क्रियते यदा।
तदा पूर्वार्थिन: शोक:, प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिन:।।२१।।
हेमार्थिनस्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तूभयात्मकम्।
नोत्पादस्थितिभंगानामभावे स्यान्मतित्रयम्।।२२।।
न नाशेन बिना शोको, नोत्पादेन बिना सुखम्।
स्थित्या विना न माध्यस्थ्यं तेन सामान्य नित्यता।।२३।।
कुमारिलभट्ट का उक्त सिद्धान्त जैनदर्शन के तो अनुकूल है ही, साथ ही वह वर्णनशैली में भी स्वामी समन्तभद्राचार्य का कितना अधिक अनुकरण करता है, यह देवागमस्तोत्र के निम्नलिखित श्लोकों से स्पष्ट विदित हो जाता है। पाठकों को इस बात का ध्यान रहे कि कुमारिलभट्ट से स्वामी समन्तभद्र पांच शताब्दी पूर्व हो चुके हैं। इससे निश्चित है कि स्वामी समन्तभद्र के स्याद्वाद का प्रभाव उस समय के सभी दर्शनों पर पड़ा था। अस्तु, वे श्लोक ये हैं—
घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम्।।५९।।
देवागम स्तोत्र
पयोव्रतो न दध्यत्ति, न पयोत्ति दधिव्रत:।
अगोरसव्रतो नोभे, तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम्।।६०।।
गंभीर निरीक्षण से पाठक यह अनुभव किए बिना न रहेंगे कि कुमारिलभट्ट ने स्वामी समन्तभद्र के सूत्रात्मक श्लोकों की व्याख्या रूप ही व्याख्यान किया है।
सत्—असत्—विचार—सम्पूर्ण चेतन और अचेतन पदार्थ स्वरूप से, स्व द्रव्य–क्षेत्र–काल–भाव से सत् हैं और पररूप से, पर द्रव्य–क्षेत्र–काल भाव से असत् स्वरूप हैं। जैसे—घट अपने द्रव्य–पुद्गल मृत्तिका, क्षेत्र—इस स्थान, काल—वर्तमान एवं भाव—लाल—काला आदि की अपेक्षा से तो ‘है’—सत् स्वरूप है, वही घट पर—द्रव्य से–अन्य पटादिक के द्रव्य—क्षेत्र—काल—भाव से—‘नहीं’ है, असत्रूप है। दोनों में से किसी एक रूप मानने से वस्तु या तो सर्वात्मक हो जायेगी, अथवा लोक—व्यवहार का अभाव हो जायेगा। इसलिए वस्तु को दोनों रूप ही मानना आवश्यक है। इसीलिए आचार्य श्री समन्तभद्र ने कहा है कि—
सदेव सर्वं को नेच्छेत्, स्वरूपादिचतुष्टयात्।
असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते।।१५।।
—देवागम स्तोत्र
इस श्लोक का अन्तिम चरण बहुत महत्त्व का है; आचार्य कहते हैं कि यदि उभयात्मक वस्तु न मानोगे तो पदार्थ की व्यवस्था ही नहीं हो सकती है।
वैशेषिक दर्शन—
महर्षि कणाद ने (वैशेषिक दर्शन, ९.१.४—५) अन्योन्याभाव के निरूपण में भी उक्त उभयरूप वस्तु को ही स्वीकार किया है—
‘सच्चासत्। यच्चान्यदसदतस्तदसत्।’
उपस्कार…….. यत्र सदेव घटादि असतिदि व्यवह्नियते, तत्र तादात्म्याभाव: प्रतीयते। भवति हि असन्नश्वो गवात्मना। असन् गौरश्वात्मना, असन् पटो घटात्मना इत्यादि : (पृ. ३१३)
भाष्य—तदेवं रूपान्तरेण सदप्यन्येन रूपेणासद् भवतीत्युक्तम् (पृ. ३१५)
न्याय दर्शन—
गौतम ऋर्षि के न्याय—सूत्रों पर अनेक प्राचीन एवं अर्वाचीन टीकायें उपलब्ध हैं। जिसमें वैदिक वृत्ति में ‘कर्म से उत्पन्न होने वाला फल उत्पत्ति के पूर्व सत् है अथवा असत् ?’ इस प्रश्न के उत्तर में लिखा है कि—
‘उत्पादव्ययदर्शनात्’ —४—१—४९
व्याख्या—प्राङ्निष्पत्ते: सदसदिति चानुवर्तते फल—सम्बन्धात् पूर्ववत् निष्पत्ते: प्राक््â फलं कार्यं, सदसदिति वेदितव्यम्। कुत: ‘उत्पादव्ययदर्शनात्’। तदुत्पत्तिविनाशयोरुपलभ्यमानत्वात्। चेदुत्पत्ते: प्राक््â कार्यमसद्भवेत्—न जातूत्पद्येत असत: शशशृंगादेरुत्पत्त्यदर्शनात्। सच्चेत् न कदाचिद्विनश्चेत्। पुरस्तात् सत: पश्चादपि सत्वनियमेन विनाशसंभवात्। उत्पद्यते विनश्यति च कार्यं, तस्मात् भवति प्रतिपत्तिर्नूनमेतदुत्पत्ते: प्राक््â नासदस्ति, नापि सत्, किन्तु सदसदिति।।४९।। (वैदिकी वृत्ति)
यहाँ कितने उत्तम प्रकार से वृत्तिकार ने सत्—असत् उभयात्मक वस्तु को स्वीकार किया है, जो कि जैन दर्शन के बिल्कुल अनुरूप ही है।
भेद–अभेद विचार—
द्रव्य से पर्याय, गुण से गुणी अथवा धर्म से धर्मी कथंचित् अपने संज्ञा—लक्षण आदि से भिन्न हैं, और आधार आदि की अपेक्षा अभिन्न हैं। यह जैनदर्शन का प्रसिद्ध कथन है। इसी को स्वामी समन्तभद्र ने (आ. मी. में) कहा है—
प्रमाणगोचरौ सन्तौ, भेदोभेदौ न संवृती।
तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया।।३६।।
एक वस्तु में किसी दृष्टि से भेद एवं किसी दृष्टि से अभेद प्रमाणसिद्ध ही हैं, काल्पनिक नहीं। हाँ, इनमें कभी कोई प्रधान, तो दूसरा गौण हो जाता है।
वेदान्तदर्शन—
व्यास—प्रणीत ब्रह्मसूत्रों पर भास्कराचार्य–रचित भाष्य में भेद—अभेद का विचार करते हुए ‘युक्ते: शब्दान्तराच्च’ (२.१.१.८) सूत्र पर लिखा है कि—
अवस्था तद्वतोश्च नात्यन्तभेदो नहि शुक्लपटयोधर्म–धर्मिणोरत्यन्तभेद:, किन्तु एकमेव वस्तु, नहिनिर्गुणं नाम द्रव्यमस्ति, नहि निर्द्रव्यो गुणोऽस्ति, तथोपलब्धे:, उपलब्धिश्च भेदाभेदव्यवस्थायां प्रमाणं, प्रमाणव्यवहारिणाम्। तथा कार्याकारण-योर्भेदाभेदावनुभूयेते, अभेदधर्मश्च भेदो यथा महोदधेरभेद: स एव तरंगाद्यात्मनां वर्तमानो भेद इत्युच्यते। नहि तरंगादय: पाषाणादिषु दृश्यन्ते। तस्यैव ता: शक्तय:, शक्ति–शक्तिमतोश्चयानन्यत्वमन्यत्वं चोपलभ्यते।। (पृ. १०१)
अद्वैतवाद—
अद्वैत जैसे अभिन्नवाद में भी भेदाभेद की चर्चा का स्पष्ट वर्णन देखने में आता है। विद्यारण्य स्वामी अपने ग्रंथ में कार्य–कारण का विचार करते हुए लिखते हैं कि—
स घटो नोमृदो भिन्नो, वियोगे सत्यनीक्षणात्।
नाप्यभिन्न: पुरा पिण्डदशायामनवेक्षणात्।।३५।।
कितने स्पष्ट शब्दों में भेद—अभेद को स्वीकार किया है।
सामान्य—विशेष विचार—
यद्यपि सांख्य, अद्वैतवादी एवं और भी अनेक मत सामान्यरूप ही पदार्थ को स्वीकार करते हैं, और बौद्धादिक विशेषरूप ही पदार्थ को स्वीकार करते हैं, किन्तु अनुभव, तर्क एवं आगम बताता है कि यथार्थ में पदार्थ सामान्य—विशेषात्मक उभयरूप हैं। एकरूप मानने पर दोनों का ही अभाव सिद्ध हो जाता है। इसीलिए आचार्यों ने पदार्थ को सामान्यविशेषात्मक उभयरूप माना है
सामान्यविशेषात्मका तदर्थो विषय:।।४.१।। परीक्षामुख
अर्थात्—सामान्य—विशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय है।
इसी बात का उल्लेख पातञ्जलि भाष्य में भी है। जैसे—
सामान्य—विशेषात्मनोऽर्थस्य।।७।। समाधि पा.
सामान्य—विशेष—समुदायो द्रव्यम्।।४४।। विभू. सू.
कुमारिलभट्ट ने भी सामान्य–विशेषरूप वस्तु को स्वीकार किया है। यथा—
सर्ववस्तुषु बुद्धिश्च, व्यावृत्त्यनुगमात्मिका।
जायते द्वयात्मकत्वं न, बिना साचन सिद्धयति।।५।।
अन्योन्यापेक्षिता नित्यं, स्यात्सामान्य—विशेषयो:।
विशेषाणाञ्चसामान्यं, तेचतस्य भवन्ति हि।।६।।
निर्विशेषं हि सामान्यं भवेच्छश विषाणवत्।
सामान्यरहितत्वाच्च, विशेषास्तद्वदेवहि।।७।।
तदनात्मकरूपेण, हेतू वाच्याविमौ पुन:।
तेन नात्यन्तभेदोपि, स्यात्सामान्य—विशेषयो:।।८।।
—(पृ. ५४६, ४७, ४८)
इन उद्धरणों से यह बिल्कुल स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि जैनदर्शन के स्याद्वाद—मार्तण्ड की प्रखर किरणें सर्व ही दर्शनों में निराबाध रूप से प्रकाशित हो रही हैं।