जगत का प्रत्येक पदार्थ अनेकान्तात्मक अर्थात् अनेक धर्मात्मक है, एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक अर्थक्रिया करने से देवदत्त के समान। जिस समय देवदत्त को मामा कहा जाता है उस ही समय उसे पिता, चाचा, बाबा, नाना और भाई भी कहा जाता है ! ये सब बातें एक-दूसरे से भिन्न हैं। जो मामा से तात्पर्य है वही चाचा आदिक से नहीं। इससे देवदत्त का एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक अर्थक्रिया करना तो नि:सन्देह है। इस ही प्रकार उसका मामा, पिता, बाबा, नाना और पुत्र आदि अनेक धर्मात्माक होना भी शंका रहित है। ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं जो एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक कार्य तो करता हो किन्तु अनेक धर्मात्मक न हो। अत: एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक अर्थक्रियाकारित्व और अनेक धर्मात्मक की व्याप्ति अविनाभाव माननी पड़ती है।
एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक अर्थक्रियाकारित्व जगत के प्रत्येक पदार्थ में मिलता है। ऐसा कोई पदार्थ नहीं, चाहे वह जड़ हो या चेतन, मूर्त हो या अमूर्त, सक्रिय हो या निष्क्रिय, जिसमें एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक अर्थक्रियाकारित्व व क्रिया न हो। अत: कहना चाहिये कि जगत का प्रत्येक पदार्थ एक साथ परस्पर विलक्षण अनेक अर्थक्रियाकारी होने से अनेकान्तात्मक—अनेक धर्मात्मक है।
इन धर्मों को, जिनका समुदायस्वरूप जगत का प्रत्येक पदार्थ है, स्थूलरीति से दो भेदों में विभाजित कर सकते हैं। एक सामान्य और दूसरा विशेष। सामान्य गुण से तात्पर्य उनसे है जो बिना किसी भेदोपभेद के सम्पूर्ण द्रव्यों में पाये जाते हैं। इस ही प्रकार विशेष गुण से तात्पर्य उनसे है जो सब द्रव्यों में नहीं रहते किन्तु खास-खास द्रव्य में रहते हैं।
अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व आदि सामान्य गुण हैं।
जिससे द्रव्य का कभी भी नाश नहीं होता उस शक्ति का नाम अस्तित्वगुण है, जिससे द्रव्य में प्रतिसमय परिणमन होता रहता है उस शक्ति को द्रव्यत्व कहते हैं, जिससे द्रव्य में प्रतिसमय कुछ न कुछ अर्थक्रिया होती रहती है उसको वस्तुत्व कहते हैं, जिससे द्रव्य किसी न किसी प्रमाण का विषय होता रहता है उसको प्रमेयत्व कहते हैं, जिससे द्रव्य में न्यूनता और अधिकता नहीं आती उसको अगुरुलघुत्व कहते हैं, और जिससे द्रव्य का कुछ न कुछ आकार बना रहा है उसको प्रदेशत्व गुण कहते हैं। नाश का न होना, प्रतिसमय कुछ न कुछ अर्थक्रिया करना, प्रतिसमय परिणमनशील रहना, सदा ज्ञेय बने रहना, कम और अधिक न होना और किसी न किसी आकार में रहना—ये ऐसी बातें हैं जो प्रत्येक द्रव्य में पाई जाती हैं, अत: अस्तित्वादिक द्रव्य के सामान्यगुण कहे जाते हैं।
विशेष गुण-इसी प्रकार रूप, रस, गंध और स्पर्श; चेतना, सुख और बल; वर्तनाहेतुत्व, गति—सहकारित्व, स्थिति—सहकारित्व और अवकाशदान आदि गुण भी हैं किन्तु इनमें इतनी विशेषता है कि ये सामान्य गुणों की तरह सब द्रव्यों में नहीं रहते। रूपादिक चार गुण पुद्गल में मिलते हैं, आत्मा आदि में नहीं। इसी प्रकार चेतनादिक गुण आत्मा में। यही बात वर्तनाहेतुत्व आदि के सम्बन्ध में है। इसी दृष्टि से ये विशेष गुण कहलाते हैं।
इन्हीं सब बातों को यदि दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो यों कह सकते हैं कि इन्हीं गुणों का समुदाय द्रव्य है। ये गुण अनेक हैं, अत: इनका समुदायस्वरूप द्रव्य भी अनेकान्तात्मक या अनेकान्त कहा जाता है।
समान गुण समुदायों में समानता लाते हैं और असमानों में असमानता आती हैं। असमान—विशेष—गुणों को छ: भेदों में विभाजित किया गया है; अत: समुदाय भी इतने ही प्रकार के हैं। इन्हीं को द्रव्य के छ: भेद कहते हैं।
इन्हीं गुणों में एक अस्तित्व गुण भी है, इस गुण से द्रव्य का कभी भी नाश नहीं होता, अत: वह नित्य कहलाता है।
अस्तित्वगुण के समान द्रव्य में एक द्रव्यत्व गुण भी है, इस गुण से द्रव्य में प्रति समय परिणमन—तब्दीलियाँ—होती रहती हैं इससे यह अनित्य कहलाता है। ये दोनों ही बातें द्रव्य में ही होती हैं तथा प्रतिसमय होती हैं, अत: समुदाय दृष्टि से द्रव्य नित्य अनित्य है।
गुण–समुदाय में जितने भी गुण हैं वे सब सत् स्वरूप हैं तथा यही बात सम्पूर्ण समुदायों में है, अत: इस दृष्टि से ये सब एक हैं। किन्तु द्रव्यों में कुछ गुण ऐसे भी हैं जिनसे एक द्रव्य दूसरे द्रव्य से भिन्न ही रहता है, अत: इस दृष्टि से ये अनेक हैं, समुदाय—दृष्टि से द्रव्य एक-अनेक है।
इसही प्रकार अपने निजरूप की दृष्टि से प्रत्येक द्रव्य सत् स्वरूप है किन्तु दूसरे पदार्थ का स्वरूप उसमें नहीं रहता अत: वह असत् भी है। समुदाय—दृष्टि से द्रव्य सदा सदसत् स्वरूप है।
इसही प्रकार अन्य धर्म भी घटित कर लेना चाहिये। दृष्टान्त के लिए समझियेगा कि—एक दवाई की गोली है जो पचास औषधियों को कूट–पीट करके तैयार की गई है। इसमें नमक, मिर्च और खटाई आदि वस्तुएँ भी हैं। नमक की दृष्टि से गोली नमकीन है, खटाई की दृष्टि से खट्टी और मिर्च की दृष्टि से चरपरी। यदि इन सब दृष्टियों को भुला दिया जाय और गोली के सम्बन्ध में कहा जाय तो उसको नमकीन, चरपरा और खट्टा सब ही कहना होगा। इस ही प्रकार द्रव्य है, अन्तर केवल इतना है कि यहाँ औषधियों का समुदाय है और द्रव्य में गुणों का। गोली की तरह द्रव्य में भी जब तक एक—एक गुण पर दृष्टि रहती है तब तक वह भी एक रूप ही मालूम होती है और जब इसी को द्रव्य दृष्टि बना दिया जाता है तब वही अनेकधर्मात्मक मालूम पड़ने लगती है।
इन ही सब बातों को सामने रखते हुए किसी—किसी आचार्य ने एक और अनेक, नित्य और अनित्य, सत् और असत् आदि धर्मात्मक को ही अनेकान्तात्मक कहा है। अनेक धर्मात्मक को अनेकान्त कहना या अनेक परस्पर विरोधी धर्मात्मक को अनेकान्त कहना—इसमें अन्तर केवल शब्दों का ही है अर्थ तो दोनों ही दृष्टियों से वही है।
वस्तु–स्वरूप का विवेचन करते समय यदि अनेकान्तात्मकत्व को भुला दिया जाय तो वस्तु—स्वरूप का निर्णय करना ही असम्भव हो जाता है। इसके लिए वैशेषिक दर्शन को ले लीजियेगा। वैशेषिक दर्शन ने द्रव्य और गुण इन दोनों को भिन्न–भिन्न स्वीकार किया है और परस्पर में इनका समवाय सम्बन्ध स्वीकार किया है। गुणों को द्रव्य से यदि सर्वथा भिन्न मान लिया जाता है तो फिर द्रव्य का अस्तित्व ही नहीं रहता। वैशेषिक दर्शनकार कणाद ने जब भी जिस किसी द्रव्य को समझाया या उसका लक्षण किया है वह गुणों के द्वारा ही। आत्मा का लक्षण ज्ञानाधिकरण है। हमने माना कि आत्मा ज्ञान का अधिकरण है किन्तु फिर भी उसका निजरूप क्या है ? पृथ्वी घट का अधिकरण है, किन्तु फिर भी उसका स्वतंत्र अस्तित्व और निजरूप तो है। घट का अधिकरण कहकर ही तो पृथ्वी को नहीं समझया जा सकता। यह तो उसकी तरफ केवल संकेत मात्र कहा जा सकता है।
दूसरी बात यह है कि ऐसी परिस्थिति में गुण—गुणी भाव भी ठीक नहीं बैठता। गुण द्रव्य से भिन्न है और उसका उसके साथ समवाय सम्बन्ध है। यह बात भी वैâसे मानी जा सकती है। जिस प्रकार गुण द्रव्य से भिन्न है उस ही प्रकार समवाय भी तो इन दोनों से भिन्न है फिर भी यह अमुक गुण का अमुक द्रव्य के ही साथ सम्बन्ध करेगा, इसको भी बिना नियामक के वैâसे स्वीकार किया जा सकता है ? वैशेषिक दर्शन की इस मान्यता के सम्बन्ध में इस प्रकार की आपत्तियाँ आज से सैकड़ों वर्ष पूर्व भी उपस्थित की जा चुकी हैं। आचार्य विद्यानन्दि ने भी इस प्रकार की आपत्ति ज्ञान और परमात्मा के सम्बन्ध में उपस्थित की है। वैशेषिक दर्शन के साहित्य में इनका सन्तोषजनक कोई उत्तर नहीं मिलता, यही बात दूसरे दर्शनों के सम्बन्ध में है। इनमें स्पष्ट है कि अनेकान्तात्मकत्व ही वस्तु का स्वरूप है। इसको वस्तुस्वरूप से अलग करना वस्तु–स्वरूप को ही छोड़ देना हैं
स्वामी शंकराचार्य अद्वैतवाद के एक प्रतिष्ठित आचार्य हुए हैं। इन्होंने अपने वेदान्तसूत्र के शंकरभाष्य में अनेकान्त पर आपत्तियाँ उपस्थित की हैं। इनका कहना है कि ‘एक पदार्थ में परस्पर विरोधी दो धर्मों का रहना असम्भव है। यदि ऐसा स्वीकार किया जायेगा तो पदार्थ व्यवस्था संदिग्ध हो जायेगी। जो जिस रूप है वही उससे विपरीत भी है, अत: पदार्थ—स्वरूप का निर्णय ही नहीं हो सकेगा…….। किसी भी पदार्थ में यदि सत् और असत् या नित्य और अनित्य धर्मों का रहना असम्भव होता तो उस ही पदार्थ में इनका प्रतिभास नहीं होना चाहिये था। जिस पदार्थ में हम सत्व को पाते हैं, उस ही में असत्व को भी, इस ही प्रकार नित्य—अनित्यत्व को। दृष्टान्त के लिए घट को ही ले लीजियेगा; यह अपने स्वरूप की दृष्टि से सत् है, यदि ऐसा न होता तो ‘घट है’ ऐसा ज्ञान भी नहीं होना चाहिए था, घट घट है किन्तु पट/कपड़ा नहीं। अत: इसमें कपड़े का अभाव भी स्वीकार करना पड़ता है, और इस ही लिए इसको कपड़े की दृष्टि से सत् और दूसरे के स्वरूप की दृष्टि से असत् स्वीकार नहीं किया जायेगा तो किसी भी विशेष पदार्थ में प्रवृत्ति नहीं हो सकती। जिस प्रकार अपने स्वरूप की दृष्टि से सत्त्व उसी पदार्थ का धर्म है, उस ही प्रकार दूसरे पदार्थ की दृष्टि से असत्त्व भी। यदि ऐसा न होता तो उसमें इन दोनों बातों का व्यवहार भी नहीं हो सकता था; सत्त्व के समान असत्त्व का भी व्यवहार होता है, अत: पदार्थ को उस रूप भी माना जाता है।
पदार्थ को जिस दृष्टि से सत् स्वरूप माना जाता है उसी दृष्टि से यदि असत् स्वरूप माना जाता तब तो शंकराचार्य का कथन ठीक भी हो सकता था, किन्तु ऐसा है नहीं। यहाँ जिस दृष्टि से सत् स्वरूप माना है, उस दृष्टि में वह सत् ही है। इसी प्रकार जिस दृष्टि से असत् है उस दृष्टि से वह असत् ही है। अत: असंभवता की कोई बात ही नहीं रहती। यही बात नित्यानित्यत्व के सम्बन्ध में है। जिस दृष्टि से हम पदार्थ को नित्य स्वीकार करते हैं उससे वह नित्य ही है, इसी प्रकार जिस दृष्टि से पदार्थ को अनित्य माना जाता है, उसमें वह अनित्य ही है। यदि नित्यवाली दृष्टि से अनित्य और अनित्यवाली दृष्टि से नित्य माना जाता तब तो यहाँ असंभवता को स्थान हो सकता था। पदार्थ में सत्व और असत्व की तरह नित्य—अनित्यत्व भी स्पष्ट झलकते हैं। कोई भी पदार्थ किसी भी साधन से नष्ट नहीं किया जा सकता, बड़े-बड़े वैज्ञानिकों ने इसके सम्बन्ध में परीक्षण किये हैं, किन्तु फिर भी वे इस कार्य में असफल ही रहे हैं, अत: पदार्थ की नित्यता तो नि:सन्देह है, किन्तु यह मूल पदार्थ की ही दृष्टि से, न कि उसकी अवस्थाओं की दृष्टि से, अवस्थाओं में तो परिवर्तन होते ही रहते हैं। अत: पदार्थ को द्रव्य की दृष्टि से नित्य और पर्याय की दृष्टि से अनित्य माना जाता है। ये दोनों ही बातें पदार्थ में ही हैं, अत: पदार्थ ही नित्यानित्यात्मक हैं।
इनका कहना है कि—तीन मनुष्य थे, इनमें एक टूटे सोने को चाहता था, दूसरा सोने के घड़े को, और तीसरा सिर्फ सोने को। अपने इच्छित पदार्थ की खोज में ये तीनों ही निकले और एक दरबार में पहुँचे। वहाँ एक सोने का घड़ा रखा हुआ था, किन्तु इन तीनों के पहुँचते ही कुछ ऐसी घटना हुई जिससे वह टूट गया। ज्यों ही घड़ा टूटा, इन तीनों ही व्यक्तियों को तीन प्रकार के विचार हुए। जिसको स्वर्ण–घट की आवश्यकता थी उसको दु:ख हुआ, जो स्वर्ण के टुकड़े चाहता था वह सुखी हुआ, और जो स्वर्ण चाहता था वह न सुखी हुआ और न दु:खी। इन तीनों मनुष्यों के भाव निष्कारण नहीं, अत: उस स्वर्ण—पिण्ड में तीन प्रकार की बात माननी पड़ती है, स्वर्णरूप में नित्यता, घटरूप में नाश और टुकड़े—रूप में उत्पाद। घट का नाश और टुकड़ों का उत्पाद भिन्न–भिन्न बातें नहीं, अत: इन तीनों ही बातों को एक समय में ही मानना पड़ता है। जिस प्रकार यह पदार्थ स्वर्ण–रूप से ध्रुव रहता है, उसी प्रकार संसार के अन्य पदार्थ भी ध्रुव रहते हैं। अत: पदार्थों का नित्यानित्यत्व किसी भी प्रकार असम्भव नहीं माना जा सकता, यही बात दूसरे प्रकार के धर्मों के सम्बन्ध में है।
इनके सम्बन्ध में एक बात यह भी विचारणीय है कि इस प्रकार के धर्मों का अस्तित्व एक पदार्थ में असम्भव क्यों समझा जाए? खर—विषाण के समान तुच्छ स्वरूप होने से या परस्पर में विरोध से ? जहाँ तक पहली बात का सम्बन्ध है, इसको तो स्वामी शंकराचार्य भी नहीं मानते। अत: इनके सम्बन्ध में दूसरी बात ही विचारणीय रह जाती है, परस्पर विरोध के सम्बन्ध में पहली बात तो यह है कि वह इनके सम्बन्ध में घटित नहीं होता, विरोध तो उन पदार्थों में होता है जिनका एक स्थान पर अस्तित्व न रहता हो, इन धर्मों का तो एक स्थान पर अस्तित्व है, अत: यहाँ तो विरोध को गुंजायश नहीं। दूसरी बात यह है कि यदि विरोध माना भी जाय तो वह कौन सा माना जाय ?
एक परस्पर परिहार–स्थिति—लक्षण, दूसरा सहानवस्थान और तीसरा वध्यघातक, इन धर्मों का परस्पर—परिहार–स्थिति लक्षण विरोध मानने से तो इन दोनों का एक जगह अस्तित्व ही सिद्ध होगा, क्योंकि यह आम्रफल में रूप और रस की तरह विद्यमान दो धर्मों का ही होता है, इसमें तो बात केवल इतनी ही है कि एक धर्म दूसरे धर्मरूप नहीं हो जाता, न कि यह कि ये धर्म एक स्थान पर नहीं रहते। अत: इनके मानने से तो कोई लाभ नहीं हो सकता।
वध्यघातक विरोध भी यहाँ घटित नहीं होता, यह तो सर्प और नेवले की तरह निर्बल और सबल का हुआ करता है। प्रस्तुत दोनों धर्मों में इस बात का अभाव है। अत: यहाँ इस विरोध को भी स्थान नहीं। सहानवस्थान विरोध से तात्पर्य एक स्थान पर दो या अधिक के न रहने से है। यदि प्रस्तुत धर्म भी सदसद् नित्यानित्य—एक पदार्थ में न रहते होते तब ही इस बात की आशंका हो सकती थी। इन धर्मों का एक ही पदार्थ में सद्भाव पूर्व ही प्रमाणित किया जा चुका है, अत: इन धर्मों के सम्बन्ध में इस विरोध का भी स्थान नहीं है।
विरोध के अभाव में इस दृष्टि से भी असंभवता की बात उपस्थित नहीं होती है, अत: स्पष्ट है कि अनेकान्त के सम्बन्ध में शंकाराचार्य जी की इस आपत्ति में कुछ भी तथ्य नहीं है।
संशय वहाँ होता है जहाँ दो धर्मों या दो पदार्थों में से किसी एक के भी सम्बन्ध में निश्चित न हो, किन्तु यहाँ इस प्रकार की परिस्थिति नहीं है। यहाँ तो दोनों की बातों का निश्चय है—एक दृष्टि से पदार्थ से सत् का और दूसरी दृष्टि से उसके असत् का, इस ही प्रकार नित्यानित्यत्व का। यहाँ तो इस प्रकार की प्रतीति होती है कि पदार्थ सत् भी है और असत् भी है, किन्तु संशय इससे विपरीत हुआ करता है, संशय में तो इस ढंग की प्रतीति होती है कि पदार्थ सत् है या असत् है। पदार्थ सत् भी है और असत् भी है, और पदार्थ सत् है या असत् इन दोनों प्रतीतियों में महान अन्तर है—पहिली निश्चय रूप है और दूसरी अनिश्चय रूप। अत: अनेकान्त के सम्बन्ध में शंकराचार्य जी की संशयवाली आपत्ति भी मिथ्या है।
स्वामी शंकराचार्य के अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भी इसके सम्बन्ध में आपत्तियाँ उपस्थित की हैं। इन सबकी आपत्तियों को यदि संग्रहरूप से कहें तो यों कहना चाहिये कि अनेकान्त—विरोधी विद्वानों ने इसके सम्बन्ध में निम्नलिखित दूषण उपस्थित किये हैं—(१) संशय, (२) विरोध, (३) व्यतिकर, (४) सज्र्र, (५) वैय्यधिकरण, (६) उभयदोष, (७) अनवस्था और
(८) अभाव।
इनमें से पहले दो के सम्बन्ध में तो प्रकाश डाला जा चुका है।
व्यतिकर से तात्पर्य एक-दूसरे का एक-दूसरे में चला जाना है, कहा भी जाया करता है कि तुम पर मेरी वस्तु चली गई है और मुझ पर तुम्हारी आ गई है। अनेक धर्मात्मक वस्तु के अनेक धर्मों में यदि इस प्रकार का आदान-प्रदान होता, एक धर्म की बातें दूसरे में और दूसरे की उसमें आ जाती होतीं तब तो प्रस्तुत तत्त्व में इस दूषण की सम्भावना की जा सकती थी।
अनेकान्त अनेक धर्मों का समुदाय—स्वरूप है, किन्तु उसके सम्पूर्ण धर्म अपने-अपने रूप में ही रहते हैं, एक-दूसरे में एक-दूसरे का गमन-आगमन नहीं होता, स्वयं गुण को तो निर्गुण माना गया है, अत: प्रकट है कि अनेकान्त के सम्बन्ध में व्यतिकर की बात बिल्कुल मिथ्या है। य्ाही बात शंकर के सम्बन्ध में है, शंकर–दोष की संभावना भी उस ही समय हो सकती थी जबकि सब धर्म एक रूप हो जाते होते, नित्य—अनित्यत्व और सत्—असत् आदि में कोई अन्तर ही न रहता होता।
व्यतिकर की समीक्षा करते हुए स्पष्ट किया जा चुका है कि अनेकान्त का हर एक धर्म अपने रूप में ही रहता है। ऐसी परिस्थिति में यह बात वैâसे मानी जा सकती है कि इन सब धर्मों का एकीकरण भी हो जाया करता है। अत: शंकर की बाधा भी निराधार है। पदार्थ को अनेक धर्मात्मक मानकर भी धर्मों को यदि भिन्न—आधार स्वीकार किया गया होता तब तो यह दूषण आ सकता था। यहाँ तो सब धर्मों का एक ही आधार है, अत: वैय्यधिकरण की बात भी मिथ्या है।
निरपेक्ष सत्त्व को और असत्व को या भेद और अभेद को स्वीकार नहीं किया गया, और न ऐसी प्रतीति ही होती है। अत: निरपेक्ष सत्त्व और असत्त्व के पक्ष में जो दूषण आ सकते थे उनको यहाँ स्थान नहीं है। अत: अनेकान्त के सम्बन्ध में उभय दोष की बात भी मिथ्या है।
जिस दृष्टि से धर्मों में भेद माना जाता है उस ही दृष्टि से यदि अभेद भी माना जाता और इस ही प्रकार अभेदवाली दृष्टि से भेद भी, तब तो कहीं भी रुकावट नहीं आ सकती थी और इस प्रकार अनवस्था दूषण आ सकता था, किन्तु वस्तुस्थिति इससे विपरीत है। यहाँ तो जिस दृष्टि से भेद है उससे भेद ही है, इस ही प्रकार जिससे अभेद है उससे अभेद ही है। यहाँ तो अनवस्था की कल्पना को ही स्थान नहीं है, अत: इसके सम्बन्ध में अनवस्था दूषण की बात भी मिथ्या है।
अनेकान्त के सम्बन्ध में ये सब दूषण घटित हो जाते तब यह बात कही जा सकती थी कि अनेकान्त ठीक नहीं बैठता, अत: इसका अभाव ही मानना चाहिए। किन्तु परिस्थिति बिल्कुल विपरीत है। यहाँ तो एक भी दूषण तथ्यपूर्ण प्रमाणित नहीं हुआ है और इसकी प्रतीति निर्बाधित हो रही है, अत: इसके सम्बन्ध में अभाव की बात भी मिथ्या है। इन सब बातों के बल पर यह नि:सन्देह कहा जा सकता है कि जिसने भी अनेकान्त के खण्डन के लिए प्रयत्न किया है वह ही इसमें असफल रहा है।
वस्तु अनेक धर्मात्मक है, यह तो अब एक स्वयंसिद्ध बात है; इस अनेकात्मक वस्तु का किसी धर्म विशेष की दृष्टि से कथन करना स्याद्वाद है। दृष्टान्त के लिए यों समझियेगा कि एक मनुष्य है जो चाचा, मामा, पिता और भाई आदि है, किन्तु फिर भी उसको किसी खास समय किसी सम्बन्ध विशेष से ही पुकारा जाता है। उसका भानजा ही उसको मामा कह सकता है, या यों कहियेगा कि भानजे के सम्बन्ध से वह मामा है; इसी प्रकार पुत्र के सम्बन्ध से पिता, पिता के सम्बन्ध से पुत्र, और भतीजे के सम्बन्ध से वह चाचा है। यदि किसी समय इसको पिता, चाचा, मामा और भाई इनमें से किसी एक नाम से पुकारा जाता है तो इसका यह तात्पर्य होता है कि उसमें अनेक सम्बन्ध हैं, किन्तु फिर भी उसको अमुक सम्बन्ध की दृष्टि से ही उल्लेख किया जा रहा है। इसी का नाम स्यात् (दृष्टि विशेष से) वाद (कथन करना) स्याद्वाद है। यही बात जगत के सम्पूर्ण पदार्थों में घटित करनी चाहिये। जगत में जब—जब जिस—जिस पदार्थ को खास—खास धर्म की दृष्टि से वर्णन किया जाता है वह सब स्याद्वाद है। सिद्धात्मा को मुक्त, पुद्गल को मूर्त, आत्मा को चेतन, वस्तु को सत् , किसी को छोटा, किसी को बड़ा, किसी को ज्ञानवान, किसी को धनवान, किसी को निर्धन, किसी को जाता, किसी को आता, किसी को रूपवान, किसी को कुरूप आदि जितने भी वर्णन किये जाते हैं ये सब किसी न किसी खास गुण की दृष्टि से हैं। अत: यह सब कथन स्याद्वाद है। दृष्टि विशेष को छोड़ दिया जाय और इस प्रकार के कथनों को एकान्तत: समझ लिया जाय तो फिर वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं हो सकता। सिद्धात्मा ही है, इसी को यदि एकान्तत: मुक्त मान लिया जाय तो फिर इनको ज्ञान से भी युक्त मानना पड़ेगा, और ऐसा करने पर मुक्त और संसारीपने की बात तो दूर रही, वह आत्मा ही न रह सकेगी। अत: इसको किसी दृष्टि विशेष से ही मुक्त मानना पड़ता है। इसी को यदि ज्ञान की दृष्टि से देखा जाय तो यही अमुक है। इसी प्रकार पुद्गल को भी केवल रूपादि की दृष्टि से मूर्त बतलाया जाता है, उसमें अन्य ऐसे भी गुण हैं जो इस प्रकार के नहीं हैं। अत: यदि इसको दूसरी दृष्टि से विवेचन किया जाय तो फिर इसको मूर्त्त नहीं कह सकते। इसी प्रकार शेष बातों के सम्बन्ध में घटित कर लेना चाहिये। इसी दृष्टि विशेष को व्यक्त करने के लिए शब्द के साथ ‘कथंचित्’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। कहीं इस प्रकार के शब्द का प्रयोग नहीं होता, किन्तु फिर भी उससे दृष्टि विशेष को दूर नहीं किया जा सकता। सूक्ष्म रीति से पर्यालोकन से तो प्रत्येक शब्द ही इस ढंग का प्रतीत होता है। जितने भी संज्ञा शब्द हैं वे सब धातुओं से बने हैं, तथा क्रियावाचक शब्द का नाम धातु है। क्रिया गुण में होती है, अत: संज्ञा शब्द भी गुण का ही कथन करेगा। इस दृष्टि से प्रत्येक शब्द ही स्याद्वाद रूप ठहरता है। ऐसी अवस्था में यदि किसी शब्द के साथ कथंचित् शब्द का प्रयोग न किया जाय तब भी यह दृष्टि स्वयं समझ लेना चाहिये।
वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों की दृष्टि से अस्ति, नास्ति, उभय, अनुभय, अस्ति अनुभय, नास्तिअनुभय, और अस्तिनास्ति अनुभय—ये सात धर्म हैं। सिद्धात्मा कर्मों से रहित है, अत: वह मुक्त है। यही सिद्धात्मा ज्ञानादिक गुणों से सहित है अत: अमुक्त भी है। जिस समय मुक्त है, उस ही समय अमुक्त भी है क्योंकि इसकी कर्मरहित अवस्था और ज्ञानसहित अवस्था में समय—भेद नहीं है। यह तो हर समय उभयरूप है।
मुक्त और अमुक्त सिद्धान्त को एक साथ नहीं कह सकते, जब मुक्त कहेंगे तब अमुक्त अंश छूट जाता है और जब अमुक्त कहते हैं, तब मुक्तांश छूट जाता है। ऐसा कोई भी उपाय नहीं जिससे इसको एक साथ उभयरूप कहा जा सके। अत: इस दृष्टि से यह अवक्तव्य है। इसी प्रकार अवक्तव्य के समय अमुक्त और अवक्तव्य भी है। इसकी अवक्तव्य अवस्था में इसको मुक्त और अमुक्त भी रहता है। अत: यह उभय और अनुभय दोनों रूप भी है।
इसी प्रकार नित्य—अनित्य, भिन्न—अभिन्न, एक—अनेक और सत्—असत् आदि में घटित कर लेना चाहिये। इसी प्रकार इनसे अधिक धर्मों का अस्तित्व ठीक नहीं बैठता, अत: वस्तु में किसी भी बात के विधि—प्रतिषेध रूप से इस प्रकार सात ही धर्म माने गये हैं, ये सातों ही बातें किसी न किसी दृष्टि विशेष से ही हैं। अत: इनके वर्णन का नाम भी स्याद्वाद है। ये सात हैं अत: इनके वर्णन के स्याद्वाद भी सात ही हो सकते हैं। इन्हीं सात स्याद्वादों का नाम सप्तभंगी है। यदि इसी को दूसरे शब्दों में कहना चाहें तो यों कह सकते हैं कि इस प्रकार के सप्त स्याद्वाद या सप्तभंगी एक ही बात है। इसके दो भेद हैं—एक प्रमाण सप्तभंगी और दूसरा नय सप्तभंगी, जहाँ एक गुण के द्वारा सम्पूर्ण वस्तु का कथन किया जाता है वहाँ प्रमाण सप्तभंगी होती है; जैसे वस्तु सत् है, वस्तु में अनेक गुण हैं, या यों कहियेगा कि अनेक गुणों का समुदाय ही वस्तु है इन्हीं में से एक गुण सत् भी है। जब सत् गुण के द्वारा उससे अभिन्न देश समस्त समुदाय का कथन किया जाता है और इसके आधार से विधि–प्रतिषेध स्वरूप सप्तभंगी की कल्पना होती है, उस समय यह ‘प्रमाण सप्तभंगी’ कहलाता है।
जिस समय किसी गुण विशेष के द्वारा उस ही गुण का कथन किया जाता है उस समय ‘नय सप्तभंगी’ कहलाती है। जैसे वस्तु में सत् है। यहाँ सत् से तात्पर्य वस्तु से नहीं है, किन्तु वस्तु के एक गुण से है। अत: यह उससे भिन्न है। इसके आधार से जो सप्तभंगी की कल्पना होती है वह नय सप्तभंगी कहलाती है।
इस ही को दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिस सप्तभंग का आधार प्रमाण ज्ञान है वह प्रमाण सप्तभंगी है, और जिसका आधार नय ज्ञान है वह ‘नय सप्तभंगी’ है।
इससे प्रगट है कि स्याद्वाद और सप्तभंगी में अंश और अंशी का सम्बन्ध है। स्याद्वाद अंश है और सप्तभंगी अंशी है। स्याद्वाद और सप्तभंगी ये शब्दरूप हैं अत: वाचक है। अनेकान्त पदार्थ–स्वरूप है, अत: वाच्य है। अत: स्याद्वाद, सप्तभंगी और अनेकान्त में वाच्य—वाचक का सम्बन्ध है।