जात्यन्तर भाव को अनेकान्त कहते हैं अर्थात् अनेक धर्मों या स्वादों के एकरसात्मक मिश्रण से जो जात्यन्तरपना या स्वाद उत्पन्न होता है अथवा जो तत् है वही अतत् है, जो एक है वही अनेक है, जो सत् है वही असत् है, जो नित्य है वही अनित्य है इस प्रकार एक वस्तु में वस्तुत्व की उपजाने वाली परस्पर विरूद्ध दो शक्तियों का प्रकाशित होना अनेकान्त है। जैनधर्म अनेकान्तमय धर्म है। इस अनेकान्त के दो भेद हैं सम्यगनेकान्त व मिथ्या अनेकान्त।
युक्ति व आगम से अविरूद्ध एक ही स्थान पर प्रतिपक्षी अनेक धर्मों के स्वरूप का निरूपण करना सम्यगनेकान्त तथा तत् व अतत् स्वभाव वस्तु से शून्य केवल वचन विलास रूप परिकल्पित अनेक धर्मात्मक मिथ्या अनेकान्त है। वस्तु में एक ही समय अनेकों क्रमवर्ती व अक्रमवर्ती विरोधी धर्मों, गुणों, स्वभावों व पर्यायों के रूप में भली प्रकार प्रतीति के विषय बन रहे है। जो वस्तु किसी एक दृष्टि से नित्य प्रतीत होती है वही अन्य दृष्टि से अनित्य प्रतीत होती है जैसे व्यक्ति वह का वह रहते हुए भी बालक से बूढ़ा और गंवार से श्रावक बन जाता है।