न्याय का अर्थ लोक में रूढ़ या प्रसिद्ध नीतिवाक्य भी होता है। ये नीतिवाक्य दृष्टान्त की तरह विषय को बोधगम्य बनाते हैं। ये अनेकानेक होते हैं, परन्तु इनमें से कतिपय प्रमुख इस प्रकार हैं—
१. अंधचटकन्याय—इसके अर्थ का हिन्दी मुहावरा भी बहुत प्रसिद्ध है—अन्धे के हाथ बटेर लगना। यह ‘घुणाक्षर न्याय’ के समान है।
२. अंधपरंपरान्याय—इसका अर्थ है अंधानुकरण। इसका प्रयोग तब होता है जब लोग बिना विचारे दूसरों का अन्धानुकरण करते हैं और यह नहीं जानते कि इस प्रकार का अनुकरण उन्हें अंधकार में पँâसा देगा।
३. अशोकवनिकान्याय—अशोक वृक्षों के उद्यान का न्याय रावण ने सीता को अशोक वाटिका में रखा था, परन्तु उसने और स्थानों को छोड़कर इसी वाटिका में क्यों रखा—इसका कोई विशेष कारण नहीं बताया जा सकता। सारांश यह हुआ कि जब मनुष्य के पास किसी कार्य को सम्पन्न करने के अनेक साधन प्राप्त हों, तो यह उसकी अपनी इच्छा है कि वह चाहे किसी साधन को अपना ले। ऐसी अवस्था में किसी भी साधन को अपनाने का कोई विशेष कारण नहीं दिया जा सकता।
४. अश्मलोष्ट न्याय—पत्थर और मिट्टी के लौंदे का न्याय। मिट्टी का ढेला रुई की अपेक्षा कठोर है परन्तु वही कठोरता मृदुता में बदल जाती है जब हम उसकी तुलना पत्थर से करते हैं। इसी प्रकार एक व्यक्ति बड़ा महत्त्वपूर्ण समझा जाता है जब उसकी तुलना उसकी अपेक्षा निचले दर्जे के व्यक्तियों से की जाती है, परन्तु यदि उसकी अपेक्षा श्रेष्ठतर व्यक्तियों से तुलना की जाय तो वही महत्त्वपूर्ण व्यक्ति नगण्य बन जाता है। ‘पाषाणेष्टकन्याय’ भी इसी प्रकार प्रयुक्त किया जाता है।
५. कदंबकोरक (गोलक) न्याय—कदंब वृक्ष की कली की न्याय—कदंब वृक्ष की कलियाँ साथ ही खिल जाती है, अत: जहाँ उदय के साथ ही कार्य भी होने लगे, वहाँ इस न्याय का उपयोग करते हैं।
६.काकतालीय न्याय—कौवे और ताड़ के फल का न्याय। एक कौवा एक वृक्ष की शाखा पर जाकर बैठा ही था कि अचानक ऊपर से एक फल गिरा और कौवे के प्राण—पखेरु उड़ गये, अत: जब कभी कोई घटना शुभ हो या अशुभ, अप्रत्याशित रूप से अकस्मात् घटती है, तब इसका उपयोग होता है।
७. काकदंतगवेषण न्याय—कौवे के दाँत ढूँढना। यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है, जब कोई व्यक्ति व्यर्थ अलाभकारी या असंभव कार्य करता है।
८. काकाक्षि गोलक, न्याय—कौवे की आँख के गोलक का न्याय। एक दृष्टि, एकाक्ष आदि शब्दों से यह कल्पना की जाती है कि कौवे की आँख तो एक ही होती है, परन्तु वह आवश्यकता के अनुसार उसे एक गोलक से दूसरे गोलक में ले जा सकता है। इस न्याय का उपयोग उस समय होता है जब वाक्य में किसी शब्द या पदोच्चय का जो केवल एक ही बार प्रयुक्त हुआ है, आवश्यकता होने पर दूसरे स्थान पर भी अध्याहार कर लें।
९. कूपयंत्रघटिका न्याय—रहँट िंटडर न्याय। इसका उपयोग सांसारिक अस्तित्व की विभिन्न अवस्थाओं को प्रकट करने के लिए किया जाता है। जैसे रहँट के चलते समय कुछ िंटडर तो पानी से भरे हुए ऊपर को जाते हैं, कुछ खाली हो रहे हैं, और कुछ बिल्कुल खाली होकर नीचे को जा रहे हैं।
१०. घट्टकुटाप्रभातन्याय—चुंगी घर के निकट पौ फटी का न्याय। कहते हैं कि एक गाड़ीवान चुंगी देना नहीं चाहता था, अत: वह ऊबड़—खाबड़ रास्ते से रात को ही चल दिया परन्तु दुर्भाग्यवश रात भर इधर—उधर घूमता रहा, जब पौ फटी तो देखता क्या है कि वह ठीक चुंगीघर के पास ही खड़ा है, विवश हो उसे चुंगी देनी पड़ी, इसलिए जब कोई किसी कार्य को जानबूझ कर टालना चाहता है, परन्तु अन्त में उसी को करने के लिए विवश होना पड़ता है तो उस समय इस न्याय का प्रयोग होता है।
११. घुणाक्षर न्याय—लकड़ी में घुणकीटों द्वारा निर्मित अक्षर का न्याय। किसी लकड़ी में घुन लग जाने अथवा किसी पुस्तक में दीमक लग जाने से कुछ अक्षरों की आकृति से मिलते—जुलते चिह्न आपने आप बन जाते हैं, अत: जब कोई कार्य अनायास व अकस्मात् हो जाता है तब इस न्याय का प्रयोग किया जाता है।
१२. दण्डाक्षर न्याय—डंडे और पूड़े का न्याय। डंडा और पूड़ा एक ही स्थान पर रखे गये थे। एक व्यक्ति ने कहा कि डंडे को तो चूहे घसीट कर ले गये और खा गये, तो दूसरा व्यक्ति स्वभावत: यह समझ लेता है कि पूड़ा तो खा ही लिया गया होगा, क्योंकि वह उसके पास ही रखा था। इसलिए जब कोई वस्तु दूसरी के साथ विशेष रूप से अत्यन्त संबद्ध होती है और एक वस्तु के संबंध में हम कुछ कहते हैं तो वही बात दूसरी वस्तु के साथ भी अपने आप लागू हो जाती है।
१३. देहलीदीपन्याय—देहली पर स्थापित दीपक का न्याय। जब दीपक को देहली पर रख दिया जाता है तो इसका प्रकाश देहली के दोनों ओर होता है, अत: यह न्याय उस समय प्रयुक्त किया जाता है जब एक ही वस्तु दो स्थानों पर काम आवे।
१४. नृपनापितपुत्र न्याय—राजा और नाई के पुत्र का न्याय। कहते हैं कि एक नाई किसी राजा के यहाँ नौकर था। एक बार राजा ने उसे कहा कि मेरे राज्य में जो लड़का सबसे सुन्दर हो उसे लाओ। नाई बहुत दिनों तक इधर—उधर भटकता रहा परन्तु उसे ऐसा कोई बालक नहीं मिला जैसा राजा चाहता था। अन्त में थककर और निराश होकर वह घर लौटा।
उसे अपना काला कलूटा लड़का ही अत्यन्त सुन्दर लगा वह उसी को लेकर राजा के पास गया। पहले तो उस काले—कलूटे बालक को देख कर राजा को बड़ा क्रोध आया परन्तु यह विचार कर कि मानव मात्र अपनी वस्तु को ही सर्वोत्तम समझता है, उसे छोड़ दिया। सर्व: कांतमात्मीयं पश्यति। हिन्दी में भी कहते हैं—अपनी छाछ को कौन खट्टा बताता है।
१५. पंकप्रक्षालन न्याय—कीचड़ धोकर उतारने का न्याय। कीचड़ लगने पर उसे धो डालने की अपेक्षा यह अधिक अच्छा है कि मनुष्य कीचड़ लगने ही न देवे। इसी प्रकार भयग्रस्त स्थिति में पँâस कर उससे निकलने का प्रयत्न करने की अपेक्षा यह ज्यादा अच्छा है कि उस भयग्रस्त स्थिति में कदम ही न रखें। ‘प्रक्षालनाद्धि पंकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्’ हिन्दी में भी कहते हैं—सौ दवा से एक परहेज अच्छा।
१६. पिष्टपेषण न्याय—पिसे हुए को पीसना। यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई किये हुए कार्य को ही दुबारा करने लगता है, क्योंकि पिसे को पीसना व्यर्थ कार्य है—कृतस्य करणं वृथा।
१७. बीजांकुर न्याय—बीज और अंकुर का न्याय। कार्य—कारण जहाँ अन्योन्याश्रित होते हैं वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है। बीज से अंकुर निकला और फिर अंकुर से ही बीज की उत्पत्ति हुई, अत: न बीज के बिना अंकुर हो सकता है और न अंकुर के बिना बीज।
१८. लोहचुम्बक न्याय—लोहे और चुंबक का आकर्षण न्याय। यह प्रकृतिसिद्ध बात है कि लोहा चुंबक की ओर आकृष्ट होता है, इसी प्रकार प्राकृतिक घनिष्ठ संबंध या निसर्गवृत्ति की बदौलत सभी वस्तुएँ एक दूसरे की ओर आकृष्ट होती हैं।
१९. वह्निधूम न्याय—धुएं से अग्नि का अनुमान। धुएं और अग्नि की अवश्यंभावी सहवर्तिता नैसर्गिक है, अत: जहाँ धुंआ होगा वहाँ आग अवश्य होगी। यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है जहाँ दो पदार्थों में कारण—कार्य या दो व्यक्तियों का अनिवार्य संबंध बताया जाय।
२०. वृद्धकुमारीवाक्य (वर) न्याय—बूढ़ी कुमारी को वरदान का न्याय। इस प्रकार का वरदान माँगना जिसमें वह सभी बातें आ जाय तो एक व्यक्ति चाहता है। महाभाष्य में कथा आती है कि एक बुढ़िया कुमारी को इन्द्र ने कहा कि एक ही वाक्य में जो वरदान चाहो मांगो, तब बुढ़िया बोली—पुत्रा मे बहुक्षीरघृतमोदनं कांचनपायां भुंजीरन् अर्थात् मेरे पुत्र सोने की थाली में घी—दूध—युक्त दूध—भात खायें। इस एक ही वरदान में बुढ़िया ने पति, धन—धान्य, पशु, सोना—चाँदी सब कुछ माँग लिया। अत: जहाँ एक ही प्राप्ति से सब कुछ प्राप्त हो वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है।
२१. शाखाचंद्र न्याय—शाखा पर वर्तमान चन्द्रमा का न्याय। जब किसी को चन्द्रमा का दर्शन कराते हैं तो चन्द्रमा के दूर स्थित होने पर हम यही कहते हैं, देखो सामने वृक्ष की शाखा के ऊपर चाँद दिखाई देता है। अत: यह न्याय उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई वस्तु दूर होकर भी निकटवर्ती किसी पदार्थ से संसक्त होती है।
२२. सिंहावलोकन न्याय- सिंह का पीछे मुड़ कर देखना। यह उस समय प्रयुक्त होता है जब कोई व्यक्ति आगे चलने के साथ–साथ अपने पूर्वकृत कार्य पर भी दृष्टि डालता रहता है। जिस प्रकार िंसह शिकार की तलाश में आगे भी बढ़ता जाता है, परन्त साथ ही पीछे मुड़कर भी देखता रहता है।
२३. सूचीकटाह न्याय—सूई और कड़ाही का न्याय। यह उस समय प्रयुक्त किया जाता है, जब दो बातें एक कठिन और एक अपेक्षाकृत आसान करने को हों, तो उस समय आसान कार्य को पहले किया जाता है, जैसे कि जब किसी व्यक्ति को सुई और कड़ाही दो वस्तुएँ बनानी हैं तो वह सुई को पहले बनावेगा, क्योंकि कड़ाही की अपेक्षा सुई को बनाना आसान या अल्पश्रमसाध्य है।
२४. स्थूणनिखनन न्याय—गड्ढा खोदकर उसमें थूणी जमाना। जब किसी मनुष्य को कोई थूणी अपने घर में लगानी होती है तो मिट्टी कंकड़ आदि बार—बार डाल कर और कूटकर वह उस थूणी को दृढ़ बनाता है, इसी प्रकार वादी भी अपने अभियोग की पुष्टि में नाना प्रकार के तर्क और दृष्टान्त उपस्थित करके अपनी बात का और भी अधिक समर्थन करता है।
२५. स्वामिभृत्य न्याय—स्वामी और सेवक का न्याय। इसका प्रयोग उस समय किया जाता है जब पालक और पाल्य, पोषक और पोष्य के सम्बन्ध को बतलाना होता है या ऐसे ही किन्हीं दो पदार्थों का संबंध बतलाया जाता है।