धर्म और दर्शन भारतीय संस्कृति के मूल बिन्दु हैं, जिनके कारण विश्व में भारत की पहचान आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रभावी है। भारतीय संस्कृति में दो विचारधाराएँ प्रमुख हैं—(१) श्रमण संस्कृति (२) वैदिक संस्कृति। जहाँ श्रमण साधना आत्मा की अपरिमित सत्ता में विश्वास रखती है और मानती है कि जब आत्मा सभी कर्मों से मुक्त हो जाती है तो वह अवस्था मोक्ष की होती है-‘‘सर्व कर्मविप्रमोक्षो मोक्ष:।” आत्मा ही पूर्ण गुणात्मक विकास कर लेने पर परमात्मा बन जाती है जबकि वैदिक संस्कृति प्रत्येक आत्मा को परमात्मा का अंश मानती है। इसकी अवधारणा इन पंक्तियों में देखी जा सकती है—
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलिंह समाना, यहु तथ कथ्यो ग्यानी।।
वैदिक दृष्टि में ईश्वर या परमात्मा जगत् का कर्ता, नियन्ता एवं विनाशक है, जिसकी कल्पना वह ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के रूप में करता है। इसके विपरीत श्रमण संस्कृति अनादिनिधन स्वाभाविक व्यवस्था को अंगीकार करती है जिसमें गुणात्मक विकास सर्वोपरि है।
१. श्रमण संस्कृति के आधारस्तंभ—श्रमण संस्कृति के आधार स्तम्भ पंच अणुव्रत और पंच महाव्रत हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य। इन पंच व्रतों के सम्यक् परिपालन से ही मानव मानवीय आचरण कर सकता है, संसार में रहता हुआ सुखी रह सकता है और संसार से मुक्त भी हो सकता है। यहाँ प्रकृत विषय अपरिग्रह है अत: अपरिग्रह की चर्चा करना ही इष्ट है, प्रयोज्य है।
कहा जाता है कि मनुष्य में संग्रह की प्रवृत्ति स्वभावत: होती है। कर्म भी उसमें कारण होते हैं। यह संग्रह की प्रवृत्ति जब आवश्यकता से अधिक बढ़ने लगती है तो समाज में उथल—पुथल मच जाती है और अभाव की विभीषिका झेल रहे लोग हिंसक क्रान्ति पर उतारू हो जाते हैं। हिंसा, झूठ, चोरी और कुशील रूप पाप भी इसके कारण होते देखे जाते हैं। भगवान् महावीर का अपरिग्रह दर्शन इस दृष्टि से महान् है कि उसने विश्व को अहिंसक/अपरिग्रह संस्कृति दी जिसमें बताया गया कि मनसा, वाचा, कर्मणा अहिंसक बनो और अपनी आवश्यकतानुसार ही सामग्री का संग्रह करो, शेष का बिना किसी के दबाव के स्वैच्छिक रूप से त्याग करो।
जो सजीव एवं निर्जीव वस्तु का स्वयं संग्रह करता है और दूसरों के द्वारा भी ऐसा ही संग्रह करवाता है अथवा अन्य व्यक्ति को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, वह दुःख से मुक्त नहीं होता है। धनलिप्सा (परिग्रह) दुष्कर्मों को जन्म देती है। धन इस लोक और परलोक में शरण देने वाला नहीं है। अंधकार में जैसे दीपक बुझ जाये तो दिखा हुआ मार्ग भी अनदीखा हो जाता है उसी प्रकार पौद्गलिक वस्तुओं (धनादि) के अंधकार में न्यायमार्ग को देखना असंभव हो जाता है। इस स्थिति से बचाव का एक ही मार्ग है और वह है-अपरिग्रह। यह अपरिग्रह जैनधर्म-दर्शन की मौलिक विशेषता है।
‘बृहत् हिन्दी कोश’ (पृ. ६५०) के अनुसार ‘परिग्रह’ शब्द का अर्थ, लेना, ग्रहण करना, चारों ओर से घेरना, आवेष्टित करना, धारण करना, धन आदि का संचय, किसी दी हुई वस्तु को ग्रहण करना, किसी स्त्री को भार्या रूप में ग्रहण करना, पत्नी, स्त्री, पति, घर, परिवार, अनुचर, सेना का पिछला भाग, राहु द्वारा सूर्य या चन्द्रमा का ग्रसा जाना, शपथ, कसम, मूल आधार, विष्णु, जायदाद, स्वीकृति, मंजूरी, दावा, स्वागत सत्कार, आतिथ्य सत्कार करने वाला, आदर, सहायता, दमन, दण्ड, राज्य, सम्बन्ध, योग, संकलन शाप बताया गया है। इसमें एक ओर जहाँ परिग्रह को संचय के अर्थ में लिया है, वहीं शाप के अर्थ में भी रखा है जिससे परिग्रह की शोचनीय दशा प्रकट होती है। जैनाचार्यों की धारणा मे परिग्रह ‘परितो गृह्यति आत्मानमिति परिग्रह:’ अर्थात् जो सब ओर से आत्मा को जकड़े, वह परिग्रह है।
आचार्य उमास्वामी (तत्त्वार्थसूत्र ७/१७) के अनुसार मूर्च्छा परिग्रह है—‘‘मूर्च्छा परिग्रह:।” इस सूत्र की टीका में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने सर्वार्थसिद्धि (७/१७/६९५) में लिखा है कि—‘‘गाय, भैंस, मणि और मोती आदि चेतन, अचेतन बाह्य उपधि का तथा रागादिरूप अभ्यन्तर उपधि का संरक्षण, अर्जन और संस्कार आदि रूप व्यापार ही मूर्च्छा है।” आचार्य श्री पूज्यपाद की ही दृष्टि में ‘‘ममेदंबुद्धिलक्षण: परिग्रह:” (सर्वार्थसिद्धि ६/१५/६३८) अर्थात् यह वस्तु मेरी है; इस प्रकार का संकल्प रखना परिग्रह है। राजवार्तिक (४/२१/३/२३६) के अनुसार ‘‘लोभकषाय के उदय से विषयों के संग को परिग्रह कहते हैं’’। ‘‘ममेदं वस्तु अहमस्य स्वामीत्यात्मात्मीयाभिमान संकल्प परिग्रह इत्युच्यते” (राजवार्तिक ६/१५/३/५२५) अर्थात् यह मेरा है, मैं इसका स्वामी हूँ इस प्रकार का ममत्व-परिणाम परिग्रह है।
‘धवला’ पुस्तक (१२/४,२, ८, ६/२८२/९) के अनुसार—‘‘परिगृह्यत इति परिग्रह: बाह्यार्थ: क्षेत्रादि:, परिगृह्यते अनेनेति च परिग्रह:’ बाह्यार्थग्रहणं हेतुरत्र परिणाम:। परिगृह्यते इति परिग्रह:” अर्थात् जो ग्रहण किया जाता है, इस निरुक्ति के अनुसार क्षेत्रादि रूप बाह्य पदार्थ परिग्रह कहा जाता है तथा ‘परिगृह्यते अनेनेति परिग्रह:’ जिसके द्वारा ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है। इस निरुक्ति के अनुसार यहाँ बाह्य पदार्थ के ग्रहण में कारणभूत परिणाम परिग्रह कहा जाता है।
समयसार आत्मख्याति (२१०) के अनुसार ‘इच्छा परिग्रह’ अर्थात् इच्छा ही परिग्रह है।
१. परिग्रह के भेद—परिग्रह के दो भेद हैं-(१) अभ्यन्तर, (२) बाह्य
इनमें अभ्यन्तर परिग्रह के चौदह भेद हैं—(१) मिथ्यात्व, (२) क्रोध कषाय, (३) मान कषाय, (४) माया कषाय, (५) लोभ कषाय, (६) हास्य नोकषाय, (७) रति नोकषाय, (८) अरति नोकषाय, (९) शोक नोकषाय, (१०) भय नोकषाय, (११) जुगुप्सा नोकषाय,
(१२) स्त्री वेद नोकषाय (१३) पुंवेद नोकषाय, (१४) नपुंसक वेद नोकषाय।
बाह्य परिग्रह के १० भेद हैं—(१) क्षेत्र (खेत), (२) वास्तु (मकान), (३) चाँदी, (४) सोना, (५) धन, (६) धान्य, (७) दासी, (८) दास, (९) वस्त्र, (१०) बर्तन।
२. परिग्रह पाप है—जैनागम में पाँच पाप माने गये हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। इसके अनुसार परिग्रह भी पाप है। परिग्रह बनाम मूर्च्छा पाँचों प्रकार के पापों का मूल स्रोत है। जो परिग्रही है तथा परिग्रह के अर्जन, सम्बर्द्धन एवं संरक्षण के प्रति जो सचेत है, वह हिंसा, झूठ, चोरी व अब्रह्म से बच नहीं सकता। सर्वार्थसिद्धि (७/१७/६९५) के अनुसार-‘‘सब दोष परिग्रहमूलक हैं।’ ‘यह मेरा है’, इस प्रकार के संकल्प के होने पर संरक्षण आदि रूप भाव होते हैं और इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी है। इसके लिए असत्य बोलता है,. चोरी करता है, मैथुन कर्म में प्रवृत्त होता है। नरकादि में जितने दुःख हैं, वे सब इसमें उत्पन्न होते हैं।
आचार्य श्री गुणभद्र की दृष्टि में—सज्जनों की भी सम्पत्ति शुद्ध न्यायोपार्जित धन से नहीं बढ़ती। क्या कभी समुद्र को स्वच्छ जल से परिपूर्ण देखा जाता है—
शुद्धैधनैर्विवर्धन्ते सतामपि न सम्पद:।
न हि स्वच्छाम्बुभि: पूर्णा: कदाचिदपि सिन्धव:।।
आचार्य श्री अमृतचन्द्र स्वामी ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय—११९ में परिग्रह से िंहसा होती है, यह माना है—
हिंसापर्यायत्वासिद्धा हिंसान्तरङ्गेषु।
बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूर्च्छेव हिंसात्वम्।।
अर्थात हिंसा के पर्यायरूप होने के कारण अन्तरंग परिग्रह में िंहसा स्वयं सिद्ध है और बहिरंग परिग्रह में ममत्व परिणाम ही हिंसा भाव को निश्चय से प्राप्त होते हैं।
३. परिग्रह त्याग की प्रेरणा—जैनाचार्यों ने परिग्रह त्याग हेतु इसे अणुव्रत, प्रतिमा एवं महाव्रत के अन्तर्गत रखा है। अणुव्रत एवं प्रतिमा सद्गृहस्थ श्रावक एवं परिग्रह त्याग महाव्रत मुनि धारण करते हैं।
परिग्रह दु:खमूलक होता है। ‘ज्ञानार्णव’ (१६/१२/१७८) में कहा गया है कि—
संगात्कामस्तत: क्रोधस्तस्मािंद्धसा तयाशुभम्।
तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दु:खं वाचामगोचरम्।।
अर्थात् परिग्रह से काम होता है, काम से क्रोध, क्रोध से िंहसा, िंहसा से पाप और पाप से नरकगति होती है। उसे नगकगति में वचनों के अगोचर अति दु:ख होता है। इस प्रकार दु:ख का मूल परिग्रह है।
दु:ख रूप परिग्रह से बचने के लिए जैनाचार्यों ने परिग्रह को परिमाण (सीमित) करने को अणुव्रत के रूप में मान्यता दी है। ‘सर्वार्थसिद्धि’ (७/२०/७०१) के अनुसार—‘‘धनधान्यक्षेत्रादीनामिच्छावशात् कृतपरिच्छेदो गृहीति पञ्चममणुव्रतम्।’’ अर्थात् गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र आदि का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है इसलिए उसके पाँचवां परिग्रह परिमाण अणुव्रत होता है।
‘कार्तिकेयानुप्रेक्षा (गाथा—३३९, ३४०) के अनुसार—
जो लोहं णिहणित्ता संतोस—रसायणेण संतुट्ठो।
णिहणिदि तिण्हादुट्ठा मण्णंतो विणस्सरं सव्वं।।
जो परिमाणं कुव्वदि धण—धण्ण—सुवण्ण—रिक्तमाणि।
उवयोगं जाणित्ता अणुव्वदं पंचमं तस्स।।
अर्थात् जो लोभ कषाय को कम करके, संतोष रूपी रसायन से सन्तुष्ट होता हुआ, सबको विनश्वर जानकर धन, धान्य, सुवर्ण और क्षेत्र वगैरह का परिमाण करता है, उसके पाँचवां (परिग्रह परिमाण) अणुव्रत होता है।
‘रत्नकरण्ड श्रावकाचार’ (श्लोक ६१) में आचार्य समन्तभद्र देव ने कहा है कि—
धनधान्यादिग्रंथं परिमाय ततोऽधिकेषु नि:स्पृहता।
परिमित परिग्रह: स्यादिच्छा परिमाणनामाणि।।
अर्थात् धन—धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह को परिमित अर्थात् परिमाण करके ‘इतना रखेंगे’, उससे अधिक में इच्छा नहीं रखना, सो परिग्रह परिमाण व्रत है तथा यही इच्छा परिमाण वाला व्रत भी कहा जाता है।
इस प्रकार संचित परिग्रह को निरन्तर कम—कम करते जाने का संकल्प तथा संकल्पानुसार कार्य परिग्रह परिमाण कहा जाता है।
१. परिग्रह परिमाण आवश्यक—परिग्रह संचय एक मानवीय मानसिक विकृति है जिसके कारण व्यक्ति जीवन भर दु:ख उठाता है तथा पाँचों पापों के कार्यों में संलग्न होता है। कहा भी है—
कनक—कनक तें सौ गुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय जग, वा पाये बौराय।।
आचार्य श्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र (६/१७) में मनुष्यगति के आस्रव में अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह का भाव प्रमुख माना है-‘‘अल्पारम्भपरिग्रहत्वं मानुषस्य।’’ वहीं बहुत आरंभ और बहुत परिग्रह वाले का भाव नरकायु का आस्रव —‘‘ब्रह्वारम्भ-परिग्रहत्वं नारकस्यायुष:’’ (तत्त्वार्थसूत्र ६/१५)। अब हमें यह विचार करना है कि हम परिग्रह का परिमाण करके मनुष्य बनना चाहते हैं या बहुत अधिक परिग्रह का संचयन करके नकरगति के दु:ख भोगना चाहते हैं ? कबीर ने इसीलिए कहा कि—
पानी बाढ़ै नाव में, घर में बाढ़ै दाम।
दोनों हाथ उलीचिये, यही सयानो काम।।
कुछ लोग धर्म, दान, पूजा आदि के लिए धनादि परिग्रह संचय को उचित मानते हैं किन्तु पैसा बटोरकर दान करना वैसा ही है, जैसा कि कीचड़ लगाकर धोना। संस्कृत में सूक्ति है कि ‘प्रलाक्षनाद्धि पज्र्स्य दूरादस्पर्शनं वरम्’’ अर्थात् कीचड़ लगने पर धोने से अच्छा है कि उसे दूर से ही त्याग दें। उसाr प्रकार परिग्रह संचय कर दान करने की अपेक्षा परिग्रह त्याग ही उचित है। गृहस्थ को तो अपनी आवश्यकता के अनुरूप परिग्रह परिमाण ही करना चाहिए।
२. परिग्रह संचय का दुष्परिणाम—परिग्रह संचय का ही यह दुष्परिणाम है कि एक ओर जहाँ लोग भूख से मर रहे हैं, वहीं दूसरी और धनाढ्य वर्ग गरिष्ठ भोजन करके अपना स्वास्थ्य बिगाड़ रहे हैं। कुछ लोगों के ‘विलासिता के’ साधनों के लिए ‘आवश्यकता की’ वस्तुओं से भी अन्य कई लोग वंचित किये जा रहे हैं। ऐसे में यदि कोई समुचित मार्ग बचता है तो वह परिग्रह परिमाण ही है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है—
तुम्हारे दिल की चुभन भी जरूर कम होगी।
किसी के पाँव से काँटा निकालकर देखो।।
एक बार महात्मा गाँधी से किसी मारवाड़ी सेठ ने पूछा कि—गाँधीजी, आप सबसे टोपी लगाने को कहते हैं, यहाँ तक कि आपके अत्यन्त आग्रह के कारण टोपी के साथ आपका नाम जुड़कर गाँधी टोपी हो गया है, लेकिन आप स्वयं टोपी नहीं लगाते हैं ?
यह प्रश्न सुनकर गाँधीजी ने उनसे पूछा कि आपने यह जो पगड़ी बाँध रखी है, इसमें कितनी टोपियाँ बन सकती हैं ?
मारवाड़ी सेठ ने कहा कि—‘‘बीस’’
तब गाँधी जी ने कहा कि ‘‘जब तुम्हारे जैसा एक आदमी बीस टोपियों का कपड़ा अपने सिर पर बाँध लेता है तो मुझ जैसे उन्नीस आदमियों को नंगे सिर रहना पड़ता है। यह उत्तर सुनकर वह सेठ निरुत्तर हो गये।
वास्तव में परिग्रह परिमाण ही गृहस्थ को सामाजिक बनाता है। परिग्रह की दीवारें हमारे प्रति घृणा एवं विद्वेष को जन्म देती हैं। अली अहमद जलीली का एक शेर है कि—
नफरतों ने हर तरफ से घेर रखा है हमें,
जब ये दीवारें गिरेंगी रास्ता हो जायेगा।।
३. परिग्रह परिमाण हेतु समाजवाद की अवधारणा—परिग्रह परिमाण के लिए समाजवाद की अवधारणा सामने आयी। समाजवाद की अवधारणा अगर अंश है तो परिग्रह परिमाण उस अंश को पाने की दिशा में उठाया गया महत्त्वपूर्ण कदम है जो क्रमश: परिमित होते हुए जब अपरिग्रह की स्थिति में आता है तो पूर्णलक्ष्य बन जाता है। यहाँ अर्थ की अनर्थता की नित्य भावना करने वाला प्राणी, धन को स्व परोपकार का निमित्तमात्र मानता है। सर्वप्रथम अपनी अभिलाषाओं को संतोष में बदलकर वह दानशीलता की ओर उन्मुख होता है। परिग्रह का परिमाण करता है और निरन्तर आत्मविकास करता हुआ परिमाण किये परिग्रह में भी ममत्व छोड़कर पूर्ण अपरिग्रही बन जाता है।
राष्ट्र एवं समाज में शान्ति परिग्रह परिमाण से ही संभव है किन्तु स्वार्थ और संचय की प्रवृत्ति ने समाजवाद को स्थापित ही नहीं होने दिया।
‘शेक्यपियर’ ने लिखा है कि—
Gold is worse pain in the souls of men, doing more murders in this world than any mortal drug.
अर्थात् सोना (स्वर्ण) मनुष्य की आत्मा को अत्यधिक रूप से दु:खी करता है। किसी मरणदायक औषधि की अपेक्षा सोने के कारण संसार में अधिक हत्यायें हुई हैं।
अपने यहाँ कहावत है कि ‘बुभुक्षित: किन्नु करोति पापं’ अर्थात् भूखा मनुष्य क्या पाप नहीं करता ? मुट्ठीभर लोगों के हाथ में पूँजी व अन्य सामग्री संगृहीत होकर जनता को त्रस्त करती है, जिसका परिणाम बड़ा भयंकर होता है।
परिग्रह स्वयं में एक रोग है। यह जिसे लग जाता है, वह दिन रात इसी में लगा रहता है, किन्तु जो निष्परिग्रही होता है, वह कभी बैचेन नहीं रहता। जिसके पास परिमित परिग्रह है, वह चैन से रहता है, चैन से खाता है और चैन से सोता है तथा अणुव्रत रूप में पालन करे तो कर्मों की निर्जरा भी करता है, अत: परिग्रह का परिमाण कर सुखी होना ही इष्ट है, उपादेय है।
कहते हैं कि परिग्रह दु:खों का कारण है। यह अहंकार को जन्म देता है। अहंकार स्वयं में कषाय है और शेष कषायों को भी अपनी ओर आकृष्ट करता है।
भगवान् महावीर का चिन्तन स्पष्ट था। वे हर बुराई को विचार के स्तर पर ही समाप्त करना चाहते थे। इस परिग्रह को ममत्व परिणाम से युक्त एवं जीव को चारों ओर से घेरने वाला बताया गया है अत: इसका परिग्रह नाम सार्थक है।
इन पदार्थों के प्रति ममत्वभाव (मूर्च्छा) ही पाँचों पापों का मूल स्रोत है। बाहरी पदार्थो का होना ही पाप नहीं है बल्कि इनमें जो रागानुभूति, आसक्ति, प्राप्त करने की आकांक्षा, प्राप्त वस्तुओं के निरन्तर संरक्षण या खर्च न हो जाने का भाव भी परिग्रह की कोटि में आता है। जो परिग्रही है और परिग्रह के अर्जन, संवर्द्धन एवं संरक्षण में मन—वचन—काय से संलग्न है, वह िंहसा, झूठ, चोरी व कुशील के पास से बच नहीं सकता इसीलिए जैनाचार्यों ने कहा कि परिग्रह का परिमाण करो। इसे परिग्रह परिमाण अणुव्रत कहा गया। ‘सर्वार्थसिद्धि’ (७/२०/७०१) के अनुसार—‘धनधान्यक्षेत्रादीना—मिच्छावशात् कृत परिच्छेदो गृहीति पञ्चमणुव्रतम्’’ अर्थात् गृहस्थ धन, धान्य और क्षेत्र का स्वेच्छा से परिमाण कर लेता है, इसलिए उसके पाँचवां परिग्रह अणुव्रत होता है।
जब अणुव्रत से महाव्रत की ओर यह जीव बढ़ता है तो परिग्रह परिमाण अणुव्रत से ही काम नहीं चलता बल्कि उसे अपरिग्रह या आकिञ्चन्य धर्म को अपनाना पड़ता है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने बारस अणुवेक्खा (गाथा ७९) में इसे परिभाषित करते हुए कहा है—
होऊण य णिस्संगो णियभावं णिग्गहित्तु सुहदुहदं।
णिद्दंदेण दु वट्टदि अणयारो तस्स िंकचण्हं।।
अर्थात् सर्व प्रकार के परिग्रह से नि:संग होकर तथा सुख—दु:खदायक कर्मजनित निज परिणामों (इष्ट अनिष्ट) का निग्रह करके जो अनगार (मुनि) निर्द्वन्द्वता (समता) पूर्वक प्रवर्तन करता है, उसके आकिञ्चन्य अर्थात् अपरिग्रह धर्म होता है।
आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने समयसार, गाथा ४३ में कहा है कि जब पूर्ण अपरिग्रह की स्थिति होती है, तब यह स्थिति बनती है—
अहमिक्को खलु सुद्धो दंसणणाणमइओ सदा रूवी।
ण वि अत्थि मज्झ किंचि वि अण्णं परमाणु मित्तं पि।।
अर्थात् मैं एक (अकेला) हूँ, आत्मरूप हँ, शुद्ध हूँ, दर्शन—ज्ञानरूप हॅूं। मैं अन्य किसी भी रूप वाला नहीं हूँ, परमाणुमात्र भी मेरा नहीं है।
१. आज भी अपरिग्रह को अपनाया जा सकता है—यह स्थिति तब ही बनती है, जब यह जीव परिग्रह के परिणामों को जान लेता है। आज भी अपरिग्रह को अपनाया जा सकता है क्योंकि परिग्रह के दुष्परिणामों से आज कौन अनभिज्ञ है ? या कौन ऐसा है जो इसके दंश को भोग नहीं रहा है ? धनलोलुपता ने मनुष्य—मनुष्य को बाँट दिया है, कोई पूँजीवादी है तो कोई साम्यवादी, कोई समाजवादी है तो कोई नक्सलाइट्स, कोई विकसित है तो कोई विकासशील, कोई अमीर है तो कोई गरीब। हर व्यक्ति धन से आक्रांत है और भय से भरा हुआ है। कोई आर्थिक सबलता कम न हो जाये इसलिए निर्बलों को दबाये रखना चाहता है, तो कोई धन सम्पन्नों के विरुद्ध निर्धनों, निर्बलों को हिंसक तरीके अपनाने के लिए उकसा रहा है। हिंसक प्रतिस्पर्धा हो रही है। धन के लिये हर कर्म उचित ठहराया जा रहा है चाहे वह कितना ही अनैतिक और घृणित क्यों न हो ? मानव अंगों का व्यापार, वेश्यालयों, जुआघरों का खुलना, पशु माँस व्यापार, मद्य पदार्थों का व्यापार, मानव माँस का विक्रय, चोरी से किडनी आदि को निकाल लेना, आदि दुष्कर्म इसके प्रमाण हैं। समाज तनावग्रस्त है लेकिन बिना कषाय और परिग्रह की लालसा छोड़े इस पर विराम भी नहीं लग सकता। ऐसे में अपरिग्रह को ही यदि सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप में मान्यता प्रदान की जाये, उसे जीवन के हर कार्य में आत्मसात् किया जाये तभी विश्व के क्षितिज पर राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, समता, सहअस्तित्व और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना को विकसित किया जा सकता है।
२. समाजवाद का जन्म—सन् १८२७ में एक विचारधारा का जन्म हुआ जिसे समाजवाद नाम दिया गया, इसका लक्ष्य समाज का हित रखा गया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अनुसार-‘‘समाजवादी समाज एक ऐसा वर्गहीन समाज होगा जिसमें सब श्रमजीवी होंगे। इस समाज में वैयक्तिक समपत्ति के हित के लिए मनुष्य के श्रम का शोषण नहीं होगा। इस समाज की सारी सम्पत्ति सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय अथवा सार्वजनिक सम्पत्ति होगी तथा अनर्जित आय और आय सम्बन्धी भीषण असमानतायें सदैव के लिए समाप्त हो जायेंगी। ऐसे समाज में मानव जीवन तथा उसकी प्रगति योजनाबद्ध होगी और सब लोग सबके हित के लिए जीयेंगे।’’
समाजवाद का लक्ष्य है—व्यक्ति के शोषण को रोकना और बिना किसी भेदभाव के सभी को समान अवसर उपलबध करवाना। इस तरह समाजवाद की अवधारणा सामाजिक परिप्रेक्ष्य के थोड़े निकट बैठती है लेकन जब हम अपरिग्रह के स्वरूप पर दृष्टि डालते हैं तो पाते हैं कि समाजवाद मात्र बाह्य परिग्रह के समान विभाजन पर ही बल देता है, संचय की प्रकृति के विरुद्ध है किन्तु वह मानसिक स्तर पर लोभजन्य विकारों, परिग्रह त्याग की स्वावलंबन सम्बन्धी धारणाओं के विषय में मौन है। यह सिद्ध है कि जब तक आन्तरिक शुचिता नहीं आयेगी तब तक बाह्य विकार भी समाप्त नहीं होंगे अत: समाजवाद को अपरिग्रह की दिशा में बढ़ता हुआ एक कदम तो कह सकते हैं किन्तु पूर्ण नहीं कह सकते।
आज धन संचय की प्रवृत्ति ने समाज और सामाजिकता का बहुत नुकसान किया है। जो धनसम्पन्न हैं, वे समाज पर प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष नियंत्रण चाहते हैं। सबको साथ लेकर या सबका साथ देकर चलने की प्रवृत्ति उनमें कम ही देखी जाती है।
३. समाजवादी विचारधारा—समाजवादी विचारधारा कहती है कि जिसके पास आवश्यकता से अधिक धन—धान्यादि है, उसे अपना वह अतिरिक्त धन—धान्यादि गरीबों, अशक्तों व दीन-दुखियों में बाँट देना चाहिए। ऐसा करने से समाज में विषमता नहीं होगी, धन के लिए की जाने वाली छीना—झपटी, चोरी, डवैâती, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ नहीं पनपेंगी। विभिन्न वर्गों के बीच होने वाला वर्ग संघर्ष समाप्त होगा। समाज में खुशहाली, समानता और सह अस्तित्व की भावना का विकास होगा। हमारा राष्ट्र व विश्व प्रगति के पथ पर अग्रसर होगा। आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज समाजवाद को इस रूप में परिभाषित करते हैं—
अरे कम से कम
शब्दार्थ की ओर तो देखो !
समाज का अर्थ होता है समूह
और
समूह यानी
सम-समीचीन ऊह-विचार है
जो सदाचार की नींव है।
कुल मिलाकर अर्थ यह हुआ कि
प्रचार—प्रसार से दूर
प्रशस्त आचार—विचार वालों का
जीवन ही समाजवाद है
समाजवाद समाजवाद चिल्लाने मात्र से
समाजवादी नहीं बनोगे।
चार प्रकार का पात्रदान बताया गया है—(१) औषधिदान, (२) शास्त्रदान, (२) अभयदान, (४) आहारदान।
दान के लिए सात क्षेत्र बताए गए हैं—
जिनबिम्ब जिनागारं जिनयात्रा प्रतिष्ठितम्।
दान पूजा व सिद्धान्त लेखनं क्षेत्र सप्तकम्।।
अर्थात् जिनबिम्ब की स्थापना, जिनमांfदर का निर्माण, जिनयात्रा (तीर्थयात्रा), पंचकल्याणक प्रतिष्ठा, चार प्रकार का दान, जिनेन्द्र पूजा और जिनवाणी शास्त्र लेखन; ये दान के सात क्षेत्र बताये गये हैं।
परिग्रह परिमाण अणुव्रत इस दिशा में प्रथम कदम है। जो गृहस्थी के परिग्रह की ओर बढ़ते कदमों को सर्वप्रथम रोकता है और अपरिग्रह महाव्रत अंतिम कदम है, जिसमें व्यक्ति स्वाधीन होता है।
अपरिग्रह के मूल में सर्वोदय की भावना अन्तर्निहित है। सर्वोदयी सबका भला चाहता है। इस विषय में बिनोवा भावे ने लोकनीति, पृ. २१ पर लिखा है कि—
दुर्भाग्य से वह परिस्थितियाँ आज तक नहीं बन सकीं। आज तो अर्थ की ही दुनिया है, जिसमें अर्थ सर्वोपरि है। इसमें बदलाव संभव दिखायी दे रहा है क्योंकि कोई भी दण्डात्मक व्यवस्था इसे बदल नहीं सकती। हमें इसके लिए मानसिक एवं वैचारिक परिवर्तन के स्तर पर प्रयास करना होगा। भगवान् महावीर ने यही किया था, वे दण्ड के पक्षधर नहीं थे बल्कि मन—वचन-काय पर स्वत: नियंत्रण के पक्षधर थे। इसी से सबका भला हो सकता है।
हमारी जैन परम्परा सबका हित, सबका उत्कर्ष और सबकी सुरक्षा चाहती है इसीलिए जैन श्रावक प्रतिदिन भावना भाता है कि
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान्धार्मिको भूमिपाल:।
काले काले च सम्यग्वर्षतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम्।
दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मा स्म भूज्जीवलोके,
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्व सौख्य प्रदायि।।
अर्थात् सब प्रजा का कल्याण हो। राजा बलवान और धार्मिक हो। मेघ समय—समय पर अच्छी वृष्टि करें। सब रोगों का नाश हो। जगत् में प्राणियों को दुर्भिक्ष, चोरों का उपद्रव तथा मारी (प्लेग) क्षण भर के लिए भी न हो और सब सुखों का देने वाला जैनधर्म सदा पैâला रहे।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समाज एवं राष्ट्र में समरसता एवं सहअस्तित्व के लिए राजनैतिक विचारधारा के रूप में समाजवाद आवश्यक है, वहीं समाजवाद की सफलता तभी संभव है जबकि जैन धर्मानुसार लोग परिग्रह परिमाणव्रत को स्वीकार करें। बिना परिग्रहपरिमाणव्रत के लोक एवं आत्मकल्याण असंभव है।