जैसे हाथी को वश में रखने के लिए अंकुश होता है और नगर की रक्षा के लिए खाई होती है, वैसे ही इन्द्रिय—निवारण के लिए परिग्रह का त्याग (कहा गया) है। असंगत्व (परिग्रह—त्याग) से इन्द्रियां वश में होती है।
जो साधक सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग कर नि:संग हो जाता है, अपने सुखद व दु:खद भावों का निग्रह करके निद्र्वंद्व विचरता है, उसे आिंकचन्य धर्म होता है, अर्थात् वह नितान्त अपरिग्रह—वृत्ति वाला होता है।