शेष विज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। शेष-प्रत्यक्ष प्रमाण के स्वरूप से भिन्न अविशद स्वभाव वाला ज्ञान परोक्ष प्रमाण कहलाता है। उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम ऐसे पाँच भेद हैं। यह परोक्ष ज्ञान पर कारणों की अपेक्षा से प्रवृत्त होता है। स्मृति आदि में प्रत्यक्ष आदि निमित्त माने गये हैं अर्थात् स्मृति ज्ञान पूर्व में अनुभव किये गये प्रत्यक्ष की अपेक्षा रखता है। प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष और स्मृति दोनों की अपेक्षा करता है इत्यादिरूप से पर की अपेक्षा रखने से ही ये ज्ञान परोक्ष कहलाते हैं।
(ग्रंथ में संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन ये चार चीजें होना आवश्यक हैं। इसलिए इन्हीं चारों का स्पष्टीकरण करते हैं-)
‘प्रमाणे’ इस कथन से इस शास्त्र को अभिधेय वाला सूचित किया है अर्थात् इस ग्रंथ के अभिधेय-वाच्य विषय को बतलाया है। ‘प्रमाण’ इस कथन से इस ग्रंथ प्रमाण, नय और निक्षेपों का कथन है क्योंकि इनसे शून्य ग्रंथ आदरणीय नहीं हो सकते हैं, जैसे कि ‘बंध्या का पुत्र जाता है’ इत्यादि को कहने वाले शास्त्र आदरणीय नहीं हैं।
वाच्य वाचक भावलक्षण संबंध तो सुघटित ही है क्योंकि शास्त्र और उसका वाच्य प्रमाण इन दोनों के संबंध का सद्भाव है अन्यथा दश अनार, छह पुये इत्यादि वाक्य के समान यह ग्रंथ अप्रयोजक ही रहेगा अर्थात् किसी ने बिना किसी संबंध के दश अनार, छह पुये आदि यद्वा-तद्वा वाक्य कहा तो उसका वह कथन संबंध रहित होने से अप्रयोजनीभूत है।
शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन तो प्रमाण आदि के विषय में अज्ञान की निवृत्ति लक्षण साक्षात् फल देखा ही जाता है, शास्त्र के अध्ययन के अनंतर ही (उस विषयक) अज्ञान का अभाव हो जाता है। परम्परा से हान, उपादानादिरूप फल होता है क्योंकि प्रवचन-शास्त्र हित की प्राप्ति और अहित का परिहार कराने में समर्थ होता है। जो शास्त्र निष्प्रयोजन होते हैं वे प्रवृत्ति के कारण नहीं होते हैं। जैसे कौवे के दांत की परीक्षा करना निष्प्रयोजन ही है।
इसलिए ‘प्रत्यक्षं विशदं’ इत्यादि रूप से जो कथन किया गया है वह ठीक ही है।
भावार्थ-इस ग्रंथ के उद्देश्य को बतलाते हुए आचार्य ने यहाँ पर सबसे प्रथम शिष्यों के भेद बतलाये हैं। पुन: इस ग्रंथ में प्रमाण का वर्णन है, ऐसा संकेत करते हुए यह बताया है कि शास्त्र की प्रवृत्ति उद्देश्य, लक्षण और परीक्षा इन तीन प्रकार होती है। पुन: प्रमाण का लक्षण करके अन्य मतावलंबियों द्वारा मान्य प्रमाण के लक्षण का निराकरण किया है। प्रमाण के भेदों के विसंवाद को दूर करके दो भेद सिद्ध किये हैं एवं उन्हीं में सभी प्रमाणों के अंतभूर्त होने का संंकेत किया है। अनंतर यह बात भी स्पष्ट की है कि ग्रंथ में संबंध, अभिधेय, शक्यानुष्ठान और इष्टप्रयोजन ये चार चीजें अवश्य होनी चाहिए अन्यथा उसका आदर नहीं होता है।
इनको बतलाते हुए यह स्पष्ट किया है कि इसको अध्ययन करने के अनंतर ही उस विषय का ज्ञान होने से अज्ञान का अभाव हो जाता है यह साक्षात् फलरूप इष्ट प्रयोजन है और परम्परा से त्याग करने योग्य को छोड़ना, ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना इन दोनों से रहित में अपेक्षा करना यह फल है, इसलिए यह प्रमाणभूत है।
उत्थानिका-आपने ‘प्रत्यक्ष का लक्षण विशद है’ ऐसा कहा है, वह ज्ञान की विशदता वैâसी है ? ऐसी आशंका होने पर आचार्य कहते हैं-
अन्वयार्थ-(अनुमानाद्यतिरेकेण) अनुमान आदि के बिना (विशेष प्रतिभासनं) जो विशेष प्रतिभास होता है (तद् बुद्धे: वैशद्यं मतं) वह ज्ञान की विशदता है (अत: परं अवैशद्यं) इससे भिन्न अविशदता है।।४।।
अर्थ-अनुमान आदि के बिना जो विशेष प्रतिभास होता है, वह ज्ञान की विशदता है, इससे भिन्न अविशदता है।।४।।
तात्पर्यवृत्ति-अनुमान, आगम आदि के बिना जो वस्तु के विशेष-वर्ण संस्थान आदि आकारों का प्रतिभासन-जानना होता है अथवा जो भिन्न प्रतीति के व्यवधान के बिना जानना होता है, वह विशेष प्रतिभासन कहलाता है और वही ज्ञान की विशदता-निर्मलता है। विशद के भाव को विशदता या वैशद्य कहते हैं। यहाँ पर वही स्याद्वादियों को इष्ट है।
अनुमान आदि में साधारण ऐसा विशेष प्रतिभासन प्रत्यक्ष में प्रतीत नहीं होता है कि जिससे उन अनुमान आदि ज्ञानों में भी विशदता हो सके इसलिए उपर्युक्त लक्षण वाली विशदता से अन्य व्यवहित (तिरोहित) प्रतिभासन-ज्ञान अविशद कहलाते हैं। वह अविशदता-अस्पष्टता अनुमान आदि सभी परोक्ष ज्ञान के भेदों में व्यवस्थित है। इस प्रकार से बाह्य अर्थ की अपेक्षा से ही ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता होती है, ऐसा श्री भट्टाकलंकदेव ने कहा है। स्वरूप की अपेक्षा से तो सभी ज्ञान विशद ही हैं क्योंकि स्वसंवेदन-स्व को जानने में किसी भी ज्ञान में भिन्न ज्ञान का व्यवधान नहीं आता है।
उन ज्ञान की प्रमाणता और अप्रमाणता भी बाह्य अर्थ की अपेक्षा से ही है न कि स्वरूप की अपेक्षा से। अपने स्वरूप का अनुभव करने में सभी ज्ञान में अप्रमाणता का अभाव है।
भाव-अपने स्वरूप के प्रमेय की अपेक्षा होने पर प्रमाणाभास का अभाव है तथा बाह्य प्रमेय की अपेक्षा में प्रमाण और प्रमाणाभास दोनों होते हैं, ऐसा श्री समंतभद्रस्वामी ने कहा है।
भावार्थ-यहाँ खास बात यह समझने की है कि बाह्य पदार्थों की अपेक्षा से ही ज्ञान में स्पष्टता-अस्पष्टता होती है, अपने स्वरूप को जानने में नहीं। अपने स्वरूप के जानने में सभी ज्ञान स्पष्ट ही हैं तथा दूसरी बात यह है कि ज्ञान का जब अपना स्वरूप ही प्रमेय-विषय है तब उसमें प्रमाणाभ्ाास नहीं होता है क्योंकि यदि संशय ज्ञान अपने स्वरूप में विपरीत है तो वह असंशय रूप हो जावेगा। इसी प्रकार से चाहे समीचीन ज्ञान हो चाहे मिथ्या, अपने-अपने स्वरूप से सभी उसी रूप होने से समीचीन ही हैं किन्तु बाह्य पदार्थों को प्रमेय-विषय करने की अपेक्षा से ज्ञान में प्रमाण और प्रमाणाभास ये दो विकल्प हो जाते हैं। जो ज्ञान बाह्य पदार्थों को बाधारहित या संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय से रहित ग्रहण करते हैं वे समीचीन कहलाते हैं और जो ज्ञान पदार्थों को बाधा सहित संशय आदि सहित ग्रहण करते हैं वे प्रमाणाभास कहे जाते हैं। इस बात को यहाँ बतलाया है।
उत्थानिका-अब सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष के कारण और भेद का निर्णय करने के लिए आचार्य कहते हैं-
अन्वयार्थ-(अक्षार्थयोगे) इंद्रिय और पदार्थ का योग होने पर सत्तामात्र का आलोक दर्शन है (अर्थाकारविकल्पधी:) पुन: अर्थ के आकार के विकल्प वाला ज्ञान (अवग्रह) है (अवग्रहे विशेषाकांक्षा ईहा) अवग्रह के विषय में विशेष आकांक्षा का होना ईहा है (विनिश्चय:) विशेष का निश्चय (अवाय:) अवाय है (स्मृति हेतु: धारणा) स्मृति का हेतु धारणा है (तत् मतिज्ञानं चतुर्विधं) वह मतिज्ञान चार प्रकार का है।।५।। (१/२)
अर्थ-इन्द्रिय और पदार्थ का योग होने पर सत्ता मात्र का आलोक दर्शन है पुन: अर्थ के आकार के विकल्प वाला ज्ञान है। अवग्रह के विषय में विशेष आकांक्षा का होना ईहा है, विशेष का निश्चय अवाय है, स्मृति का हेतु धारणा है, वह मतिज्ञान चार प्रकार का है।।५।। (१/२)
तात्पर्यवृत्ति-सूत्र उपस्कार सहित होते हैं। इस नियम से यहाँ उत्पद्यते-उत्पन्न होता है; इस क्रिया का अध्याहार होता है अर्थात् सत्तालोक-दर्शन उत्पन्न होता है ऐसा संबंध है। सत्ता-संपूर्ण पदार्थों में साधारण रूप से रहने वाले, ऐसे सत्त्वसामान्य-अस्तित्व सामान्य को, आलोक-निर्विकल्प ग्रहण करना दर्शन कहलाता है। सामान्य ग्रहण को दर्शन कहते हैं, ऐसा आगम में कथित है।
प्रश्न-यहाँ मतिज्ञान के प्रकरण में दर्शन अप्रकृत है अर्थात् यहाँ दर्शन का कोई प्रकरण नहीं है पुन: इसका वर्णन क्यों किया ?
उत्तर-ऐसा नहीं कहना। ज्ञान से पूर्व के परिणाम को बतलाने के लिए यहाँ उसका ग्रहण किया गया है क्योंकि छद्मस्थ जीवों को दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, ऐसा आगम वचन है।
प्रश्न-सिद्धान्त में स्वरूप के ग्रहण करने को दर्शन कहा है पुन: यहाँ सत्तामात्र ग्रहण को दर्शन कहा है। इस कथन के सिद्धान्त से विरोध क्यों नहीं आता है ?
उत्तर-विरोध नहीं आता है क्योंकि अभिप्राय में भेद है। पर के विसंवाद को दूर करने के लिए ही न्यायशास्त्र होते हैं। इन न्यायशास्त्रों से पर के द्वारा स्वीकृत निर्विकल्प दर्शन ही प्रमाणता का खंडन करने के लिए स्याद्वादियों ने सामान्यग्रहण (सत्तामात्र ग्रहण) को दर्शन कहा है। स्वरूप ग्रहण की अवस्था में छद्मस्थजीवों को बाह्यपदार्थ विशेष के ग्रहण का अभाव है और प्रमाणता का विचार तो बाह्यपदार्थ की अपेक्षा से ही किया गया है क्योंकि वह व्यवहार में उपयोगी है। देखो! व्यवहारी लोग स्वरूप के प्रकाशन के लिए प्रदीप का अन्वेषण नहीं करते हैं इसलिए दर्शन बाह्य पदार्थ विशेष के व्यवहार के लिए अनुपयोगी है। उसमें तो ज्ञान ही प्रमाण है क्योंकि वही बाह्य पदार्थ विशेष के व्यवहार में उपयोगी है तथा वह विकल्पात्मक है।
परमार्थ से तो स्वरूप का ग्रहण करना ही दर्शन है क्योंकि केवली जीवों से दर्शन और ज्ञान इन दोनों की युगपत् प्रवृत्ति होती है अन्यथा ज्ञान के सामान्य विशेषात्मक वस्तु को विषय करने के अभाव का प्रसंग आ जावेगा अर्थात् सामान्य विशेषात्मक वस्तु ही प्रमाण का विषय है और यदि ज्ञान को वस्तु के विशेष अंश को विषय करने वाला ही मानेंगे तो फिर सामान्य विशेषात्मक वस्तु प्रमाण का विषय नहीं हो सकेगी।
भावार्थ-सभी पदार्थों में सामान्य और विशेष ऐसे दो धर्म पाये जाते हैं। जैसे-वृक्षों में वृक्षत्व यह सामान्य धर्म है और सभी वृक्षों में पाया जाता है। नीम, आम, जामुन आदि विशेष धर्म है। कोई न कोई विशेष धर्म भी सभी वृक्षों में मौजूद ही है। दर्शन का लक्षण है सामान्य अस्तित्व मात्र को ग्रहण करना और ज्ञान का लक्षण है वस्तु के विशेष आकारादि को ग्रहण करना किन्तु सिद्धान्त ग्रंथों में दर्शन का लक्षण है स्वरूप को ग्रहण करना और ज्ञान का लक्षण है बाह्य पदार्थों को ग्रहण करना। ज्ञान प्रमाण है। प्रमाण का विषय है सामान्य विशेषात्मक वस्तु।यहाँ पर आचार्य ने सत्तामात्र ग्राहक दर्शन को माना है तब शंकाकार ने शंका की है कि आपके इस कथन से सिद्धांत में विरोध आता है। इस शंका का समाधान करते हुए आचार्य ने कहा कि न्यायग्रंथ पर के द्वारा माने गये विपरीत प्रकरणों को निराकरण करने वाले होते हैं। बौद्ध ने ज्ञान को निर्विकल्प माना है, उसकी मान्यता का खंडन करने के लिए न्याय ग्रंथों में दर्शन को स्वरूप को ग्रहण करने वाला कहा है। यह भी बताया है कि वह बाह्य पदार्थों को ग्रहण नहीं करता है, इसलिए वह व्यवहार में उपयोगी नहीं है और ज्ञान प्रमाण है। वही बाह्य वस्तु के व्यवहार में उपयोगी है। पुन: यह भी स्पष्ट कह दिया है कि दर्शन के विषय में जो सिद्धांत की मान्यता है, वही वास्तविक है।