स्व और पर के अनुग्रह के लिए अपना धन आदि वस्तु का देना दान कहलाता है। अर्थात् गृहत्यागी, तपस्वी, चारित्रादिद गुणों के भण्डार ऐसे त्यागियों को अपनी शक्ति के अनुसार शुद्ध आहार, औषधि आदि देना दान है। घर के आरम्भ से जो पाप उत्पन्न होते हैं गृहत्यागी साधुओं को आहारदान आदि देने से वे पाप नष्ट हो जाते हैं जैसे रूधिर से गन्दे वस्त्र को धो डालता है उत्तम आदि पात्रों में दिया गया वह दान बड़ के बीज के समान अनंतगुण होकर फलता है उस दान के आहार, औषधि, शास्त्र एवं अभय यह चार दान हैं जिसमें अभयदान का अर्थ है उत्तम आदि पात्रों को धर्मानुकूल वसतिका में ठहराना अथवा नई वसतिका बनवाकर साधुओं के लिए सुविधा कराना।
इस दान के प्रभाव से प्राणी निर्भय होकर मोक्षमार्ग के विघ्नों को दूर करके निर्भय मोक्षपद प्राप्त कर लेते हैं